Saturday, July 9, 2011

karuna bhavna,pramod bhavna,maitri adi bhavnayein,anukampa aur daan-by dipesh gandhi ji

करुणा-भावना

अब करुणा-भावना के बारे में देखें। पीड़ित को देख कर हृदय में यदि अनुकम्पाभाव बहने न लगे तो अहिंसा आदि व्रत टिक नहीं सकते। इसलिये करुणा-भावना की आवश्यकता है। इस भावना का विषय दुःखी जीव है, क्योंकि अनुग्रह अथवा सहायता की अपेक्षा दुःखी, दीन, अशक्त, अनाथ को ही होती है। प्रत्येक जीव के साथ आत्मीयता-बुद्धि हो तभी, इष्टजन को दुःखी देख कर जिस प्रकार एक तरह का करुणामय मृदु संवेदन हृदय में अभिव्याप्त हो जाता है उसी प्रकार, किसी को भी पीड़ित देखकर करुणा का पवित्र स्रोत बहने लगे। इस प्रकार इस भावना के मूल में आत्मीयता-बुद्धि रही हुई है। भवचक्र के दुःख में पड़े हुओं का उद्धार करने की भावना किसी सन्त के हृदय में उत्पन्न होना यह भी करुणा-भावना है। ज्ञानी महात्मा और केवली भगवान् सर्वानुग्रहपरायण करुणाशील होते हैं। इसीलिये उनका ‘परम कारुणिक’ ऐसे विशेषण से उल्लेख किया जाता है।


प्रमोद भावना

मनुष्य बाह्य सम्पत्ति के बारे में दूसरे को अपने से बढ़ा हुआ देखकर ईर्ष्या करने लगता है, परन्तु उसकी वह सम्पन्नता उसने यदि अपने सद्गुणों से अथवा शुभकर्मजन्य पुण्य के परिणामस्वरूप प्राप्त की हो और उसका उपयोग वह शुभ कार्य करने में करता हो तो उसकी ईर्ष्या करने के बदले उसके शुभ-पुण्य कार्यों का तथा गुणों का अनुमोदन कर के हमें प्रसन्न होना चाहिए। अनीति, अन्यायाचरण के विरुद्ध असन्तोष अथवा पुण्यप्रकोप प्रकट करना उचित है, परन्तु सिर्फ अपने से दूसरा बड़ा है इस कारण उस पर द्वेष अथवा ईर्ष्या करना गलत है। ईर्ष्यालु मनुष्य अपने दुःख से दुःखित होता है और साथ ही दूसरों के सुख से दुःखी होकर दुगुना दुःखानुभव करता है। जबतक ईर्ष्या जैसे दोष दूर न हों तब तक सत्य, अहिंसा का पालन नहीं हो सकता। अतः ईर्ष्या जैसे दोषों के विरुद्ध प्रमोदवृत्ति विकसित करनी आवश्यक है। जो अपने से गुण में अधिक है उस पर प्रमुदित होना, उसका आदर करना प्रमोदभावना है। इस भावना का विषय अपने से गुण में अधिक ऐसा मनुष्य है। अपने इष्ट जन की अभिवृद्धि देखकर जिस प्रकार आनन्द होता है उसी प्रकार प्राणिमात्र की ओर जब आत्मीयता का भाव उत्पन्न हुआ हो तभी किसी भी गुणाधिक को देखकर प्रमोद उत्पन्न हो सकता है। अतः इस भावना के मूल में आत्मीयता की बुद्धि रही हुई है।

सामान्यतः किसी भी गुणी के गुण की ओर प्रमोद (प्रसन्नता) होना प्रमोद-भावना है। गुणी के गुणों का अनुरागी होना स्वयं गुणी बनने का राजमार्ग है।

