Tuesday, May 31, 2011

BHAKTAMBAR STOTRA-TRANSLATION IN HINDI AND ENGLISH WIH SHLOK AND OTHER RELEVANT INFORMATION

Bhaktamar Stotra is Sanskrit Language Based Jainism's Most Famous Devotional  Prayer and Psalm & Incredible Poem Composition of Acharya Manatuna ji - A  Most Beautiful & Precious Meaningful has infinite energy. This is Also One of the Single  Prayer Accepted by All Sects equally..

   

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* भक्तामर स्तोत्र के पढने का कोई एक निश्चित नियम नहीं है, भक्तामर को किसी भी समय प्रातः, दोपहर, सायंकाल या रात में कभी भी पढ़ा जा सकता है, कोई समय सीमा निश्चित नहीं है, क्योकि ये सिर्फ भक्ति प्रधान स्तोत्र है जिसमे भगवन की स्तुति है !!


    * भक्तामर स्तोत्र का प्रसिद्ध तथा सर्वसिद्धिदायक महामंत्र-   ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्हं श्री वृषभनाथतीर्थंकराय्‌ नमः


    Q.1: भक्तामर स्तोत्र की रचना किसने की थी, इस स्तोत्र का दूसरा नाम क्या है, इस स्तोत्र का नाम "भक्तामर" क्यों पड़ा?, यह कौन सी भाषा में लिखा गया है तथाये कौनसे छंद में लिखा गया है?
    A.1: भक्तामर स्तोत्र के रचना मानतुंग आचार्य जी ने की थी, इस स्तोत्र का दूसरा नाम आदिनाथ स्रोत्र भी है, यह संस्कृत में लिखा गया है, प्रथम अक्षर भक्तामर होने के कारण ही इस स्तोत्र का नाम भक्तामर स्तोत्र पढ़ गया, ये वसंत-तिलका छंद में लिखा गया है! हम लोग भक्ताम्बर बोलते है जबकि ये भक्तामर है !

    Q.2: भक्तामर स्तोत्र में कितने शलोक है तथा हर शलोक में कौन सी शक्ति निहित है, ऐसे कौन से 4 अक्षर है जो की 48 के 48 काव्यो में पाए जाते है?
    A.2: भक्तामर स्तोत्र में 48 शलोक है , हर शलोक में मंत्र शक्ति निहित है, इसके 48 के 48 शलोको में “म“ “न“ “त“ “र“ यह चार अक्षर पाए जाते है!

    Q.3: भक्तामर स्तोत्र की रचना कौन से काल में हुई? 11वी शताब्दी में राजा भोज के काल में या 7वी शताब्दी में राजा हर्षवर्धन के काल में ?
    A.3: वैसे तो जो इस स्तोत्र के बारे में सामान्य ये है की आचार्य मानतुंग को जब राजा हर्षवर्धन ने जेल में बंद करवा दिया था तब उन्होंने भक्तामर स्तोत्र की रचना की तथा 48 शलोको पर 48 ताले टूट गए! अब आते है इसके बारे में दुसरे तथा ज्यादा रोचक तथा पर,जिसके अनुसार आचार्य मान तुंग जी ने जेल में रहकर में ताले तोड़ने के लिए नहीं अपितु सामान्य स्तुति की है भगवन आदिनाथ की तथा अभी 10 प्रसिद्ध विद्वानों ने ये सिद्ध भी किया प्रमाण देकर की आचार्य श्री जी राजा हर्षवर्धन के काल ११वी शताब्दी में न होकर वरन 7वी शताब्दी में राजा भोज के काल में हुए है तो इस तथा अनुसार तो आचार्य श्री 400 वर्ष पूर्व होचुके है राजा हर्षवर्धन के समय से !

    Q.4: भक्तामर स्तोत्र का अब तक लगभग कितनी बार पदानुवाद हो चुका है!, इतनी ज्यादा बार इस स्तोत्र का अनुवाद क्यों हुआ तथा यह इतना प्रसिद्ध क्यों हुआ जबकि संसार में और भी स्तोत्र है ?
    A.4: भक्तामर स्तोत्र का अब तक लगभग 130 बार अनुवाद हो चुका है बड़े बड़े धार्मिक गुरु चाहे वो हिन्दू धर्मं के हो वो भी भक्तामर स्तोत्र की शक्ति को मानते है तथा मानते है भक्तामर स्तोत्र जैसे कोई स्तोत्र नहीं है!, अपने आप में बहुत शक्तिशाली होने के कारण यह स्तोत्र बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुआ! यह स्तोत्र संसार का इकलोता स्तोत्र है जिसका इतनी बार अनुवाद हुआ जो की इस स्तोत्र की प्रसिद्ध होने को दर्शाता है !

    Q.5: क्या आप संस्कृत का भक्तामर स्तोत्र पढ़ते है तथा सही उच्चारण करते है? यहाँ तक की अनुराधा पौडवाल ने जो भक्तामर स्तोत्र को गया है उस में भी कुछ संस्कृत सम्बन्धी गलतिया है !
    A.5: अगर आप सही उच्चारण करना सीखना चाहते है तो आप भक्तामर स्तोत्र जो क्षुल्लक ध्यान सागर जी महाराज ने गया है तथा जिसको Edit करके बाद में Music डाल दिया गया है, www.wuistudio.com वेबसाइट से डाउनलोड कर सकते है !

    Q.6: क्या भक्तामर स्तोत्र को किसी भी समय पढ़ा जा सकता है तथा क्या धुन तथा समय का प्रभाव अलग होता है?
    A.6: भक्तामर स्तोत्र के पढने का कोई एक निश्चित नियम नहीं है, भक्तामर को किसी भी समय प्रातः, दोपहर, सायंकाल या रात में कभी भी पढ़ा जा सकता है, कोई समय सीमा निश्चित नहीं है, क्योकि ये सिर्फ भक्ति प्रधान स्तोत्र है जिसमे भगवन की स्तुति है, धुन तथा समय का प्रभाव अलग अलग होता है!


    भक्तामर स्तोत्र का प्रसिद्ध तथा सर्वसिद्धिदायक महामंत्र-   ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्हं श्री वृषभनाथतीर्थंकराय्‌ नमः

    ये लेख क्षुल्लक ध्यानसागर जी महाराज (आचार्य विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित शिष्य) के प्रवचनों के आधार पर लिखा गया है !  टाइप करने में मुझसे कही कोई गलती हो गई हो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ !

    First n Foremost is [भावना-भव ऩाशिनी]

    • SANSKRIT BHAKTAMAR STOTRA ------------------------------------------

    सर्व विघ्न उपद्रवनाशक
    भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
    मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् ।
    सम्यक्प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा-
    वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥1॥

    शत्रु तथा शिरपीडा नाशक
    यःसंस्तुतः सकल-वांग्मय-तत्त्वबोधा-
    दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुरलोक-नाथै ।
    स्तोत्रैर्जगत्त्रितय-चित्त-हरै-रुदारैः,
    स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥2॥

    सर्वसिद्धिदायक
    बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ,
    स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोहम् ।
    बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
    मन्यःक इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥3॥

    जलजंतु निरोधक
    वक्तुं गुणान् गुण-समुद्र! शशांक-कांतान्,
    कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोपि बुद्धया ।
    कल्पांत-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं,
    को वा तरीतु-मलमम्बु निधिं भुजाभ्याम् ॥4॥

    नेत्ररोग निवारक
    सोहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश,
    कर्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृतः ।
    प्रीत्यात्म-वीर्य-मविचार्य्य मृगी मृगेन्द्रं,
    नाभ्येति किं निज-शिशोः परि-पालनार्थम् ॥5॥

    विद्या प्रदायक
    अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,
    त्वद्भक्ति-रेव-मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
    यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति,
    तच्चाम्र-चारु-कालिका-निकरैक-हेतु ॥6॥

    सर्व विष व संकट निवारक
    त्वत्संस्तवेन भव-संतति-सन्निबद्धं
    पापं क्षणात्क्षय-मुपैति शरीर-भाजाम् ।
    आक्रांत-लोक-मलिनील-मशेष-माशु,
    सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्॥7॥

    सर्वारिष्ट निवारक
    मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद-
    मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ।
    चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
    मुक्ताफल-द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दुः ॥8॥

    सर्वभय निवारक
    आस्तां तव स्तवन-मस्त-समस्त-दोषं,
    त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हंति ।
    दूरे सहस्त्र-किरणः कुरुते प्रभैव,
    पद्माकरेषु जलजानि विकास-भांजि ॥9॥

    कूकर विष निवारक
    नात्यद्भुतं भुवन-भूषण-भूतनाथ,
    भूतैर्गुणैर्भुवि भवंत-मभिष्टु-वंतः ।
    तुल्या भवंति भवतो ननु तेन किं वा,
    भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥10॥

    इच्छित-आकर्षक
    दृष्ट्वा भवंत-मनिमेष-विलोकनीयं,
    नान्यत्र तोष-मुपयाति जनस्य चक्षुः ।
    पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धो,
    क्षारं जलं जलनिधे रसितुँ क इच्छेत् ॥11॥

    हस्तिमद-निवारक
    यैः शांत-राग-रुचिभिः परमाणु-भिस्त्वं,
    निर्मापितस्त्रि-भुवनैक-ललाम-भूत ।
    तावंत एव खलु तेप्यणवः पृथिव्यां,
    यत्ते समान-मपरं न हि रूपमस्ति ॥12॥

    चोर भय व अन्यभय निवारक
    वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरगनेत्र-हारि,
    निःशेष-निर्जित-जगत्त्रित-योपमानम् ।
    बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य,
    यद्वासरे भवति पाण्डु-पलाश-कल्पम् ॥13॥

    आधि-व्याधि-नाशक लक्ष्मी-प्रदायक
    सम्पूर्ण-मण्डल-शशांक-कला कलाप-
    शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंग्घयंति ।
    ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर-नाथमेकं,
    कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम ॥14॥

    राजसम्मान-सौभाग्यवर्धक
    चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि-
    नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
    कल्पांत-काल-मरुता चलिता चलेन
    किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् ॥15॥

    सर्व-विजय-दायक
    निर्धूम-वर्त्ति-रपवर्जित-तैलपूरः,
    कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी-करोषि ।
    गम्यो न जातु मरुतां चलिता-चलानां,
    दीपोपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः ॥16॥

    सर्व उदर पीडा नाशक
    नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्यः,
    स्पष्टी-करोषि सहसा युगपज्जगंति ।
    नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभावः,
    सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र लोके ॥17॥

    शत्रु सेना स्तम्भक
    नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं।
    गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् ।
    विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्प-कांति,
    विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशांक-विम्बम् ॥18॥

    जादू-टोना-प्रभाव नाशक
    किं शर्वरीषु शशिनान्हि विवस्वता वा,
    युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमःसु नाथ ।
    निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,
    कार्यं कियज्-जलधरैर्जल-भारनम्रैः ॥19॥

    संतान-लक्ष्मी-सौभाग्य-विजय बुद्धिदायक
    ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं
    नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु ।
    तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं,
    नैवं तु काच-शकले किरणा-कुलेपि ॥20॥

    सर्व वशीकरण्
    मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा,
    दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ।
    किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः,
    कश्चिन्मनो हरति नाथ भवांतरेपि ॥21॥

    भूत-पिशाचादि व्यंतर बाधा निरोधक
    स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान्-
    नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
    सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्र-रश्मिं,
    प्राच्येव दिग्जनयति स्फुर-दंशु-जालम् ॥22॥

    प्रेत बाधा निवारक
    त्वामा-मनंति मुनयः परमं पुमांस-
    मादित्य-वर्ण-ममलं तमसः पुरस्तात्
    त्वामेव सम्य-गुपलभ्य जयंति मृत्युं,
    नान्यः शिवः शिव-पदस्य मुनीन्द्र पंथाः ॥23॥

    शिर पीडा नाशक
    त्वा-मव्ययं विभु-मचिंत्य-मसंखय-माद्यं,
    ब्रह्माण-मीश्वर-मनंत-मनंग केतुम् ।
    योगीश्वरं विदित-योग-मनेक-मेकं,
    ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदंति संतः ॥24॥

    नज़र (दृष्टि देष) नाशक
    बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
    त्त्वं शंकरोसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात् ।
    धातासि धीर! शिव-मार्ग-विधेर्-विधानात्,
    व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोसि ॥25॥

    आधा शीशी (सिर दर्द) एवं प्रसूति पीडा नाशक
    तुभ्यं नम स्त्रिभुवनार्ति-हाराय नाथ,
    तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल-भूषणाय ।
    तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय,
    तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ॥26॥

    शत्रुकृत-हानि निरोधक
    को विस्मयोत्र यदि नाम गुणैरशेषै,
    स्त्वं संश्रितो निरवकाश-तया मुनीश ।
    दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वैः,
    स्वप्नांतरेपि न कदाचिद-पीक्षितोसि ॥27।।

    सर्व कार्य सिद्धि दायक
    उच्चैर-शोक-तरु-संश्रित-मुन्मयूख-
    माभाति रूप-ममलं भवतो नितांतम् ।
    स्पष्टोल्लसत-किरणमस्त-तमोवितानं,
    बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति ॥28॥

    नेत्र पीडा व बिच्छू विष नाशक
    सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
    विभाजते तव वपुः कानका-वदातम ।
    बिम्बं वियद्-विलस-दंशु-लता-वितानं,
    तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्त्र-रश्मेः ॥29॥

    शत्रु स्तम्भक
    कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभं,
    विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कांतम् ।
    उद्यच्छशांक-शुचि-निर्झर-वारि-धार-
    मुच्चैस्तटं सुर-गिरेरिव शात-कौम्भम् ॥30॥

    राज्य सम्मान दायक व चर्म रोग नाशक
    छत्र-त्रयं तव विभाति शशांक-कांत-
    मुच्चैः स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम् ।
    मुक्ता-फल-प्रकर-जाल-विवृद्ध-शोभं,
    प्रख्यापयत्-त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥31॥

    संग्रहणी आदि उदर पीडा नाशक
    गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्वभाग-
    स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगम-भूति-दक्षः ।
    सद्धर्म-राज-जय-घोषण-घोषकः सन्,
    खे दुन्दुभिर्-ध्वनति ते यशसः प्रवादि ॥32॥

    सर्व ज्वर नाशक
    मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात
    संतानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा ।
    गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रपाता,
    दिव्या दिवः पतति ते वयसां ततिर्वा ॥33॥

    गर्व रक्षक
    शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि-विभा विभोस्ते,
    लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमा-क्षिपंती ।
    प्रोद्यद्दिवाकर्-निरंतर-भूरि-संख्या,
    दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ॥34॥

    दुर्भिक्ष चोरी मिरगी आदि निवारक
    स्वर्गा-पवर्ग-गममार्ग-विमार्गणेष्टः,
    सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस-त्रिलोक्याः ।
    दिव्य-ध्वनिर-भवति ते विशदार्थ-सर्व-
    भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणैः प्रयोज्यः ॥35॥

    सम्पत्ति-दायक
    उन्निद्र-हेम-नवपंकजपुंज-कांती,
    पर्युल्लसन्नख-मयूख-शिखा-भिरामौ ।
    पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः,
    पद्मानि तत्र विबुधाः परि-कल्पयंति ॥36॥

