धर्म सम्बंधित तथ्य और बातें.

       
१.मोह के लक्षण हैं-तत्त्व के प्रति विपरीत श्रद्धां,मनुष्य और तिर्यंच पे करुना का अभाव और विषयों के प्रति आसक्ति (कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
२.शुभोप्योग-जीव का वो उपयोग जो परम-भट्टारक देवाधिदेव १८ दोषों से रहित,३४ अतिशय से युक्त अरिहंतों को जानने में और सिद्धों को देखने में...और आचार्य-उपाध्याय,साधू के प्रति श्रद्धा मय है...और जीवों के प्रति अनुकम्पा रखना...वह उपयोग शुभोप्योग है(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
३.ओप्शामिक,क्षयोप्शामिक.और क्षयिक भाव मोक्ष के हेतु हैं,औदायिक भाव बंध के हेतु हैं,और परिणामिक भाव निष्क्रिय भाव हैं.((कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
४.चौथे गुण-स्थान में शुभोप्योग है(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
५.क्षयोप्शामिक भाव-अप्रशस्त कर्म प्रकृतियों की शक्ति अनंत गुनी हीन हो जाएँ(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझ\को समझाया)
६.शुभोप्योग को मोक्ष का हेतु न मानना,आगम को ठीक से नहीं समझना है(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
७.ज्ञान का घमंड नहीं होना चाहिए (द्वादशांग के ज्ञानी को भी अंत समय में ऐसा हो सकता है..की अंत समय में कोई नामोकर मंत्र सुनाये तोह कहे की तुम हमें सुना रहे हो,हमसे ही सीखा है,हमें ही सुना रहे ho..)..क्षयोपषम ज्ञान का घमंड नहीं करना चाहिए,क्योंकि इससे श्रद्धा धीरे-धीरे टूटती जाती है.(मुनि श्री क्षमा सागर जी महाराज)
८.ज्ञान को प्राप्त न होने का कारण विनय का नहीं होना है,शास्त्र को श्रद्धा से सुनना चाहिए,कोई सुनाये तोह बीच में बात नहीं करना चाहिए..और किसीसे कुछ सीखा है तोह उसका नाम न छुपाना,शास्त्र का नाम न छुपाना चाहिए..ऐसा नहीं की "यह मैंने अपने आप किया है,जिसने सिखाया है,कौन से शास्त्र में से सीखा है दोनों के प्रति कृतज्ञता होनी चाहिए..(मुनि श्री क्षमा सागर जी महाराज)
9.शुभोप्योगी श्रावक की चर्या-अरिहंत सिद्ध और साधू के प्रति भक्ति का होना,धर्म में प्रणीत होना...तथा साधुओं का अनुगमन करना.---.उनके पीछे-पीछे चलना-अथार्त उनकी आज्ञानुसार चलना...उसे शुभोयोग कहेंगे.(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
१०.आत्मनुशाशन के लिए किसी की भी आवश्यकता नहीं...उसमें तोह फिर कषायों पे कुठारा-घात करने की जरूरत है.(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
११.मोह के वशीभूत कोई काम करना कर्त्तव्य का पालन नहीं है..वह तोह नौकरी है.-श्री मानक चंद जैन जी.
१२.सम्यक दर्शन के कारण-जिन बिम्ब के दर्शन करना,साधुओं के प्रवचनों का सुनना..और जाती स्मरण के होने से. -श्री मानक चंद जैन जी
१३.संसार में मोक्ष का एक ही मार्ग है...बाकी सब उन्मार्ग हैं.-श्री मानक चंद जैन जी
१४.श्रावक चौथे गुण-स्थान वाला होता है..पहले,दुसरे और तीसरे गुण स्थान वाले नहीं होते हैं..पांचवे गुण स्थान वाले भी श्रावक हैं.श्री मानक चंद जैन जी
१५.परिणामिक भाव तीन प्रकार के होते हैं जीवत्व,भव्यत्व,अभव्यत्व..जीवत्व-चैतन्य,भव्यत्व- रत्नत्रय प्रकट करने की योग्यता है,अभव्यत्व-रत्नत्रय प्रकट करने की योग्यता नहीं है.-
१६.मन दो प्रकार के द्रव्य मन और भाव मन
१७.शुभोप्योगी श्रमण की चर्या- सम्यक दर्शन ज्ञान का उपदेश देना,रत्नत्रय के मुमुक्षु जीवों को दीक्षा देना,शिष्यों का पोषण करना,श्रावकों को पूजा अदि का उपदेश देना, अदि यह शुभोप्योगी श्रमण की चर्या है.(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
१८.संसारी प्राणी शाशन तोह चलाना चाहता है,पर खुद अनुशाशित नहीं होना चाहता,लेकिन भगवान ने खुद को अनुशाशित किया,तोह उनके भक्तों ने उन्हें शाशक मानकर के पूजा.(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
