Saturday, October 29, 2011

वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी श्री जिनेन्द्र भगवान्,मोह तिमिर को नाश कर पाया केवल-ज्ञान.
.अष्ट कर्म को मेट कर पाया जिन्होंने शिवपुर धाम
..ऐसे परमात्मा को करता हूँ मन-वच काय से प्रणाम...वंदु आचार्यों को जो की ३६ गुणों से सुसज्जित है.
...सुर-नर-किन्नर इन्द्रों द्वारा सदैव ही जो पूजित है.
..उपाध्याय परमेष्ठी ११ अंग,१४ पूर्वों के ज्ञानी,कर्मों को नाश कर पायेंगे शिव राजधानी
,निज स्वरुप में लीन रहते निर्ग्रन्थ साधूमहाराज.नमन उन्हें मैं करता हूँ हाथ जोड़ के आज..
वीतराग सर्वज्ञ जिन की जो कहलाती दिव्य-ध्वनि
,गणधर महाराज के द्वारा प्रतिपादित भव्य जीवों ने जो सुनी.
..प्राणी मात्र कल्याण-कायक,सात तत्वों,६ द्रव्य का है जिसमें वखान...अनेकात-मय स्यादवाद युक्त,कहाँ तक करू गुण-गान.?...
श्री जिनेन्द्र भगवन के द्वारा प्रतिपादित जो धर्म है..जीव निराकुलता पाता जो मिटते अष्ट कर्म है.
..कषाय नाशनी,मोह विनाशनी   वीतरागता की छवि....अष्ट प्रातिहार्य से युक्त जिन मंदिर में है विरजी..
.ऐसे जिनालयों के दर्शन करने के भाव सदा मंगलकारी,सातिशय पुण्य का लाभ दिलाते,कट जाते जन्म-जन्मान्तर पाप भारी....
..ऐसे नव देवता हैं सदा मंगलकारी...राग-द्वेष को नाश कर ,पाता  है जीव सुख अति भारी...
क्यों न मैं भी इनका वंदन करके सुख भोगुन अविनाशी,मुक्ति नगर को पाउँगा...दुःख की न होगी  कोई राशि. 

Thursday, October 6, 2011

RAM-LAKSHMAN KI VAN GAMAN KI KATHAYEIN-RAAM GIRI KA PARDAPAN AUR JATYU PAKSHI KA VYAKHYAN


राम लक्ष्मण की वन-गमन की कथाएँ -राम गिरी का पर्दापण..जटायु पक्षी का व्याख्यान.
देश-भूषण और कुल भूषण मुनि केवली के उपदेश सुन कर वंशस्थल नगर का राजा सूर-प्रभ...और राम के बलभद्र और लक्ष्मण के नारायण होने की बात सुनता है..तोह अति प्रभावित होता है...वह राम- और लक्ष्मण को नगर में बुलाते हैं,महल में रहने का निवेदन करते हैं..लेकिन राम कहते हैं की यह भोग बहुत दुखदायी हैं..कर्म के उदय से भोगों से विरक्त नहीं हो रहा हूँ..कब इन भोगों से बचूं...राम लक्ष्मण वंशस्थल पर्वत पर ही विराजमान होते हैं,वहां उनके रहने की सुविधा,आहार देने की सुविधा,सुन्दर-सुगन्धित मिस्थान तैयार कराये जाते हैं,नृत्य के लिए अप्सराएं..नगर के लोग दर्शन करने आते हैं..तोह सब आकर्षित होते हैं...राम लक्ष्मण पर्वत पे जहाँ मुनियों के केवल ज्ञान हुआ...वहां कई जिनमन्दिर बनवाते हैं.,श्रंखला में...देखने में अति सुन्दर लगते हैं...और फिर वहां से चलते हुए दक्षिण दिशा के समुद्र की तरफ दंडक-वन की और चलते हैं.....

अनेकों देशों में विहार करते हुए दंडक वनों में पहुँचते हैं...कैसा है वन जहाँ देव भी जाने में घबराएं..अति सघन डरावने पशु-पक्षियों से भरा हुआ...वहां पे सीता आहार तैयार करती है...तोह मुनि को आहार-दान देने की भावना होती है...तोह वाहर खड़े होते हैं.....आकाश मार्ग से तीन ज्ञान के धारी गुप्ती और सुगुप्ती मुनि विचरण कर रहे होते हैं कैसे हैं मुनि?..एक महीने से उपवास है जिनका..ऐसे मुनि को नवधा भक्ति के साथ आहार कराया जाता है...उन मुनि के आहार को एक गिद्द-पक्षी पेड़ पर खड़े हो-कर देख रहा होता है...तोह आहार देखकर अत्यंत शुद्ध परिणाम होते हैं और जाती-स्मरण हो जाता है..जाति-स्मरण से पूर्व भावों को जानता है तोह पश्चाताप करता है की हाय मैंने दुर्लभ मनुष्य योनी को अज्ञानियों के कहने से बर्बाद कर दिया...ऐसा चिंतन करते हुए एकदम से गिर जाता है और मुनि के चरणों में गिर-जाता है..तब गिरने की आवाज से सीता-दर जाति हैं..तब लक्ष्मण कहते हैं इतना गंध पक्षी,हिंसक,जीवों को दुःख देने वाला पक्षी यहाँ पे?..ऐसा कहकर घिन्नते हैं...विशुद्ध परिणामों से गिद्द के मुनि चरणों में गिरने से अत्यंत सुन्दर कंचन सामान शारीर हो जाता है....तब श्री राम कहते हैं कि यह किस कारण ऊपर से गिरा...और क्यों इसका शरीर सुन्दर हो गया?...तब अवधि ज्ञान के धारी मुनि कहते हैं कि यह वन पहले वन नहीं था एक नगर था दंडक नगर,जिसमें घोष (गाय-वैलों के रहने का स्थान),करवट(जिसके पीछे पहाड़ हो)..अदि अनेक जगह थीं.......उस नगर का राजा दंडक था..जिसकी रानी मिथ्यादृष्टि मिथ्या शास्त्रों का सेवन करती...जिसको देखकर राजा भी इन्ही मिथ्या-शास्त्रों को मानने लगा...एक बार नगर में मुनि आये तोह उसने मुनि के ऊपर उपसर्ग किया उनके ऊपर सांप डाल दिया,कुछ दिन बाद राजा वापिस नगर घूमने के मतलब से आये..तोह मुनि के ऊपर से सांप हठा देखकर बोले कि यह सांप किसने हटाया..तब एक व्यक्ति कहता है कि यह सर्प मैंने हथाया है..इन मुनि के ऊपर कई दिनों तक उपसर्ग होता रहा...यह बात सुनकर राजा कि जिन धर्म के प्रति श्रद्धां बन-जाता है...लेकिन जो मिथ्यादृष्टि रानी क्रोधित होकर राजा को धर्म से हटाने के लिए..मिथ्या-गुरुओं को दिगंबर मुद्रा में महल में बुलाती है...और विकार भरी चेष्टाएं करवाती है..जिन्हें देखकर राजा क्रोधित हो जाता है..और वह नगर के सारे मुनियों को यन्त्र में पेलने का आदेश देता है...जिनमें से एक मुनि-राज रह-जाता हैं...जब वह यह बात सुनते हैं तोह समता भाव न रखकर क्रोधित हो जाते हैं...और क्रोध में पूरी अग्नि भस्म हो जाती है,सालों की समता को क्षमा को ख़त्म कर-देते हैं...और नगर जलकर दंडक वन-कहलाता है..राजा अनेक योनियों में भटकते हुए...आज यह गिद्ध हुआ....जिसने आहार देखके सरल परिणामी हो-कर जाती स्मरण हुआ.....मुनि-महाराज जटायु को श्रावक के व्रत का उपदेश देते हैं...जिन्हें वह पक्षी अंगीकार-करता है.....मुनि-राज के जाने के बाद गिद्ध पक्षी राम-सीता और लक्ष्मण का प्यारा हो जाता है...वह रोज उन्ही के हाथ से अन्न-अदि ग्रहण करता...उनके बालों को सीता-फेरती..उनका नाम जटायु रखा.

अल्प-बुद्धि और प्रमाद के कारण हुई भूलों के लिए क्षमा...लिखने का आधार शास्त्र श्री पदम् पुराण है.
 अब हमने यह जाना की रावण के लंका कैसी जीती..अब हमें यह जान लेना चाहिए की यह लंका आखिर है कहाँ पे?
राक्षश द्वीप सातसौं योजन चौड़ा और सातसौं योजन लम्बा है...यह लवण समुद्र के बीच में है..लवण समुद्र में तरह-तरह के यक्ष,किन्नर पुरुष लोल-कलोल करते हैं..यक्ष अदि अनेक प्रकार के देव रहते हैं...यह एक अंतर द्वीप है..जिसके बीच में त्रिकूटाचल(शायद मैं नाम भूल रहा हूँ) पर्वत है..इस पर्वत के शिखर मेरु के सामान शोभायमान होते हैं..इस पर्वत के नीचे तीस योजन प्रमाण एक लंका नाम की नगरी है...तोह ऐसी लंका नगरी में रावण राज्य करने लगे..

एक बार रावण के यहाँ राजा सूर्यरज(बाली के पिता) और रक्षरज के यहाँ से दूत   आता है की वह उनकी राजा इन्द्र के लोकपाल से राजा की रक्षा करें..रावण लोकपाल के यहाँ जाते हैं और यम लोकपाल से सूर्य-रज और रक्ष-रज को बचाते हैं..जिससे रावण का आभार वानर वंशी राजा सूर्य-रज,राजा रक्ष-रज पे बन-जाता है....राजा सूर्य रज के दो पुत्र हुए १.बाली और २.सुग्रीव ,,,राजा रक्षरज के दो पुत्र हुए १.नल  और २.नील...

अब हम यह जानते हैं की किस कारण बाली राजा ने दीक्षा ली,क्या हुआ रावण की बहन चन्द्र-नख के साथ..और किस प्रकार बाली-मुनि कैलाशपर्वत को उठाते हैं,जिससे रावण का मान-मर्दन होता है..और जिन-धर्म पे श्रद्धा अटल हो जाती है.....