    दुर्जन वशीकरण
    इत्थं यथा तव विभूति-रभूज्जिनेन्द्र,
    धर्मोप-देशन विधौ न तथा परस्य ।
    यादृक् प्रभा देनकृतः प्रहतान्ध-कारा,
    तादृक्कुतो ग्रह-गणस्य विकासिनोपि ॥37॥

    हाथी वशीकरण
    श्च्योतन-मदा-विल-विलोल-कपोल-मूल-
    मत्त-भ्रमद-भ्रमर-नाद विवृद्ध-कोपम् ।
    ऐरावताभ-मिभ-मुद्धत-मापतंतं,
    दृष्टवा भयं भवति नो भवदा-श्रितानाम् ॥38॥

    सिंह भय निवारक
    भिन्नेभ-कुम्भ-गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त-
    मुक्ताफल-प्रकर-भूषित-भूमिभागः ।
    बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणा-धिपोपि,
    नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥39॥

    अग्नि भय निवारक
    कल्पांत-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं,
    दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिंगम् ।
    विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख-मापतंतं,
    त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्य-शेषम् ॥40॥

    सर्प विष निवारक
    रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं,
    क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतंतम् ।
    आक्रामति क्रमयुगेन निरस्त-शंकस्-
    त्वन्नाम-नाग-दमनी हृदि यस्य पुंस ॥41॥

    युद्ध भय निवारक
    वल्गत्तुरंग-गज-गर्जित-भीम-नाद-
    माजौ बलं बलवतामपि भू-पतीनाम् ।
    उद्यद्-दिवाकर-मयूख-शिखा-पविद्धं,
    त्वत्कीर्त्तनात्-तम इवाशु भिदा-मुपैति ॥42॥

    युद्ध में रक्षक और विजय दायक
    कुंताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह-
    वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे ।
    युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्-
    त्वत्-पाद-पंकज-वना-श्रयिणो लभंते ॥43॥

    भयानक-जल-विपत्ति नाशक
    अम्भो-निधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र-
    पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ ।
    रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्-
    त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद्-व्रजंति ॥44॥

    सर्व भयानक रोग नाशक
    उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः,
    शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशाः
    त्वत्पाद-पंकज-रजोमृतदिग्ध-देहाः,
    मर्त्या भवंति मकर-ध्वज-तुल्य-रूपाः ॥45॥

    कारागार आदि बन्धन विनाशक
    आपाद-कण्ठ-मुरुशृंखल-वेष्टितांगा,
    गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघाः ।
    त्वन्नाम-मंत्र-मनिशं मनुजाः स्मरंतः
    सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवंति ॥46॥

    सर्व भय निवारक
    मत्त-द्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि-
    संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम् ।
    तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव,
    यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमान-धीते ॥47॥

    मनोवांछित सिद्धिदायक
    स्तोत्र-स्त्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्-निबद्धां
    भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् ।
    धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजसं
    तं मानतुंगमवश समुपैति लक्ष्मीः ॥48॥

    • HINDI ARTHA BHAKTAMAR STOTRA ----------------------------------------
    1.झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा

    2. सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करुँगा

    3. देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं

    4. हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं| अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं

    5. हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं

    6. विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं

    7. आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है|

    8. हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगा| निश्चय से पानी की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं|

    9. सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है| जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है|

    10. हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता |

    11. हे अभिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते| चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं |

    12. हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है |

    13. हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता |

    14. पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण, तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं |

    15. यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं |

    16. हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत् प्रकाशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती |

    17. हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं |

    18. हमेशा उदित रहने वाला, मोहरुपी अंधकार को नष्ट करने वाला जिसे न तो राहु ग्रस सकता है, न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं, अत्यधिक कान्तिमान, जगत को प्रकाशित करने वाला आपका मुखकमल रुप अपूर्व चन्द्रमण्डल शोभित होता है |

    19. हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन |

    20. अवकाश को प्राप्त ज्ञान जिस प्रकार आप में शोभित होता है वैसा विष्णु महेश आदि देवों में नहीं | कान्तिमान मणियों में, तेज जैसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकड़े में नहीं होता |

    21. हे स्वामिन्| देखे गये विष्णु महादेव ही मैं उत्तम मानता हूँ, जिन्हें देख लेने पर मन आपमें सन्तोष को प्राप्त करता है| किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? जिससे कि प्रथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता |

    22. सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी| नक्षत्रों को सभी दिशायें धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं |

    23. हे मुनीन्द्र! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं | वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर म्रत्यु को जीतते हैं | इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है |

    24. सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक ज्ञानस्वरुप और अमल कहते हैं |

    25. देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हैं| तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण आप ही शंकर हैं| हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हैं| और हे स्वामिन्! आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं |

    26. हे स्वामिन्! तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले आपको नमस्कार हो, प्रथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप आपको नमस्कार हो, तीनों जगत् के परमेश्वर आपको नमस्कार हो और संसार समुन्द्र को सुखा देने वाले आपको नमस्कार हो|

    27. हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?

    28. ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला, आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है, अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित सूर्य बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है |

    29. मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर, आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के उच्च शिखर पर आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के समूह वाले सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है|

    30. कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है शोभा जिसकी, ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, सुमेरुपर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है, के स्वर्ण निर्मित ऊँचे तट की तरह शोभायमान हो रहा है|

    31. चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले, आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके तीन लोक के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं|

    32.गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करने वाला, तीन लोक के जीवों को शुभ विभूति प्राप्त कराने में समर्थ और समीचीन जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करने वाला दुन्दुभि वाद्य आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है|

    33. सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगन्धित वायु के साथ गिरने वाले श्रेष्ठ मनोहर मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा आपके वचनों की पंक्तियों की तरह आकाश से होती है|

    34. हे प्रभो! तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कान्ति से युक्त होकर भी चन्द्रमा से शोभित रात्रि को भी जीत रही है|

    35. आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्षमार्ग की खोज में साधक, तीन लोक के जीवों को समीचीन धर्म का कथन करने में समर्थ, स्पष्ट अर्थ वाली, समस्त भाषाओं में परिवर्तित करने वाले स्वाभाविक गुण से सहित होती है|

    36. पुष्पित नव स्वर्ण कमलों के समान शोभायमान नखों की किरण प्रभा से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं वहाँ देव गण स्वर्ण कमल रच देते हैं|

    37. हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य था वैसा अन्य किसी का नही हुआ| अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?

    38. आपके आश्रित मनुष्यों को, झरते हुए मद जल से जिसके गण्डस्थल मलीन, कलुषित तथा चंचल हो रहे है और उन पर उन्मत्त होकर मंडराते हुए काले रंग के भौरे अपने गुजंन से क्रोध बढा़ रहे हों ऐसे ऐरावत की तरह उद्दण्ड, सामने आते हुए हाथी को देखकर भी भय नहीं होता|

    39. सिंह, जिसने हाथी का गण्डस्थल विदीर्ण कर, गिरते हुए उज्ज्वल तथा रक्तमिश्रित गजमुक्ताओं से पृथ्वी तल को विभूषित कर दिया है तथा जो छलांग मारने के लिये तैयार है वह भी अपने पैरों के पास आये हुए ऐसे पुरुष पर आक्रमण नहीं करता जिसने आपके चरण युगल रुप पर्वत का आश्रय ले रखा है|

    40. आपके नाम यशोगानरुपी जल, प्रलयकाल की वायु से उद्धत, प्रचण्ड अग्नि के समान प्रज्वलित, उज्ज्वल चिनगारियों से युक्त, संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई वन की अग्नि को पूर्ण रुप से बुझा देता है|

    41. जिस पुरुष के ह्रदय में नामरुपी-नागदौन नामक औषध मौजूद है, वह पुरुष लाल लाल आँखो वाले, मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले, क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए, सामने आते हुए सर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरो से लाँघ जाता है|

    42. आपके यशोगान से युद्धक्षेत्र में उछलते हुए घोडे़ और हाथियों की गर्जना से उत्पन भयंकर कोलाहल से युक्त पराक्रमी राजाओं की भी सेना, उगते हुए सूर्य किरणों की शिखा से वेधे गये अंधकार की तरह शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती है|

    43. हे भगवन् आपके चरण कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष, भालों की नोकों से छेद गये हाथियों के रक्त रुप जल प्रवाह में पडे़ हुए, तथा उसे तैरने के लिये आतुर हुए योद्धाओं से भयानक युद्ध में, दुर्जय शत्रु पक्ष को भी जीत लेते हैं|

    44. क्षोभ को प्राप्त भयंकर मगरमच्छों के समूह और मछलियों के द्वारा भयभीत करने वाले दावानल से युक्त समुद्र में विकराल लहरों के शिखर पर स्थित है जहाज जिनका, ऐसे मनुष्य, आपके स्मरण मात्र से भय छोड़कर पार हो जाते हैं|

    45. उत्पन्न हुए भीषण जलोदर रोग के भार से झुके हुए, शोभनीय अवस्था को प्राप्त और नहीं रही है जीवन की आशा जिनके, ऐसे मनुष्य आपके चरण कमलों की रज रुप अम्रत से लिप्त शरीर होते हुए कामदेव के समान रुप वाले हो जाते हैं|

    46. जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाममंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते है|

    47. जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढ़ता है उसका मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र जलोदर रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न भय मानो डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है|

    48. हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि) गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है|

    • TRANSLATED BY ANTARA RASHTREEYA UPADHYAY MUNI SHREE 108 MANOGNA SAGAR JI MAHARAAJ DISCIPLE OF AACHARYA SHREE 108 RAYANA SAGAR JI MAHARAJ
    1)    Having bowed down to duel feet duly of first Lord ,
    Which brighten gems in crowns of prostrating Devas,
    Destroying darkness of sins helping fallen,
    In mundane ocean at the first of this creation

    2)    Prayer I do of that Lord who has been praised by
    Lord of celestials with complete knowledge of
    All principles and meritorious mind wonderful
    Fantastic hymns which attract hearts of the three words.

    3)    Thy throne has been adored by angles Almighty
    Myself without knowledge shameless try to do this
    Expect the boy who else tries to catch the moon in water
    Only because he doesn’t know the sky as the Moon place.

    4)   Bright like the Moon Thy features can’t be explained there
    Even by angle preceptor with wide good knowledge
    How can a man swim off sea vomiting the crocodiles
    At the time of world destruction really impossible

    5)    Still I do the hymn of Thou Lord of saints ! Really
    Shameless incapable just like that of deer which
    Faces the Loin to protect child only of love there
    This is the gift of Mature for Thy devotees

    6)    Though ignorant I am Lord Laughed at by scholars
    But by devotion only Thy hymn is spoken off
    Just like the Nightingale sounds very sweet in spring there
    Seeing the bunches of buds of that fine mango

    7)    As the darkness of the night is destroyed by Sunrays
    Sins acquired in the many births vanish by prayer
    Immediately of Thou Oh! Lord completely
    So I compose this Thy hymn for freedom early.

    8)     Drop of water on lotus leaf looks like the pearl there
    People enjoy the beauty in the absence of the pearl
    So this Thy hymn because of Thy greatness only
    Cherishes the hearts of devotees even though I am small

    9)    Thou are devoid of all those eighteen defects Lord !
    Only Thy name is enough for destroying sins Lord !
    Just Like the Sun who very far away from the lotii
    Blossoms them in the lakes by only the bright rays

    10)  Thou ornaments of universe ! Lord of all Living ones,
    What wonder is there Oh ! Lord if you make like thou
    What sis the use of that rich who can’t make sheltered one
    Equal to him in wealth soon this is Thy greatness Lord.

    11)  One who sees once Thy beauty never goes to another
    No satisfaction for eyes elsewhere expect Thou
    Drinking the sweet water of Milk Ocean who likes
    Sipping of the salt water of Atlantic Ocean

    12)    Atoms by which Thou were made quite beautiful ones
    Only so much not more there in the world exist then
    So parallel no man was there for Thou Oh ! Lord !
    Thou art the Beauty of the three universe in total

    13)  Where Thy face which attract men heaven beings angles
    Where that of Moon with many spots Which fades in the  day Light
    Thou art the Lord un parallel in the all three universe
    He who compares Thy self with any one is not right

    14)   Thy  fine and beautiful attributes even cross the three worlds
    Who comes and shelter Thou Lord becomes free completely
    None restrict him form going any where in universe
    Just like the Moon rays move free in the Sky and else where

    15)  Thy heart is so strong even Heavenly Beauties couldn’t
    Shake off at all no Wonder Does Great Mountain shake
    Even by strong wind at the worlds destruction time there
    Where small hillocks are powered Really Thou art Great !

    16)  Thou art the Great Light with no fume filament oil
    Still Thou lighten the Three Worlds completely Oh Lord !
    Even the wind which shaken Mountains also there
    Can’t harm Thy light meritorious universal

    17)   Thou art The Great Sun never set Not caught by Rahu
    Brightness the Three Worlds at a time rightly completely
    Neither Clouds can come in Thy path nor can disturb you
    Thou Excellent Sun ever shine blossom all of us Lord !

    18)  Thou art the Moon destroying delusion darkness
    Neither disturbed by Clouds nor by Rahu any time
    Thy Face louts is glittering with Great Light Oh ! Lord !
    plendid Moon in The universe ever rising shining.

    19)  Why Moon in night ? Why Sun in day? When Thou art there?
    Thy feet distruct the sins Lord!  When grains are ripen
    What is the use of Clouds filled with water in the field
    No need of anything is there where Almighty is.

    20)  As knowledge exist in Thou Infinite Oh! Lord !
    So not in Brahma Hari  Har exist there Oh! Lord !
    Greatness of luster of Gems is not there in Glass
    Though fine it looks with many rays attractive only

    21)  People get satisfied only after getting Thou
    But not with other Gods who have attachment aversion
    When once one sees Thou Oh  Lord ! in this existence
    Will not be attached by any else in future

    22)  Hundreds of Ladies give birth for hundred Sons there
    But no other Mother has , given birth for great Son ,
    Equal to Thou only East gives birth for Bright Sun
    Other directions give birth for many Stars and Planets

    23)  Thou Extreme Masculine Bright Spotless and Darkless
    Saints offer Salutation Victor over death
    After attaining Thy self this only is the Path
    For Salvation from mundane worries. Lord of all the Saints

    24)  Thou In destructible ! Might ! In conceives Lord !
    Un- countable the first, One , Supreme the Able
    External ! Cupid-victor Thou ! Ascetic Master One !
    Also many Knowledge-nature stainless Saints say 

    25)  As Thou profess the Heavenly Thou are the Buddha
    As Thou make all the three worlds Happy Thou Shankar !
    Thou art the Bramha creating Path of Salvation
    Thou art Jinendra Purushottama in this Universe.

    26) Blowing for Thou who wash off worries of the Three Worlds
    Blowing for Ornaments of this Beautiful Earth
    Blowing for Lord of all these Three Universe now
    Blowing for Great Lord who dries-off Mundane Ocean

    27)  What wonder is there when All Attributes have taken
    Shelter in Thou only Lord ! Else where they are not
    Even-in dream defects don’t appear near Thou
    Ass all other give place and welcome errors Lord !