उपर्युक्त दोनों भावनाओं के बारे में तनिक विशेष अवलोकन करें -

दूसरे का सुख देखकर अथवा दूसरे को अधिक सुखी देखकर मनुष्य के मन में ईर्ष्या या असूयाभाव उत्पन्न होता है, परन्तु व्यापक मैत्रीभाव उसके हृदय में यदि उत्पन्न हो तो वह दूसरे के सुख को देख कर उसे (अर्थात् उसके सुख को) अपने मित्र का अथवा अपने आत्मीय का समझता है जिससे उसकी ओर उसके मन में ईर्ष्या या असूया उत्पन्न न होकर वह मानसिक स्वस्थता का अनुभव करता है इसीलिये सुखी पुरुष का सुख भी मैत्री भावना का विषय बतलाया गया है । अर्थात् दूसरे के सुख की ओर सुहृद्भाव रखना मैत्री-भावना है। प्रमोद-भावना के बारे में यह सूचित करना आवश्यक प्रतीत होता है कि कोई मनुष्य धनवान्, बलवान् अथवा सत्ताशाली हो या भौतिक तौर पर यदि सुखी माना जाता हो तो इतने पर से ही उस पर प्रमुदित होना ऐसा कहने का आशय नहीं है, परन्तु यदि वह अपने धन का, बल का अथवा अधिकार का उपयोग दीन-दुःखी मनुष्यों को अच्छी दशा में लाने के लिये अथवा उनके दुःख दूर करने के लिये करता हो तो उस मनुष्य को गुणी समझ कर उसके गुण की ओर प्रमुदित होना योग्य है। मनुष्य भले ही निर्धन हो, परन्तु यदि वह प्रामाणिक रूप से उद्यम अथवा श्रम कर के अपनी आजीविका चलाता हो और उसी में सन्तोष मानता हो तो उसके ऐसे सद्गुणों के लिये प्रमुदित होना उचित है। प्रमोद का विषय पुण्य कहा है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि यदि कोई अपनी पुण्यवत्ता का दुरुपयोग करे तब भी उस पर प्रमुदित होना। वस्तुतः प्रमोद का विषय पुण्यवत्ता यानी पुण्याचरणशीलता है।

Dipesh Gandhi
मैत्री आदि चार भावनाएँ

‘समानशीलव्यसनेषु सख्यम्’ अर्थात् समान आचार और समान आदतवालों में परस्पर मित्रता होती है अथवा हो सकती है। इस उक्ति के अनुसार, सब जीवनिकृष्ट श्रेणी के शरीरधारियों से लेकर अत्यन्त उच्च कक्षा के शरीरधारियों तक के सब संसारवर्ती जीव स्वरूप से अर्थात् अपने सत्तागत मूल रूप से सर्वथा एक समान होने से अर्थात् इस प्रकार की मौलिक पूर्ण समानता होने से सब प्राणियों में परस्पर मैत्री होने की ऊर्मिल कल्पना उठ सकती है, परन्तु तिर्यग्योनि के प्राणियों में अज्ञानता, और विवेक का अभाव होने से इस प्रकार का व्यापक मैत्रीभाव यदि न हो अथवा न सधे तो यह समझा जा सकता है, किन्तु मनुष्यों में समझ और बुद्धि विशेष मात्रा में होने से उनमें मैत्रीभाव की सिद्धि सम्भाव्य है। फिर भी ऐसा न हो कर उसकी जगह पशुसृष्टियोग्य ईर्ष्या, द्वेष, क्रूरता, वैरविरोध और स्वार्थान्धता का प्रकाण्ड घटाटोप मानवजाति में फैला हुआ दृग्गोचर होता है। इस पर से यही फलित होता है कि से मनुष्य पाशविक वासनामय आवरण के भिन्न-भिन्न परदों को चीर कर ऊँचे नहीं आए हैं। किन्तु विवेकबुद्धि मनुष्य के चित्त के निकट की वस्तु है, अतः यदि वह शान्त और स्थिर हो कर विवेकयुक्त विचार करे तो सब प्राणी समान हैं यह बात उसकी समझ में झट आ जाय ऐसी है, जिससे इसके अनुसन्धान में सब प्राणियों की ओर उसके चित्त में मैत्रीभाव उत्पन्न होने की बहुत ही शक्यता रहती है। वेदान्त दर्शन सब जीवों को ब्रह्म की चिनगारीरूप मानता है और जैन, वैशेषिक, सांख्य, योग आदि दर्शनकार सब जीवों को पृथक् पृथक् स्वतन्त्र और अखण्ड द्रव्य मानने के साथ ही साथ वे सब मौलिक रूप से समान हैं ऐसा मानते हैं। इस प्रकार सब आर्य दर्शनकार ‘सब जीव मूलतः एक समान तेजःस्वरूप हैं’ ऐसा प्रतिपादन कर के उसके फलितार्थरूप ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च’ अर्थात् किसी की ओर द्वेषवृत्ति न रखकर प्राणिमात्र की ओर मैत्रीभाव रखने की तथा दीन-दुखियों की ओर दयालु बनने की घोषणा करते हैं। ईर्ष्या-द्वेष, वैर-विरोध आदि दोष दूसरे का अपकार और सामाजिक अशान्ति पैदा करने के साथ ही साथ अपने आत्मा की भी दुःखद हिंसारूप हैं। अतएव इन दोषों को दूर करने के लिये आर्य सन्त-महात्मा प्रबल अनुरोध करते हैं। जैन एवं पातंजल आदि दर्शन आत्मौपम्य की भावना के आधार पर और इस भावना को विकसित करने की दृष्टि से मैत्री आदि (मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तता माध्यस्थ्य) चार भावनाएँ बतलाते हैं। इसके अनुशीलन के आधार पर जीवन की उत्तरोत्तर विकासभूमि पर आरोहण करना सुगम बनता है। ये चार भावनाएँ इस प्रकार हैं :-

