आजतक हम धर्म को बस फ़ोकट की वास्तु समझते आये हैं...हमें अध्यन करने के,धर्म को जानने की कई अवसार मिले,इस भव में भी,अन्य भवों में भी..लेकिन हमने आजतक धर्म के प्रयोजन को नहीं जाना की वाकई में यह धर्म किस चीज का नाम है...
अगर हम उन कारणों के जानलें जिसके कारण हम धर्म को नहीं जा पा रहे हैं..वह यह हैं:--(अध्यन के विघ्न)
१.मेरा अपना प्रमाद-प्रमाद यानि की सिर्फ शब्द पढने से पढना मान लेना,आँखों से देखने से दर्शन मान लेना,और कानों से सुनना देखने से सुनना मान लेना...जिसके कारण हम उसको समझने में उपयोग नहीं लगते हैं..पहला कारण मैं खुद ही हूँ..अगर मैं कानो में पड़ रहे शब्दों को सुनने मात्र से संतुष्ट न होकर.वक्ता के या उपदेश के या उल्लेख की अभिप्राय को समझ सकू..तोह धर्म की महिमा अवश्य समझ में आएगी..शब्द सुने जा सकते हैं लेकिन अभिप्राय नहीं...अभी प्राय तभी जाना जा सकता है..जब हमने वास्तव में हमने उस पदार्थ को छुकर देखा हो,सूंघ कर देखा हो,आँख से देखा हो..शब्द तोह सिर्फ संकेत करके बताते हैं..की अमुक स्थान पर यह अमुक अभीष्ट पदार्थ है,आपके लिए उपयोगी है या अन-उपयोगी ..परन्तु वह किसी भी प्रकार दिखा नहीं सकते..हाँ यदि शब्दों को सुनकर उनके अभी प्राय को समझकर..हम खुद चलकर उस दिशा में जाएँ..और उसे उपयोगी समझकर उसका स्वाद लें तोह हम उस शब्द के रहस्य को पकड़ सकते हैं.
२.वक्ता की प्रमाणिकता-आजतक धर्म की बात कहने बाले बहुत मिले उनमें से बहुतों को अपने विचारों के बारे में..या जिनके विचारों को स्वयं उसके सम्बन्ध में खबर नहीं थी..कुछ जानकार भी मिले जिन्होंने धर्म के सम्बन्ध में कुछ जाना था,पढ़ा था..पर स्वाद नहीं चखा..लेकिन..कोई बिरला ही इसका अनुभव कर पाटा है..वह है प्रमाणिक वक्ता..कैसे पहचान करें
१.जिसके जीवन में स्थूल रूप से देखने से उसकी कही हुई बातों की झांकी दिखाई देती हो..अतार्थ जैसे कह रहा है वैसा ही हो..जिसका जीवन, सरल,शांति पूर्ण,दया पूर्ण हो,जिसके शब्दों में माधुर्य हो,करुना हो सर्व का हित हो,सभ्यता हो,जिसके वचनों में पक्षपात की बू न आये,हठी न हो,साम्प्रदायिकता के आधार पर बात को सिद्ध न करता हो,वाद विवाद से डरे,प्रश्नों का शांति पूर्वक उत्तर दे,तथा धैर्य से कोमलता से समझाने का प्रयत्न करे,जिसे आपकी बात सुनकर क्षोभ न आये,जिसके चेरे पे मुस्कान खेलती हो,विषय भोगों के प्रति उदासी ही,प्राप्त विषयों को भोगने से घबराता हो,त्याग करने से संतोष होता है,अपनी प्रशंसा सुनकर प्रशंश सा चेहरा न हो,और निंदा सुन कर मुंह न बने,रुष्ट न हो..और अन्य भी कई सारे चिन्ह हैं
जय जिनेन्द्र
अभी तीन कारण और बचें हैं..जिनके बारे में आगे पोस्ट करूँगा..जरूरी नहीं है की पोस्ट डेली ही आयें इस विषय पर..लेकिन कोशिश करूँगा..मैंने "श्री शांति पथ प्रदर्शन" में से जितना भी पढ़ा उसको शोर्ट में समझाने की कोशिश की है
"श्री शांति पथ प्रदर्शन"-श्री जिनेन्द्र वर्णी जी
दो ढाई पन्नों की बात संक्षेप में लिखी है .
