जैन धर्म से सम्बंधित आर्टीकल और पोस्ट। Post And Article Related To Jain Principles कृपया इस ब्लॉग से मिली हुई किसी भी ज्ञान या जानकारी की बात को सर्वोपरि ना माने और किसी भी बात पे अमल या श्रद्धान करने से पहले किसी पंडित, विद्वान और गुरुजनों की सलाह अवश्य लें और शास्त्र को ही सर्वोपरि मानें. यहाँ मिली सारी या कोई भी जानकारी मुझ बालक ने शास्त्र अदि पढ़ कर लिखी है या कॉपी पेस्ट की है जिसमें मानवीय स्मृति चूक होने की भी सम्भावनाएँ हैं इसलिए १०० फ़ीसदी सत्य हों इस बात की कोई गारंटी नहीं हैं.
Saturday, July 9, 2011
sharir ka upyog-by dipesh gandhi ji
आत्महत्या और ‘संलेखना’ में अन्तर है। आत्महत्या कषाय के आवेग का परिणाम है, जबकि संलेखना त्याग एवं दया का परिणाम है। जहाँ अपने जीवन की कुछ भी उपयोगिता न रही हो और अपने लिये दूसरों को व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ता हो वहाँ शरीरत्याग करने में दूसरों पर दयाभाव रहा है। कुछ लोग पानी में डूब मरने का, कोई पर्वत पर से गिर करके मरने का अथवा दूसरे प्रकार से प्राणोत्सर्ग करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु यह अन्धश्रद्धा की बात है। हाँ, कर्त्तव्य की वेदिका पर बलिदान देना स्चचा बलिदान है। जनरक्षा के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग करना अथवा दूसरों की सेवा के लिये यदि अपना शरीर देना पड़े तो वह दे देना सच्चा बलिदान है, परन्तु अमुक जगह पर मरने से अथवा अमुक का नाम ले कर मरने से स्वर्ग या मोक्ष मिलता है इस प्रकार की अन्धश्रद्धा से प्रेरित हो कर प्राणत्याग करना बुरा है। जैनधर्म ने उपवास के अतिरिक्त मृत्यु के अन्य उपायों की मनाही की है। यह एक प्रकार का प्रशस्य संशोधन है। जब किसी असाध्य बीमारी में असह्य कष्ट हो रहा हो और दूसरों से खूब सेवा-शुश्रूषा करानी पड़े तब उपवास करके शरीर का त्याग करना उचित समझा जा सकता है। उपवासचर्या भी कदम नहीं परन्तु प्रारम्भ में नीरस भोजन पर, बाद में छाछ आदि किसी पेय वस्तु पर और उसके पश्चात् शुद्ध जल पर रहकर-इस प्रकार चढ़ते चढ़ते उपवास पर आना चाहिए। इस प्रक्रिया में कितने ही दिन, महीने और शायद अनेक वर्ष भी लग सकते हैं। एकदम प्राणत्याग करने में जो स्व-पर को संक्लेश होता है वह इस प्रक्रिया में नहीं होता। और यह प्रक्रिया मरण का ही नहीं, जीवन का भी उपाय बन सकती है अर्थात् इस प्रकार की प्रक्रिया से कभी कभी बीमारी में से स्वस्थ भी हुआ जा सकता है। इस प्रकार की प्रक्रिया से बीमारी दूर हो जाने पर संलेखना का कारण न रहने से संलेखना बन्द कर देनी चाहिए।
उपवास-चिकित्सा एवं संलेखना में अन्तर है। चिकित्सा में जीवन की पूरी आशा और तदर्थ प्रवृत्ति होती है, परन्तु संलेखना तो तभी की जाती है जब जीवन की कोई आशा ही न हो और न उसके लिये किसी प्रकार का प्रयत्न हो। परन्तु उपर्युक्त संलेखना की प्रक्रिया से यदि शरीर अच्छा हो हो जाय तो फिर ज़बरदस्ती से प्राणत्याग करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि संलेखना आत्महत्या नहीं किन्तु मृत्यु के सम्मुख वीरतापूर्वक आत्मसमर्पण की प्रक्रिया है। इससे मनुष्य शान्ति एवं आनन्द से अपने प्राणों का त्याग करता है। मृत्यु से पूर्व उसे जो कुछ करना चाहिए वह सब वह कर लेता है। परन्तु मृत्यु यदि टल जाय तो उसे ज़बरदस्ती नहीं बुलाना चाहिए।
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