१९.ऐसा मानना चाहिए की जो सच है वह भगवान की वाणी है,..नाकि भगवान की वाणी सच है..भगवान झूठ कब बोलते हैं---आचार्य विशुद्ध सागर जी और मुनि सुधा सागर जी.
१२.जीवन में एक ऐसा नियम जरूर होना चाहिए जिसको पूरा करने के लिए जान-की बाजी भी लगा दी जाए,आचार्यों ने उस भील की प्रशंशा की जिसने सिर्फ कौवे का मांस छोड़ कर पांचवे स्वर्ग में देव हुआ,तुम जैन लोग मांस अदि भी नहीं खाते ...तुम्हारी प्रशंशा नहीं की...क्योंकि उसके नियम के लिए उसने जान की बाजी लगा दी-मुनि सुधा सागर जी.
१३.जिज्ञासु-सम्वोशरण में कल्पवृक्षों के पुष्प की वृष्टि होती है...तोह पुष्प तोह एकेंद्रिया जीव होता है..तोह हिंसा नहीं हुई? पंडित रतनलाल बैनाडा जी-पुष्प जीव रहित होते हैं,यह स्वर्ग से कल्पवृक्षों से लाये गए पुष्प होते हैं,ध्यान में रखने वाली बात यह है की कल्प-वृक्ष स्वर्ग और भोगभूमि में वनस्पति कायिक न होकर पृथ्वी-कायिक होते हैं.
१४.पंचेंद्रिया जीव में ही मन होता है-श्री मानक चंद जैन जी.
१५.आत्मा की विशुद्धि को भाव मन कहते हैं-श्री मानक चंद जैन जी.
१६.दान देने से मुनि का कल्याण तोह होता ही है...साथ में हमारा कल्याण होता है -इसमें कल्याण ही कल्याण है,आज का दान एक बीज की तरह होता है..जो आगे जाकर बहुत फल देता है-स्वाध्याय-जिनवाणी चैनल.
१७. अन्य दर्शन आत्मा की बात करने को कहते हैं जैन धर्म आत्मा से बात करने को कहता है-मुनि श्री १०८ अमित सागर जी महाराज जी.
18.आहार देना सबसे श्रेष्ठ वैयाव्रत्ति है.-स्वाध्याय-जिनवाणी चैनल
१९.श्रावकों के लिए शुभोयोग मुख्य रखा गया है,जबकि मुनि महाराज के लिए शुभोयोग को गौण किया गया है..मुनि महाराज के लिए शुद्धोप्योग को मुख्य कहा है
.(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
२०..दातार (आहार देने वाले)के सात गुण
1.जो मुनिराज को आहार देने वाला है उसको ख्याति,प्रसिद्धि,लाभ,धन की वृद्धि की चाह नहीं रखना
2.दातार को क्रोध नहीं आना चाहिए-देने वाले तोह बहुत हैं,मेरा चौका..मुझे आहार नहीं देने दे रहे हैं,और लोग दे रहे हैं,तोह क्रोध नहीं आना चाहिए...बहुत भीड़ है देने वालों की क्रोध नहीं आना चाहिए
३.दिखावा करते हुए दान नहीं देना चाहिए,बहुत भक्ति..निष्कपट होकर
४..इर्ष्या रहित दान देना चाहिए ,उसने तोह सिर्फ इतना किया था,मैं उससे भी ज्यादा दूंगा.
५.दान देकर के विषाद नहीं करना चाहिए,अगर दान नहीं दूंगा तोह उच्च्चता नहीं आएगी,लोग क्या सोचेंगे?,..यह नहीं सोचना चाहिए की आहार दूंगा लेकिन त्याग नहीं करूँगा,जो त्याग करने को कहा जाए वोह त्याग लें
६.निरात्रय आहार होने पर प्रसन्न होना,ढोल-नगाड़े बजाना,भजन करवाना...
७.दान देने में घमंड नहीं करना चाहिए,मैं कितना श्रेष्ठ हूँ..की मेरे यहाँ इतने बड़े महाराज का आहार हो गया.
-स्वाध्याय (जिनवाणी चैनल)
२१.शुभोप्योग परंपरा से मोक्ष सुख को देने वाला है
(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
२२.निगोदिया जीव और आदमी में क्या अंतर है -आदमी को मरने की फुर्सत नहीं है,और निगोदिया जीवों को मरने से फुर्सत नहीं है.-मुनि श्री १०८ अमित सागर जी महाराज.
२३.कषाय और योग से अनुरंजित परिणामों को लेश्या कहते हैं,कषाय १० वे गुण-स्थान तक,और योग १३ गुणस्थान तक रहता है.-आर्यिका श्री प्रज्ञमति माता जी (जिनवाणी चैनल)
२४.चक्रवती सी सम्पदा,इन्द्र सरीखे भोग,काक बीट सम गिनत है सम्यक्दृष्टि लोग..-आचार्य श्री १०८ विवेक सागर जी महाराज.
२५.अशुभ-उपयोग -विषय कषायों में परवर्त्ती,कुश्रुत,कुविचार और कु-संगती में तल्लीन रहना,मतलब मिथ्या शास्त्रों को पढना,सुनना..,जब चरित्र मोहनीय और दर्शन मोहिनीय कर्म का उदय आता है तोह जीव की पञ्च-परमेष्ठी में रूचि नहीं रहती,मिथ्या शास्त्र,मिथ्या उपदेशों को सुनने में,पढने में उपयोग लगता है...इसे अशुभोयोग कहते हैं..(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