    28)  Just like the Sun who looks Fine in the midst of blue clouds
    Expanding rays of bright Light Thy body Beautiful
    In the midst of tree Ashoka shines there ever Lord !
    Granduer of Samavasarana is Pratiharya

    29)  Thy Golden body oh ! Lord ! glitters in the Throne there
    This Pratiharya Simhasana wonderful there
    With beautiful gem rays bright just like the Sun Great
    Rising over the of Udayachal Mountain.

    30)  White and beautiful Chamaras on the both side of Thy
    Golden body which move up and down charmingly
    Look like the water falls on both sides of Golden
    Summit of the Meru Mountain with Moon Bright water.

    31)  Just like the Moon trio Thy parasoltrio  with
    Charming pearl group there brighter than Great Sun show that
    Thou art the Lord ! of all these lower and higher
    Also the middle Three Universe Bowings we do now

    32)  Wonder sounds of different Trumpets and Drums there
    Produce in sky which indicate cheer for the Three words
    Those Victors Sounds which Wringle Narrate Thy Great Fame there
    This Pratiharya Dundubhi of Thou Almighty

    33)  Rose Lotus Jasmine Coral many kinds of flowers were
    Showered there in Samavasarana reverse facing up Lord !
    Perfumed drops of water with Fine Breeze Heavenly
    Just like the Shower of Thy Words Fine and Diving there

    34)  Winning over the all Bright things in the Universe Thy
    Bhamandal with the Light of the Suns Many shining Splendour
    But cold also like Moon there exist behind Thou
    So neither nights nor darkness Ever Light Delight there

    35)  Thou art the only Expert in the Three Worlds Oh ! Lord !
    For explaining the Principles of the exact real Path
    Thy voice Divine which emerges show us the path of
    Heaven and Salvation for all in their all Languages

    36)  Where ever Thou keep Thy Feet Lord ! there those Celestials
    Form the Golden lotii charming with bright rays
    Still Thou art not attached with this Grandeur Oh ! Lord !
    But this devotion is of those Heavenly beings

    37)  As Thy splender Glory Lord in the Samavasarana
    At the time of Discourse Divine no other have this Grandeur
    As Sun can destroy darkness with powerful rays there
    Even the group of many Stars Planets can’t do this deed

    38)  He who has taken shelter in Thy feet Oh ! My Lord !
    Will not be terrored with Elephant intoxicated
    With temples swelling run out on which bees are roaming there
    Coming up in front with anger paused by the bees there

    39)  He who has strong faith in Thy Feet firm like the mountain
    Will not be attacked by even Cruel King Lion there
    Which is breaking temples of that Elephant with blood swell?
    With the pearl on earth sprayed there will

    40)  Even The Terrible Fire with increasing flame Lord!
    By the air blowing highly in destruction time there
    Burning and swallowing all things in the Universe
    Will be put out by Thy Name Water completely

    41)  One who has Thy name in heart can cross the Serpent
    Neck of which is blue like that of Nightingale there
    Even with Hood standing eyes red with anger Lord!
    Lust of the Snake gets destroyed by Thy Name Medicine

    42)  Just like the Darkness is destroyed by the Sun rays
    Thy Hymn destroys the Strongest Army in which there
    Horses are jumping Elephant are roaring with terroring
    Noise of Soldier shouting weapons sounding harshly.

    43)  One who attains Thy scared feet-duels Oh! My Lord !
    Will Victor over the battle however Greater be
    With blood flowing like water by goad piercing
    Soldiers on Elephant fighting on Horses speedily

    44)  One who always remembers Thinks of Thou only
    Sitting in the boats to cross the Sea where in crocodiles are
    Coming up in anger along with Whales wavering waves
    Will reach the bank with very ease even through the water fire

    45)  Pearson who applies Dust of Thy Feet Lotii Lord !
    If at all he is attacked by severs Disease which
    Liking to make man die will soon become there
    Pain Free and Beautiful Lord! Thy Miracle Great this

    46)  He who remember s always Thy Name Divine Lord !
    Will get freedom by strong chain Bondage over him
    Starting from feet to neck which crush the complete body
    As Manatungasooree was freed in Dhara there

    47)  That man or women who reads this Divine Hymn of Great Lord !
    Will be away from Fears of Elephant Line Fire
    Serpent Battle Sea Illness Bondage all these Eight
    With purity of heart and full Concentration

    48)
    This Garland of Thy attributes Oh ! Lord ! Jinendra
    Made of Flowers of Different colours Scented Beautiful
    Has been composed by “MANOGNA” for sin destruction
    Which makes the man who reads Rich Wise Gay Divine Fine?


    • --- Air by :Nipun jain
    • www.wuistudio.com | www.jinvaani.org [Downlaod Jainism's Precious  Preachings n Devotional Psalm E-Resource Storehouses - Already  downloaded 42,234 Times

    6 DHALA-TEESRI DHAAL-NISHCHAY RATNATRAY (MOKSH MARG) KA SWAROOP

    ६ ढाला

    तीसरी ढाल

    निश्चय रत्नत्रय का स्वरुप

    पर द्रव्यन्तैं भिन्न आप में रूचि सम्यक्त्व भला है
    आप रूप को जानपनो सो सम्यक्ज्ञान कला है
    आप रूप में लीन रहे थिर सम्यक्चारित्र सोई
    अब व्यवहार मोक्ष मग सुनिए,हेतु नियत को होई.


    शब्दार्थ
    १.पर-दुसरे
    २.द्रव्यन्तैं-द्रव्यों से
    ३.भिन्न-अलग
    ४.आप में-आत्मा में
    ५.सम्यक्त्व-निश्चय सम्यक दर्शन
    ६.भला-हितकारी
    ७.जानपनो-जान जाना
    ८.सो-वह
    ९.थिर-स्थिर,अटल
    १०.सोई-है
    ११.हेतु-कारण
    १२.नियत-निश्चय रत्नत्रय
    १३.होई-होने का

    भावार्थ
    मोक्ष मार्ग को पाने के लिए,आकुलता रहित अवस्था को पाने के लिए पर द्रव्यों से भिन्न,दूसरी वस्तुओं से,परायी वस्तुओं जैसे शरीर,हाथ,बेटा,पत्नी,पति,बहन,माँ,बाप इन सब से खुद को भिन्न मानना,आत्मा को भिन्न मानना निश्चय सम्यक दर्शन है..और आत्मा के चैतन्य,आनंद स्वरुप को जान जाना,दर्शन-ज्ञान स्वरुप को जान जाना ही निश्चय सम्यक्ज्ञान कला है...और आत्मा के रूप को जान कर उसी पे अटल रहना,नहीं डिगना..स्थिर रहना और आनंद मय होना..निश्चय सम्यक्चारित्र का वर्णन है...इन तीनों को एकता ही मोक्ष मार्ग है..जो किसी भी प्रकार की आकुलता,राग द्वेष से रहित है..अगर हमें इस अवस्था को प्राप्त करना है..तोह व्यवहार मोक्ष मार्ग को जानना होगा...जो निश्चय मोक्ष मार्ग का कारण है..जिसके बिना निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हो सकती है.

    रचयिता-कविवर दौलत राम जी
    लिखने का आधार-स्वाध्याय


    जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ  ढोक

    JANM,TAP,GYAN AUR MOKSH KALYANAK

    जैन धर्म के १६ वे तीर्थंकर भगवन श्री १००८ शांतिनाथ जी का जन्म , तप , और निर्वाण (मोक्ष) दिवस ( भगवन श्री शांतिनाथ तीन पद के धरी तीर्थंकर हुए है १ तीर्थंकर ,२ चक्रवर्ती ,३ कामदेव )

    जन्म कल्याणक

    भगवान होने वाली आत्मा का जब सांसारिक जन्म होता है तो देवभवनों व स्वर्गों आदि में स्वयं घंटे बजने लगते हैं और इंद्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं। यह सूचना होती है इस घटना की कि भगवान का सांसारिक अवतरण हो गया है। सभी इंद्र व देव भगवान का जन्मोत्सव मनाने पृथ्वी पर आते हैं।
    बालक का जन्म और जन्मोत्सव आज भी घर-घर में प्रचलित है, किन्तु सुमेरु पर्वत पर भगवान का अभिषेक एक अलग प्रकार की घटना बताई जाती है। तीर्थंकर के मामले में ऐसा गौरवशाली अभिषेक उनके पूर्व जन्मों के अर्जित पुण्यों का परिणाम होता है किन्तु प्रत्येक जन्म लेने वाले मानव का अभिषेक होता ही है। देवता न आते हों किन्तु घर या अस्पताल में जन्म लिए बालक के स्वास्थ्य के लिए व गर्भावास की गंदगियों को दूर करने के लिए स्नान (अभिषेक) आवश्यक होता है। तीर्थंकर चूँकि विशेष शक्ति संपन्न होते हैं, अतः पांडुक वन में सुमेरु पर्वत पर क्षीरसागर से लाए 1008 कलशों से उनका जन्माभिषेक शायद कभी अवास्तविक लगे। हो सकता है इसमें भावना का उद्वेग व अपने पूज्य को महिमामंडित करने का भाव हो लेकिन संस्कारों की सीमा से परे नहीं है। एक तुरंत प्रसव पाए बालक की अस्पताल में दिनचर्या को देखने पर यह काल्पनिक नहीं लगेगा।देवों द्वारा प्रसन्नता व्यक्त करना स्वाभाविक प्रक्रिया है। पुत्र जन्म पर खुशियाँ मनाते, मिठाई बाँटते हम सभी लोगों को देखते हैं। फिर तीर्थंकर तो पुरुषार्थी आत्मा होती है।

    जिन आचार्यों ने पंच कल्याणक के इस लौकिक रूप की रचना की, उसको समझने में कोई त्रुटि न हो जाए, इसके लिए 2000 वर्ष पूर्व हुए आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति की गाथा क्र. 8/595 में स्पष्ट किया है कि ‘गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवों के उत्तर शरीर जाते हैं। उनके मूल शरीर जन्म स्थानों में सुखपूर्वक स्थित रहते हैं।’

    यह गाथा अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि सांसारिक कार्यों में देवादि भाग नहीं लेते किन्तु तीर्थंकरत्व की आत्मा को सम्मान देने व अपना हर्ष प्रकट करने के लिए वे अपने उत्तर शरीर से उपस्थित होते हैं। इतना प्रतिभाशाली व्यक्ति जन्म ले तो सब तरफ खुशियाँ मनाना वास्तविक और तर्कसंगत है। यह आवश्यक नहीं कि तीर्थंकरों के जन्म लेते समय आम नागरिकों ने देवों को देखा हो। देवत्व एक पद है जिसका भावना से सीधा संबंध है।

    तप कल्याणक

    अब तक के समस्त कार्य तो मनुष्य मात्र में कम-ज्यादा रूप में समान होते रहते हैं किन्तु संसार की विरक्ति का कोई कारण बने बिना मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। यह भी तभी संभव है जब मनुष्य के संस्कार चिंतन को सही दिशा में ले जाने की क्षमता रखते हों। भगवान के कर्मयोगी जीवन, जिनमें सांसारिक कार्य, राज्य संचालन, परिवार संचालन आदि सम्मिलित होते हैं, के बीच एक दिन उन्हें ध्यान आता है ‘आयु का इतना लंबा काल मैंने केवल सांसारिकता में ही खो दिया। अब तक मैंने संसार की संपदा का भोग किया किन्तु अब मुझे आत्मिक संपदा का भोग करना है। संसार का यह रूप, सम्पदा क्षणिक है, अस्थिर है, किन्तु आत्मा का रूप आलौकिक है, आत्मा की संपदा अनंत अक्षय है। मैं अब इसी का पुरुषार्थ जगाऊँगा।’
    इस प्रकार जब प्रभु अपनी आत्मा को जागृत कर रहे थे, तभी लोकान्तिक देव आए और भगवान की स्तुति करके उनके विचारों की सराहना की। जरा देखें कि यहाँ आत्मोन्नति के विचार को कोई है जो ठीक कह रहा है। उसे आचार्यों ने लोकान्तिक देव कहा और उसे हम ऐसा भी कह सकते हैं किसी गुणवान- विद्वान ने प्रभु महाराज को प्रेरक उद्बोधन दिया। यह तो बिलकुल संभव है- इसे काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। आज भी प्रेरणा देने वालों और मैनेजमेंट गुरुओं की मान्यता है और बनी रहेगी।त्याग की यह प्रक्रिया स्वभाविक है। आज भी सब कुछ त्याग कर समाजसेवी लोगों की लंबी परंपरा है।

    समवशरण में दिव्य ध्वनि का गुंजन हो किंतु एक नज्ज़ारा और होना चाहिए- वह है धर्मचक्र प्रवर्तन का। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण व महापुराण में इसका बड़ा सुन्दर वर्णन है। उसका सारांश इस प्रकार है- ‘भगवान का विहार बड़ी धूमधाम से होता है। याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है। भगवान के चरणों के नीचे देवलोग सहस्रदल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं। और भगवान इनको स्पर्श न कर अधर आकाश में ही चलते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे-नगाड़े बजते हैं। पृथ्वी इति-भीति रहित हो जाती है। इंद्र राजाओं के साथ आगे-आगे जयकार करते चलते हैं। आगे धर्मचक्र चलता है। मार्ग में सुंदर क्रीड़ा स्थान बनाए जाते हैं। मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से शोभित रहता है। भामंडल, छत्र, चंवर स्वतः साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं। इंद्र प्रतिहार बनता है। अनेक निधियाँ साथ-साथ चलती हैं। विरोधी जीव वैर-विरोध भूल जाते हैं। अंधे, बहरों को भी दिखने-सुनने लग जाता है।’जनसमूह यह दृश्य देखकर भाव-विह्वल हो सकता है। यह भगवान के जननायक होने का संदेश देता है।

    मोक्ष कल्याणक

    हम अक्सर एक त्रुटि करते हैं कि मोक्ष कल्याणक को अंतिम कल्याणक कहते हैं। एक तरह से प्रभु की आत्मा के लिए मोक्षगमन के साथ यह अंतिम पड़ाव हो, किन्तु तीर्थंकरत्व की यात्रा जो एक दर्शन को समग्र रूप देती है, अंतिम कहना विचारणीय है। वास्तव में मोक्षगमन जैन दर्शन के चिंतन की चरमोत्कृष्ट आस्था है जो प्रत्येक हृदय में फलित होना चाहिए। समस्त कल्याणक महोत्सव का यह सरताज है। मोक्षगमन को देखना इस निश्चय को दोहराना है कि जीवन के सभी कार्य तब तक सफल नहीं कहे जा सकते जब तक उसका अंतिम लक्ष्य मोक्षगमन न हो।

    Monday, May 30, 2011

    6 DHALA-TEESRI DHAAL-PEHLA SHLOK-SACHCHA SUKH AUR DWIDHA MOKSHA MARG

    ६ ढाला

    तीसरी ढाल

    सच्चा सुख और द्विध मोक्ष मार्ग

    आतम को हित है सुख,सो सुख आकुलता बिन कहिये
    आकुलता शिवमाही न तातैं सो  शिवमग लाग्यो चहिये
    सम्यक दर्शन ज्ञान चरन शिवमग सो दुविध विचारो
    जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो
    शब्दार्थ
    १.हित-भला
    २.कहिये-कहना चहिये
    ३.सो-उस सुख को
    ४.शिव माहि-मोक्ष मार्ग
    ५.तातैं-इसलिए
    ६.लाग्यो-लगन होनी चहिये
    ७.शिवमग-मोक्ष मार्ग
    ८.दुविध-दो प्रकार से
    ९.विचारो-बताया गया है
    १०.सत्यार्थ-वास्तविक रूप
    ११.निश्चय-निश्चय मोक्ष मार्ग
    १२.व्यवहारो-व्यवहार मोक्ष मार्ग

    भावार्थ
    हम जीव हैं,आत्मा हैं...हम संसार में सुख चाहते हैं...हमारा भला सुख में ही है...और वह सुख आकुलता (चिंता,मोह,माया,राग,द्वेष) से रहित है..अथार्थ यही सच्चा सुख है..यह शास्वत सुख है...जिसके बाद कभी दुःख नहीं आता है...इन्द्रिय जन्य सुख तोह दुःख के सामान है..परन्तु आकुलता से रहित सुख ही असली या सच्चा सुख है...और यह सच्चे सुख की यानि की आकुलता से रहित अवस्था सिर्फ मोक्ष में ही है..अन्यथा कहीं नहीं हैं..इसलिए अगर यह जीव सुख चाहता है..तोह इस जीव को मोक्ष मार्ग पर चलना चाहिये और चलने की पूरी लगन होनी चाहिये...सम्यक दर्शन,सम्यक  ज्ञान और सम्यक चरित्र की एकता ही मोक्ष मार्ग है...जो दो प्रकार से बताई गयी है..पहली निश्चय मोक्ष मार्ग है-जो वास्तविक और सच्चा मोक्ष मार्ग है...और दूसरा व्यवहार मोक्ष मार्ग है..जो निश्चय मोक्ष मार्ग के लिए कारण है,सारभूत है..अत निश्चय मोक्ष मार्ग व्यवहार मोक्ष मार्ग के बिना नहीं मिल सकता है.