राजा सूर्यरज और यक्षराज रावण के द्वारा प्रदान किये हुए नगरों में राज्य करते हैं..वहां सूर्यरज,रानी चन्द्र माला के यहाँ पुत्र रत्न हुआ पुत्र का नाम बाली हुआ..देखते ही देखते बाली बड़े हो गए कैसे हैं बाली? सम्यक दृष्टी,धार्मिक,विनय वान..ऐसे बड़े कम मनुष्य हैं जो ढाईद्वीप के सारे जिनालयों के दर्शन करते...बाली तीनों काल जम्बुद्वीप के जिन मंदिर के दर्शन करते..कैसे हैं जिनमन्दिर...सम्यक दर्शन की प्राप्ति के कारण..इस प्रकार राजा सूर्यरज के दुसरे पुत्र हुए सुग्रीव..कैसे हैं सुग्रीव-धर्मवान,विनय वान...और तीसरी पुत्री हुई श्रीप्रभा .सूर्यरज राजा के भाई रक्षरज के भी दो पुत्र हुए नल और नील..दोनों राजाओ के पुत्र अत्यंत गुणवान..देखते ही देखते यौवनावस्था आ गयी पुत्रों की..राजा सूर्यरज इस प्रकार यौवन को देखकर और इन्द्रिय सुखों को क्षणिक जानकार भोगों से विरक्त हुए...और मुनि हुए ..कैसे हैं सूर्यरज मुनि ?तपवान-क्षमा के धारी,मोक्ष के अविलाशी,विषय कषायों से विरक्त...अब राज्य का भार बाली संभाल रहे थे..रजा बाली की कई रानियाँ हुईं..उनमें से प्रमुख ध्रुवा नाम की रानी हुईं इधर रावण की बहन चंद्रनखा को रावण की अनुपस्तिथि में खरदूषण उठा ले गया..चंद्रनखा की बात सुन कुम्भकरण वगरह लड़ने जा रहे थे लेकिन खरदूषण की शक्ति को देख रुक गए जब रावण आये तोह बहन के हरण की खबर सुन क्रोधित हुआ..और अकेली खडग लेकर लड़ने जाने लगा तब मंदोदरी ने हाथ जोड़कर विनती की खरदूषण १४००० विद्या धरों का स्वामी है..और हजारों विद्या जानता है.,पाताल लंका में चंद्रोदर विद्याधर को निकालकर राजा सूर्यरज के मुनि बनने के बाद रह रहा है .और तोह और उसने आपकी बहन को उठाया है.. .जिससे उसका विवाह और किसे से नहीं होगा..और खरदूषण को मारने से विधवा हो जायेगी...और आपको दोष लगेगा मंदोदरी की बातें सुन रावण शांत हुए और कहा की वह वह बहन को विधवा नहीं देख सकते...इसलिए उसे क्षमा कर देते हैं.
चंद्रोदर विद्याधर विद्याधर कर्म योग से मृत्यु को प्राप्त होता है...उसकी पत्नी और पुत्र जंगले में जीवन व्यतीत करते हैं...पत्नी अनुराधा..का पुत्र होता है उसका नाम विराधित होता है क्योंकि जब से विराधित हुआ है जब तक उन्हें कहीं भी विनय नहीं मिली,कहीं भी मान-सम्मान नहीं मिला..जहाँ जहाँ जाता अविनय को ही सहन करता..और अपमान ही सहता ..इसलिए उसका नाम विराधित रख दिया गया.
राजा बलि बड़े सुख से राज कर रहे होते हैं..लेकिन वह रावण की आज्ञा के अनुरूप नहीं चलते हैं..जिसे जानकार रावण बलि के पास दूत भेजते हैं..और कहलवाते हैं..की यम से आपके पिता सूर्यरज और यक्षरज को हमने ही बचाया था..इसलिए आपका हमारे पास एहसान है...आपके पिताजी हमारा बड़ा आदर करते थे..इसलिए आपका हमारी बात नहीं मानना अनुरूप नहीं होगा...इसलिए आकर हमें प्रणाम करें.और बहन श्रीप्रभा का विवाह हमसे kardein...बाली को रावण की सारी बातें सही लगीं सिर्फ प्रणाम वाली..क्योंकि वाली सच्चे देव-शास्त्र गुरु के अलावा किसी को प्रणाम नहीं करते थे..फिर आगे दूत कहता है की या तोह प्रणाम करो..या धनुष उठाओ..या तोह सर झुकाओ या युद्ध के लिए तैयार हो जायो..बाली दूत से मनाह कर देते हैं...दूत सारी बात रावण को बता देता है...रावण क्रोधित होता है और युद्ध के लिए वार करने आ जाते हैं....तब बलि युद्ध पे जाने से पहले सोचते हैं की यह सारी राज्य सम्पदा क्षणिक है..मंत्री कहते हैं की इस से बढ़िया प्रणाम कर लो..रावण अत्यंत शक्तिशाली हैं..लेकिन बाली कहते हैं..की इस राज्य सम्पदा के लिए क्षणिक इन्द्रिय भोगों के लिए क्या लडूं..इन्द्रिय भोग तोह प्रकट रूप से विष हैं..इनको पुष्ट करके यह जीव नरक ही जाता है..ऐसे भोगों के लिए क्या लड़ना..और ऐसे दुखों से मुक्ति सिर्फ जिनेन्द्र भगवन के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है..इसलिए संसार से विरक्त हो कर बाली मुनि बन जाते हैं और सुग्रीव को राज्य देकर कह गए की जो करना है करो..बाली मुनि बन जाते हैं..और सुग्रीव श्रीप्रभा का विवाह रावण से करते हैं....कैसे हैं बाली मुनि महा तपस्वी...मोक्ष के अभिलाषी..इस प्रकार निरंतर तरह-तरह की विध्यायों को पाया..और निरंतर गुण-स्थान बढ़ाते रहे.
एक बार रावण नित्यपुर के राजा नित्यापुर की पुत्री से विवाह करके लौट रहे थे...पुष्पक विमान से...तभी कैलाश पर्वत के ऊपर से विमान निकल रहा था..तभी विमान रुक गया..कैसा है विमान मन की गति से भी तेज..रावण आश्चर्य चकित हुए..मंत्री मारीच से पूछते हैं....की यह विमान कैसे रुक गया..तब मारीच बताते हैं की यहाँ पे कायोत्सर्ग मुद्रा में दिगंबर मुद्रा में तप कर रहे हैं...इसलिए आप नीचे उतारकर उन्हें प्रणाम करें..रावण नीचे उतारते हैं..और कैलाश पर्वत पर जाकर देखते हैं..देखते हैं की नग्न शांत मुद्रा में मुनि-तप कर रहे हैं..मुनि बाली मुनि थे...रावण पूर्व बातों का स्मरण करके कहते हैं की मुनि व्रत के बाद भी क्षमा नहीं किया..अभी भी विमान रोक दिया...वीतराग मुद्रा को धारण करके ऐसा क्यों कर रहे हो..बाली मुनि समता भाव रखते हैं..रावण क्रोधित होकर पातळ में धस जाते हैं..और विद्या का प्रयोग करते हैं...विद्या के स्मरण मात्र से विद्याओं के देव प्रकट हो जाते हैं..और इस प्रकार पूरे कैलाश पर्वत को हिलाने की सोचते हैं..पूरा कैलाश कम्पायमान हो जाता है..पशुपक्षी घबराते हैं..देव भी आश्चर्य चकित हो जाते हैं ..बाली मुनि समता भाव रखते हैं..लेकिन इस बात का चिंतन करते हैं की रावण इस पहाड़ को हिला रहे हैं..इस पहाड़ पे कितने भारत चक्रवती के द्वारा बनाये हुए जिन मंदिर हैं..जहाँ देव और मनुष्य दोनों दर्शन करने जाते हैं...इस बात से बाली मुनि जरा सा अंगूठा हिला देते हैं...जिससे पहाड़ वापिस अपनी जगह पर आ जाता है..जिससे रावण के जंघाएँ क्षिल जाती हैं..और पसीना पसीना हो जाए हैं..देव पुष्प वर्षा करते हैं
रावण विशुद्ध भावों से बाली मुनि की स्तुति करते हैं कहते हैं की मैंने आपको गलत समझा ..धन्य हैं आप जो देव-शास्त्र-गुरु के अलावा किसी को प्रणाम नहीं करते हैं..आप पूजनीय हैं स्तुति के कारण है..मैं पापी मानी आप में दोष निकालने लगा..आप ने तोह कितनी सारी विध्यायों को मुनि मुद्रा में ऐसे ही प्राप्त कर लिया..मैंने जिन धर्म को इतना जाना लेकिन कभी यह नहीं सोचा...इस तरह से तरह तरह से बाली मुनि की स्तुति करते हैं..फिर कैलाश मंदिर स्थित जिनालयों के दर्शन करते हैं...और वहां शरीर से नस को तार बनाकर बीणा बजाते हैं और स्तुति करते हैं..तरह तरह से स्तुति करते है न्केहते हैं आप ही मोह के नाशक हैं...आप ही विषय भोगों से मुक्ति दिलाने वाले हैं..आप ही परम पूजनीय हैं..आपको सब नमस्कार करते हैं..और आप किसी को नमस्कार नहीं करते हैं..आप के जैसे गुण अन्य किसी में नहीं है.मैं ऋषभदेव अदि चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करता हूँ..जो हो चुके हैं और आंगे होंगे..उनको नमस्कार करता हूँ .तरह-तरह से विनती करते हैं..आपने अष्ट कर्मों का नाश किया हुआ है..आप हर प्रकार के दुखों से रहित हैं..इस प्रकार से स्तुति करते हैं..की धरेंद्र का आसान कम्पायमान हो जाता है..और प्रकट हो जाते हैं और रावण की कहते हैं की धन्य हैं आप और आप की जिन भक्ति..मैं तुझसे प्रसन्न हूँ मांग क्या मांगेगा?..रावण कहते हैं की जिन भक्ति से ज्यादा और क्या है इस संसार में..यह ही आकुलता रहित सुख को देने वाली है..और यह ही अनंत सुख को प्रदान कराती है..और मोक्ष से ज्यादा सुखदायी इस संसार में कुछ भी नहीं है..इसलिए मुझे कुछ नहीं चाहिए..धर्नेंद्र कहते हैं वह तोह तुने सही कहा लेकिन मैं आया हूँ तोह कुछ मांग रावण कुछ नहीं मांगते हैं..लेकिन धर्नेंद्र उन्हें ऐसी विद्या देते हैं जिससे रावण सर्व शत्रुओं को जीत सकते हैं..सब पे विजयी होते हैं.
वापिस आकर वह बाली मुनि के गुण गाकर वापिस चले जाते हैं...बाली मुनि भी अपने द्वारा की गयी शल्य का प्रायश्चित करते हैं..और ध्यान में लीं हो जाते हैं..ध्यान ही ध्यान में चारो घटिया फिर चारो अघतियाँ कर्मों को नाश करके निराकुल आनंद सुख को प्राप्त होते हैं..और अनंत दर्शन-ज्ञान-चरित्र-बल को प्राप्त करते हैं..

अगर मुझसे श्री बाली मुनि का निरूपण लिखने में कोई गलती हो...शब्द-अर्थ सम्बन्धी गलती हो..या और कोई गलती हो तोह क्षमा करें
 यह बात पधार हमने यह बहुत अच्छे से जान लिया की रावण का पुतला जलाना कितना गलत है...और कितने पाप-बंध का कारण है......
यह लिखने का आधार शास्त्र श्री रविसेनाचार्य विरचित श्री पदम् पुराण है..शास्त्र के बात को बहुत ही कम शब्दों में मैंने लिखा है.



वास्तव में रावण ऐसे थे नहीं जैसा  उन्हें मिथ्या मतों में बताया गया है..वह आगे के तीर्थंकर भी होंगे...इसलिए ऐसे महापुरुषों का पुतला जलाना बहुत गलत होगा...

Wednesday, October 5, 2011

chauthi dhaal-complete

६ ढाला

चौथी ढाल

सम्यक ज्ञान का स्वरुप

सम्यक श्रद्धा धारी पुनः सेवहु सम्यक ज्ञान
स्व पर अर्थ बहु-धर्म जुत जो प्रगटावान भान.

शब्दार्थ
१.सम्यक-श्रद्धा--सम्यक दर्शन
२.पुनः-पीछे,फिर उसके बाद
३.सेवहूँ-ग्रहण करो
४.सम्यक ज्ञान-सच्चा ज्ञान
५.स्व-निज आत्मा
६.पर-पर पदार्थ जैसे शरीर अदि
७.बहु धर्म-अन्केकांत धर्मात्मक
८.जुट-सहित
९.प्रगटावान-प्रगट करता है
१०.भान-सूर्य के सामान

भावार्थ
चौथी ढाल सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र के ऊपर है...सम्यक दर्शन करने के बाद ही सम्यक ज्ञान को धारण करना चाहिए...क्योंकि सच्चा ज्ञान..जब तक सच्ची श्रद्धा नहीं होगी..तब तक सच्चा नहीं हो पायेगा..इसलिए पहले सम्यक ज्ञान को धारण करें..और करना चाहिए...सम्यक ज्ञान वह ज्ञान है जो आत्मा और पर पदार्थों को उनके अनेक-गुणों के साथ,अनेक धर्मों के साथ जो सूर्य के सामान प्रगट करता है..वह सम्यक ज्ञान है.