२६.सामिग्री जितनी चढाने को लाये हैं उतनी ही चढ़ाएं ,नहीं तोह निर्माल्य द्रव्य का दोष लगता है-मुनि श्री १०८ प्रमुख सागर जी महाराज
२७.वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी भगवान् की वाणी ही सरस्वती है.-श्री मानक चंद जैन जी
28.उत्तम पात्र को दिया हुआ दान..भोग-भूमि का कारण है...और अपात्र और कुपात्र को दिया हुआ दान कुभोग भूमि का कारण है,कुभोग भूमि में विकृत शारीर मिलता है..मनुष्य शारीर लेकिन मुख शेर जैसा,हाथ ज्यादा ही बड़े हो गए...,भोगभूमि में दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं,दिन रात का भेद नहीं होता,वहां के लोग एक दुसरे से मिलते भी नहीं है,इसलिए कलह भी नहीं होती,जोड़े से जन्म होता है..दान का फल बहुत महान है,किसी ने पहले सामान्य मनुष्य की आयु का बंध किया है..उत्तम को पात्र देने से वह दान भोग भूमि के मनुष्यों की आयु को बंध करता है,और व्यंतर,भवन-वासी से वैमानिक देवों की आयु का बंध करा देता है...दान देने से पहले भावना को बलबती बनाना चाहिए..और दान देकर भूल जाना चाहिए,नाम अदि नहीं चाहना चाहिए.-स्वाध्याय जिनवाणी चैनल.
29.अशुभोप्योग का फल नरक और तिर्यंच गति है,शुभोय्पोग का फल मनुष्य और स्वर्ग,शुद्धोप्योग का फल साक्षात् मोक्ष है.(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
३०.शुभोप्योग से अशुभोयोग का निरोध होता है,और शुद्धोप्योग से शुभोप्योग का निरोध होता है.(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
३१.आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान अशुभोप्योग है,धर्म ध्यान शुभोप्योग है,शुक्ल ध्यान शुद्दोप्योग है.-श्री मानक चंद जन जी.
३२.सच्चा सुख तोह वह है जो "शास्वत,स्वाधीन,आत्मोत्पन्न,बाधा रहित अखंडित हो"...इन्द्रियसुख तोह न ही शाश्वत है न ही आत्मोत्पन्न -"योगामृत-उपाध्याय श्री निर्णय सागर जी महाराज जी.
३३.सम्यक-दृष्टी या शीलवान जीव किसी की निंदा को ऐसे सुनता है जैसे अंधे-कुए में अंगूठी गिर जाए तोह वापिस न मिले.वह अँधा,गूंगा होने को तैयार हो जाएगा लेकिन किसी की निंदा नहीं करेगा.-आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज.
३४.सम्यक दृष्टी जीव कभी भी आगम को अस्वीकार नहीं करेगा अपनी कमजोरी मानेगा..नियम नहीं लिया है तोह अपनी कमजोरी मानेगा लेकिन उस चीज को अस्वीकार नहीं करेगा..कहेगा आगम में तोह सही लिखा है मेरी कमजोरी है.-आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज.
३५.निश्चय नय से आत्मा भाव प्राणों से जीता है,व्यवहार नय से द्रव्य-प्राणों से जीता है--"योगामृत-उपाध्याय श्री निर्णय सागर जी महाराज जी.
३६.बिना समाधी-मरण के नियम और व्रत-संयम निष्फल हैं...नियम-और-व्रत-से-पुण्य-तोह-बंधेगा-लेकिन--अगर-समाधी-मरण-के-साथ-अगर-प्राण-छूटते-हैं-तोह-वह-मुक्ति-में-कारण-बनता-है...वह-जीव-जल्दी-ही-मोक्ष-को-प्राप्त-होगा...समाधी-मरण-आत्म-घात-या-इच्छा-मृत्यु-नहीं-है...हमें-रोज-समाधी-मरण-पाठ-करना-चाहिए.--स्वाध्याय-जिनवाणी-चैनल.
३७.काय-बल,इन्द्रिय,आयु--यह पर्याप्त-अपर्याप्त-जीव-दोनों-के-होती-है...स्वाछो-स्वास..सिर्फ-पर्याप्त-जीवों-के-ही-होती-है.-----योगमृत-उपाध्याय श्री निर्णयसागर जी महाराज.
३८.मीमांसक कहते हैं..??-जिस प्रकार गधे के सींग नहीं होते,वैसे-सर्वज्ञ-भी-नहीं-होता...इस-विषय-में-उत्तर-यह-है-की-अगर-सर्वज्ञ-नहीं-होता-तोह-तुमने-कैसे-जाना-की-तीनों-लोक-में-कोई-सर्वज्ञ-नहीं-हो,,क्या-तुमने-तीनों-लोकों-को-जान-लिया,अगर-जान-लिया-तोह-तुम-सर्वज्ञ-हो..लेकिन-तुम-तोह मन-की-बातों-को-भी-नहीं-जान-पाते-हो...-योगमृत-उपाध्याय श्री निर्णयसागर जी महाराज.
३९.
सच्चा-सुख-तोह-वह-है-जो-शास्वत-हो-स्वाधीन-हो-आत्मोत्पन्न-हो-बाधा-रहित-हो-और-अखंडित-हो.