जिनवाणी माता की जय.
अगर हम उन कारणों के जानलें जिसके कारण हम धर्म को नहीं जा पा रहे हैं..वह यह हैं:--(अध्यन के विघ्न)
१.मेरा अपना प्रमाद-प्रमाद यानि की सिर्फ शब्द पढने से पढना मान लेना,आँखों से देखने से दर्शन मान लेना,और कानों से सुनना देखने से सुनना मान लेना...जिसके कारण हम उसको समझने में उपयोग नहीं लगते हैं..पहला कारण मैं खुद ही हूँ..अगर मैं कानो में पड़ रहे शब्दों को सुनने मात्र से संतुष्ट न होकर.वक्ता के या उपदेश के या उल्लेख की अभिप्राय को समझ सकू..तोह धर्म की महिमा अवश्य समझ में आएगी..शब्द सुने जा सकते हैं लेकिन अभिप्राय नहीं...अभी प्राय तभी जाना जा सकता है..जब हमने वास्तव में हमने उस पदार्थ को छुकर देखा हो,सूंघ कर देखा हो,आँख से देखा हो..शब्द तोह सिर्फ संकेत करके बताते हैं..की अमुक स्थान पर यह अमुक अभीष्ट पदार्थ है,आपके लिए उपयोगी है या अन-उपयोगी ..परन्तु वह किसी भी प्रकार दिखा नहीं सकते..हाँ यदि शब्दों को सुनकर उनके अभी प्राय को समझकर..हम खुद चलकर उस दिशा में जाएँ..और उसे उपयोगी समझकर उसका स्वाद लें तोह हम उस शब्द के रहस्य को पकड़ सकते हैं.
२.वक्ता की प्रमाणिकता-आजतक धर्म की बात कहने बाले बहुत मिले उनमें से बहुतों को अपने विचारों के बारे में..या जिनके विचारों को स्वयं उसके सम्बन्ध में खबर नहीं थी..कुछ जानकार भी मिले जिन्होंने धर्म के सम्बन्ध में कुछ जाना था,पढ़ा था..पर स्वाद नहीं चखा..लेकिन..कोई बिरला ही इसका अनुभव कर पाटा है..वह है प्रमाणिक वक्ता..कैसे पहचान करें
१.जिसके जीवन में स्थूल रूप से देखने से उसकी कही हुई बातों की झांकी दिखाई देती हो..अतार्थ जैसे कह रहा है वैसा ही हो..जिसका जीवन, सरल,शांति पूर्ण,दया पूर्ण हो,जिसके शब्दों में माधुर्य हो,करुना हो सर्व का हित हो,सभ्यता हो,जिसके वचनों में पक्षपात की बू न आये,हठी न हो,साम्प्रदायिकता के आधार पर बात को सिद्ध न करता हो,वाद विवाद से डरे,प्रश्नों का शांति पूर्वक उत्तर दे,तथा धैर्य से कोमलता से समझाने का प्रयत्न करे,जिसे आपकी बात सुनकर क्षोभ न आये,जिसके चेरे पे मुस्कान खेलती हो,विषय भोगों के प्रति उदासी ही,प्राप्त विषयों को भोगने से घबराता हो,त्याग करने से संतोष होता है,अपनी प्रशंसा सुनकर प्रशंश सा चेहरा न हो,और निंदा सुन कर मुंह न बने,रुष्ट न हो..और अन्य भी कई सारे चिन्ह हैं
जय जिनेन्द्र
अभी तीन कारण और बचें हैं..जिनके बारे में आगे पोस्ट करूँगा..जरूरी नहीं है की पोस्ट डेली ही आयें इस विषय पर..लेकिन कोशिश करूँगा..मैंने "श्री शांति पथ प्रदर्शन" में से जितना भी पढ़ा उसको शोर्ट में समझाने की कोशिश की है
"श्री शांति पथ प्रदर्शन"-श्री जिनेन्द्र वर्णी जी
दो ढाई पन्नों की बात संक्षेप में लिखी है .
जिनवाणी माता की जय.
No comments:
Post a Comment