Saturday, July 9, 2011

LESHYA -DEEP DISCUSSION-BY DIPESH GANDH JI

लेश्या

जैनशास्त्रों में निरूपित ‘लेश्या’ के विषय को देखें।

बन्ध-मोक्ष का आधार मुख्यतया मन के भाव ऊपर रहता है, अतः अमुक क्रिया-प्रवृत्ति के बारे में मन के भाव - मन के अध्यवसाय कैसे रहते हैं इस ओर लक्ष देने की आवश्यकता है।

मन के अध्यवसाय एक जैसे नहीं होते, नहीं रहते। वे बदलते रहते हैं। कभी काले-कलुषित होते है, कभी भूरे से होते हैं, कभी मिश्र, कभी अच्छे, कभी अधिक अच्छे और कभी उच्च श्रेणी के-उज्ज्वल होते हैं। यह हमारे अनुभव की बात है। मन के इन परिणामों अथवा भावों को ‘लेश्या’ कहते हैं। स्फटिक के समीप जिस रंग की वस्तु रखी जाय उसी रंग से युक्त स्फटिक देखा जाता है, इसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के संयोग से मन के परिणाम (अध्यवसाय) बदला करते हैं। मनुष्य को जब क्रोध आता है तब उसके मनोगत क्रोध का प्रभाव उसके चेहरे पर कैसा दीखता है? उस समय उसका चेहरा क्रोध से लाल और विकृत बन जाता है। क्रोध के अणुसंघात का मानसिक आन्दोलन जो उसके चेहरे पर घूम जाता है उसी की यह अभिव्यक्ति है। भिन्न-भिन्न अणुसंघात के योग से मन पर भिन्न-भिन्न प्रभाव अथवा मन के भिन्न-भिन्न परिणाम होते हैं। इसी का नाम लेश्या है। ऐसे अणुसंघात अथवा पुद्गल-द्रव्यों का वर्गीकरण छह प्रकार का किया गया है; जैसे कि कृष्ण वर्ण के, नील वर्ण के, कापोत (बेंगन के फूल जैसे) वर्ण के, पीत वर्ण के (उगते हुए सूर्य के वर्ण के), पद्म वर्ण के (स्वर्ण जैसे वर्ण के) तथा शुक्ल वर्ण के द्रव्य। ऐसे द्रव्यों में से जिस प्रकार के द्रव्य का सान्निध्य प्राप्त होता है उसी द्रव्य के अनुरूप रंगवाला मन का अध्यवसाय ही हो जाता है। इसी का नाम लेश्या। कहा है कि -

कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः। स्फटिकस्येव तत्रायं ‘लेश्या’ शब्दः प्रवर्तते ।।

अर्थात्-कृष्ण आदि वर्ण के द्रव्यों के सान्निध्य से जैसे स्फटिक में वैसे आत्मा में जो परिणाम पैदा होता है उसे ‘लेश्या’ कहते हैं।

कृष्ण, नील, कापोत वर्ण के द्रव्य अशुभ हैं तथा तेज, पद्म और शुक्ल वर्ण के द्रव्य शुभ हैं। अशुभों में भी अशुभतम, अशुभतर और अशुभ तथा शुभों में शुभ, शुभतर और शुभतम इस प्रकार अनुक्रम से तातम्य है। शुभ द्रव्यों के सान्निध्य से पैदा होनेवाले मन के शुभ अध्यवसाय को शुभलेश्या और अशुभ द्रव्यों के सान्निध्य से पैदा होनेवाले मन के अशुभ अध्यवसाय को अशुभ लेश्या कहते हैं। कृष्णवर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य में मन का अथवा आत्मा का जो कालाअशुद्धतम परिणाम (अध्यवसाय) उत्पन्न होता है वह कृष्णलेश्या। नीलवर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य से उत्पन्न होनेवाला मन का नीलवर्ण-जैसा अशुद्धतर परिणाम वह नीललेश्या। कापोत (बेंगन के फूल जैसे) वर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य से मन का कापोतरंग जैसा अशुद्ध परिणाम वह कापोतलेश्या। तेजोवर्ण के (उगते हुए सूर्य जैसे वर्ण के) पुद्गलों के सान्निध्य में मन का उस वर्ण जैसा जो शुद्ध परिणाम वह तेजोलेश्या। पद्म वर्ण के (कनेर अथवा चम्पा के फूल जैसे रंग के) पुद्गलों के सान्निध्य में मन का पद्मवर्ण-जैसा जो शुद्धतर परिणाम वह पद्मलेश्या। शुक्लवर्ण के पुद्गलों के सान्निध्य में मन का जो शुक्लरूप शुद्धतम परिणाम वह शुक्ललेश्या ।