सिद्ध परमात्मा स्वयंभू हैं क्योंकि उनके अपने आप-ही-सुखकारी-हमेशा-नित्य-रहने-वाले-केवल-ज्ञान-और-केवल-दर्शन-रुपी-गुणों-को-प्राप्त-हैं...,वह-इश्वर-हैं--क्योंकि वह ज्ञान-रुपी-ऐश्वर्य-से-सहित-है-वह-शिव-हैं-क्योंकि-उन्होंने-सुख-रूप-हित-रूप-शांत-अविनाशी-निर्वाण-को-प्राप्त-किया-है..क्योंकि-उन्हें-महा-मोह-जैसे-बड़े-बड़े-दोषों-को-नष्ट-किया-है-इसलिए-वह-महादेव-हैं-उन्होंने-कर्म-रुपी-जालों-को-शुक्ल-ध्यान-रुपी-अग्नि-से-जला-दिया-है-इसलिए-वह-रूद्र-हैं-ऐसे-रूद्र-को-नमस्कार-वह-सुगत-हैं-क्योंकि-उन्होंने-बाधा-रहित-सुख-को-आत्म्स्वभाव-प्राप्त-किया.

ऐसा-सिद्ध-परमेष्ठी-का-स्वरुप-है-उनके-गुणों-का-वर्णन-करने-में-हम-असक्षम-हैं-ऐसे-सिद्ध-परमेष्ठी -का-चिंतवन-करना-चाहिए-और-हम-भी-ऐसे-ही-पद-को-प्राप्त-करें-यह-भावना-भानी-चाहिए.




योगामृत-उपाध्याय-निर्णय -सागर-जी-महाराज.