    रचयिता-कविवर दौलत राम जी
    लिखने का आधार-मेरा खुद का स्वाध्याय


    जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक 



    NEVER SIT ON HORSES,ELEPHANTS AND ON OTHER ANIMALS

    Chanchal Bothra
    " कार्तिक सेठ "
    २०वें तीर्थंकर सुव्रतस्वामी के समय एक बड़ा सेठ था
    जिसका नाम था " कार्तिक सेठ "
    उसके १००८ मुनीम काम करते थे |
    एक बार वहां के राजा के गुरु शहर में आये |
    नगर के सभी लोग राजा के गुरु के दर्शन के लिए गए |
    " कार्तिक सेठ " नहीं गया क्योंकि वोह शुद्ध देव-गुरु-धर्म के प्रति अनन्य आस्थाशील था |
    " कार्तिक सेठ " के किसी शत्रु ने गुरु के कान भर दिए कि " कार्तिक सेठ " ने आपके दर्शन नहीं किये |
    उसे अपने धर्म पर गर्व है, वह अन्य धर्म के साधुओं के आगे कभी झुकने को तैयार नहीं है |
    गुरु ने राजा को कहा यदि " कार्तिक सेठ " की पीठ पर थाल रखकर भोजन कराओ, तभी मैं भोजन करूँगा अन्यथा नहीं |
    राजा ने सारी बात " कार्तिक सेठ " को बताई |
    " कार्तिक सेठ " मना नहीं कर सका |
    दुसरे दिन " कार्तिक सेठ " को उसी ढंग से बिठाया गया ताकि थाल आसानी से उसकी पीठ पर रखा जा सके |
    गर्म-गर्म खीर से भरकर थाल सेठ की पीठ पर रखा गया |
    सेठ की पीठ जल रही थी, गुरु का अहं पूरा हो रहा था |
    खैर.. सेठ वापस घर आया |
    चिंतन किया कि राजा का अनुचित आदेश भी मानना पड़ता है और विचार कर मुनि बन गया |
    संयम और तप के प्रभाव से प्रथम स्वर्ग का इन्द्र ( शक्रेन्द्र ) बना |
    उधर वह साधू भी शक्रेन्द्र के आज्ञाधीन ऐरावत हाथी के रूप में पैदा हुआ |
    #####////////###############////////////
    अवधिज्ञान से जब हाथी ने अपना पूर्व-भव देखा ,
    तब उसे ज्ञात हुआ कि पूर्व-भव में मैं साधू था और यह सेठ था |
    वैर फिर जाग उठा |
    हाथी ने अपने २ रूप बनाए, इन्द्र ने यह देखकर एक पर अपना दण्ड रखा और दुसरे पर स्वयं बैठ गया |
    हाथी रूप बनाते गया और इन्द्र कुछ न् कुछ रखते गए |
    फिर शक्रेन्द्र महाराज ने अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर पता लगाया कि यह मेरे पूर्व जन्म का वैरी साधू है |
    तब इन्द्र ने अपने वज्र का प्रहार किया |
    वज्र के लगते ही हाथी ने अपने सारे रूपों का संवरण कर लिया और पूर्णतः अधीन बन गया |
    तब से अब तक शक्रेन्द्र महाराज जब तीर्थंकरों के कल्याण-उत्सवों में आते हैं,
    तब ऐरावत हाथी पर सवार होकर आते हैं |
    - भगवती सूत्र वृत्ति १८/२ से
    नोट- साधू को अहंकार में आकर पीठपर थोड़ी देर खाना खाने फल हजारों वर्षों तक अपनी पीठ पर इन्द्र की सवारी का दण्ड मिला |
    हम भी सोचें कि मनोरंजन के लिए हाथी, ऊँट, घोड़े आदि निरीह प्राणी की सवारी करते हैं, कौन से कर्म बाँध रहे है |
    एक स्वर्णिम सूत्र स्मरण रखें - कर्म बाँधने के लिए जीव स्वतंत्र है, उसका फल भोगने में पूरी तरह परतंत्र है

    HOW TO DO BHOJAN? WHY BHOJAN NECESSARY

    दीपक को देखें, एक ओर ज्योति जल रही है, दूसरी ओर धुआं निकल रहा है
    ऐसा क्यों ?
    जो जैसा खाता है वैसा ही निस्सरण होता है
    प्रकाश अन्धकार को खाता है तो धुआं ही निकलेगा, अन्धकार ही निकलेगा
    वैसे ही भोजन का हमारे शरीर और भावनाओं के साथ गहरा सम्बन्ध है
    खाते समय यह न सोचे कि पेट की आग को बुझाना है
    हजारों वर्ष पहले भी अध्यात्म के आचार्यों ने और मनीषियों ने भोजन के बारे में बहुत अनुसन्धान किये
    ब्रह्मचर्य के साथ भोजन का सम्बन्ध
    इन्द्रिय संयम के साथ भोजन का सम्बन्ध
    विद्या और मेधा के साथ भोजन का सम्बन्ध

    भोजन का शारीरिक, मानसिक, बौध्दिक और भावनात्मक स्वास्थ्य से गहरा सम्बन्ध है
    दुसरे शब्दों में इन सबका विकास भी भोजन से जुड़ा हुआ है
    भोजन में कैलोरी कितनी, क्या क्या खाना चाहिए, मात्र कितनी होनी चाहिए ?
    प्राचीन शब्द है परिमित भोजन, आज का शब्द है संतुलित भोजन
    एक व्यक्ति के पूर्ण भोजन की मात्रा बताई गयी है ३२ कवल
    ३२ कवल से जितना कम खाया जाए वो ऊनोदरी है
    चिकनाई का सन्दर्भ लें
    संतुलित भोजन के हिसाब से १५० ग्राम चिकनाई की जरूरत है
    एक दिन में एक स्वस्थ व्यक्ति को इससे ज्यादा चिकनाई नहीं खानी चाहिए
    चाहे वो चिकनाई चुपड़े हुए फुलके में आये, साग में आये, दूध, दही या घी में आये


    एक धार्मिक व्यक्ति को स्वास्थ्य के साथ-साथ संयम का प्रश्न भी मुख्य होता है
    वो स्वाध्याय, ध्यान, चिंतन, मनन आदि करता है
    शक्ति कम से कम कैसे व्यय हो ? आहार उनकी साधना में कहीं बाधक तो नहीं बनता
    आहार का मतलब है बाहर से लेना, विवेक से लें
    जो मन को निर्मल बनाना चाहता है वो यह जाने, कब-कब खाना है,कितना खाना है और क्या-क्या खाना है
    न जाने कितने लोग शाकाहार को छोड़कर अंडे और मांसाहार में चले जाते हैं.
    यह वृत्तियों पर भी असर डालते हैं शराब, तम्बाखू और जर्दा - यह सब भी स्वाभाव पर असर डालते हैं
    इतना ही नहीं शारीरिक बीमारियाँ भी इनके प्रभाव से बढ़ रही है
    शराब और तम्बाखू - इन दोनों का बहुधा कैंसर में योगदान होता है और भी कारण हो सकते हैं
    जैसे जैसे जागरूकता बढ़ रही है, अनेक सरकारों ने सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर प्रतिबन्ध भी लगाए हैं

    भोजन में चीनी का प्रयोग कम खतरनाक नहीं है
    चीनी को मीठा ज़हर भी कहा जाता हैं
    यह धीरे-धीरे मारती है, मीठे ढंग से मारती है
    चाय पीने का मतलब है, चीनी का घोल ही पी जाना
    सफ़ेद चीनी बिलकुल ही न खाएं, संभव न हो तो कम से कम खाएं
    इस से स्वास्थ्य की सुरक्षा को बल मिलता है
    दूसरी समस्या है नमक की ,
    गुर्दे की बीमारी का प्रमुख कारण है नमक
    यदि व्यक्ति एक कचौड़ी खाए तो कितना नमक उसके शरीर में जाएगा
    जो व्यक्ति कचौड़ी, पकौड़ी और भुजिया खाता है फिर साग और दाल भी खाता है तो कितना नमक खाता होगा
    स्वास्थय की दृष्टि से २ ग्राम नमक सही होता है
    लोग गेहूं या बाजरे की रोटी में भी नमक डाल देते हैं
    अपने स्वास्थ्य का खुद ही ध्यान रखना है तो चीनी और नमक के प्रयोग को कम करें

    व्यक्ति को चाहिए कि भोजन और शरीर को लेकर प्रयोग भी करें और देखे कि क्या फर्क पड़ता है
    उपवास, आयम्बिल, ऊनोदरी आदि प्रयोग करे
    एक तरीका होता है २० ग्राम चावल, वह भी कच्चा चावल और कोरा पानी
    दूसरा तरीका होता है, अधपका चावल १०० ग्राम और पानी
    इस प्रयोग से अनेक लोगों ने भानकर बीमारियों को मिटाया है
    लुधियाना में डाक्टर गोयल ने आयम्बिल का प्रयोग किया वे सुगर की बीमारी से पीड़ित थे
    डाक्टर कहते हैं सुगर की बीमारी में चावल नहीं खाना चाहिए
    डाक्टर गोयल ने दस दिन तक केवल चावल खाकर आयम्बिल किया
    नतीजा - सुगर की बीमारी मिट गयी
    आयम्बिल का प्रयोग,उपवास का प्रयोग, ऊनोदरी का प्रयोग ये शरीर के साथ साथ मानसिक और भावात्मक स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण है

    आहार और मौन
    आहार करते समय मौन रहें, न हंसना चाहिए न बोलना चाहिए
    क्योंकि आहार करना भी एक खतरनाक काम है
    शरीर की विचित्र व्यवस्था है - आहार नली और श्वास नली - दोनों का ढक्कन एक है
    जब हम खाते है,तब श्वास नली पर ढक्कन आ जाता है
    जब नहीं खाते तब तब खुल जाता है
    खाते हुए बातचीत करें, हंसे, उस समय अन्न का एक भी कण श्वास नली में चला जाए तो व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है
    भारत का एक सेनापति जापान गया हुआ था भोजन के बातचीत करते हुए कुछ ऐसा ही हुआ और उसकी तत्काल मृत्यु हो गयी

    आहार और भावक्रिया
    खाते समय केवल यही ध्यान रहे - मैं खा रहा हूं
    तन्मना भुन्जीत - खाते समय आहार में ही मन रहे और किसी में मन न रहे
    खाते समय दुकान, ऑफिस, कोई झगडा याद आये तो केवल खाना नहीं है
    केवल खाना एक साधना है, इसका अर्थ है कोरा खाना और कुछ नहीं करना
    न सोचना, न विचार, न कल्पना, न कोई योजना बनानी है

    खाने की विधि
    खाने की विधि है चबा-चबा कर खाना
    यदि व्यक्ति खाते समय नहीं चबाये तो दांत का काम
    बेचारी आंतों को करना पड़ता है
    दांत का काम है पिसाई करना
    यदि दान नहीं करें तो आंतों को करना पड़ता है
    बिना चबाये खाना आंतों को बिगाड़ने का बड़ा अच्छा तरीका है

    भोजन क्यों ?
    १. शक्ति की वृध्धि
    हम जो आहार करते है वह शक्ति की वृध्धि करने वाला है या नहीं ?
    २. क्षति की पूर्ति
    जो शक्ति क्षीण हुई है, उसकी पूर्ति हो
    दिमाग को काम करना है,शरीर के अवयवों को काम करना है
    ३.विजातीय का निर्गम
    व्यक्ति भोजन करता है और विजातीय मल संचित हो रहा है
    खाने के साथ-साथ मलों का जमाव शुरू हो जाता है
    मलों का उचित निस्सरण नहीं होगा तो धमनियां अकड़ेगी, लचीलापन कम होगा,
    चेहरे पर झुर्रियां पड़ेगी, काम करने की शक्ति कम होने लगेगी
    भोजन करते समय व्यक्ति सोचता नहीं है कि आज पेट साफ़ नहीं है तो भोजन नहीं करना है
    कुछ लोगों कि भ्रांत धारणा है कि ज्यादा खायेंगे तो कब्ज़ नहीं होगी
    जो खाया जाता है उसे पचाया जाय तो आंतें उसे निकाल देती है
    अगर नहीं निकाल पाए तो कब्ज़ हो जाती है.