ये द्रव्य (लेश्या-द्रव्य) मन-वचन-शरीररूप योगों के अन्तर्गत द्रव्य हैं। जिस तरह शरीरगत पित्त क्रोधोद्दीपक होता है और मद्य आदि पदार्थ ज्ञानावरण के उदय में तथा ब्राह्मी आदि पदार्थ उसके क्षयोपशम में हेतुभूत होते हैं-इस तरह योगान्तर्गत और बाह्य द्रव्य भी जैसे कर्म के उदयादि में हेतुभूत होते हैं वैसे योगान्तर्गत लेश्या-द्रव्य जब तक कषाय होते हैं तब तक उनके सहायक और पोषक बनते हैं। इस प्रकार लेश्या कषायोद्दीपक होने पर भी कषायरूप नहीं है, क्योंकि अकषायी केवलज्ञानी को भी लेश्या-उत्तमोत्तम शुक्ललेश्या होती है। लेश्या-मन-वचन-शरीर के योग के परिणामस्वरूप होने से जब तक वे योग रहते हैं तब तक विद्यमान रहती है। इसीलिये सयोगी केवली भी वह होती है। और योग का सम्पूर्ण निरोध होने पर अर्थात् ‘अयोगी’ अवस्था में [निर्वाण के समय] ही उसका अस्तित्व दूर होता है।

शास्त्राधार के अनुसार (मन-वचन-काय के) योग प्रकृतिबन्ध तथा प्रदेशबन्ध का कारण है और कषाय स्थितिबन्ध तथा अनुभावबन्ध का कारण है। लेश्या यद्यपि योगपरिणामरूप है फिर भी कषाय के साथ ऐसी ओतप्रोत हो जाती है कि वह भी अनुभावबन्ध के कारणरूप से गिनने में आती है। इतना ही नहीं, उपचार से तो वह कषायरूप भी समझी जाती है।

लेश्या अर्थात् मानसिक अध्यवसाय को समझने के लिये शास्त्र में उल्लिखित एक दृष्टान्त इस प्रकार है -

छह मित्र जामुन खाने के लिये जामुन के पेड़ के पास गए। उनमें से एक ने कहा, “अरे यार! मूल के साथ ही पेड़ को काट कर नीचे गिरा दो। बाद में आराम से जामुन खाने का मज़ा आयगा।” [यह अध्यवसाय कृष्णलेश्या है।] दूसरे ने कहा, “नहीं भाई, पेड़ को क्यों काटना? बड़ी बड़ी शाखाओं को ही काट डालो।” [यह अध्यवसाय नीललेश्या है।] तीसरा बोला, “बड़ी शाखाएँ क्यों काटना? जामुन तो इन छोटी छोटी टहनियों पर हैं। इसलिये वे ही तोड़ो।” [यह अध्यवसाय कापोतलेश्या है।] चौथे ने कहा, “तुम्हारा यह तरीका गलत है। सिर्फ फल के गुच्छों को ही तोड़ लो जिससे हमारा काम हो जायगा।” [यह अध्यवसाय तेजोलेश्या है।] पाँचवें ने कहा, “तुम ठीक नहीं कहते। यदि हमें जामुन ही खाने हैं तो पेड़ पर से जामुन तोड़ लो।” [यह अध्यवसाय पद्मलेश्या है।] इस पर छठा मित्र बोला, “भाइओ, यह सब झंझट छोड़ो। यहाँ नीचे जमीन पर पके हुए जामुन पड़े हैं। इन्हीं को उड़ाओ।” [यह अध्यवसाय शुक्ललेश्या है।]कार्य तो एक ही है जामुन खाने का, परन्तु उसकी रीति-नीतिविषयक भावनाओं में जो भिन्नता है, अथवा जो भिन्न-भिन्न अध्यवसाय हैं वे ही भिन्न-भिन्न लेश्याएँ हैं।

द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या इस प्रकार लेश्या के दो भेद हैं। द्रव्य-लेश्या, ऊपर कहा उस तरह, पुद्गलविशेषरूप है। भाव-लेश्या संक्लेश और योग का अनुसरण करनेवाला आत्मा का परिणामविशेष है। संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम अथवा मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक भेद होने से वस्तुतः भावलेश्या असंख्य प्रकार की है, फिर भी संक्षेप में उसके उपर्युक्त छह विभाग शास्त्र में बतलाए हैं।

पहली तीन लेश्याओं में अविवेक और अन्तिम तीन लेश्याओं में विवेक रहा हुआ है। प्रथम लेश्या में अविवेक और अन्तिम लेश्या में विवेक पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ होता है। पहली तीन लेश्याओं में अविवेक की मात्रा उत्तरोत्तर घटती जाती है, जब कि अन्तिम तीन लेश्याओं में विवेक की मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। पहली तीन लेश्याओं में निबिड़ पापरूप बन्धन क्रमशः कम होता जाता है, जब कि अन्तिम तीन लेश्याओं में पुण्यरूप कर्मबन्ध की अभिवृद्धि होती जाती है तथा पुण्यरूप निर्जरा का तत्त्व उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है।

1 comment:

  1. Which pudgal forms dravyaleshya?
    Just as karmanvargana forms karma which pudgal forms dravyaleshya?

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