39.आत्मा-के-अनंत-दर्शन-गुण-को-ढकने-वाला-कर्म-दर्शनआवरण-कर्म-है...
40. प्रयोग्य-लब्धि
सम्यक-दर्शन-से-पहले...जब-यह-भाव-आयें-की-मैं-ऐसा-क्यों-नहीं-कर-पा-रहा-हूँ...महाराज-इतना-समझाते-हैं-तब-भी-यह-इन्द्रिय-ऐसी-क्यों-हैं...ऐसा-क्यों-हूँ मैं..अभी-कुछ-त्यागा-नहीं-है...ऐसी-भावना-का-होना-की-महाराज-जी-कह-रहे-हैं-रात्री-भोज-त्याग-करो...लेकिन-मैं-क्यों -नहीं-कर-रहा-हूँ,यह-कर्मों-ने-मुझे-ऐसा-क्या-कर-रखा-है...झुन्ज्लाहट-का-आना.मन-को-फटकारता-है..अन्दर-की-लड़ाई,आखिर-मैं-ऐसा-क्यों-है...तोह-समझ-लेना-चाहिए..कोटि-कोटि-सागर-के-कर्मों-की-स्तिथि-के-टुकड़े-शरू-हो-जाते-हैं....नए-बंधे-कर्म-द्विस्थानीय(अशुभ-कर्म-चार-स्वाभाव-वाले-हैं---नीम-कांजी-विष-हलाहल...नियम-नहीं-लिया..सिर्फ-चिंतन-किया-है.....तब-यह-प्रयोग-लब्धि-इतनी-कल्याणकारी-है.
मुनि-सुधा-सागर-जी-महाराज
41.एक-अच्छी-जानकारी
सम्वोशरण-अकृत्रिम-है....या-देवों-का-माया-जाल...?
अगर-माया-जाल-है...तोह-पूजनीय-कैसे.?...प्रतिमाएं--पूजनीय-कैसे..????????..
इसलिए-सही-उत्तर-अकृत्रिम-है
अब-इतने-सारे-सम्वोशरण कहा रखे रहते हैं?
पहले-और-दुसरे-स्वर्गों-के-विमानों-के-बीच-में-असंख्यात-योजन-जगह-खाली-है...उसमें-रखे-रहते-हैं
यह-सम्वोशरण-फोल्डिंग-होते-हैं...तीर्थंकर-के-साइज़-के-हिसाब-से-उन्हें-वहां-रख-दिया-जाता-है.
लेकिन-पानी-माया-जाल-होता-है..
यह-प्रश्न-पंडित-श्री-रत्न-लाल-बैनाडा-जी-ने-आचार्य-श्री-से-पुछा--तोह-उसका-जवाब-दिया..आचार्य-श्री-ने.
४२.परमात्मा-तत्व-को-जाने-बिना-निजातम-तत्त्व-की--अनुभूति-होना-असंभव-है..जब-तक-निजात्म-तत्व-के-प्रति-रूचि-नहीं-आएगी-तब-तक-मोक्ष-संभव-नहीं-है...--योगामृत-उपाध्याय-निर्णय-सागर-जी-महाराज.
४३.किसी-स्त्री-को-देख-कर-यह-भाव-आयें..क्या-यह-स्त्री-है?..यह-तोह-जीव-की-पर्याय-है...इसका-शारीर-पुद्गल-है..यह-जो-विकार-भाव-कर-रही-है..इससे-आश्रव-बंध-होगा...जो-संसार-रूप-है...मैं-जीव-हूँ..अगर-मैं-विकार-भाव-करूँगा..तोह-आश्रव-बंध-होगा..इस-तरह-तत्त्व-की-श्रद्धा-करनी-चाहिए.-योगामृत-उपाध्याय-निर्णय-सागर-जी-महाराज.