सम्यक साथै ज्ञान होए,पै भिन्न अराधो
लक्षण श्रद्धा जान दुहूँ में भेद अबाधो
सम्यक कारण जान ज्ञान कारज है सोई
युगपत होत हूँ भी प्रकाश दीपकतैं होई

शब्दार्थ
१.सम्यक साथै-सम्यक दर्शन के साथ
२.ज्ञान-सम्यक ज्ञान
३.पै-तोह भी
४.भिन्न-अलग,अलग
५.अराधो-मानना चाहिए
६.श्रद्धा-दर्शन
७.जान-जानने
८.दुबहूँ-दोनों में
९.अबाधो-निर्बाध
१०.सोई-है
११.युगपत-एक ही,एक साथ
१२.होत हूँ-होने के बाबजूद
१३.प्रकाश-उजाला
१४.होई-होता है

भावार्थ
सम्यक दर्शन ( सच्ची श्रद्धा) और सच्चा ज्ञान ( सम्यक ज्ञान) एक साथ ही होता है,लेकिन तोह भी उसमें अंतर जानना चाहिए..सम्यक दर्शन का लक्षण श्रद्धा है,दर्शन है या विश्वास है,लेकिन सम्यक ज्ञान का लक्षण ज्ञान है,जानना है..और दोनों में निर्बाध अंतर है..एक दम अलग है..सम्यक दर्शन कारण है...और सम्यक ज्ञान कार्य है...बिना कारण कार्य नहीं होता..उसी प्रकार बिना सम्यक दर्शन के सम्यक ज्ञान नहीं होता..ठीक उसी प्रकार जैसे दीपक और प्रकाश अलग-अलग हैं..लेकिन दीपक को ही प्रकाश का कारण माना जाता..दीप को जलाते ही प्रकाश होता है..लेकिन दीपक और प्रकाश दोनों भिन्न-भिन्न चीजें हैं..इसी प्रकार सम्यक दर्शन और सम्यक ज्ञान अलग अलग हैं..लेकिन दोनों एक साथ ही होती हैं
सम्यक ज्ञान के भेद और देश प्रत्यक्ष का लक्षण
तास भेद हैं दो,परोक्ष,परतछि तिन माहि
मति श्रुति दोय परोक्ष अक्ष मन तैं उपजहिं
अवधि ज्ञान मन-पर्जय दो हैं देश प्रत्यक्षा
द्रव्य-क्षेत्र परिमाण लिए जाने जिय स्वच्छा.

शब्दार्थ
१.तास-उस सम्यक ज्ञान
२.परोक्ष-परोक्ष ज्ञान
३.परतछि-प्रत्यक्ष ज्ञान
४.मति-श्रुत-मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान
५.दोय-यह दोनों
६.अक्ष-इन्द्रिय
७.उपजाही-पता चलता है
८.मन-पर्जय-मन पर्याय ज्ञान
९.द्रव्य क्षेत्र परिमाण-द्रव्य,क्षेत्र,भाव,काल और भावों के परिमाण,या सीमा के साथ
१०.जिय-जीव
११.स्वच्छा-प्रकट

भावार्थ
उस सम्यक ज्ञान(सच्चे ज्ञान) के दो भेद हैं..प्रत्यक्ष ज्ञान और परोक्ष ज्ञान..परोक्ष ज्ञान वह है जो इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है..इसके दो प्रकार हैं १.मति ज्ञान और २.श्रुत ज्ञान...मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं..दूसरा प्रत्यक्ष ज्ञान हैं..इसके दो भेद हैं देश प्रत्यक्ष और सकल प्रत्यक्ष..देश प्रत्यक्ष वह है जिसमें जीव बिना इन्द्रिय और मन की सहायता से जानता तोह है..लेकिन द्रव्य क्षेत्र,भाव,काल और भाव की सीमा के साथ जानता है..जैसे की "इस इलाके से आगे का नहीं जान सकता,,या सात भाव से पहले का नही जान सकता ,या आज ही आज का जानता है,कल का नहीं..)यह सब उदहारण हैं,,इस ज्ञान के दो भेद हैं १.अवधि ज्ञान और दूसरा २.मन पर्याय ज्ञान...सकल प्रत्यक्ष के बारे में अगले श्लोक में जानेंगे.
 
सकल प्रत्यक्ष का लक्षण और ज्ञान का महत्व
सकल द्रव्य के गुण अनंत परजाय अनंता
जाने एकहूँ काल  प्रकट केवली भगवंता
ज्ञान सामान न आन जगत में सुख को कारन
इही परमामृत जन्म-जरा-मृत रोग निवारन.

शब्दार्थ
१.सकल-सारे ६ द्रव्यों
२.गुण-जो एक द्रव्य को दुसरे द्रव्य से भिन्न करे
३.अनंत-अ-धन-अंत..जिस राशि का अंत नहीं है
४.एकहूँ-एक ही
५.प्रकट-स्पष्ट
६.आन-कोई दूसरा
७.जरा-बुढ़ापा
८.निवारन-नष्ट करने वाला,ख़त्म करने वाला

भावार्थ
सकल द्रव्य (जीव,पुद्गल,नभ,धर्म,अधर्म और काल)..इन ६ द्रव्यों के अनंत गुण हैं और अनंत पर्याय हैं..और इन अनंत गुण और अनंत पर्याय को केवली भगवन एक ही काल में,एक ही समय में स्पष्ट जानते हैं..यह सकल प्रत्यक्ष ज्ञान है या केवल ज्ञान है..केवल ज्ञान अनंत राशि को भी जान सकते हैं..जबकि सर्वावधि ज्ञान भी इस राशि को नहीं जान sakta,लेकिन सकल प्रत्यक्ष(केवल ज्ञान) इस राशि को जान sakta है.ज्ञान के सामान जगत में दुःख का नाश करने वाली कोई दूसरी चीज नहीं है..या ज्ञान के सामान सुख को देने वाली कोई दूसरी चीज नहीं है..क्योंकि कोई भी अज्ञान अवस्था में ही पाप करता है..अथवा अज्ञान ही दुःख का कारन है...लेकिन ज्ञान रुपी परमामृत तोह जन्म,जरा और मृत्यु के रोगों का विनाश कर देता है..इस ज्ञान के बिना संसार में दुःख ही दुःख है..और ज्ञानामृत हमेशा सुख को देने वाला ही है..आकुलता रहित सुख को सिर्फ ज्ञान के माध्यम से पाया जा सकता  है.

ज्ञानी और अज्ञानी की कर्म निर्जरा में अंतर

कोटि जन्म तप तपैं,ज्ञान बिन कर्म झरैं जे,
ज्ञानी के छिनमाहीं,त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते
मुनि व्रत धार अनंत बार ग्रीवक उपजायो
पै निज आतम ज्ञान बिना,सुख लेश न पायो


शब्दार्थ
१.कोटि-करोड़ों
२.ज्ञान बिन-ज्ञान के बिना
३.जे-जितने
४. छिनमाहि-एक क्षण में
५.त्रिगुप्तितैं-मन वचन के की प्रवर्ती को वश में करके
६.सहज-बड़ी सरलता से
७.टरैं-नष्ट हो जाते हैं
८.ते-उतने
९.ग्रीवक-नौवे ग्रैवेयक तक
१०.पै-तोह भी
११.लेश-जरा सा भी
१२.पायो-नहीं पाया


भावार्थ

जितने कर्मों की निर्जरा कोई जीव बिना ज्ञान के करोड़ों जन्मों तक तपस्या करने के बाद कर पायेगा...उतने कर्मों की निर्जरा तोह ज्ञानी जीव मन-वचन काय की प्रवर्ती को वश में करके बड़ी सरलता से एक क्षण में ही कर देगा....इसलिए ज्ञान बहुत सुख दाई है,इस जीव ने मुनि व्रत को अनेकों बार धारण तोह कर लिए..लेकिन आत्म-स्वरुप का ज्ञान ग्रहण नहीं किया जिसके कारण,मुनि व्रत के फल स्वरुप नवमें ग्रैवेयकों के देवों में तोह उत्पन्न  हो गया..लेकिन निज आत्मा स्वरुप के ज्ञान के बिना इस जीव ने(हमने) जरा सा भी सुख नहीं पाया

तत्व अभ्यास की प्रेरणा,ज्ञान के तीन दोष,मनुष्य पर्याय,सुकुल और जिनवाणी की दुर्लभता

तातैं जिनवर कथित तत्व-अभ्यास करीजै
संशय विभ्रम मोह त्याग आपों लाख लीजै
यह मानुष पर्याय सुकुल सुनिवों जिनवाणी
इही विधि गए न मिले,सुमणि ज्यों उदधि समानी

शब्दार्थ
.तातैं-इसलिए
२.कथित-कहे हुए
३.तत्व-सात-तत्वों का
४.करीजै-करिए
५.संशय-शंका
६.विभ्रम-विपरीत मान्यता
७.मोह-कुछ भी,कैसे भी
८.आपो-आत्मा स्वरुप
९.लाख-पहचान लीजिये,जान लीजिये
१०.मानुष-यह मनुह्स्य
११.सुनिवों-जिनवाणी सुनने का मौका
१२.इही विधि-ऐसा सुयोग
१३.गए-अगर चला गया
१४.न मिले-नहीं मिलेगा
१५.सुमणि-उत्तम रत्ना
१६.ज्यों-के सामान
१७.उदधि-समुद्र में
१८.समानी-डूब गयी हो

भावार्थ
इस जीव ने संसार में कही भी सुख नहीं पाया और जन्म मरण के दुःख को ज्ञान के आभास में भोगता रहा ..इसलिए सुखी रहने के लिए श्री जिनदेव द्वारा कहे हुए सातों तत्वों का सच्चा श्रद्धां और निरंतर अभ्यास करना चाहिए...और ज्ञान के तीन दोष १.संशय-शंका(मैं शरीर हूँ या आत्मा ) २.विभ्रम-विपरीत मान्यता(मैं शरीर हूँ) और ३.मोह-कुछ भी..(मैं दोनों हूँ,क्या फर्क है)..इन तीनो दोषों को त्याग कर के अपने आत्मा स्वरुप को पहचानना चाहिए...यह मनुष्य पर्याय,सुकुल (जैन कुल,उत्तम श्रावक कुल)..और जिनवाणी सुनने का दुर्लभ से दुर्लभ अवसर इतनी मुश्किल से मिला है..इसका पूरा प्रयोग करना चाहिए..क्योंकि अगर यह सुयोग हाथ से निकल गया तोह फिर उसी प्रकार नहीं मिलेगा..जिस प्रकार समुद्र में उत्तम रत्ना के डूब जाने के बाद वह रत्ना वापिस नहीं मिलता है..उसी प्रकार यह मनुष्य योनी,सुकुल और जिनवाणी सुनने का मौका वापिस नहीं मिलता है...और बड़ी दुर्लभता से मिलता है.