    मलों का निर्गमन
    हम मलों के निर्गमन पर ध्यान दें
    पुरे शरीर से मलों की निर्गमन की प्रक्रिया है
    पसीने से, गुर्दे से, मुंह से, नाक से आदि
    इनसे भी जो सूक्ष्म मल होता है वोह धमनियों पर चिपक जाता है
    मल के जमाव से एसिड जमा होता चला जाता है,
    केल्सियम जमा होता चला जाता है
    चूना जमें नहीं, धमनियां कठोर न बने, रक्त-संचार के पथ में बाधा न आये
    इन सबके लिए मलों के निस्सारण पर ध्यान देना जरूरी है
    जितना मलों का जमाव, उतने ही रोग
    आरोग्य का मतलब विजातीय तत्वों का जमाव न होना

    भोजन से लघुता : प्रसन्नता
    स्वयं कसौटी करें कि भोजन के बाद शरीर में हल्कापन रहता है या भारीपन
    भारीपन है तो संतुलित भोजन नहीं हुआ
    शरीर टूटता रहता है, आलस्य सताता रहता है, सिर भारी रहता है
    किसी काम में मन नहीं लगता
    आहार मोहवश किया गया है
    भोजन के प्रसन्नता है, चेतना में निर्मलता जागती है, भावों की शुद्धि रहती है
    तो माने कि स्वस्थ भोजन किया है

    DEV SHASTRA GURU VANDANA

    देव शाश्त्र गुरु वंदना
    तर्ज़ - मेरा जूता है जापानी ...............
    मेरे देव केवलज्ञानी , मेरे गुरुवर सम्यग्ज्ञानी !
    दोनों वीतरागता धारी, हितकर कथनी है जिनवाणी !!
    मेरे देव .....................
    अनादि काल से बहु दुःख पाए , अपनी मोह गहल से !
    बाहर-बाहर ही भटके हम , निज चैतन्य महल से !!
    हमने देव की न मानी, गुरु जिनवाणी की न मानी !
    और अपनी -अपनी तानी , इससे रहे अज्ञानी !!

    मेरे देव ........................

    दुर्लभ नर भव पाया हमने , अरु पायी जिनवाणी !
    अनादि काल से अब तक की सुन , अपनी दुखद कहानी !!
    हितकर देव की प्रमाणी , ज्ञानी गुरुवर की बखानी !
    स्यादवाद की निशानी , उर धारी जिनवाणी !!
    मेरे देव ..............................
    सप्त तत्व का निर्णय करके , स्वपर विवेक को धारें !
    निज आतम का अनुभव करके , रत्नत्रय को धारें !!
    कहे कौन फिर अज्ञानी , मिटे भव दुःख की कहानी !
    मेट कर्मों की निशानी , " नायक " वरें शिवरानी !!
    मेरे देव ..............................

    SHANTI NATH BHAGWAN KI STUTI

    मुनि श्री चिन्मय सागर जी द्वारा रचित इस स्तुति का विशुद्ध भावो से नित्य पाठ करने से सं...सारी प्राणी को बाधा, आदि-व्याधि संकट में संबल और शांति प्रदान करती हैं !

    पाप प्रनाशक विघन विनाशक, शाशवत सुख के हो दाता
    भविजन त्राता शांति प्रदाता, सत पथ दर्शक हो ज्ञाता
    जिनके पग में सुर नर किन्नर . तीन लोक सब झुक जाता
    उन चरणों में मन, वच, तन से, नित्य नवाता मैं माथा !!१!!

    भावार्थ :-पाप कर्म से प्रताड़ित प्राणी मात्र के हे पाप प्रनाशक ! अन्तराय कर्म से सहित जीवो के विघ्न विनाशक, मोक्ष पथ के प्रदर्शक/ हितोपदेशी, भव्य जीवो के रक्षक त्राता, संतप्त संसारी प्राणी को शांति प्रदाता , अविनश्वर/ अक्षय सुख के दाता, लोकालोक के ज्ञाता/ सर्वज्ञ, तीन लोक के इन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र सब जिनके चरणों में झुक जाते हैं, ऐसे उन जिनेन्द्र भगवन के चरणों में मैं मन, वचन, काय से अपना मस्तक झुकता हूँ , अर्थात प्रणाम करता हूँ!.....


    ज्ञानी ध्यानी परम तपस्वी, सुर नर पशु जब करते हैं
    तब गुण थुति तब शांति जिनेश्वर, शब्दहीन क्या डरते हैं
    हे प्रभु तव थुति स्वर्ण कलश को, नहीं शब्दों से भरता हूँ
    शुद्ध भाव से भरा कलश ले, नवहन थुति तव करता हूँ !!२!!


    भावार्थ -: हे शांति जिनेश्वर !स्वयं स्तुत्य होकर भी ज्ञानी, ध्यानी, परम तपस्वी, गणधरादी एवं अणिमा आदि रिधियों से सहित परम एश्वर्य को भोगने वाले देवो के स्वामी स्वयं इन्द्र चारो गतियों में श्रेष्ठ मनुष्य और सब से निक्रस्थ कहलाने वाले पशु भी जब आपके गुणों की स्तुति करते है , तब हम शब्दहीन क्या डरते हें? अर्थात नहीं!    
    हे प्रभु ! स्वर्ण कलश के सामान मूल्यवान आपकी स्तुति हें ! अत: इस स्तुति रूपी स्वर्ण कलश को मैं मात्र शब्द रूपी जल से ही नहीं भरना चाहता हूँ अर्थात शुद्ध भाव रूपी सुधा से भरता हूँ ! और अमृत तुल्य शुद्ध भाव से भरे कलश को लेकर स्वार्थ, लोभ, लाभ, ख्याति , पूजा , चाह, आह आदि भावो से रहित होकर स्तुति रूपी आपका अभिषेक करता हूँ, क्यूंकि मैं मुनि हूँ, जल से भरे कलशो से अभिषेक आदि नहीं कर सकता हूँ!


    वर्तमान को देख विषमता ,भविषत को क्या गौण करूँ
    भूल आपको वीतराग जिन, तव थुति बिन क्या मौन धरूँ
    वृक्ष शिशिर ऋतु विषम समय क्या, बसंत विस्मृत कर देता
    फल बिन लघुतर आम्रवृक्ष को, कृषक नहि क्या जल देता!!३!!



    भावार्थ :- जैसे शीत लहर के कारण पतझड़ होकर एकाकी खड़ा वह वृक्ष क्या कभी शिशिर ऋतु के विषम समय में बसंत ऋतु में आने वाले फल फूलो की बहार को क्या विस्मृत कर देता हें? अर्थात भुला देता हें? नहीं!
    फिर एकाकी खड़ा मैं अपनी वर्तमान की इस विषमता को देखकर , वर्तमान से  ही बनने वाले उस भविष्य को क्या गौण करूँ ? हे वीतराग जिनदेव! विषम स्थिति के कारण आपको भूल कर आपकी स्तुति के बिना क्या मैं मौन धारण करूँ? नहीं, इस विषम समय में समता धारण कर स्तुति करता हूँ!
    फल से रहित उस लघुतर आम्र वृक्ष को क्या कृषक जल नहीं देता? फिर क्या मैं वर्तमान में माक्ष का आभाव देखकर आपकी स्तुति करना बंद कर दूँ? कैसे बंद कर सकता हूँ?

    भूत आपका शांति जिनेश्वर ,भविषत का मम संबल हैं
    वर्तमान तव विषम समय से, बचने का मम कम्बल हैं
    निश्चित हे जिन ! तव थुति से ही, होता जीवन मंगल हैं
    तव थुति बिन भव महाभयानक, देख सामने जंगल हैं!!४!!

    भावार्थ :-हे शांति जिनेश्वर! वर्तमान के विषम समय में आपका भूतकाल ही मेरे लिए संबल है! क्यूंकि आपका भूतकाल भी मेरे जैसा ही था और वर्तमान में विषम समय से बचने के लिए आपका वर्तमान ही मेरे लिए कम्बल है, क्यूंकि लोग कम्बल ओढ़ कर ही शीत लहर के विषम समय से बचते है ! वैसे ही मैं एक मात्र साधन आपके वर्तमान का स्मरण अर्थात स्तुति रूपी कम्बल ओढ़कर ही विषम समय रूपी लहर से बच जाता हूँ!
    हे जिनेंद्रदेव! निशित ही आपकी स्तुति से मेरा जीवन मंगलमय होता है, अन्यथा महा भयानक संसार रूपी घनघोर जंगल ही सामने है! अत: उस संसार रूपी जंगल से बचने के लिए मैं आपकी स्तुति करता हूँ!

    पुत्र पिता के पैर पकड़कर , होकर खड़े हिलाता हैं
    मुलचूल तक हिलकर खुद ही, स्वेद बहुत बहाता हैं
    उस सम हिलकर स्वेद बहाने , बाहर कर्म बहाता हूँ
    तव थुति कर मैं स्वेद रहित हो, तुम सम जिन बन जाता हूँ!!५!!

    भावार्थ :- शक्तिहीन अक्षम बालक ही तो पहले पिता के पैर पकड़कर खड़ा होता है, और अज्ञानता के कारण पिता के पैर हिलाकर पिताजी को ही चलायमान करना चाहता है, किन्तु आमूल चूल तक स्वयं ही हिलकर पसीना बढ़ाता है!
    इसी प्रकार हे भगवन! मेरे पास इतनी क्षमता और शक्ति कहाँ है, की आपकी स्तुति कर सकू ! किन्तु आपके ही सहारे से बालक के सामान आपके ही चरणों को पकड़कर स्तुति करने के लिए खड़ा हो जाता हूँ, और स्तुति के माध्यम से हे अचल ! निश्चल ! वीतरागी ! आपको ही आमूल चूल तक हिलाना चाहता हैं!
    किन्तु स्वयं ही उस बालक के समान स्तुति करते करते आमूल चुल तक हिलकर बहुत ही पसीना बहाता हूँ, पसीने के भने कर्मो को बहार निकाल कर आप जैसे ही स्वेद से से रहित अचल निश्चल वीतरागी जिन बन जाता हूँ!


    विद्या बल पर उड़ने से वह ,उर्धवगामी क्या कहलाता

    नभ में उड़कर नभ चर प्राणी,मोक्ष महल में क्या जाता
    तुम सम बनने ईर्यापथ से, मोक्ष मार्ग पर जब बढ़ता
    तव धुन में तब हे जिन! मुझको, कंकर पत्थर नहि गढ़ता !!६!!

    भावार्थ :-हे ऊर्धव्गामी  ! कोई आकाश गामिनी विद्या के धारी विध्याधरादी विद्या के बल पर आकाश में उड़ने मात्र से क्या वे ऊर्धव्गामी कहलाते  हैं? आकाश में उड़ने वाले नभचरप्राणी पक्षी आदि आकाश में उड़कर क्या मोक्ष महल में जा सकते हैं? आपके समान ऊर्धव्गामी बनने के लिए हमे भी आप जैसा इर्यापथ से मोक्षमार्ग पर चलना ही पड़ेगा, अर्थात त्रयोदश प्रकार चरित्र को धारण करना ही पड़ेगा, तभी संभव है!
    हे जिनेन्द्र देव ! आप जैसे ऊर्धव्गामी बनने के लिए आपकी धुन में आप जैसा ही इर्यापथ से मोक्ष मार्ग पर जब आगे बढ़ता हूँ, तब मुझे मार्ग में आने वाले ये कंकर , पत्थर नहीं गड़ते है, अर्थात आपकी धुन में मोक्ष मार्ग पर चलने से मार्ग में आने वाले बाधा , उपसर्ग, प्रिशयों का ज्ञान और  भान भी मुझे नहीं होता है!


    वीतराग से जिसे राग हैं, वह क्या तुमको तज सकता

    वीतराग वश फिर मैं कैसे, देव सरागी भज सकता
    वीतराग से बिना राग क्या, वीतराग जिन बन सकता
    तुम अनुरागी मुझको भी क्या, कोई रागी कह सकता !!७!!

    भावार्थ :-हे वीतराग जिनदेव वीतरागता से जिसे राग है, वह भव्य जीव राग द्वेष से रहित आपको क्या तज सकता है ? वीतरागता को पाने के लिए फिर मैं आपको तजकर रागी द्वेषी देवो को कैसे भज सकता हूँ ? और कोई वीतरागता को पाने के लिए वीतराग जिनदेव से अनुराग किये बिना सरागी देवो का सेवन कर , क्या वीतरागी बन सकता हैं?
    क्यूंकि साधन के अनुसार ही साध्य की सीधी होती हैं, हे वीतरागी ! आपका अनुरागी मुझको भी क्या कोई रागी कह सकता हैं ? नहीं, क्यूंकि वीतरागी के प्रति जो अनुराग हैं, वह भी तो वीतरागता के लिए ही कारण हैं!


    अतुल अगम्य पारदर्शी हो, चिंतामणि सर्वज्ञ महा
    अज्ञ रहा मैं मणि के आगे, कान्तिहीन वह कांच कहाँ
    सुमणि किरण से  कांच सुनिश्चित, कान्ति मान क्या नहि होता
    ज्ञान भानु जिन तव प्रसाद से, अज्ञ विज्ञ क्या नहि होता !!८!!

    भावार्थ :-हे भगवन , पारलोकिक होने से आप बेजोड़ अर्थात अतुलनीय हो, इन्द्रियों के द्वारा देखे nahi जाने से हमारी पहुँच के बाहर होने से आप अगम्य हो, स्पष्ट पूर्ण रूप से पदार्थो को युगपत देखने वाले होने से पारदर्शी हो ! सम्पूर्ण द्रव्यों के सम्पूर्ण गुण एवं पर्यायों को युगपत जानने वाले होने से सर्वग्य हो  !
    चिंतामणि जो चिंतित सांसारिक पदार्थो को ही देने वाला होता है, किन्तु आप शाश्वत सुख अर्थात स्वर्ग मोक्ष को भी देने वाले होने से महाचिंतामणि हो , हे जिनेन्द्र देव! आप सर्वग्य के आगे मैं अज्ञ कहाँ? जगमगाता हुआ उस महामणि के आगे वह कांतिहीन कांच कहाँ ? किन्तु उस सुमणि किरणों की सुसंगति से कांतिहीन वह कांच भी क्या कान्तिमान नहीं होता? निश्चित ही वह कांच भी मणि के समान जगमगाने लगता हैं ! हे ज्ञान भानु शांतिनाथ भगवान् आपकी संगति एवं स्तुति के प्रसाद से फिर मैं अज्ञ क्या विज्ञ नहीं हो सकता?


    बिल्ली से वह सिंह पुत्र भी, कभी डरा क्या डर सकता
    तुम सपूत हो जर्जर तन से, चिन्मय कैसे डर सकता
    तव थुति तप कर्म खपा कर , रहित शरीरी बन सकता
    पर नहि मैं तो तुमको तजकर, तन के पीछे लग सकता !!९!!

    भावार्थ :-हे शांतिनाथ भगवन , आप तो नरसिंह हो , आप जैसे शेर की संतान मैं मैं शावक हूँ की बिल्ली एवं बिल्ली की आवाज़ सुनकर वह शेर का बच्चा आज तक कभी डरा है क्या? आगे भी डर सकता हैं क्या? फिर आप नरसिंह के सपूत हो कर जर्जर तन रूपी बिल्ली एवं बिल्ली की उस आवाज़ सुनकर मैं चिन्मय कैसे दर सकता हूँ..
    डरना तो दूर की बात, हे अशरीरी ! आपकी स्तुति कर, घोर घोर - घनघोर तपकर कर्मो को खपकर आप जैसे रहित शरीरी बन सकता हूँ , पर हे पतितोधारक !आप एवं अपनी अविनश्वर स्वात्मा को छोड़कर , नश्वर एवं अशुचि इस शरीर के पीछे तीन काल में भी मैं नहीं लग सकता हूँ!




    वन में रहकर शेर विपिन से, कभी प्रभावित क्या होता
    भूल विपिन को वन का राजा , पत्थर पर क्या नहि सोता
    तव गुण गाते भव वन तन को, भूल हमेशा हूँ देता
    हे जिन! तव थुति करते - करते, स्वात्म नींद में सो लेता !!१०!!