४४.मूक-केवली-की-गंध-कुटी-नहीं-खिरती...क्योंकि--उन्होंने-केवल-ज्ञान-से-पहले-आजीवन-मौन-रहने-का-नियम-ले-लिया-होता-है.-पंडित-रतन-लाल-बैनाड़ा-जी.
45.
साधुओं-के-प्रकार---१०-प्रकार-के-साधू-होते-हैं.
.आचार्य-जो-पंचाचार-का-पालन-करते-हैं-करवाते-हैं
२.उपाध्याय-दो-परिभाषा-जो-११-अंग-१४-पूर्व-के-ग्यानी-हों..
और-दूसरा-यह-की-जितना-भी-श्रुत-हमारे-पास-उपलब्ध-है,उसका-उन्हें-पूरा-ज्ञान-HO
३.तपस्वी-जिन्होंने-बहुत-बेले-तेले-कियें-हों,जैसे-आचार्य-विद्यासागर-जी-ने-एक-बार-९-दिन-निर्जल-उपवास-किया
४.सैक्ष-जो-शिक्षा-शील-हों,अध्यन-मनन-चिंतन-करते-हों
५.ग्लान-जिन-मुनि-राज-को-व्याधि-लगी-हुई-है...तब-भी-समता-परिणामों-से-जीते-हैं...उनसे-भी-बहुत-कुछ-सीखने-को-मिलता-है..की-ऐसी-अवस्था-में-भी-धर्म-ध्यान-करते-हैं.
६.गण-दो-या-तीन-साधू-का-समूह-जो-चिर-दीक्षित-हों.
७.गक्ष-४-या-पांच-और-ज्यादा-साधू
८कुल-आचार्य-के-शिष्यों-का-समूह
९.संघ-मुनि,आर्यिका,श्रावक,श्राविका...जिसमें-कई-आचार्य-हों,उपाध्याय-हों.
१०.मनोज्ञ-जो-दीक्षा-के-सम्मुख-हैं--अभी-दीक्षा-हुई-नहीं-है-वो...होने-वाली-है..कुछ-ही-क्षण-में.
मुनि-श्री-१०८-क्षमा-सागर-जी-महाराज.
46.८४-लाख-साल-का-मतलब-एक-पूर्वांग..८४-लाख-पूर्वांग-का-मतलब-एक-पूर्व
आदिनाथ-भगवान्-की-आयु-५९२७०४०००००००००००००००.वर्ष.
इतनी-आयु-थी.(८४-लाख-पूर्व)
saurabh-jain-ji.
४७.व्यवहार-सम्यक-ज्ञान-के-८-अंग
१.शब्द-सही-से-पढना
२.उनके-अर्थ-सही-जानना
३.शब्द-पढ़ते-हुए-अर्थ-लगते-हुए-पढना
४.जिससे-पढ़ा-है-उसका-नाम-नहीं-छिपाना
५.योग्य-समय-में-ही-स्वाध्याय-करना
६.सही-आसन-से-स्वाध्याय-करना
७.मौन-हो-कर-स्वाध्याय-करना
८.पढने-से-पहले-मंगलाचरण,बाद-में--शास्त्र-स्तुति-करना...और-शास्त्र-को-विनय-से-उठाकर,जहाँ-से-लाये-वहीँ-पर-रखना.