सम्यक ज्ञान का महत्व और ज्ञान का महत्व

धन समाज,गज,बाज राज तोह काज न आवे
ज्ञान आपको रूप लहै,फिर अचल लहावै
तास ज्ञान को कारण स्व पर विवेक बखानो
कोटि उपाय बनाय भव्य ताको उर आनो

शब्दार्थ
१.धन-दौलत,रुपया,पैसा,भोग,विलास.
२.समाज-परिवारी जन,दोस्त,माता,पिता,पडौसी ,sharir
३.गज-हाथी,वहान
४.बाज-घोड़े,नौकर अदि
५.राज-राज्य,सम्पदा,महल,मकान
६.काज-काम नहीं आते हैं
७.लहै-है
८.अचल-अटल हो जाता है
९.तास-उस
१०.स्व-पर--आत्मा और वस्तुओं की पहचान
११.भेद--भेद विज्ञान
१२.कोटि-करोड़ों
१३.उपाय-तरीकों से
१४.ताको-उस भेद विज्ञान को
१५.उर-हृदय
१६.आनो-लाओ,ग्रहण करो

भावार्थ
यह जितना भी रुपया,पैसा,दौलत,परिवारी जन,दोस्त,माता,पिता,भाई,बहन,पडोसी,हाथी,घोड़े,राज्य सम्पदा और अनन्य वैभव कुछ भी काम नहीं आता है..यह दुःख से नहीं बचा सकते हैं...या ऐसा नहीं हो सकता है की इनको प्राप्त करने के बाद दुःख न आये,या यह हमेशा रहे,या छोड़ कर-के नहीं जाएँ,या उसके बाद आकुलता न हो,किसी प्रकार का दुःख नहीं आये...लेकिन यह बात बड़े गौर की है की यह सब चीजें ही हमारे लिए दुःख की कारणभूत हैं..और इन्ही के प्रति राग-द्वेष रखने से ही दुःख आता है...अगर सुख इन चीजों में होता..तोह बड़े बड़े अरबपतियों का देह वासन नहीं होता..और वह हमेशा सुखी नहीं रहते..इस जीव ने अनेकों बार नवमें ग्रैवेयक के देवों में जन्म  लिया..लेकिन बिना निज आत्मा ज्ञान के दुखी ही रहा..लेश मात्र भी सुख नहीं रहा..वैसे भी बड़े बड़े चक्रवती सम्राट आदियों को भी देह त्याग के सब यहीं का यहीं छोड़ कर जाना पड़ा..तोह हम क्या हैं...यानी की यह भौतिक वस्तुओं कभी काम नहीं आती हैं....लेकिन जो ज्ञान है..वह तोह आत्मा का निज स्वाभाव है....यह तोह अटल है..यह कभी जाता नहीं है...आत्मा का स्वाभाव ही तोह है दर्शन और ज्ञान ..और सम्यक ज्ञान के बाद यह ज्ञान अटल हो जाता है....इस सम्यक ज्ञान का कारण स्व-पर का विवेक बताया गया..यानि की भेद विज्ञान,आत्मा और शरीर का भेद विज्ञान बताया है...और यह भेद विज्ञान और सम्यक ज्ञान के अलावा संसार में कोई भी वस्तु सुख दाई नहीं है...इसलिए सुख के इच्छुक..निराकुल आनंद सुख के इच्छुक जीवों को कोटि-कोटि उपाय करके भी इस भेद विज्ञान को ह्रदय में लाना चाहिए.

सम्यक ज्ञान की महिमा,विषय चाह रोकने का उपाय


जे पूरव में शिव गए,जाहीं अरु आगे जे हैं,
सो सब महिमा ज्ञान-तनी,मुनि नाथ कहे हैं
विषय चाह दाव-दाह,जगत-जन अरनिं दझावे
ताकू उपाय न आन ज्ञान घनघान बुझावे



शब्दार्थ
१.जे-जो
२.पूरव-पहले
३.शिव-मोक्ष,आकुलता रहित अवस्था
४.जाहीं-जा रहे हैं
५.अरु-और
६.जे-जायेंगे
७.सो-यह सारी
८.ज्ञान-तनी--सम्यक ज्ञान की
९.मुनिनाथ-अरिहंत भगवन या गणधर भगवन
१०.कहे हैं-मुनियों के नाथ ने कहा है
११.दव-दह--दावानल के सामान जलने वाली है
१२.जगत-जन-संसार के जीवो को
१३.अरनिं-वन को
१४.दझावे-जला रही है
१५.ताकू-इसका
१६.आन-कोई दूसरा
१७.ज्ञान-सम्यक ज्ञान-सच्चा ज्ञान
१८.घन-घान-मेघों का समूह
१९.बुझावे-बुझाता है


भावार्थ
जिन जिन जीवों ने आकुलता रहित,निराकुल आनंद सुख को यानी की मोक्ष सुख को प्राप्त किया है,या प्राप्त कर रहे हैं...या आगे प्राप्त करेंगे....वह सिर्फ सच्चे ज्ञान की मदद से ही प्राप्त कर सकेंगे..और जो भी जीव आजतक मोक्ष सुख को प्राप्त कर रहे हैं या कर चुके हैं...यह सब महिमा सम्यक ज्ञान की ही है...ऐसा मुनियों के नाथ,वीतरागी,१८ दोषों से रहित भगवान ने कहा है...और गणधर भगवान ने कहा है. विषयों की चाह दावानल के सामान संसार के जनसमूह रुपी वन को जला रही है..जीर्ण-शीर्ण कर रही है..और इस विषयों की चाह को रोकने के लिए संसार में सम्यक ज्ञान,भेद विज्ञान,सच्चे ज्ञान के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है...यह सम्यक ज्ञान रुपी मेघों का समूह संसार के जनसमूह रुपी वन में लगी हुई विषयों की आग को बुझा देता है..इसलिए हम को इस महा-कल्याणकारी सम्यक ज्ञान को धारण करना चाहिए.

  चौथी ढाल
                                  पुण्य पाप के फलों में हर्ष विषाद का निषेद

                                    पुण्य पाप फलमाहीं हरख बिलखौ मत भाई
                                                      यह पुद्गल परजाय उपजै-विनसे फिर थाई
                                                       लाख बात की बात यह निश्चय उर लाओ
                                                    तोरि सकल जग-द्वंद-फंद निज आतम ध्याओ 

शब्दार्थ
१.फलमाहीं- फलों में
२.हरख-हर्ष,rati
३.विलखौ-दुखी मत हो,अरतु
४.भाई-हे भव्य जीवों
५.पुद्गल-अजीव का एक प्रकार,जिसमें वर्ण,रस,गंध,स्पर्श हों
६.परजाय-एक पर्याय 
७.उपजै-उपजती है
८.विनसे-नष्ट हो जाती है
९.फिर-फिर से 
१०.थाई-पैदा हो जाती है
११.लाख बात की बात-सबसे बड़ी और ख़ास बात,या सीधी सीधी बात तोह यही है
१२.तोरि-तोड़कर
१३.सकल-सारे
१४.जग-संसार के
१५.द्वंद-फंद-झगडे,झंजत,मसलें,सुख-दुःख
१६.ध्याओ-ध्यान करो

भावार्थ
हे भव्य जीवों पुण्य और पाप के फलों में रति,अरति या हर्ष-विषाद करना छोडो...क्योंकि शुभ और अशुभ तोह पुद्गल की पर्याय हैं...यह बार उपज-जाती हैं,नष्ट हो जाती हैं,पैदा हो जाती,फिर उपज जायेंगे..और फिर नष्ट हो जायेंगी...अतः यह तोह अस्थायी हैं..हमेशा न रहने वाली हैं...यह तो असाता और साता वेदनीय कर्म के उदय से आती हैं..और कर्म तोह पुद्गल ही है...अतः हमेशा नहीं रहती हैं..आज सुख तोह कल नहीं,आज घर है तोह कल  कंगाल है,आज पुत्र ऐसा कर रहा है,कल बदल जाए..कोई भरोसा नहीं...यह सारे विषय,भोग,सुन्दरता,घर-वार,स्त्री,हाथी,घोड़े,मकान सम्पदा सब अस्थायी हैं..और सब अशुभ और शुभ के उदय से आती जाती रहती हैं..और यह सारी क्षण-भंगुर हैं..इसलिए इनके संयोग और वियोग में क्या दुखी होना?...लाख बात की बात तोह यह जान लेनी चाहिए..और ह्रदय में धारण कर लेनी चाहिए कि सच्चा सुख आत्मा स्वरुप में ही है,सुख कहीं बहार नहीं मिलता है..उल्टा बहार तोह दुःख ही दुःख है..इसलिए इस संसार के झगडे-झंजतों से बच कर,मोह-माया में नहीं पड़ना चाहिए और आत्मा का ध्यान करना चाहिए.

सम्यक चरित्र-एक देश में अहिन्साणु और सत्याणु व्रत का वर्णन

सम्यक ज्ञानी होय बहुरि,दिढ़ चरित्र कीजै
एक देश अरु सकल देश,तसु भेद कहीजै
त्रस हिंसा को त्याग,वृथा थावर न संघारे
पर वधकार,कठोर निंद नहीं वयन उचारे

शब्दार्थ
१.होय-होने के बाद
२.बहुरि-भव्य जीवों
३.दिढ़-अटल,हमेशा रहने वाला
४.कीजै-धारण करो
५.अरु-और
६.सकल-देश--सर्व देश (मुनियों के लिए)
७.सकल देश(श्रावकों के लिए)
८.तसु-जिसके
९.कहीजै-कहे गए हैं
१०.त्रस-एक से ज्यादा इन्द्रिय वाले जीव
११.वृथा-बेकार में
१२.थावर-एकेंद्रिया जीव
१३.संघारे-हिंसा न करे
१४.पर-वधकर-किसी की प्राण-घातक
१५.कठोर-चुभने वाली,बुरी लगने वाली
१६.निंद-निंदनीय..और निंदा की बातें
१७.वयन-वचन
१८.उचारे-उच्चारण करना

भावार्थ
सम्यक ज्ञान,सच्चे ज्ञान को ग्रहण करने के बाद सच्चा चरित्र,अटल चरित्र ग्रहण करना चाहिए..जिसके दो भेद कहे गए हैं..एक देश जो की श्रावकों के लिए हैं और सकल देश जो की मुनियों के लिए बताया गया है.जिसमें श्रावक के १२ प्रकार के व्रत आते हैं..जिसमें पांच अणु व्रत,३ गुण व्रत और ४ शिक्षा व्रत हैं..जिनमें से अणु व्रत का वर्णन कर रहे हैं..
पहले सत्याणु और अहिन्साणु व्रत का वर्णन करते हैं---
१.सत्याणु व्रत का लक्षण यह है की इस व्रत को धारण करने वाला जीव कभी भी ऐसे शब्द नहीं कहेगा..जो अन्य के प्राण के लिए घटक हो जायें..कष्ट दाई हो जायें,दूसरा किसी को चुभने वाले कठोर शब्द नहीं कहेगा..और तीसरा किसी की निंदा अदि नहीं करेगा..और न ही निंदनीय शब्द (जैसे गली-गलोंच) अदि नहीं कहेगा.

२.अहिन्साणु व्रत का लक्षण यह है की इस व्रत को धारण करने वाला जीव त्रस हिंसा का सर्वथा के लिए त्याग,बेफाल्तू में थावर जीवों की हिंसा नहीं करेगा (जैसे पंखा खुला छोड़ दिया,अग्नि जलती छोड़ दी,पानी वार्बाद करना अदि)..यानि की पंचेंद्रिया हिंसा का तोह सवाल ही नहीं उठता.

अचौर्याणु,ब्रह्मचार्याणु,परिग्रह प्रमाण और दिग व्रत का स्वरुप

जल मृतिका बिन और कुछ न गहै अदत्ता
निज स्त्री बिन सकल स्त्री सों रहे विरत्ता
अपनी शक्ति विचारपरिग्रह थोड़ा राखो
दस-दिश गमन प्रमाण ठान,तसु सीम न नाखो
शब्दार्थ
१.जल-पानी
२.मृतिका-मिटटी
३.बिन-जल और मिटटी को छोड़कर
४.गहै-ग्रहण करे
५.अदत्ता-बिना दिए हुए
६.निज स्त्री-विवाहित स्त्री
७.सकल-सारी
८.सों-से
९.विरत्ता-विरक्त रहना
१०.विचार-चिंतन करके
११.थोड़ा-कम
१२.राखो-कम रखों
१३.दश-दिश गमन-दशों दिशाओं में गमन
१४.प्रमाण-सीमा बनके
१५.तसु-उस सीमा
१६.न-नहीं
१७.नाखो-उलंघन

भावार्थ
३.अचौर्याणु व्रत का धारी श्रावक चोरी का सर्वथा के लिए त्याग तोह करेगा ही...और कहीं भी जाएगा.तोह वहां कि जल और मिटटी के अलावा बिना दिए और कुछ ग्रहण नहीं करेगा...और जल,मिटटी भी तब ग्रहण करेगा..जब तक वह जल और मिटटी सार्वजनिक ......नहीं होगी..किसी कि चीज बिना पूछे नहीं लेगा...और बिना दिए नहीं लेगा.