मैत्री-भावना

प्राणिमात्र में मैत्रीवृत्ति रखना और उसका विकास करना मैत्री-भावना है। ऐसी वृत्ति के विकास पर ही प्रत्येक प्राणी के साथ अहिंसक और सत्यवादी रहा जा सकता है। मैत्री अर्थात् अन्य आत्माओं में-अन्य आत्माओं के साथ आत्मीयता की भावना। ऐसी भावना होने पर दूसरों को दुःख देने की अथवा दूसरों का अहित करने की वृत्ति पैदा होने नहीं पाती; इतना ही नहीं, दूसरों का भला करने की ही वृत्ति सदा जागरित रहती है। इस भावना का विषय प्राणिमात्र है।
अनुकम्पा और दान

दया धर्म का मूल है। योग्य दान दयाधर्म का क्रियात्मक पालन है, फिर चाहे वह दान हमारी शारीरिक, मानसिक, वाचिक अथवा साम्पत्तिक शक्ति का क्यों न हो।

यदि हमारी दया से कोई भी व्यक्ति जीवित रहेगा तो जबतक वह जीएगा तबतक जो जो हिंसादि दोषों से युक्त कार्य अथवा जो जो अपकृत्य वह करेगा उसका उत्तरदायित्व भी हम पर आयगा-ऐसा लोगों में भ्रम उत्पन्न करना तथा दया एवं दान के शुभ प्रवाह को सुखा डालने का प्रयत्न करना घोर पाप है। अमुक व्यक्ति भविष्य में कैसा आचरण करेगा यह हम नहीं जानते, फिर भी इस प्रकार के ज्ञान के अभाव में, वह अच्छी तरह नहीं बरतेगा, और उसका आचरण सदोष ही होगा इस प्रकार का पूर्वग्रह धारण कर के दया करने से दूर रहना-इसमें सचमुच घोर अज्ञान रहा हुआ है। सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति कार्य करने में स्वतन्त्र है और यदि उसका बरताब ख़राब हो अर्थात् हमारी दयोपचार की सहायता से मरने से बचा हुआ मनुष्य यदि दुष्ट आचरण करे तो उसने अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग किया इतना ही कहा जा सकता है, परन्तु उसके दोष का भागी उसे दुःख में सहायता कर के उसका जीवन बढ़ाने में सहायक होनेवाला, उसे बचानेवाला अथवा उसे आराम पहुँचानेवाला मनुष्य नहीं हो सकता। शुद्ध अनुकम्पाभाव से की हुई दया अथवा दी हुई शान्ति का लोभ प्राप्त कर के स्वस्थ हो के मनुष्य पीछे से चाहे जिस प्रकार से बरते उसके साथ दया करनेवाले उस मनुष्य को कुछ भी लेना-देना नहीं है। उसे तो केवल अपनी शुद्ध अनुकम्पा का पुण्य फल ही मिलता है। परन्तु यदि कोई लुटेरा लूटने या डाका डालने के लिये जाता है और यह बात हम जातने भी हों तब भी रास्ते में यदि हम अपने यहाँ उसे आश्रय दें, उसे खिलाएँ-पिलाएँ तो उसे लूटने या डाका डालने में जो पाप वह करेगा उसके साझी हम भी होंगे।

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