    भावार्थ :-
    घरघोर जंगल में रहकर भी वह जंगल का राजा सिंह कभी उस जंगल से प्रभावित होता है क्या?  वह वनराज घनघोर जंगल को भूलकर ऊँचे ऊँचे पर्वतो के उन पत्थरो की चट्टानों प् क्या नहीं सोता है? हे शांतिनाथ जिनेन्द्र दुर्जय , दुर्गम ,  दुस्तर ऐसे संसार रूपी घनघोर जंगल में रहकर इस से फिर मैं कैसे प्रभावित हो सकता हूँ? जिस प्रकार वनराज वन में रहकर भी वन को भूलकर निश्चिन्त होकर पत्थर की चट्टानों पर सो जाता है उसी प्रकार मैं भी आपके गुणों को गाते गाते संसार रूपी घनघोर जंगल एवं तन में रहकर भी इन दोनों को भूल जाता हूँ और आपकी स्तुति करते करते ही स्वात्मा की नींद से संसार एवं हड्डी रूपी चट्टानों पर सो जाता हूँ !







    योग्य समय पर योग्य क्षेत्र में , कृषक बीज क्या नहि बोता

    योग्य समय पर बीज वपन वह, बहुत फसल क्या नहि देता
    नर भव पाकर तव थुति कर क्या, कर्म कालिमा नहि धोता
    हे जिन! तव थुति भविजन को, शुभ शाश्वत सुख क्या नहि देता !!११!!




    भावार्थ :- योग्य समय पर योग्य क्षेत्र में किसान क्या बीज नहीं बोता है? और योग्य समय का बोना क्या बहुत फसल नहीं देता हैं ? इस प्रकार भव्य जीव नर भव रूपी योग्य समय और कर्म भूमि रूपी योग्य क्षेत्र को पाकर , आपकी स्तुति रूपी बीज का वपन क्या करम कालिमा को नहीं धोता हैं? हे जिनेश्वर ! आपकी स्तुति रूपी बीज का वपन भव्य जीवो के लिए शुभ अर्थात प्रशस्त , हितकर , आल्हादक उस शाश्वत सुख को प्राप्त नहीं देता है?



    यत्र तत्र सर्वत्र जगत में , राग द्वेष ही फैला है

    स्वार्थ लोभ भय सदा मोह से, जन- जन का मन मैला है
    निराकार हो निर्विकार तुम निर्भय निष्चल मेरु हैं
    तव थुति कर वह भीरु भी क्या, बनता नहीं सुमेरु है !!१२!!




    भावार्थ :- जहाँ देखो , वहां चारो और संसार में राग और द्वेष ही फैला हैं ! संसारी प्राणी अत्रान , आकस्मिक मरण , वेदना , अगुप्ति, इह - परलोक आदि सप्त भयो से भयभीत अशांत आकुल व्याकुल हो उठा  हैं! स्वार्थ , लोभ और मोह आदि विकारों से सदा जन जन का मन मलिन हो गया हैं! ऐसे आंधी तूफ़ान में भी आप निर्विकार, निराकार , निर्भय चलायमान नहीं होने वाले निश्चल मेरु के सामान हैं ! स्वार्थ ,लोभ,मोह, राग, द्वेष, भव आदि से भयभीत वह भव्य भीरु आपकी स्तुति करके क्या आप जैसा निर्विकार, निश्चल, निर्भय,  निराकार नहीं बन सकता हैं?




    दोष रहित जिन भाव भक्ति से, आया तव गुण गाने को

    तुम थुति से मैं नहीं चाहता, धन वैभव कुछ खाने को
    यह थुति तव कुछ पाने को नहीं, करता दोष मिटने को
    क्षुधा तृषा सब शीघ्र नाशकर , सिध्दाल्य में जाने को !!१३!!




    भावार्थ :- क्षुधा , तृषा आदि से रहित हे शांतिनाथ भगवन! आपकी इस स्तुति से मैं गोधन, गजधन चाहता नहीं हूँ, न ही वैभव , विभूति चाहता हूँ , और न ही कुछ खाने- पीने को , आप देते भी कहाँ हैं? यदि देंगे तो भगवन भी कैसे कहलायेंगे? क्यूंकि आप तो दोषों से रहित ही होते हैं ! इसलिए तो हे गुणनिधि! भाव और भक्ति से आपके गुण गाने के लिए अर्थात स्तुति करने के लिए आया हूँ, अन्यथा जाता ही क्यूँ? हे जिनदेव ! यह स्तुति कुछ पाने के लिए नहीं ,क्षुधा , तृषा आदि १८ दोषों को मिटाने के लिए और सब दोषों को नाश कर शीघ्र ही आप जैसे सिद्धालय में जाने के लिए कर रहा हूँ!




    पग- पग पर जग विस्मित होता, पर नहीं विस्मित विस्मय से

    स्मय विस्मय से रहित जिनेश्वर, भिन्न निराला है जग से
    इसीलिए तो विस्मित होकर, झुकता जग हैं तव पग में
    स्मय विस्मय बिन, तुम सम बनने, चलता हूँ मैं तव मग में !!१४!!






    भावार्थ :- संसारी प्राणी स्पर्श, रूप, रस , गंध ,शब्द आदि को देखकर , कभी परिवर्तनशील संसार में इन्द्रादि के वैभव को देखकर एवं कभी इन्द्रादि को आपके चरणों में झुकते हुए देखकर विस्मित अर्थात आश्चर्य चकित हो जाता हैं! किन्तु न झुकने वालों को देखकर , न विस्मित होने वालो को देखकर , विस्मयकारी संसार और संसार के पदार्थो कों देखकर आप न तो प्रभावित होते हैं , न ही विस्मित होते हैं! स्मय और विस्मय से विरहित हे शांतिनाथ जिनेश्वर! विस्मित होने वाले एवं विस्मयकारी इस संसार में रहकर भी इन दोनों से भिन्न निराले ही रहते हैं, हे जिनेश्वर! स्मय विस्मय से रहित आपको देखकर संसार और विस्मित होता है, विस्मित होकर धन्य- धन्य हो कहते हुए आपके चरणों में झुका चला जाता हैं ! हे भगवन ! मैं भी आप जैसे स्मय विस्मय से  रहित होने के लिए आपकी स्तुति करता हुआ आपके मार्ग पर अविरल रूप से चलता हूँ!


    वज्र कवच धर वीर पुरुष का , शत्रु वर्ग क्या कर सकता
    अस्त्र शास्त्र के प्रहार से क्या, वीर कभी वह मर सकता
    कषाय इन्द्रिय विषय शत्रु से, क्षमाशील क्या डर सकता
    वितरागमय वज्र कवच धर, महावीर क्या मर सकता !!१५!!


    भावार्थ :- वज्र कवच धारण करने वाले वीर पुरुष का अर्थात योधा का शत्रु समूह क्या कुछ बिगाड़ सकता हैं? शत्रुओ के अस्त्र -शास्त्र के प्रहारों से वह वीर पुरुष क्या कभी मर सकता हैं?
    इसी प्रकार आप जैसे वीतराग्तामय वज्र कवच को धारण करने वाला वह महावीर अर्थात योधा साधक विषय, कषाय एवं इन्द्राय रूपी शत्रुओं के प्रहारों से क्या मर सकता हैं? या घायल हो सकता हैं? क्षमाशील व्यक्ति क्रोधादि कषायों के प्रहार से क्या डर सकता है? नहीं , जैसे जैसे उन पर प्रहार होगा , वैसे वैसे ही वे सुरक्षित एवं शीतल होते चले जायेंगे! क्षमा एवं वीतरागता से बढ़कर दुनिया में कोई वज्र कवच नहीं है! उसको धारण करने वालों को विषय , कषाय एवं इन्द्रय रूपी शत्रु उन्हें शुब्द विचलित एवं नाश नहीं कर सकते हैं , किन्तु स्वयमेव ही नाश को प्राप्त हो जाते हैं!

    हे जड़ दीपक अरु सूरज से , अन्धकार तो नश जाता
    पर प्रकाश में जागकर भी जग , मोह नींद में सो जाता
    धर्म दिवाकर तव दर्शन से, मोह नींद से जग जाता
    ज्ञान पुंज चिद पिण्ड प्रखर से, मिथ्यातम भी भग जाता !! १६!!


    भावार्थ :-सूरज और दीपक तो जड़ हैं, उनके प्रकाश से रात का घोर अंधकार तो नाश जाता हैं , पर महा  भयानक मिथ्यात्वरूपी अंधकार नहीं, सूरज का उदय होते ही प्रकाश को देखकर घरी नींद से सारा संसार जाग जाता , किन्तु जागते ही क्षण की देरी किये बिना मैं और मेरा , तू और तेरा , राग - द्वेष रूपी मोह की नींद में  जागते ही सो जाता हैं! धर्मरुपी प्रकाश देने वाले हे दिवाकर ! आपके दर्शन मात्र से ही संसारी प्राणी मोहरूपी गहरी नींद से भी जाग जाता हैं! हे प्रखर चैतन्य पिंड ! हे ज्ञान पुंज ! आपकी किरणों से अनादि कालीन मिथ्यातव रूपी अंधकार भी भाग जाता हैं !    


    कल्पवृक्ष की छत्र छाव में , बैठ दुखी नर होता क्या
    सर्दी, गर्मी, भूख प्यास से, पीड़ित होकर रोता क्या
    हाय जिन! तुम सम कल्पवृक्ष ताज, धीजन वह क्या जायेगा
    बबूल वृक्ष की छत्र छाव में , शाश्वत सुख क्या पायेगा !!१७!!


    भावार्थ :-कल्पवृक्ष की छत्र छाँव में बैठकर भी मनुष्य क्या कभी दुखी होता है? सर्दी, गर्मी , भूख ,प्यास आदि से प्रताड़ित हो कर क्या रोता है? हे जिनेन्द्र भगवन ! यह कल्पवृक्ष तो मात्र कल्पित लोकिक वस्तुओ को ही देता हैं , किन्तु आप अकल्पित अलोकिक एवं अचिन्त्य फल को भी देने वाले हैं ! अत: आप महाकल्पवृक्ष है, फिर आप जैसे कल्पवृक्ष की छत्र छाँव में बैठकर भी क्या दुखी होंगे? और बुद्धिमान आप जैसे सच्चे वीतराग भगवान् रूपी कल्पवृक्ष को छोड़कर क्या दूसरो की शरण में जायेगा ? यदि जायेगा भी तो वह धीमान कैसे कहलायेगा? यदि चला भी जायेगा , तो सरगी देवी, देवता रूपी बबूलवृक्ष की झुरमुट छत्र छाँव में शाश्वत सुख रूपी घनी छाया को क्या पायेगा?

    महादेव हो शान्ति जिनेश्वर, शांति प्रदाता हो जग में
    परम शांति को पता हु मैं , हे परमेश्वर तव पग में
    निर्भय होकर निराबाध से, चलता हूँ जब तव पग में
    व्यंतर भी भयभीत होकर, भग जाता हैं पल भर में !!१८!!


    भावार्थ :-हे देवो के देव , महादेव! संतप्त और अशांत संसार को शांति प्रदान करने वाले हे शांतिनाथ जिनेश्वर ! संसार सागर से पार लगाने में नाव के समान आपके पावन चरणों में मैं परम शांति को पाता हूँ ! हे परमेश्वर आपका अनुगामी बन आपके पीछे- २ निर्भीक होकर निराबाध रूप से आपके मार्ग पैर अर्थात आपके चरण चिन्हों पर जब मैं चलता हूँ , तब आपके इस रूप को देखकर उपसर्ग करने में उतारू वह व्यंतर भी भयभीत हो कर पल भर में ही भाग जाता हैं , अर्थात आपके संरक्षण में आपके चरण चिन्हों पर जो भी चलेगा, उसके मार्ग में कोई भी बाधा उपस्थित नहीं कर सकता हैं!

    हे जिन ! जग के वैद्यराज भी , शरण तुम्हारी जब आते
    तब हम उनके पाद मूल में , रोग नाश क्या कर पाते
    वैद्यो  के तुम वैद्यराज हो, तव पग कैसे तज सकता
    जनम मरण भव रोग नाश को , विष भक्षण क्या कर सकता !!१९!!

    भावार्थ :-हे शांतिनाथ भगवन !  संसार के सभी वैधराज भी आपकी शरण में जाते हैं अत: आप वेधो के भी वैध हैं! जनम , जरा, मृत्यु रूपी भव रोग को नाश करने के लिए जब वे राज वैध भी आपकी शरण में ही आते हैं, तब उनकी शरण में जाकर क्या कोई रोग नाश कर पायेगा? हे वेधो के भी वैधनाथ ! फिर हम अमृततुल्य आपकी चरण शरण को कैसे तज सकते हैं ? हे म्रत्युंजयी ! जनम जरा, मृत्यु, रूपी भव रोग को नाश करने के लिए क्या कोई विशभक्षण कर सकता हैं? नीम - हकीम की शरण में जा सकता है? और विशभक्षण कर क्या कोई म्रत्युंजयी हो सकता हैं? फिर मैं सरगी देवी- देवताओं की स्तुति रूपी विष भक्षण कैसे कर सकता हूँ और सेवन का क्या म्रत्युंजयी हो सकता हूँ? नहीं हो सकता


    राग द्वेष की पगडण्डी तो, भव वन में भटकाती हैं
    हे जिन! निश्चित शरण आपकी ,दुःख से मुक्ति दिलाती हैं
    राजमार्ग से जो नर चलता, भटक कभी क्या वह सकता
    महाभयानक भव वन में क्या, भव दुःख ठोकर खा सकता !!२०!!

    भावार्थ :-पगडण्डी की शरण में जो भी जायेगा, पगडण्डी को जो भी अपनाएगा अर्थात आपके रतन त्रय तलवार की धार के सामान राजमार्ग को छोड़कर राग द्वेष रूपी पगडण्डी से शीघ्र ही जो मोक्ष जाना चाएगा, उसको पगडण्डी निश्चित रूप से संसार रूपी घनघोर जंगल में भटकाती है, किन्तु हे जिनेन्द्र भगवन! आपकी शरण तो निश्चित रूप से भव्य जीवो को भव दुःख से मुक्ति दिलाती हैं , क्यूंकि आपके वितरागमय राजमार्ग से जो मनुष्य चलता है , वह कभी संसार रूपी जंगल से क्या भटक सकता हैं? और महाभयानक भव वन में भटककर संसार के दुखरुपी ठोकरों को क्या खा सकता हैं? हे भगवन! आपका वितरागमय मार्ग , राजमार्ग के सामान है और सराग्मार्ग तो रागद्वेष रूपी , गड्ढो से सहित हैं , जो नरक निगोड आदि संसार रूपी जंगल में भटकने वाली पगडण्डी के समान हैं! पगडण्डी से चलने वालों को ही ठोकर लगती हैं, राजमार्ग से चलने वालों को नहीं , और पगडण्डी से चलन्ने वाला ही भटक सकता हैं , राजमार्ग से चलने वाला नहीं!


    ओषधि सेवन करके भी नर, अमर हुआ क्या हो सकता
    हे जिन! निजरस अमृत पीकर मरा कभी क्या मर सकता
    फिर मैं कैसे परमोषधी तज , ओषधि सेवन कर सकता
    होकर तुम संतान कभी क्या, आधि व्याधि से डर सकता !!२१!!