४.ब्रह्मचार्याणु व्रत का धारी श्रावक जिस स्त्री से उसने सांसारिक बंधन बांधा है..उसके अलावा अन्य स्त्रियों से विरक्त रहेगा..और अश्लील गाने,सिनेमा,पिक्चर और गाली अदि नहीं देगा..और न ही अश्लील बात करेगा

५.परिग्रह प्रमाण व्रत का धारी श्रावक अपनी शक्ति के हिसाब से परिग्रह कि सीमा बना लेगा..और उस सीमा के अंतर्ग्रत थोडा ही परिग्रह रखेगा..इसका मतलब यह नहीं है कि परिग्रह कम रखना है..मतलब यह है कि एक सीमा बनानी है...जैसे कि मेरे पे दो पेन हैं और ज्यादातर मान लीजिये दो पेन ही रहते हैं..तब भी मैं परिग्रह प्रमाण बना सकता हूँ (अभी तक नहीं बनाया है).

६.दिग व्रत के अंतर्ग्रत श्रावक अपने आने जाने कि,गमनागमन कि सीमा जीवन पर्यंत के लिए बनता है..जैसे के इस जगह से आगे नहीं जाऊंगा..और इस तरह का दशों दिशायों का जीवन पर्यंत परिमाण बना लेता है..और उस जगह से आई हुई वस्तुओं अदि भी ग्रहण नहीं करता


देश व्रत,अप्ध्यान और पापोपदेश अनर्थ दंड व्रत का स्वरुप
ताहू में फिर ग्राम गली गृह बाग़-बजारा
गमनागमन प्रमाण थान,अन सकल निवारा
काहू की धन-हानी,किसी जय-हार न चिन्ते
देय न उपदेश होय अघ वनज कृषिते

 शब्दार्थ
१.ताहू-फिर उसी
२.ग्राम-गाँव
३.गमनागमन-आने-जाने की
४.प्रमाण-सीमा
५.थान-बना के
६.अन-और
७.सकल-निवारा-बाकि जगह का त्याग
८.काहू की-किसी की
९.धन हानि-नुक्सान,पैसे का नुक्सान अदि
१०.जय-हार-जीत हार
११.चिन्ते-चिंता करना
१२.देय न-नहीं देना
१३.सो-ऐसा
१४.अघ-पाप
१५.वनज-व्यापार
१६.कृषितैं-खेती करने से

भावार्थ

.देश व्रत का धारी श्रावक दिग व्रत की तरह अपने आने जाने के सीमा तोह बना लेता है लेकिन उसका समय,घंटा घडी अदि का संकोच करता है...दिग व्रत जीवन-पर्यंत होता है..लेकिन यह देश व्रत-निश्चित समय के लिए बनाया जाता है..जैसे की अष्टमी,चतुर्दशी,या दशलक्षण व्रत,या रोहिणी  व्रत अदि दिनों में सीमा बना लेता है..या इसका और कम समय भी किया जा सकता है..जैसे की "जब तक प्रवचन सुन रहा हूँ,बिस्तर से नहीं उठूँगा,या कमरे से बाहार नहीं जाऊंगा.)
 ८.अनर्थ-दंड व्रत
अप ध्यान अनर्थदंड व्रत का धारी श्रावक किसी की धन-हानि,मान हानि,नुक्सान अदि के बारे में नहीं सोचता है..तथा किसी के जीत-हार अदि के बारे में नहीं सोचता है..यानि की जुआं,सट्टे अदि का काम नहीं करता है..न आनंद लेता है..इसके अंतर्ग्रत श्रावक कभी यह नहीं सोचता की एक जीते दूसरा हारे,या दूसरा जीते,पहला हारे..ऐसा नहीं है की इस व्रत का धारी श्रावक क्रिकेट अदि नहीं देखेगा,या कोई गेम नहीं खेलेगा,या और कुछ नहीं करेगा..बस जीत हार की भावना नहीं रखेगा.

पापोपदेश अनर्थ दंड व्रत का धारी श्रावक कोई भी ऐसा उपदेश नहीं देगा जिससे किसी प्रकार का पाप हो,चाहे हिंसा पाप हो,चोरी पाप हो,परिग्रह पाप हो,कुशील पाप हो या झूठ पाप हो..तथा खेती,व्यापार अदि करने का उपदेश नहीं देगा..क्योंकि इसमें हिंसा और पाप बहुत होता हैं...हिंसा का उपदेश नहीं देगा..और खुद भी ऐसे काम कम करेगा. उपदेश का मतलब सलाह,मशवरा अदि से भी हैं.

प्रमाद चर्या,हिंसादान और दु-श्रुतः अनर्थ दंड व्रत

कर प्रमाद जल भूमि,वृक्ष,पावक न विराधे
असि धनु हल,हिंसोपकरण,नहीं दे यश लागे
राग-द्वेष करतार कथा कबहूँ न सुनिजे
औरहूँ अनर्थ दंड हेतु अघ तिन्हे न कीजे


शब्दार्थ
१.अनर्थ-बेकार
२.प्रमाद-आलस,बेकार में,मजे में
३.पावक-अग्निकायिक और वयुकायिक जीव
४.विराधे-हिंसा करना
५,असि-तलवार
६.धनु-धनुष
७.हिंसोपकरण-हिंसा के कारण अस्त्र-शास्त्र
८.यश-लागे-यश नहीं मनन
९.करतार-करने वाली
१०.कबहू-कभी भी
११.सुनिजे-नहीं सुनना
१२.हेतु-की वजह से
१३.अघ-पाप
१४.कीजै-नहीं करिए

भावार्थ
प्रमाद चर्या अनर्थ दंड व्रत का धारी श्रावक बेमतलब में,प्रमाद या अकारण जल कायिक,वायुकायिक,अग्नि कायिक,वनस्पति कायिक और पृथ्वी कायिक जीवों की विराधना नहीं करेगा,जैसे पानी बर्बाद नहीं करना,कुदाल से मिटटी नहीं खोदना,फूल,पट्टी अदि नहीं तोडना,प...ंखा अदि बेफाल्तू में नहीं चलाना.

हिंसा दान अनर्थ दंड व्रत का धारी श्रावक तलवार,दनुष,हल अदि हिंसा के उपकरण को न किसी को देगा,न दिलवाएगा,न रखने वालों की अनुमोदन करेगा और न ही खुद रखने में यश मानेगा.जैसे की बन्दुक अदि रखने का काम नहीं रखेगा,.या अन्य हिंसा के कारण अस्त्र-शस्त्र और वस्तुओं को नहीं रखेगा.

दु-श्रुतः अनर्थ दंड व्रत का धारी श्रावक कभी भी राग-द्वेष को उत्तपन करने वाली कथाएँ पढ़ेगा,न सुनेगा, न सुनाएगा..जैसे की सिनेमा अदि नहीं देखेगा,अशील कथा नहीं पढ़ेगा,झूठे शास्त्र नहीं पढ़ेगा.


सामयिक,प्रोषादोपवास,भोगोपभोग परिमाण,अतिथि संबिभाग अदि शिक्षा व्रत

धर उर समता भाव,सदा सामयिक करिए
पर्व चतुष्टय माहीं,पाप तज प्रोषद धरिये
भोग और उपभोग नियम करि ममत निवारे
मुनि को भोजन देय फेर निज करहि आहारे.

शब्दार्थ
१.धर उर-मन में धर के
२.सदा-हमेशा
३.करिए-करना चाहिए
४.चतुष्टय-अष्टमी और चतुर्दशी को
५.माहीं-में
६.तज-त्याग कर
७.धरिये-धारण करे
८.नियम करी-परिमाण बना के
९.करि-करके
१०.निवारे-त्याग करे
११,भोजन-आहार
१२.देय-देने के बाद
१३.फेर-फिर उसके बाद
१४.करहि-करना

भावार्थ
चार शिक्षा व्रत

सामयिक व्रत को पालने वाला श्रावक हमेशा समता भाव से रहेगा,यानि की सुख और दुःख की घड़ियों में एक जैसा व्यवहार करेगा,और भुत की आपबीती,अच्छे,बुरी यादें और भविष्य के विकल्प नहीं बनाएगा....और हर दिन ४८ मिनट संधि काल के समय सामयिक करेगा.

प्रोषादोपवास व्रत को पालने वाला श्रावक महीने की दो अष्टमी और दो चौदस वाले दिन...व्रत रखेगा..और कोई भी ऐसा काम नहीं करेगा जिसमें पाप का बंध हो...यानि की पाप को ताज कर प्रोषद रखेगा
भोगोपभोग परिमाण व्रत पालने वाला श्रावक अपने भोगने की चीजें,न भोगने की चीजों का परिमाण बना लेगा,परिग्रह प्रमाण में जीव अपनी एक सीमा बनता है...लेकिन भोगोपभोग परिमाण व्रत में उस सीमा को और कम कर लेता है..और बाकि बची हुई चीजों से मोह-ममता का त्याग कर देता है.
अतिथि सम्भिभाग व्रत को पालने वाला जीव किन्ही मुनिराज,आर्यिका, ऐलक जी,क्षुल्लिका जी,क्षुल्लक जी.या किन्ही सुपात्र को भोजन खिलाकर खुद भोजन करेगा...जब तक वह जीव इनमें से किन्ही को भोजन न दे दे तब तक कुछ नहीं खायेगा.

व्रत पालन का फल

बारह व्रत के अतिचार पन-पन न लगावे
मरण समय संन्यास धरि तसु दोष नशावे
यों श्रावक व्रत पाल स्वर्ग सोलम उपजावे
तहां ते चय नर जन्म पाय,मुनि होय शिव पावे.



शब्दार्थ
१.अतिचार-दोष
२.पन-पन-पांच-पांच
३.न लगावे-नहीं लगता है
४.मरण समय-शरीर के त्याग के समय
५.संन्यास-समाधी मरण
६.धरि-धारण कर के
७.यों-इस तरह से
८.सोलम-सोलहवें
९.उपजावे-जन्म लेता है
१०.तहांते-वहां से
११.चय-आयु पूरी कर
१२.मुनि होय-मुनि व्रत पालन कर,
१३.शिव-मोक्ष (आकुलता रहित,कर्म रहित अवस्था)
१४.पावे-प्राप्त करता है

भावार्थ

श्रावक व्रत पालने का फल:-

जो मनुष्य श्रावक के १२ व्रतों को पालते हैं,वह भी पांच-पांच अतिचार को दूर करके,तथा जब आयु पूरी होने वाली हो शरीर की उस समय समाधी मरण को धारण करके,अथवा उसके दोषों को दूर करते हैं..इस श्रावक व्रत को पालने के परिणाम स्वरुप वह जीव १६ स्वर्ग तक के देवों में उत्त्पन्न होते हैं...और वहां से आयु पूरी करके मनुष्य आयु पाते हैं,और फिर मुनि होकर परम शिव पद,मोक्ष पद,निराकुल आनंद सुख को प्राप्त होते हैं.

रचयिता-कविवर श्री दौलत राम जी
लिखने का आधार-स्वाध्याय(६ ढाला,संपादक पंडित रत्न लाल बैनाडा,डॉ शीतल चंद जैन)

जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.