पंडित-श्री-रतन-लाल-बैनाड़ा-जी.
48-१०-प्रकार-के-धर्म-ध्यान
१.अपाय-विचय---अशुभ-मन-वचन-काय-योग-से-हुए-पाप-कैसे-नष्ट-होंगे...ऐसा-चिंतन-करना-अपाय-विचय-धर्म-ध्यान-है.
२.उपाय-विचय-पापों-को-दूर-हटाने-का-मार्ग-शुभ-मन-वचन-काय-योग-है.ऐसा-चिंतन-करना-उपाय-विचय-है.
३.जीव-विचय---जीव-के-स्वरुप-का-चिंतन..यह-आत्मा-दर्शन-ज्ञान-स्वाभावि-है,असंख्यात-प्रदेशी-है,सूक्ष्म-कार्मन-और-औदारिक-शारीर-अदि-से-युक्त-है..संकोच-विस्तार-स्वाभाव-वाली-है..अदि-चिंतन-करना-जीव-विचय-धर्म-ध्यान-है.
४.अजीव-विचय--पुदगल,नभ,धर्म,अधर्म-और-काल,इन-पांच-अजीव-द्रव्यों-के-स्वाभाव-का-चिंतवन-करना-अजीव-विचय-धर्म-ध्यान-है.
५.विपाक-विचय-कर्मों-से-मिलने-वाले-फल,उसकी-उत्तर-प्रकृति,लघु-प्रकृति-अदि-से-मिलने-वाले-फलों-का-चिंतवन.करना..मूल-प्रकृति,अदि-के-फल,उत्तर-gun...अदि-का-चिंतवन-करना-विपाक-विचय-धर्म-ध्यान-है.
६.viraag-विचय-शारीर-के-स्वाभाव-का-चिंतवन-करना,नौ-द्वारों-से-गंध्गी-निकलती-है,अपवित्र-है,अशुचि-है,..ऐसा-चिंतवन-karna
७..भव-विचय-जीव-उत्पद्द-जन्म-स्वर्ग-और-नरक-में-लेते-हैं,सम्मूछन-जन्म-लेते-हैं,उत्पाद-जन्म-लेते-हैं..आत्मा-इतने-समय-में-सिद्ध-शिला-पहुँचती-है,इतने-समय-में-इस-योनी-से-इस-योनी-पहुँचती-है...आदि-चीजों-का-चिंतवन-करना..भव-विचय-धर्म-ध्यान-है
८.संस्थान-विचय-लोक-का-चिंतवन-करना,लोक-के-सबसे-ऊपर-सिद्ध-परमेष्ठी-हैं,१६-स्वर्ग,जम्बू-द्वीप,नरक-अदि-का-चिंतवन-करना..संस्थान-विचय-धर्म-ध्यान-है.
९.आज्ञा-विचय--पाप-पुण्य-आत्मा...यह-सब-चीजें-तत्त्व-बहुत-सूक्ष्म-हैं-इसलिए-दिखाई-नहीं-देतीं-हैं..लेकिन-जिनेन्द्र-देव-के-वचन-प्रमाण-है,जैसे-उन्होंने-कहा-है-वैसा-सत्य-है...इसके-अलावा-अन्यथा-नहीं-है...ऐसा-चिंतवन-करना-आज्ञा-विचय-धर्म-ध्यान-है.
१०.कारण-विचय-धर्म-ध्यान-(याद-करके-लिखूंगा)
योगामृत-उपाध्याय-श्री-निर्णय-सागर-जी-महाराज.
४९.एक-समय-में-एक-ही-उपयोग-हो-सकता-है..मतलब-अशुभोप्योग-है..तोह-शुभोप्योग-नहीं-हो-सकता,और-शुद्धोप्योग-से-शुभोप्योग-का-निरोध-होता-है...,अशुभोप्योग-को-त्याग-शुभोप्योग-में-प्रवर्ती-करनी-चाहिए..
-(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
५०.आत्मा-ज्ञान-प्रमाण-है,और-ज्ञान-ज्ञेय-प्रमाण-है...और-ज्ञेय-लोकालोक-है...इसलिए-ज्ञान-सर्व-व्यापक-है.
-(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)
५१.जो-श्रुत-ज्ञान-के-माध्यम-से-स्वाभाव-से-ज्ञायक-आत्मा-को-जानता-है..वह-श्रुत-केवली-होते-हैं-ऐसा-केवली-भगवान-ने-कहा-है.---कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया.
५२.
भावना-की-पवित्रता-के-मायने.
श्रद्धा,भक्ति,विवेक,अलुभ्द्ता,क्षमा,अमात्सर्य,संतोष..
पात्र-को-अपात्र-मान-कर-दान-नहीं-देना.यहाँ-मजबूरी-है.
अपात्र-को-पात्र-मान-कर-नहीं-देना....इसका-कोई-भी-लाभ-नहीं-है,यहाँ-भी-मजबूरी-है
श्रद्धा-उनके-गुणों-के-प्रति-अनुराग.
बुरा-भाव-आना-नहीं
भक्ति-महाराज-के-साथ-ही-रहना
विवेक-क्या-कब-कैसे-देना-है
अमत्सर्य-है...एक-दुसरे-से-इर्ष्या-न-करना