    भावार्थ :-सिद्धरस आदि ओषधि का सेवन कर कोई मनुष्य सिद्ध, बुध , नित्य निरंजन हुआ है क्या? ऐसे अनेक परकार के सिद्धरसो का सेवन कर के भी क्या कोई सिद्ध हो सकता है? हे जिनेन्द्र भगवन ! आप जैसे शुधात्म सुधारस का पान करने वाला भी कभी क्या मरा हैं? या आगे मर सकता है? और जिस ओषधि से द्रव्य प्राणों की भी रक्षा नहीं हो सकती है ! उस ओषधि से भाव प्राणों की रक्षा कैसे संभव हैं ? जिसने निश्चय प्राणों की रक्षार्थ ओषधि का सेवन किया हैं, वह भी क्या मर सकता हैं? हे प्राणनाथ जिनदेव! फिर आपके उस परमोश्धि को छोड़कर इस जड़ ओषधि का सेवन मैं कैसे का सकता हूँ? आपकी संतान होकर मैं चिन्मय भी क्या कभी आधि व्याधि से दर सकता हूँ? आपने जिस परमोश्धि का सेवन कर सकता हूँ? अर्थात नहीं!

    हे जिनवाणी शिव सुख खानी, नहीं दूषित वह पानी हैं
    समीचीन हैं, सारभूत हैं, इसमें नहीं मनमानी हैं
    अमृत सम हैं अमर बनाती, पीते निश्चित ज्ञानी हैं
    स्याद्वाद्मयी तुमरी वाणी , हे जिन! जग कल्याणी हैं !!२२!!

    भावार्थ :-हे जिनेन्द्र भगवन ! आपकी वाणी अर्थात जिनवाणी मोक्ष सुख की खान है ! विषय कषाय एवं एकान्तवाद आदि से प्रदूषित पानी है वह, अपितु वह अमृत के सामान हैं! छोटे बच्चे , बूढ़े, स्त्री , पुरुष , नारकी, देव , पशु, आदि जो भी इसका पान करेगा, उसको यह अमर बनती हैं , अमृतव को प्राप्त करने की भावना रखने वाले वह ज्ञानी ही नियम से जिनवानी का पान करते है , अज्ञानी नहीं! हे शांति जिनेश्वर ! अनेकांत और स्याद्वाद्मयी आपकी वाणी जन कल्याणी है, अर्थात जगत के प्राणी मात्र का कल्याण करने वाली है, क्यूंकि हे सर्वग्य, आपकी वाणी सारभूत है, समीचीन हैं , इसमें किसी प्रकार की मनमानी नहीं है!

    मात पिता की बैठ गोद में, बालक पर से डरता क्या
    चिंता भय से मुक्त होएकर, क्रीडा वह नहीं करता क्या
    हे जिन! सच्चे मात पिता तुम, भ्राता गुरु अरु त्राता हो
    निज में क्रीडा जब में करता, होता दुःख भी साता वो !!२३!!

    भावार्थ :-माता- पिता की गोद में बैठा वह बालक क्या कभी किसी से डरता हैं, चिंता और भय से मुक्त होकर क्या वह अपने आप में क्रीडा नहीं करता हैं! हे जिनेन्द्र भगवन! आप ही मेरे सच्चे माता, पिता, भ्राता , गुरु , रक्षक, त्राता सब कुछ हो! आपको छोड़कर इस संसार में मेरा कोई नहीं है!
    फिर बालक के समान आपकी गोद में बैठकर कुदेव, रागी, द्वेषी, व्यंतर , उपसर्ग , रोगादि परीषहो से मैं कैसे दर सकता हूँ? संसार की चिंता और भय से मुक्त होकर, आपके जैसे ही अपनी शुद्धात्मा में क्रीडा करता हूँ, तो वह दुःख भी सुख में अपने आप ही परिवर्तित हो जाता हैं!

    राजाश्रित नर नोकर चाकर, और प्रजा से डरता क्या
    महाराज को छोड़ प्रजा से, कभी मित्रता करता क्या
    राजा अरु तुम महाराज के, हे जिन! नहीं सरताजा क्या
    फिर मैं रुज अरु कर्मो से डर, शरण किसी की गहता क्या !!२४!!

    भावार्थ :-हे भगवन ! जिसको राजा का आश्रय कभी प्राप्त हो गया हो , क्या वह व्यक्ति राजा के नोकर , चाकर, अंगरक्षक , प्रजा आदि से डरता है? महाराजा को छोड़कर प्रजा आदि से मित्रता करता हैं ? हे शांति जिनेश्वर ! प्रजा का पालन पोषण करने वाले राजा और २८ मुल्गुनो का पालन करने वाले महाराजा के भी क्या आप सरताज नहीं हैं? ये लोग भी क्या आपको सिर पर धारण नहीं करते है? अर्थात राजा, प्रजा आदि से क्या आप वन्दनीय पूजनीय नहीं हैं? फिर मैं आप जैसी विभूति सरताज का आश्रय पाकर आपके गुणगान/ पूजा, स्तुति , सेवादी करने वाले इंद्र – नरेन्द्र , आपके अंगरक्षक यक्ष – यक्षिणी आदि से भी क्या डर सकता है? हे वीतरागी देव आपको c होड़कर आपके नोकर- चाकर आदि अंगरक्षक से क्या मैं मित्रता कर सकता हूँ? रोगादि परिषय एवं तीव्र अशुभ करम के उदय से डरकर आपके सेवक और रागी- द्वेषी कुदेवादी की सेवा और सेवन मैं कैसे कर सकता हूँ?


    परमातम जिन परमेष्ठी हो, परम पूज्य परमेश्वर हो
    जग जन तारक जग्दोधारक, जगन्नाथ जगदीश्वर हो
    विश्वनाथ हो विश्वासी विभु, विश्व व्यापी प्रभु अविनाशी
    शाश्वत सुन्दर शिवशंकर हो, सिद्धाल्या के रहवासी !!२९!!

    भावार्थ :-हे जिनेन्द्र भगवन आप सभी आत्माओ में सर्वश्रेष्ठ होने से परमात्मा हो, परम इष्ट पद को प्राप्त करने वाले होने से परमेष्ठी हो , जगद- वन्द्य होने से परम पूज्य हो, ईश्वर से भी श्रेष्ठ होने से परमेश्वर हो, संसारी प्राणियों को संसार से पार उतारने वाले तारक होने से जगत- उद्धारक हो, इन्द्र , नरेन्द्र, नागेन्द्रादी अर्थात जगत के सभी जीव आपको नाथ मानते हैं! अत: आप जगन्नाथ हो, जन – जन के ईश्वर होने से जगदीश्वर हो, अन्तरंग वैभव को पाने के विभु हो, प्राणी – मात्र के प्रार्थना के योग्य होने से प्रभु हो, सम्पूर्ण विश्व के ही विश्वास के योग्य होने से आप विश्वासी हो , विश्व के सम्पूर्ण पदार्थो को युगपत, स्पष्ट रूप से जानने वाले सर्वग्य होने से विश्वव्यापी हो, शाश्वत हो, सत्य हो , शिव हो, सुन्दर हो, शंकर हो, हे शांतिनाथ भगवन ! आप तो सिद्धालय के रहवासी हो !

    पुत्र धनी का निर्धन अरु वह, दीन दुखी भी हो सकता
    पर नहीं तुम सुत दीन दुखी अरु, निर्धन पीड़ित हो सकता
    परम पूज्य हे शांति जिनेश्वर! शाश्वत शिव सुख स्वामी हो
    मात्र धनी क्या जिन भी बनते, निश्चित तुम अनुगामी वो !!३०!!

    भावार्थ :-दुनिया में धनवान का पुत्र भी निर्धन बनकर दीन, हीन, दुखी होता हुआ देखने में आता हैं , वह भी दरिद्री बनकर भीख मांग सकता हैं! पर शाश्वत शिव सुख के स्वामी हे शांति जिनेश्वर ! आपके शरणार्थी सुत आपके भक्त भव्य जीव न ही निर्धन हो सकते हैं , न ही दीन- दुखी हो सकते हैं! और न ही कभी वह रोगादि से पीड़ित हो सकते हैं ! हे परम पूज्य ! आपका अनुगामी वह स्वस्थ , सुन्दर, सुखी एवं धनवान ही नहीं, अपितु निश्चित ही आपके समान परम पूज्य जिनेन्द्र भगवन भी बन जाता हैं !

    द्वेष कलेश आवेश दोष सब, पाप कर्म मल धुल जाते
    स्मय भय विस्मय दुःख बाधा अरु, संकट सब हैं टल जाते
    तव थुति से जिन, निश्चित , दुर्गुण, विषय विषमता नश जाते
    आकुलता से ले विराम वह, परम शांति को पा जाते !!३१!!

    भावार्थ :-हे शांति जिनेश्वर ! भाव भक्ति से आपकी स्तुति करने से भव्य जीवो के अनेक प्रकार के dvesh , कलेश , आवेश आदि १८ प्रकार के दोष , पाप , करम रूपी मॉल आदि सब धुल जाते हैं! मद, मत्सर , भय, विस्मय ,दुःख , बंधाएं और सब प्रकार के संकट टल जाते हैं ! हे जिनेन्द्र भगवन ! आपकी स्तुति से दुर्गुण, विषय , विषमता आदि नाश को प्राप्त हो जाते हैं, इतना ही नहीं , आपकी स्तुति कर आप जैसे आकुलता से विराम लेकर भव्य जीव परमशान्ति को पा जाते हैं !

    मंद मधुर मुस्कान देख वह, बालक भी निज पालक की
    शक्तिहीन भी चलकर जाता, शीघ्र गोद अभिभावक की
    शिशु सम हे जिन पथ पर चलता, मुझमे क्षमता शक्ति कहाँ
    देख आपकी मूरत को मैं, चलकर करता भक्ति यहाँ !!३२!!

    भावार्थ :-अपने पालक की मंद मधुर मुस्कान देखकर वह शक्तिहीन और भयभीत बालक भी चलकर शीघ्र ही अपने अभिभावक की गोद में जिस प्रकार पहुँच जाता हैं, उसी प्रकार हे शांति जिनेश्वर ! आपके पथ पर चलने के लिए मेरे पास इतनी भी क्षमता एवं शक्ति कहाँ है? वज्र वृषभ नाराच संहनन के अभाव में शक्तिहीन और संसार शारीर एवं भोंगो से भयभीत मैं उस शिशु के समान आपकी वितरागमय , शांत , प्रसन्न छवि को देखकर ही मात्र शब्दों से ही नहीं, आपके मार्ग पर चलकर यहाँ आपकी स्तुति और भक्ति करता रहता हू और मुझे पूर्ण विश्वास है, की उस शिशु के सामान शक्तिहीन होते हुए भी आपकी छवि को देखते देखते , स्तुति एवं भक्ति करते करते शीघ्र ही मैं भी एक दिन आपकी गोद में पहुँच जाऊंगा !


    तव थुति से ही ऊष्मा उर्जा, पल पल मुझको बल मिलता
    तव थुति संबल लेकर चिन्मय , अविचल जिनपथ पर चलता
    ऊष्मा पाकर बर्फ समा नित, कर्म कालिमा है गलता
    तुम दर्शन से शांति जिनेश्वर, मुरझाया मम मन खिलता !!३३!!

    भावार्थ :-जड़कर्मो के संयोग की वजह से मैं चिन्मय होकर भी चेतना से रहित जडवत हो गया हूँ , मुझ में अनंत शक्ति विद्यमान होते हुए भी मैं शक्तिहीन बन गया हूँ , किन्तु हे जिनेन्द्र भगवन ! आपकी स्तुति एवं भक्ति से मुझे ऊष्मा मिलती हैं , उर्जा मिलती है , चेतनता इतनी जग जाती हैं , आपकी स्तुति से ही पथ पर आगे भाधने के लिए मुझे पल – पल बल मिलता हैं, आपकी स्तुति रूपी संबल लेकर शक्तिहीन होते हुए भी आपके मार्ग पर विचलित नहीं होते हुए आप जैसे अविरल चलने लगता हूँ !
    आपकी स्तुति से ही मेरी आत्मा के एक -एक प्रदेश में उष्मा एवं उर्जा का संचार होता हैं , जिस प्रकार सूर्य की उस ऊष्मा और उर्जा को पाकर बर्फ का वह पर्वत पिघल जाता हैं, उसी प्रकार मेरी आत्मा की उस ऊष्मा और उर्जा को पाकर कर्म रूपी बर्फ का वह पर्वत भी गल जाता है , पिघल जाता हैं! हे शांति जिनेश्वर ! भाव विभोर होकर जब मैं आपकी शांत, वितरागमय ,निराकुल मुद्रा का दर्शन करता हूँ, तब थका हारा मुरझाया हुआ मेरा मन रूपी उपवन दर्शनमात्र से ही कमल के समान खिल उठता हैं!

    रण आँगन में सेना भी वह, रण मेरी जब सुनती है
    शत्रु वर्ग से लड़ने को तब, बाहु फड़कने लगती हैं
    हे जिन! जब मैं जिनवानीमय , रण भेरी को सुनता हूँ
    बाहु फड़कने लगती हैं तब, विधि से लड़ने लगता हूँ !!३४!!

    भावार्थ :-युद्ध के लिए रण आँगन में खड़ी वह सेना जब रणभेरी को सुनती हैं, तब सुनते ही शत्रु वर्ग से लड़ने के लिए सेना की बाहु जिस प्रकार फड़कने लगती हैं ! उसी प्रकार कर्म रूपी शत्रुओं से लड़ने के लिए हमेशा – हमेशा के लिए सावधान होकर रणागन में खड़ा साधक योधा मैं जिनवानी रूपी रणभेरी को जब सुनता हूँ , तब करम रूपी बलवान शत्रु से लड़ने के लिए मेरी बाहू फड़कने लगती हैं , और मैं निर्भीक निडर , निरीह होकर द्रढ़ता के साथ अविरल रूप से कर्मो से लड़ने लगता हूँ, अर्थात आपकी वाणी सुनकर मुझे कारणों से लड़ते हुए मोक्ष मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा मिलती हैं!

    रोग स्वयं के भूल जगत जन, पर को रोगी कहते हैं
    रोग देखकर रोगी जन को, दूर हमेशा करते हैं
    रोगी जन अरु हे जिन! तुमको, दूर कोई क्या कर सकता
    जन्म जरा भव रोग मरण क्या, तुम बिन कोई हर सकता !!३५!!