Tuesday, October 4, 2011

ram lakshman ki van gaman ki kathayein-kulbhoosan aur desh-bhoosan muni ki katha

राम-लक्ष्मण कि वन गमन कि कथाएँ-कुल-भूषण और देश भूषण मुनियों क़ी कथा.
विजय पुर नगर से निकल-कर राम-लक्ष्मण एक वन में पहुंचे...उस वन में बड़े सुन्दरफल लदे हुए थे,राम लखमन ने देव में ऐसे क्रीडा करते जैसे देव करते,कभी सीता को झूला झुलाते...राम-सीता को बड़ा संभाल कर दुर्गम रास्तों में ले जाते थे,सीता की वजह से ही वह बहुत कम दूरी तय कर पाए थे...अनेक -देश नगर में विहार करते हुए वंश स्थल नगर आये..उस नगर पे एक वंश-धर नाम का पर्वत देखा..उस पर्वत से दोनों भाइयों ने लोगों को भागता हुआ देखा..कोई कह रहा था की आज तीसरा दिन है,भयंकर आवाजों से कान बहरे हो गए हैं,डरावनी आवाजें  आ  रही  हैं ,कोई  देव   पहाड़  को भेद रहे हैं...या और कुछ..तब यह बात सीता ने सुनी तोह राम के निकट आ गयीं...राम ऊपर पहाड़ पे जाने का निश्चय करते हैं...सीता को बड़ी मुश्किल से ऊपर चडाते हैं...ऊपर चढ़ते हैं तोह देखते हैं दो मुनि-कुलभूषण और देश-भूषण मुनि शिला में ध्यान-मग्न..कैसे हैं मुनि शुद्दोप्योग में मग्न...कोई राग-द्वेष नहीं..तभी लक्ष्मण जी और राम जी उनकी स्तुति करते हैं हे महा-मोह के नाशक आपको प्रणाम,आप धन्य है जो विषय भोगों से विरक्त है,यह विषय भोग दुःख को देने वाले,इन विषय भोगों से विरक्त होकर ग्यानी ही मुनि होते हैं..अहो धन्य हैं आप,तभी एक असुर देव आता है,और मुनि पे सांपो,और जहरीले बिच्छुओं की वर्षा करता है,बिच्छु बहुत सूक्ष्म थे...राम-लक्ष्मण उस उपसर्ग से मुनि की रक्षा करते हैं...और फिर-से बीना उठाकर स्तुति करते हैं...सीता जी वन से फूल चढ़ाती हैं मुनियों के चरणों में...फिर से देव आता है,...भयंकर राक्षश असुर चेहरे बनाकर..मुनियों की डराने की चेष्टाएं करते हैं,भयंकर नृत्य करने वाली,नंगी भूत,हड्डियां....तरह-तरह के उपसर्ग...पूरे पहाड़ को भूकंप से हिला-दिया...सीता-राम के पीछे चिप जाती हैं,,तभी राम धनुष को चडाने की चेष्टा करते हैं,धनुष को चढाने की जोर से आवाज आती है,उस आवाज से असुर देव उनको बल-भद्र और नारायण जानकार भाग जाता है,शुक्ल ध्यान में विराजमान मुनियों को केवल ज्ञान हो जाता है,चारो-निकाय के देव पूजा करते हैं,विद्या-धर भूमि गोचर राजा आते हैं..तभी श्री राम पूछते हैं हे भगवन इस असुर ने आप-पर इतना उपसर्ग क्यों किया..और आप दोनों के बीच में इतना प्रेम कैसे?..दिव्यध्वनी खिरती है..भगवन अपने-पूर्व के विषयों में बताते हैं..और असुर देव के बारे में बताते हैं की वह अग्नि-भूति नाम का ज्योतिष देव है..जिसने हम पर उपसर्ग इसलिए किया क्योंकि उसने अनंत-वीर्य केवली के गंध कुटी में सुना था..की मुनि-सुव्रत नाथ भगवान् के बाद अनंत-वीर्य केवली हुए और उनके बाद कुल-भूषण और देश-भूषण मुनि होंगे...इस बात को असत्य करने के लिए उसने कुल-भूषण और देश-भूषण मुनि पर उपसर्ग किया... केवली भगवान् कहते हैं कि सिद्धार्थ  नगर के राजा क्षेमंकर ,रानी विमला.. राज्य-पुत्र हुए कुल-भूषण और देश-भूषण...उन्हें सागर-घोष नाम के पंडित पर पढने के लिए भेजा,उन्हें हर-कला,शास्त्र कला में प्रवीण किया..केवली-राम और लक्ष्मण से कहते हैं कि वह कुल-भूषण और देश-भूषण हम हैं,हमने किसी को भी नहीं जाना,सिर्फ गुरु और विद्याओं को छोड़ कर...सो हमने सुनी कि हमारे विवाह के लिए पिता ने नगर के बाहर राज्य कन्या मंगवाई है..सो महल के बाहर बहन कम्लोत्सावा..नगरी कि शोभा देख रही थी..सो हम विद्या के अभिलाषी बहन को भी नहीं पहचाने..और उससे विवाह कि भावना बनायीं..तभी नगरी में जय-जय कार हो रही कि महाराज कि जय हो,महाराज कि पुत्री कम्लोत्सावा कि जय हो...यह सुन-कर विरक्त हुए कि हमने बहन को बुरी नजर से देखा,धिक्कार है हमें...मुनि-व्रत धारण कर लिया...पुत्र के वियोग में पिता शोक-माय हुआ...और सर्व-आहार त्याग कर मरण को प्राप्त हुए..और गरुनेंद्र हुए...यह उपदेश केवली भगवान् ने राम-लक्ष्मण को दिए..तभी गरुनेंद्र भी वहीँ पर मौजूद होते हैनं..वह राम-लक्ष्मण से प्रसन्न होकर कहते हैं कि कुछ भी मांगो,श्री राम कहते हैं जब जरूरत आएगी,तब मांगेंगे..ऐसा कहकर राम-लक्ष्मण आगे बढ़ते हैं..और बड़े हर्ष को प्राप्त होते हैं...धन्य है ऐसे कुल-भूषण और देश-भूषण मुनि..जो केवल-ज्ञान को प्राप्त हुए....

लिखने का आधार-शास्त्र श्री पदम्-पुराण
अल्प बुद्धि और प्रमाद के कारण हुई भूलों के लिए क्षमा.

Monday, October 3, 2011

raam-lakshman ki van gaman ki kathayein-lakshman ko jit-padma ki praapti.

राम-लक्ष्मण  की  वन  गमन  की  कथाएँ -लक्ष्मण   को  जित -पद्मा  की  प्राप्ति .
राम लक्ष्मण अतिवीर्य राजा के मुनि बनने के बाद वापिस राजा पृथ्वी धर के यहाँ आते हैं...राजा पृथ्वी धर वनमाला को लक्ष्मण को देने की कहते हैं वह बोलते हैं अभी तोह हम वनवासी है...हम आपको दक्षिण में मलयागिरी में कोई स्थान बनाकर स्वीकार करेंगे..वनमाला विश्वाश नहीं करती तोह लक्ष्मण कहते हैं की जिस प्रकार सम्यक-दर्शन बिना जीव संसार में दुःख-भोगता है,उसी प्रकार मैं भी दुःख भोगुन,अगर तुम्हे स्वीकार नहीं करूँ..तोह वनमाला मान जाती हैं..आगे चलते हैं रात में गुप्त तौर से निकल कर..तोह नगर के लोग शोक करते हैं...देखिये पुण्य और धर्म की महिमा बिना मांगे सब मिल जाता है,दुनिया बिना कुछ किये ही सिर्फ रूप से मोहित हो-कर ही पीछे भागती है उनके..और चले जाती है तोह रोती है. राम लक्ष्मण आगे जाकर क्षेमांजलि नगर में पहुँचते हैं..लक्ष्मण राम की आगया लेकर नगर भ्रमण करने निकलते हैं तोह लोग कहते हैं की इतने सुन्दर पुरुष शायद कोई देव हैं या और कोई..लक्ष्मण बहुत से लोगों से यह बात सुनते हैं की "यहाँ का राजा शत्रुदमन,रानी कनक प्रभा की पुत्री जितपद्मा बहुत ज्ञान-वान है,हर बात में प्रवीण है...उसके लिए राजा ने शर्त रखी है की जो उनकी शक्ति को  सहन करे उसे जितपद्मा को दूँ...लक्ष्मण लोगों से जितपद्मा के बारे में पूछते हैं तोह लोग कहते हैं की क्या फायदा ऐसी राजकुमारी का,जिसकी वजह से जान चला जाए..लक्ष्मण सोचते हैं की ऐसा क्या है इसमें मैं उसका घमंड चूर-करूँगा...लक्ष्मण महल में जाते हैं तोह द्वारपाल लक्ष्मण का सन्देश अन्दर भेजता है..कहता है की एक बड़े-रूपवान पुरुष आपके दर्शन करना चाहते हैं...लक्ष्मण अन्दर प्रवेश करते हैं...ऊपर से जित-पद्मा लक्ष्मण को देखती है ..और मोहित हो जाती है,देखा धर्म और पुण्य का प्रभाव जिस रानी के लिए राजा ने इतनी बड़ी शर्त रखी...लोग उसके पीछे पागलों की तरह घूम रहे हैं...और वह विना किसी काम के मोहित हो जाती है,राजा कहते हैं तुम्हे जितपद्मा चाहिए तोह तुझे शक्ति सहन करनी पड़ेगी..लक्ष्मण बड़े हंसकर कहते हैं..और बड़ी आसानी से शक्ति का प्रहार दोनों भुजा पे सहन कर लेते हैं..लक्ष्मण से राजा अति प्रसन्न होते हैं...लक्ष्मण कुछ बात करता इससे पहले वह श्री-राम को लेने वन में जाते हैं...सीता श्री राम से वन में कहती हैं की क्या कोई शत्रु तोह नहीं जो हमसे लड़ने आ रहा है...लेकिन फिर नृत्य करने वालिओं को देख कर..शांत होती हैं..लक्ष्मण जित-पद्मा के साथ श्री राम के पास आते हैं,प्रणाम करते हैं..राजा शत्रु-दमन उन्हें प्रणाम करते हैं..उनके यहाँ भी राम-लक्ष्मण कुछ दिन निवास करते हैं..फिर चलने की बात करते हैं तोह लक्ष्मण उसी प्रकार जित-पद्मा को समझाते हैं..जिस प्रकार वन-माला को समझाया था..और आगे चलते हैं....

लिखने का आधार-शास्त्र श्री पदम्-पुराण

अल्प बुद्धि और प्रमाद के कारण हुई भूलों के लिए क्षमा. 

ram lakshman ki van-gaman ki kathayein -anant veerya ka muni pad dhaar vairagya dharaan karna

राम-लक्ष्मण कि वन-गमन कि कथाएँ--अतिवीर्य मुनि कि कथा..
रामलक्ष्मण सीता सहित अपने वनगमन की यात्रा दौरान राजा पृथ्वी धर के यहाँ बड़े सम्मान से बैठे थे..तभी वहां एक दूत आता है..और राजा अतिवीर्य का उपदेश राजा पृथ्वी धर को सुनाता है कि वह अयोध्या के राजा भारत पर चढ़ाई करना चाहते हैं,मगध देश के राजा,अंग देश के राजा,वत्स देश के राजा,क्रूर राजा सिन्ह्वीर अदि सब हमारे साथ हैं इसलिए विनम्र न करो...तब लक्ष्मण पूछते हैं कि भरत कि अतिवीर्य  से लड़ाई क्यों हुई तोह वोह कहता है कि हमारा दूत राजा भरत के पास सन्देश लेकर गया था कि वह राजा अतिवीर्य के आगे झुक-कर प्रणाम करें..लेकिन तब शत्रुघ्न ने उस दूत का बहुत अपमान किया..उसे कुत्ते कि तरह दुत्कार कर नगर से बहार निकाल दिया...और वह राजा-अतिवीर्य से लड़ने को उद्यमी हुआ है..तब श्री राम कहते हैं ki  शत्रुघ्न ने यह अच्छा नहीं किया..पृथ्वी धर उनसे लड़ने को तैयार होता इससे पहले राम-लक्ष्मण सीता सहित राजा पृथ्वी धर से कहकर अतिवीर्य से लड़ने को तैयार होते हैं..लेकिन रास्ते में विचार विमर्श करते समय सीता बीच में बोलती हैं कि अतिवीर्य अति शक्तिशाली है..इससे संभालना तब लक्ष्मण कहते हैं कि यह इतने तुच्छ लोगों से भी कोई लड़ना...तब राम कहते हैं कि राजा भरत का राज्य पास में ही है,इसलिए उन्हें पता नहीं चलना चाहिए..इसलिए वह कोई दूसरी युक्ति करते हैं..वह राजा अतिवीर्य के समक्ष न्रत्यांगना बन कर जाते हैं..राम-और लक्ष्मण अपने हाव-भाव से सबको मोहित करते हैं..और नृत्य करते हैं...तब राम लक्ष्मण देव भी मोहित हो,मनुष्यों कि तोह बात ही क्या..और फिर श्रंगार रस से वीर-रस में आकर अतिवीर्य को ललकारते हैं,एकदम से उस पर टूट पड़ते हैं..लक्ष्मण उनकी चुटिया पकड़ लेते हैं..तब सीता जो कहती हैं इन्हें क्षमा करो..यह कर्म का उदय है..तब अतिवीर्य हार-मानते हैं..तब लक्ष्मण कहते हैं कि तू राजा-भरत का आज्ञाकारी बन जा तुझे तेरा राज्य वापिस मिल जाएगा..तब राजा-अतिवीर्य कहते हैं कि न अब मुझे यह राज्य चाहिए न और कुछ...अब मैं कुछ ऐसा करूँ जो इनसे मुक्त होऊं..तब अनंत-वीर्य जिनेश्वरी दीक्षा धारण करते हैं..और अतिवीर्य मुनि के नाम से जाने जाते हैं...धन्य हैं ऐसे अतिवीर्य मुनि..जब भरत और शत्रुघ्न इस घटना के बारे में जानते हैं तोह शत्रुघ्न हस्ते हैं उनके मुनि बन्ने पर तब भरत कहते हैं "अहो" भाई हसो मत..धन्य हैं जो यह चुभने वाले विषय भोगों से विरक्त हैं..वह दोनी भाई अतिवीर्य मुनि के दर्शन करते हैं..कैसे हैं अतिवीर्य मुनि-विषम जंगले में अनेक जानवरों से युक्त..तपस्या कर रहे होते हैं..भरत-शत्रुघ्न उनसे क्षमा मांगते हैं...धन्य है ऐसी वीतराग-मुनि मुद्रा.

