Friday, April 1, 2011

POETRY BY PARMATM PRAKASH BHARIL JI.

सादि-अनादि निगोद से,कुछ काल को निकले अरे
लौट जाता फिर वहीं , जो शिव रमा को ना वरे
गति चार में आवागमन , भगवान तेरी हार है
संसार का बढ़ना अरे , मुझको नहीं स्वीकार है


(२)
सुर, नर्क, पशु,नर देह में , रूप क्या-क्या ना धरे
पर द्रव्य में नित रत रहा,जाना नहीं निज को अरे
ना जान निज,पर में रमण, भगवान तेरी हार है
संसार का बढ़ना अरे , मुझको नहीं स्वीकार है

(3)
गति चार में नर देह पाना,दुर्लभ अरे यह योग है
नर देह में जिन वचन का , सबको कहां संयोग है
सुनने अहो सद्भाग्य से , जिनको मिलें जिनवर वचन
टिकते नहीं संसार में वे,मिट जाये उनका भव भ्रमण

4)
जन्म को सौभाग्य या , दुर्भाग्य म्रत्यु को मानना
यह भूल है क़ि म्रत्यु बिन की,जन्म की तू कल्पना
है दोष जो म्रत्यु अरे तो , जन्म भी तो विकार है
ध्रुवधाम के आराधकों को,कुछ भी नहीं स्वीकार है

(5)
मर-मरके हम जीते अरे , जीना मरण समान है
म्रत्यु नहीं है अंत मेरा , ये व्यर्थ ही बदनाम है
जीवन हूँ मैं,मैं जीव हूँ,अविकल ये जीवन धार है
फिर क्यों डरे तू मौत से,अरु जन्म से क्यों प्यार है

6)
नहीं चाहता मरना यदि तू,शिव रमा का वरण कर
मोक्ष अंतिम लक्ष्य है , यह पूर्णता सब दोष हर
आवागमन के अंत में ही , जीव का उद्धार है
पर न जाने क्यों तुझे , परिभ्रमण से ही प्यार है

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