    भावार्थ :-संसार का प्रत्यक प्राणी जनम, जरा, मृत्यु , रूपी महाभयानक रोग से ग्रसित हैं, अनादिकाल से आज तक इस भव रोग से एक समय के लिए भी मुक्त नहीं हो पाया हूँ स्वयं के इस महाभयानक भव रोग को भूल कर दुसरो के रोगों को देखने वाला छिद्रान्वेषी स्वयं की गलती को भूल दुसरे की गलती को देखता हैं , अपने आपको स्वस्थ एवं समझदार समझता हैं, और किसी के शारीर में कुछ समय के लिए कोई रोग हो जाता हैं तो उसे रोगी कहकर उससे ग्लानी करने लगता हैं, अपने बीच से उसको दूर करने लगता हैं. किन्तु भव रोग की ही शांति करने वाले हे शांति जिनेश्वर ! वे रोगों को तो अपने से दूर कर सकते हैं , पर उनके ह्रदय में विराजमान आपको भी कोई क्या दूर कर सकता हैं? और अपने से आपको दूर कर क्या कोई स्वयं के जनम , जरा , मृत्यु रूपी भव रोग को हर सकता हैं? अत: मैं आपकी स्तुति कर रहा हूँ, क्यूंकि मुझे तन का रोग नहीं , चेतन का रोग दूर करना हैं ! चेतन का यह भव रोग ही दूर हो जायेगा , तो तन का रोग कैसे रह पायेगा? अपने आप ही समाप्त हो जायेगा !

    माँ से शिशु को मात्र द्रव्य से, मनुष्य अलग तो कर सकता
    पर क्या कोई शांति जिनेश्वर, माँ की ममता हर सकता
    इस विध तुमसे जग जन मुझको, दूर द्रव्य से कर सकते
    पर क्या कोई मम हर्दय से, हे जिन! तुमको हर सकते !!३६!!

    भावार्थ :-ममता से भरी माँ से शिशु को मनुष्य मात्र द्रव्य से तो अलग कर सकता हैं , किन्तु इन दोनों को दूर करके भी क्या कोई मनुष्य माँ की ममता को भी हर सकता हैं ? अर्थात माँ की ममता को ही हरने को क्षमता इस दुनिया में क्या किसी के पास हैं? इसी प्रकार हे शांति जिनेश्वर! संसार के सब लोग मिलकर भी आपसे और आप के इस मार्ग से मुझको द्रव्य से तो दूर कर सकते हैं , पर मेरे ह्रदय में , मेरे रग-रग में विराजमान आपको भी क्या कोई छीन सकता हैं ? अर्थात हे शांतिनाथ भगवन ! साक्षात् आप ही क्यूँ न हो , साक्षात् मेरे गुरु भी क्यूँ न हों, इतना ही नहीं, इस संसार की कोई भी शक्ति ,कोई भी व्यक्ति, मुझको मेरे भीतर के मोक्षमार्ग से एवं आपके अनुराग से एक क्षण के लिए भी विचलित अर्थात अलग नहीं कर सकता हैं!

    प्राणवायु का सेवन करने, वाला भी क्या मर सकता
    शवास लिए बिन जीव जगत में, जिया कभी क्या जी सकता
    प्राण वायु हो परम परमेश्वर, तुम बिन क्या मैं रह सकता
    तुमको तजकर धुम्रपान को, प्राण वायु क्या कह सकता !!३७!!

    भावार्थ :-प्राणवायु का सेवन करने वाला क्या मर सकता हैं?प्राणवायु के सेवन के बिना अर्थात श्वास लिए बिना भी जिव जगत में क्या कभी जिन्दा रह सकता हैं ? इसी प्रकार हे शांति जिनेश्वर ! आप जैसे प्राणवायु को छोड़कर मैं कैसे जिन्दा रह सकता हूँ अर्थात आप ही मेरे प्राणवायु हैं , अर्थात आपके बिना मैं एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता हूँ, आप जैसे प्राणवायु को छोड़कर सरागी देवी, देवतारुपी धुम्रपान का सेवन मैं क्या कर सकता हूँ? करके भी क्या मैं अन्दर से स्वस्थ, सुन्दर एवं जिन्दा रह सकता हूँ? अमर हो सकता हूँ? फिर मैं उनका सेवन कर धुम्रपान को भी क्या प्राणवायु कह सकता हूँ, अर्थात आपकी तुलना मैं उनके साथ कैसे कर सकता हूँ?
    कैदी सम जग मुझको भी क्या, कैद कोई कर रख सकता
    देह बांधकर रखने से क्या, तव दर्शन बिन रुक सकता
    तन को तजकर भाग भाग कर, भावो से मैं आता हूँ
    पैर पकड़कर दर्शन कर मैं, हे जिन! तव गुण गता हूँ !!३८!!
    भावार्थ :-हे जिनेन्द्र भगवन! इस संसार में कोई कैदी के सामान चार दीवारों के बीच जेल में मुझ चेतन को भी क्या कैद करके रख सकता हैं ? यदि कोई बंदकर रखता भी हैं , तो तन के बंधन मात्र से आपके दर्शन के बिना मैं क्या रुक सकता हूँ? ऐसी स्थिति में भी मैं तन को छोड़कर भावो से भाग भाग कर आपके दर्शन के लिए आता हूँ, और आपके युगल चरण कमलो को पकड़कर भाव विभोर होकर दर्शन कर भरमर के समान आपके गुणों को गाता हूँ , अर्थात तन से भी ज्यादा मुझे आप प्रिय हैं ! तन भी बार बार मिल सकता हैं, पर आप नहीं, आपका मार्ग नहीं! अथ: तन को भी छोड़ने के लिए तैयार हूँ, पर आप एवं आपके मार्ग एवं भक्ति को नहीं , दुनिया के लोग मेरे तन को भान्धकर रख सकते हैं , पर मुझको और मेरे भावो को नहीं!
    पश्चिम दिश से, आंधी बाधा, आ जब बादल टकराते
    देख दिवाकर भय से शशि क्या, अपने पथ से भग जाते
    रवि सम इन में निर्भीक होकर, आगे जब तुम बढ़ जाते
    बाधा परीषह उपसर्गों से, फिर हम कैसे डर पाते !!३९!!
    भावार्थ :-सूर्य और चन्द्रमा पूर्व दिशा में उदित होकर निज पर को प्रकाशित करते हुए अन्धकार को हारते हुए अविरल रूप से अपनी यात्रा करते रहते हैं, तब सामने से अर्थात पश्चिम दिशा से आती हुई आंधी , आते हुए बाधा एवं बादलों को देखकर दिवाकर क्या घबरा जाते हैं ? आकर टकराने के भय से अथवा उनसे पूर्ण रूप से ढक जाने के भय से सूर्य और चंद्रमा अपने पथ को छोड़कर क्या मार्ग से भाग जाते हैं? आज तक न ही भागे हैं और न ही भाग सकते हैं ! अर्थात इन सब में क्या वे सुद्रढ़ एवं अडिग नहीं रहते हैं?हे शांति जिनेश्वर ! सूर्य के समान आप इन सब में निर्भीक होकर जब आप आगे भाद जाते हो , तो फिर पंचेंद्र्य विषय वासना रूपी आंधी , उपसर्ग , परिशय रूपी बाधाएं और पश्चिमी देश से आती हुई पश्चिमी संस्कृति एवं सभ्यता रूपी बादलों को देखकर उनके टकराने के अथवा उनसे खुद ढकने के भय से भयभीत होकर आपके पीछे – पीछे चलने वाला चिन्मय रूपी चन्द्रमा क्या आपके पथ को अर्थात मोक्ष मार्ग को ही छोड़कर भाग सकता हैं? जब आप इन सब से नहीं डरते हैं, तब आपका अनुगामी मैं कैसे दर सकता हूँ?
    मायावी जिन दर्शन को भी, कभी रेवती जाती क्या
    महासती हो तजकर पति को, मोहित पर से होती क्या
    फिर मैं तुमको, तजकर पर से, मोहित कैसे हो सकता
    रागी द्वेषी गुण गाकर भी, महाव्रती क्या हो सकता !!४०!!
    भावार्थ :-रेवती को ठगने के लिए माया से क्षुल्लक जी ने जिनेन्द्र भगवन का रूप धारण कर समवशरण में मायावी जिनेन्द्र देव बनकर रेवती को दर्शन दिए , परन्तु दर्शन के लिए क्या रेवती रानी गई थी? सच्ची श्राविका जा सकती हैं क्या? जब मायावी जिनरूप के भी वह रानी दर्शन नहीं कर सकती है , तब मैं महाव्रती साक्षात् सरागी देवी देवताओं के दर्शन / सेवन कैसे कर सकता हूँ? करके भी क्या कोई महाव्रती बना रह सकता हैं?
    क्या पतिव्रता महासती अपने पति को छोड़कर परपुरुषों से मोहित प्रभावित होती हैं? यदि होती हैं , तो क्या वे महासती कहलाएंगी? फिर महाव्रती रत्नत्रय से युक्त मुनि होकर हे शांतिनाथ भगवान् ! वीतरागी जिनदेव रूपी सच्चे भगवन को छोड़कर सरागी देवी- देवताओं और कुदेवो से मैं कैसे मोहित और प्रभावित हो सकता हूँ? रागी देवेशी आदि को वीतराग जिनदेव के समान या उनसे ज्यादा गुण गाकर भी अर्थात आयतन समझकर आदर , भक्ति , स्तुति , पूजन , विधान आदि स्वयं करके , दूसरों से करा कर के भी क्या कोई महाव्रती हो सकता हैं?

    बंद करन से तोता भी वह, बंद बोलना करता क्या
    बंधन लखकर स्वर बुलंद कर, मुखरित वह नहीं होता क्या
    जगत जेल में कसा कर्म से, बंधन लखकर रोता क्या
    तव थुति बिन मैं शांति जिनेश्वर, समय व्यर्थ में खोता क्या !!४१!!

    भावार्थ :-यदि कोई तोते को पिंजड़े में बंद कर देता हैं, तो वह क्या बोलना बंद करता हैं? बंधन को देखकर स्वर बुलंद कर क्या वह मुखरित नहीं होता हैं? इसी प्रकार हे शांति जिनेश्वर ! अनादिकालीन संसार रूपी महा भयानक जैन और करम एवं कषाय रूपी जंजीरों से कसा मैं इस बंधन को देखकर क्या बोलना बंद कर सकता हूँ? आपकी स्तुति के बिना क्या स्वयं को व्यर्थ में खो सकता हूँ? और संसार रूपी जेल से एवं कर्म बन्धनों से मुक्त करने में एकमात्र साधन आपकी स्तुति को छोड़कर क्या रोता हुआ बैठ सकता हूँ? बन्धनों को देखकर मैं भी उस तोते के समान बुलंद आवाज़ के साथ आपकी स्तुति करने के लिए मुखरित होता हूँ?

    करते मम उपहास देखकर, मैं क्या तुम उपहास करूँ
    उपासना तव तज कर मैं क्या, यथाजात जिन रूप हरु
    मिष्ट अन्न तुम तजकर हे जिन! अनशन मैं क्या कर सकता
    करके अनशन उपासना बिन, शाश्वत सुख क्या वर सकता !!४२!!

    भावार्थ :-हे जिनेन्द्र भगवन ! आपके इस यथाजात rup को देखकर लोग मेरा उपहास करते हैं, इसलिए मैं भी क्या आपका उपहास करू? आपकी जिनरूप मुद्रा की उपासना को तज दूँ? आपके इस यथाजात जिनरूप को छोड़कर अन्य की शरण में जाऊ?
    वर्षो से भूखे प्यासे आदमी को मिष्ठान यदि मिल जाता है, तो वह उसको छोड़कर क्या उपवास कर सकता हैं ? आपकी उपासना रूपी मिष्ठान को खाए बिना उपवास करके भी क्या कोई शाश्वत सुख को वर सकता हैं?
    हे शांति जिनेश्वर ! अनंतकाल से भूखे प्यासे भटकते हुए मुझको आप मिष्ठान के रूप में आज मिले हैं , फिर इस मिष्ठान सेवन रूपी उपासना के बिना क्या मैं उपवास कर सकता हूँ और आपकी उपासना रूपी भोजन किये बिना उपवास करके भी क्या मैं आप जैसे शाश्वत सुख को वर सकता हूँ? अर्थात आपके गुण रूपी मिष्ठान के सेवन के बिना उपवास करके भी कोई शाश्वत सुख पा नहीं सकता हैं और दूसरी बात आपकी उपासना के बिना मात्र अन्न – पान का त्याग कर, उपवास करके भी कोई शाश्वत सुख को पा नहीं सकता हैं!

    - *लघुता *

    छंद शास्त्र साहित्य ज्ञान नहीं, हिंदी भाषा भाषी हूँ
    धीजन से मैं क्षमा चाहता, नहीं मैं स्थिर रहवासी हूँ
    मंद मंदतर महामंद मति , धारक जिन रहवासी हूँ
    संत शिरोमणि विद्यासागर, शिष्य शरण रहवासी हूँ !!४३!!

    भावार्थ :-छंद, शास्त्र और साहित्य का ज्ञान मुझमे नहीं है और न ही मैं हिंदी भाषी हूँ ! अत: त्रुटियों के लिए बुधिमानो से क्षमा चाहता हूँ, क्यूंकि मैं मंद, मंदतर , मंद्तम मति को धारण करने वाला हूँ , और न ही मैं एक ही स्थान पैर रहने वाला स्थिर रहवासी हूँ अर्थात सद्गति के समान गमन करने वाला मैं श्रमण , जिनेन्द्र भगवान् में अटूट श्रद्धा रखने वाला सम्यकद्रष्टी हूँ ! युग प्रवर्तक , इस युग के महान संत , संतो के शिरोमणि दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का यह शिष्य उनकी छत्रछाया रूपी शरण में रहने वाला हैं !

    – *स्थान *

    तेंदूखेड़ा जबलपुर के, शक्तिनगर श्रीधाम महा
    पचीस दिन में पूर्ण किया मैं, पंच कल्याणक तीन यहाँ
    मढिया में फिर भाव भक्ति से, थुति लिखना प्रारंभ किया
    ग्राम अनोखा सहजपुर में , शांतिनाथ स्तव पूर्ण किया !!४४!!

    भावार्थ :-तेंदुखेडा, श्रीधाम अर्थात गोटेगौव एवं जबलपुर के शक्तिनगर का पञ्च कल्याणक इस प्रकार २५ दिन में ३ पञ्च कल्याणक एवं एक गजरथ महोत्सव गुरु के आशीर्वाद से पूर्ण किया! फिर मढिया जी में भक्ति भाव से शांतिनाथ भगवन की स्तुति करना प्रारंभ किया ! गुरु आदेश अनुसार विहार कर ग्राम अनोखा सहजपुर में आकर स्तुति को पूर्ण किया!

    – *समय*

    पचीसो पचीस रहा वह महावीर निर्वाण महा
    लिखकर अक्षय तृतिया तिथि पर, पूर्ण किया मैं स्तवन यहाँ
    जिन गुरुवर के पावन पग में, करता चिन्मय भक्ति यहाँ
    सदा विनय से शीघ्र मिले शिव, वीतराग विज्ञान महा !!४५!!

    भावार्थ :-२५२५ महावीर निर्वाण के अक्षय तृतीया की शुभ तिथि एवं शुभ दिन में केवलज्ञान एवं मोक्ष की प्राप्ति हेतु से जिनेन्द्र , श्री शांतिनाथ भगवन एवं पूज्य गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के पावन चरणों में सदा विनय से प्रणाम एवं भक्ति करते हुए, मैं चिन्मय सागर श्री शांतिनाथ भगवान् की स्तुति को लिखकर पूर्ण करता हूँ !

    *जंगल वाले बाबा नमो नमः *

    इस स्तुति को लिखने में मुझसे कही कोई गलती हो गई हो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ !

    जय जिनेन्द्र,