लिखने का आधार-श्री पदम् पुराण
अल्प बुद्धि और प्रमाद के कारण हुईं भूलों के लिए क्षमा.

BARAH BHAVNA-manglacharan

अरहंत,सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधू की सर्वप्रथम स्वरुप सहित वंदना,भावना का महत्व और भावना का स्वयं के जीवन से सम्बन्ध करने हेतु मंगलाचरण

मंगलाचरण
अथ दस विकार हीन प्रभु को ह्रदय धरूँ
उन सम गुणोंपलब्धि हेतु नित नमन करूँ
हैं अतिशय चौतीस जिन्हें अष्ट प्रातिहार्य
प्रकटे अनंत चतुष्टय सदा अपरिहार्य

यूँ तोह अनंत गुणों के प्रभु निधान हैं
छियालीस गुण कथन तोह उपचार ज्ञान है
उनका निवास तोह सदैव ध्रौव्य धाम है
लब्धि हो तदगुणों की,उनको प्रणाम है

जो सिद्ध प्रभु शुद्ध सर्व कर्म हीन हैं
आवागमन विमुक्त नित स्वरुप लीं हैं
व्यवहार से स्थान अग्र-लोकभाग में
निश्चय रहे तन्मय अरूप वीतराग में

हर आत्मा सदेह भी उनके सामान है
नित जीव को निश्चय से चैतन्य प्राण हैं
मैं सिद्ध प्रभु को सदैव ध्यान में धरूँ
शिव लब्धि हेतु उनको शत-शत नमन करूँ

दर्शन सु ज्ञान वीर्य ताप चरित्र को सदा
जो आचरण करें करायें सूरि शिव प्रदा
जो द्वादशांग सिन्धु में निमंग्न नित रहे
वे उपाध्याय  निश्चय शिव धाम को गहें

सद दृष्टी ज्ञान व्रत के साधक हुए महान,
निर्ग्रन्थ साधू वह हैं सब जानता जहान
वे हों कभी प्रमत्त-अप्रमत्त की पल में
पाते निजात्मा रस पुरुषार्थ अचल में

तुम निर्विकल्प नित रहो यही परम दशा,
किंचित भी सूक्ष्म मोह का रहे नहीं नशा
नित ज्ञान भाव लीं रहो सत्य है यही,
ज्ञानी तभी कहाओगे जब राग हो नहीं

ज्ञायक भी दशा न रहे वह जो है सो ही हो
वह अवक्तव्य स्वानुभूति माय दशा अहो
हितकर तुम्हे यही है तन्मय सदा रहो
चिद्रूप रत सु ज्ञान गंग में सदा बहो

अरिहंत सिद्ध भगवन आचार्य उपाध्याय
साधू हैं पंच परमेष्ठी नित्य निज रमाय
इस सबने पूर्व दशा में भाई थी भावना
तब पूज्य सुपद पाया,नाश गयी कामना

ज्यौं मंद वायु झोकों से अग्नि जल उठे,
त्यौं द्वादशअनुप्रेक्षा से राग सब मिटे
हे भव्य! भावना से भाव का विनाश हो
पंकज खिले विराग का निज में निवास हो

अनित्य भावना
पर्याय अनित्य है शारीर क्षणभंगुर है,जिसने जन्म लिया है उसका मरण भी है,इस अनित्यता को जानकार हमें अपना हित करना है,जीवन का सन्देश देने वाली यह अनित्य भावना

राजा हो कोई बादशाह क्षत्रवान हो,
षट खंड का हो,अधिपति चक्रवती महान हो.
जो चले हाथियों पे या सदा चले पैदल
कोई रहे महलों में या कोई रहे तरुतल
धनवान हो,बलवान हो या बुद्धिमान हो महान,
धनहीन हो,कमजोर हो,मूर्ख हो या नादान
जिसने भी यहाँ जन्म लिया देह का संयोग,
निश्चित उसे मरना पड़े होगा सकल वियोग

यह देह धन-मकान कोई नित्य नहीं हैं,
चपला चमक सामान बिछुड़ते भी यहीं हैं
हर क्षण बदल रहीं हैं सभी वस्तुएं यहाँ
एक समय पूर्व देखि वह वस्तु है कहाँ
तुम सर्वथा सदैव नित्य मान रहे हो,
यह भूल महा दुःख दाई पाल रहे हो
जग नित्य न था है नहीं न नित्य रहेगा,
परिणमनशील दिशा में सदा ही बहेगा

उत्पाद की जब बात करो,व्यय भी रहेगा
ज्ञानी रहे ध्रुव धाम में कुछ भी नहीं कहेगा
पर्याय तोह हर द्रव्य की है एक समय की
होना है,वही होगी,पीछे की हो चुकी
पर्याय सब अनित्य मरण भी तोह नियत है
ध्रुव धाम एक नित्य है जो पर से विरत है
ध्रुवता कभी मरती नहीं पर्याय न अमर है
नित भाओ यही भावना कुछ दिन की सफ़र है

२.अशरण भावना
हे आत्मन जितने समय तक आयु कर्म लेकर आये हो,उतने समय तक ही जीवन रहेगा,मृत्यु का समय आने पर माता-पिता अदि कोई भी जीवन बचने में सक्षम  नहीं हैं,मौत निश्चित है समय का कोई भरोसा नहीं,जगत और संयोग अशरण है व्यवहार से पंच परमेष्ठी  और निश्चय से निज-शुद्धात्मा ही शरणभूत है संसार में और कुछ भी शरण लेने योग्य नहीं है ऐसा मंगल माय सन्देश दे रही है अशरण भावना.

हे जीव! जितनी आयु है उतना ही जियोगे
जब आयु कर्म अंत हो फिर तोह न बचोगे
माता-पिता हों पास में नारी पतिव्रता
भगिनी व सहोदर सभी,पुकारती सुता
हों यन्त्र मंत्र तंत्र धन-जवाहरात भी
तलवार तोप शस्त्र हों सेनायें हों सभी
पर जिंदगी का एक भी पल नहीं बढ़ सकता
यह जी मौत से कदापि बच नहीं सकता

 मृगराज की पकड़ में ज्यों हिरन आ गया,
त्यों मृत्युराज को भी यह जीव भा-गया
सब देवताओं-देवी को नावों माथ
कोई भी मौत टालने में दे सके न साथ
बचने के लिए फिर करो कितनी ही कामना
पर अंत में होता ही है मृत्यु का सामना
ज्यौं सूर्या सदा चले पश्चिम के रास्ते,
त्यों जीव का भी जन्म है मृत्यु के वास्ते

कोई न बचाता,न तुझे कोई शरण है
पर शरण मानकर तू करे जन्म मरण है
जब द्रव्य गुण पर्याय का भी भेद है अशरण,
कैसे कहें तुझे हैं जग में कोई शरण
यह बाह्य तोह अज्ञान का फैलाव है जहां
तू परम ज्ञानमई प्रभु सिद्ध के सामान
शुद्धात्म तत्व शुद्ध स्वभाव  सत्य शरण है,
जग अशरण,निज आतम ही तारण-तरण है.

संसार भावना
इस दुःख भरे संसार में सुख ढूंढना ही अज्ञान है सुख कहीं बाहर नहीं है आत्मा में ही है और संसार का स्वरुप बहुत विचित्र है,चाह कामना ही जीव को दुःख का कारण है,संसार सागर में कोई सुखी दिखाई नहीं देता,संसार के स्वरुप का वास्तविक चित्रण करने वाली है यह संसार भावना

संसार में सुख है नहीं निश्चय यह जान लो,
संसार के स्वरुप को सच-सच पिछान लो
देखो तोह आँख खोलकर क्या हो रहा यहाँ
कोई हंस रहा कोई रो रहा सुख चैन है कहाँ?
निर्धन दुखी है इसलिए चाहता है धन
धनवान में दुखी रहे तृष्णा में फस मन
जो जी रहा अभाव में वह तोह सदा दुखी
जिसको मिले सद्भाव में,वह भी है नहीं सुखी

है पुत्र जनम की खुशी तोह कहीं दुःख वियोग,
किसी को मिली स्वास्थ्यता,किसी को लगा रोग
कोई को पुत्र चाह से रहता है सदा गम
कोई को बहुत संतति से है नाक में दम
यह मेरा है,तेरा है,यह मान रहा है
दुःख दर्द के सामान को सुख जान रहा है
पर वस्तुओं की चाह से संसार बस रहा
हे जीव! जाग व्यर्थ ही नर-भव भव विनाश रहा

बाहर की और देखा की संसार बस गया,
शुभ अशुभ राग-जहर भरा सांप डस गया
यह मोह राग-द्वेष भाव ही तोह है संसार
तब बाह्य में निमित्त बने तन-धन परिवार
इच्छाएं तोह अनंत है,हर एक में दुःख है
तुम अपना भला चाहो तोह संतोष में सुख है
चाहा कभी होता नहीं बस बढ़ता है संसार
वास्तु स्वरुप जान लो,हो जाओगे भव पार

एकत्व भावना
संसार में जीव अकेला आता है,अकेला चला जाता है,एकत्व प्रकृति का नियम है,धर्म और कर्म में कोई किसी का साथी नहीं है तो जीव जैसे करता है वैसा ही फल उसको भोगना पड़ता है,इस संसार में न कोई तेरा है,न कोई मेरा है जग चिड़िया रैन बसेरा है,ऐसे एकत्व के भाव को व्यक्त कर रही है यह चौथी एकत्व भावना.






