जे त्रिभुवन में जीव अनंत,सुख चाहें दुःख तै भय्वंत,
ताते दुखहारी सुख कार,कहे सीख गुरु करुना धार.
शब्दार्थ
१.जे-इस
२.त्रिभुवन-तीनो लोकों में.
३.अनंत-जिसका अंत न हो.
४.तै-से
५.भय्वंत-डरते हैं.
६.ताते-इसलिए
७.दुखहारी-दुःख को हरने वाली
७.सुखकार-सुख को देने वाली
७.सीख-सिक्षा
८.गुरु-निर्ग्रन्थ दिगंबर मुनि,सच्चे गुरु
८.करुना-कल्याणक की भावना.
भावार्थ
इस संसार में अनंतानंत जीव है,अनंत जीव राशी,इसका अंत ही नहीं है,चाहे कितने काल बीत जायें,यह संसार कभी खाली नहीं होगा,इन अनंतानंत जीवों में हर जीव सुख चाहता है,कोई भी जीव दुःख नहीं चाहता है,चाहे वेह चीटीं हो,निगोदिया जीव हों,या पंचेंद्रिया,सैनी या असैनि पशु हो,मतलब कोई भी दुःख नहीं चाहता है,क्या हम दुःख चाहते हैं,नहीं न,इसी प्रकार कोई भी जीव दुःख नहीं चाहता,लेकिन यह जीव पुद्गल में सुख खोजने लगता है,बल्कि असली सुख तोह आत्मा स्वाभाव में है,अन्यथा कहीं भी नहीं है,जब जीव को इस सच्चाई का एहसास होता है,यानी की सम्यक्दर्शन होता,जब हम अपने आत्मा स्वाभाव को जानते हैं,तोह हम अत्यंत हर्ष से भर जाते हैं,इसलिए(ताते) हमें यह बात अनंत दुःख का नाश करने वाली (दुःख हारी) और सुख कारी लगती है,और इस आनंद का अनुभव करवाने के लिए हमें सच्चे गुरु,निर्ग्रन्थ गुरु शिक्षा देते हैं,सीख देते हैं,वेह सीख क्या है हम उसे अगले दोहे में समझेंगे..
रचयिता-श्री दौलत राम जी.
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,
जा वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ धोक.
लिखने का आधार-६ ढाला क्लास.
कृपया बिना पढ़ें " LIKE" न करें.
No comments:
Post a Comment