  

Sunday, October 2, 2011

ram-lakshman ki van gaman ki kathayein-lakshman ko vanmaala ki praapti

राम लक्ष्मण की वन गमन की कथाएँ-वनमाला की प्राप्ति-
 राम लक्ष्मण यक्ष द्वारा बनायीं हुई रामपुरी से प्रस्थान करने लगे..यक्ष ने कहा की हमसे कोई गलती हो तोह क्षमा करें...आप जैसे महापुरुषों की कौन सेवा नहीं करना चाहता..राम लक्ष्मण कहते हैं आप धन्य हैं...अब हमें आगया दीजिये...यक्ष राम को स्वयंप्रभ नाम का हार देते हैं,लक्ष्मण को रत्नजडित चाँद-सूर्य देते हैं..और सीता जी को चूड़ियाँ   देते हैं..यक्ष के द्वारा माया से बनायीं हुई नगरी गायब हो जाती है...यक्ष बड़ी मुश्किल से राम-लक्ष्मण को विदा करता है...राम लक्ष्मण भी यक्ष के काम से बहुत प्रसन्न होते हैं...राम-लक्ष्मण आगे के वनों में प्रस्थ्ना करते हैं..आगे विजय पुर नगर के वन में प्रस्थान करते हैं..वहां का राजा पृथ्वीधर रानी इन्द्रानी उसकी पुत्री वनमाला बचपन से ही लक्ष्मण से ही मोहित हो जाती है..उनके गुणों को सुनने से...पिता किसी दुसरे राजकुमार से विवाह करने की बात करते हैं तोह राजुमारी सोचती हैं की लक्ष्मण से विवाह न करने से इच्छा फांसी लगालूं...तोह वह रात में वन-गमन के बहाने से जंगले में पहुँच जाती हैं..सयोंग से वन में लक्ष्मण और राम विराजमान होते हैं...रात को लक्ष्मण को किसी के आने की आवाज होती है..वह सोचते हैं की यहाँ कोई राजकुमारी आई हैं..जो अपना घात करने के लिए..मैं इसकी चेष्टा चुप कर के देखता हूँ...लक्ष्मण वनमाला के मुख से अपना नाम सुनकर और उसका फंदा लगाने का कारण खुद को जानकार वनमाला के सामने आते हैं और कहते हैं की वह ही लक्ष्मण हैं...वन-माला अति प्रसन्न होती हैं..श्री राम कुटिया में जाग जाते हैं..और लक्ष्मण को जोर से बुलाते हैं तोह लक्ष्मण वनमाला के साथ राम के सन्मुख आती है...वनमाला राम को प्रणाम करती है..और सीता जी के पास आकर बैठती है...उधर महल में सखी वनमाला को न पाकर रोती है..जिससे राजा वनमाला को ढूँढने  का आदेश देते हैं...वनमाला लक्ष्मण सहित वन में पायी जाती है..जिससे सैनिक अति खुश होते हैं और राजा को खबर देते हैं की वन-माला को उसकी चाह मिल गयी...और उन्होंने उसे फांसी लगाने से भी बचाया...राजा अति खुश होते हैं..और राम के दर्शन करने जंगले में प्रस्थान करते हैं...और रानी इन्द्रानी अपनी कई पुत्रियों के साथ वहीँ पर पहुँचती हैं.....और इस प्रकार वनमाली की प्राप्ति हो जाती है...पुण्य के प्रभाव से क्या नहीं होता...!!!!!!!!

लिखने का आधार-शास्त्र श्री पदम् पुराण

शब्द अर्थ बताने में कोई भूल हो,या अल्प बुद्धि के कारण गलतियों के लिए क्षमा करें...


Saturday, October 1, 2011

raam lakshman ki van gaman ki kathayein-kapil brahman ki katha

राम लक्ष्मण की वन गमन की कथाएँ-कपिल ब्रह्मण की कथा
राम-लक्ष्मण आगे की तरफ वनों में जाते हैं,नंदन वन सामान अनेक वनों को देखते हुए...तोह बीच में सीता को प्यास-वेदना सताती है वह कहती हैं की जिस प्रकार अनंत भव से घबराया हुआ प्राणी सम्यक दर्शन चाहता है.उसी प्रकार प्यास से घबराई हुई मैं पानी चाहती हूँ...राम कहते हैं की थोडा धैर्य धरो आगे जाकर एक कुटिया है..उसमें पानी मिल जाएगा..उस कुटिया में एक कपिल ब्राह्मण  निवास कर रहा होता है...जिसकी सफ़ेद दाढ़ी,कटु वचन बोलने वाला,सर पे चुटिया होती है...राम-लक्ष्मण को देखकर स्त्री पे क्रोधित होता है..और कहता है की इनको पानी क्यों दिया...यहाँ पे हम रहते हैं..तुने मुझसे पूछे  बिना इन्हें कैसे बैठाया..इस बात को सुनकर राम-लक्ष्मण क्रोधित होते हैं और खड़े होते हैं..तोह अन्य लोग उन्हें रोकते हैं और कपिल ब्रह्मण से कहते हैं की यह महा-पुरुष लगते हैं...इनके साथ ऐसा व्यवहार मत करो...कुछ देर के लिए तुम्हारा क्या चला जाएगा..लेकिन वह राम-लक्ष्मण को जबरदस्ती निकाल देता है..तब लक्ष्मण उन्हेंpoojt उल्टा पटक देते हैं..लेकिन दयालु राम चन्द्र के कहने पर शांत होते हैं...वह आगे वन की और चलते हैं...वन में एक वृक्ष की कोटर में एक यक्ष निवास कर रहा होता है...तोह वह राम-लक्ष्मण को देखकर आश्चर्य में पड़ता है और स्वामी को बताता है...यक्ष अवधि ज्ञान से जान-जाता है की यह बलभद्र और नारायण हैं,शलाका पुरुष है..इसलिए उनके लिए एक अति सुन्दर नगरी वन में ही बसता है..जिसको राम-पूरी के नाम से जानते हैं...वहां बड़ा विशाल महल बनाया जाता है,अति सुन्दर सेवक-सुंदरी...एक बार कपिल ब्रह्मण वन में लकड़ी काटने आता है,तोह वहां इतनी बड़ी नगरी को देखा आश्चर्य चकित होता है और कहता है की मैं यहाँ इतने समय से यहाँ आ रहा हूँ..क्या मुझे चक्कर आ रहे हैं,सपना देख रहा हूँ..या और कुछ..वह नगरी के द्वार पे प्रवेश करता है यक्ष से पूछता है वह कहते हैं की यह श्री राम की नगरी है,यहाँ अनु-व्रती श्रावक सामायिक पूजा करते हैं,जिन मंदिर हैं..यहाँ ऐसे ही कोई नहीं आ सकता..इसलिए कपिल ब्रह्मण नगरी में प्रवेश के लोभ में मुनि के उपदेश सुनता है जिससे उसे अनु-व्रत के बारे में पता चले...लेकिन उसका जीवन पूरा बदल जाता है..जिन धर्म में अटूट श्रद्धा हो जाती है...वह कहता है मैं अज्ञानी व्यंतर,ज्योतिषों को पूजता था,,जिनमें धर्म नहीं था,किसी को दुःख देने में मैंने आनंद माना..कठोर वचन बोला,मिथ्या क्रियाएं करता..मैं कहाँ मोह में खोया था..यह मुनिसुव्रत नाथ भगवान का धर्मं धन्य है..अब मैं संसार से बचूंगा..अब उसमें नगरी में जाने का बड़ा आश्चर्य नहीं होता है...और वापिस कुटिया में जाता है...और स्त्री को पूरी कथा कहता है जिससे स्त्री में भी जिन धर्मं के प्रति अटूट श्रद्धा जम जाती है...और वह भी मुनि के पास जाकर श्राविका वन जाती है...एक बार उनकी इच्छा उस नगर में जाने की होती है...तोह वह महल के पास आते हैं तोह लक्ष्मण को देखते हैं और कहते हैं की मुझ अज्ञानी ने इनका अपमान किया..वह उनसे भाग रहे होते हैं...तोह लक्ष्मण के द्वारा कहने पर सैनिको द्वारा बुलवाए जाते हैं....वह उनसे क्षमा मांगते हैं...और व्रत धारण करने की कथा कहते हैं..जिससे राम लक्ष्मण उनका सम्मान करते हैं...धन-राशि खाने पीने का सामान देते हैं....कपिल ब्रह्मण कुटिया में आता है और सोचता है की इन्होने इतना सम्मान किया और मैंने इनको कुटिया से निकाल दिया था..धिक्कार है मुझको...और जिनेश्वरी दीक्षा ले लेते हैं..यह हुई कपिल मुनि की कथा...

लिखने का आधार-पदम् पुराण
अल्प बुद्धि और प्रमाद के कारण भूलों के लिए क्षमा और सुधार कर पढ़ें.
राम लक्ष्मण की वन-गमन की कथाएँ....
बालिखिल्य की कथा
राम लक्ष्मण सीता के साथ नल कुंवर नगर के सरोवर के किनारे पहुँचते हैं,वहां कल्यान्माला नाम की राजकुमारी राजकुमार के भेष में हाथी पे बैठकर सरोवर की किनारे पहुँचती है तोह लक्ष्मण को देख मोहित हो जाती है,उनको सेनापति द्वारा बुलाती है..और हाथ पकड़ कर भोजन अदि के लिए ले जाती है,तब लक्ष्मण कहते हैं की मेरे गुरु,भ्राता और भावज अभी सरोवर के किनारे हैं,उनके भोजन करने के बाद ही मैं भोजन करूँगा,इसलिए उनको भी उनके पास बुला-लेते हैं...महल में सुबुद्धि मंत्री उनका स्वागत करते हैं...उनको तरह-तरह के मिष्ठान मोदक अदि परोसे जाते हैं...और उन्हें महल में ले जाकर सिंहासन में बैठकर अर्घ भी चढ़ाये जाते हैं,पुनः मंत्री सेवकों को आदेश देते हैं की इस कमरे में कोई भी न आये..जो आएगा उसको मार दिया जाएगा..ऐसा कहकर कमरे में कल्यान्माला राजकुमारी असली रूप में आ जाती है...उनको इस तरह से देखकर लक्ष्मण काम-असक्त हो जाते हैं.और नजरे घुमाते रहते हैं,राजकुमारी सीता के पास आ कर बैठती है..और अपना वृतांत कहती है:-मेरे पिता बालिखिल्य,सब जीवों पर दया करने वाला,जिन धर्म का सेवक उनके राज्य पे मलेच्छ राजा ने आक्रमण कर दिया...सब कुछ क्षीण कर ले गए...मेरा पिता सिन्होदर का सेवक उसने आगया दी की बालिखिल्य का पुत्र राज्य करेगा,लेकिन मैं पापिनी पुत्री हुई..लेकिन सुबुद्धि मंत्री ने मुझे राजकुमार कहकर राज्य दिया..और उत्सव मनाया..और राज्याभिषेक करवाया,मेरा पिता मलेच्छ रजा के कब्जे में है,जो भी सामिग्री राज्य में उत्पन्न होती है,मलेच्छ छीन  ले जाते हैं...राम-लक्ष्मण उनकी मदद का उपाय करते हैं,रात्री में ही गुप्त रूप से निकल-जाते हैं..,,,रास्ते में अनेक-नगर पड़ते हैं उनको पार करते हुए मलेच्छ सैनिक दिखाई देते हैं तोह राम-लक्ष्मण को देख आक्रमण करते हैं...लक्ष्मण एक क्षण में ही सबको परस्त करते हैं,बहुत से तोह लक्ष्मण के धनुष को देखकर ही दर कर भाग जाते हैं...मलेच्छ राजा रौद्रभूत राम लक्ष्मण के चरणों में आ गिरता है...रौद्र-भूत कहता है की मैं एक अग्निहोत्री ब्रह्मण का पुत्र...दूत कला में प्रवीण,चोरी करना सीख गया,मुझे सूली पे चढ़ने की सजा मिली,तोह एक व्यक्ति ने बचा लिया...मैं शुभ कर्म के उदय से मलेच्छों का राजा हुआ...अब मैं आप जैसे महा-पुरुषों को देखकर झुका हूँ,मुझे क्षमा कीजिये...आप जो आगया देंगे वोह ही होगा,राम कहते हैं की तू बालिखिल्य को राज्य  वापिस दे दो,और मंत्री बन जाओ...ऐसा ही होता है बालिखिल्या को राज्य दे दिया जाता है...राजा सिन्होदर भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं...धर्म के प्रभाव से सब संभव है...कहने मात्र से ही सब संभव है......

लिखने का आधार-शास्त्र श्री पदम् पुराण
प्रमाद के कारण और अल्प बुद्धि के कारण की हुईं भूल को क्षमा करें....