मुनि-श्री-१०८-क्षमा-सागर-जी-महाराज.

५३.अध्यातम-प्रेमी-कभी-दूसरों-से-उलझता-नहीं-है...न-दूसरों-को-उलझाता-है.-कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया
54.KEVALI BHAGWAN AATMA KO JAANTE HAIN YA LOK KO JAANTE HAIN?


NISCHAY-NAY-SE-KEVALI-BHAGWAN-SIRF-AATMA-KO-JAANTE-HAIN,VYAVAHAR-NAY-SE-;LOK-KO-JAANTE-HAIN


KSHAYIK GYAAN KI YAHI TOH VISHESHTA HAI..KI..ISMEIN GYEY PADARTHON KI OR JAANA NAHI PADTA HAI BALKI GYEY PADARTHA APNE AAP UNKE GYAAN MEIN JHALAKTE HAIN.
KSHAYOPSHAMIK-GYAAN-MEIN-GYEY-PADARTHON-KI-OR-JAANA-PADTA-HAI..KEVAL-GYAAN-MEIN-GYEY-PADARTHA-APNE-AAP-JHALAKTE-HAIN.
कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया.

५५.जो सम्यक दर्शन,सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र में पूर्णतः स्तिथ है वह स्व समय जीव होता है,जो पौदगालिक कर्म में स्तिथ है वह पर-समय जीव होता है.
कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया. 
५६..मुझे रोज अपने आप से पूछना चाहिए कि."मैं कौन हूँ,कहाँ से आया हूँ,कहाँ जाना है,क्यों जाना है,क्या मैं वहां जाने के लिए कोई पुरुषार्थ कर रहा हूँ".....श्री मानक चंद जैन जी ने बताया.
५७.लोक पूजा की दृष्टी से की गयी ज्ञान आराधना समीचीन नहीं है,मोक्ष मार्गी जीव बंध के हेतुओं से बचने के लिए श्रुत का पान करता है,यही भावना रखता है की संसार से अज्ञान तिमिर का नाश होवे,प्राणी-मात्र वीतराग धर्म की और अपने कदम रखें,भूतार्थ मार्ग को समझे संसार पंक से स्वपर रक्षा में सलग्न रहता है ज्ञानी जीव


सम्यक दृष्टी जीव जिनदेव एवं आचार्य परंपरा के विरुद्ध कभी भाषण नहीं करता है


निश्चय ने से शारीर अदि परद्रव्यों के प्रति एकत्व श्रद्धां रूप अज्ञान भाव का अभाव होता है ,तब जीव परमानन्द दशा में मग्न होकर केवल दशा को प्राप्त होता है,जो अज्ञानी पुरुष इसको जाने बिना धर्म में लवलीन रहते हैं,बे शरिरादिक क्रिया-कांडों को उपदेश जानकार,संसार के कारण भूत शुभोयोग को ही मुक्ति का साक्षात् कारण मानकर स्वरुप से भ्रस्ट होकर,संसार में परिभ्रमण करते हैं


सम्यक दृष्टी का निदान रहित शुभोप्योग तो परंपरा से मोक्ष का ही हेतु है,लेकिन साक्षात् हेतु तोह शुद्धोप्योग ही है
व्यवहार और निश्चय को यथा योग्य जानकार अंगीकार करना,पक्षपाती न होना,यह उत्तम श्रोता का लक्षण है.

पुरुषार्थ सिद्धि उपाय (आचार्य अमृत-चंद स्वामी,टीकाकार -आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज)
57.जिस प्रकार तपता हुआ सोना अपने सुवर्ण स्वाभाव को नहीं छोड़ता है,उसी प्रकार ज्ञानी कर्म के उदय से आने वाले उपसर्ग अदि आने पर अपने स्वाभाव को नहीं छोड़ता है,अज्ञानी राग-भावों को ही आत्मा मानता है-(कुंद-कुंद का कुंदन-आचार्य विद्यासागर जी द्वारा संगृहीत(आचार्य कुंद-कुंद के द्वारा लिखे गए शास्त्रों में से)(श्री मानक चंद जैन जी ने मुझको समझाया)

ARDH PUDGAL PARAAVARTAN KAAL
pudgal paraavartan matalab bandhe hue karmo ka bhog kaal,jab vah aadha rah jaataa hei tap yaa nirjara se to use ardhd pudgal paraavartan kahate,jo ki samyak darshan ki yogyataa hei.
SHUDDUPYOG
चेतनाकी परिणति विशेषका नाम उपयोग है. चेतना सामान्य गुण है और ज्ञान दर्शन ये दो इसकी पर्याय या अवस्थाएँ हैं इन्हींको उपयोग कहते हैं तिनमें दर्शन तो अन्तर्चित्प्रकाशका सामान्य प्रतिभास है जो निर्विकल्प होनेके कारण वचनातीत व केवल अनुभवगम्य है ...और ज्ञान बाह्य पदार्थोंके विशेष प्रतिभासको कहते हैं सविकल्प होनेके कारण व्याख्येय है इन दोनों ही उपयोगोंके अनेकों भेद-प्रभेद हैं। यही उपयोग जब बाहरमें शुभ या अशुभ पदार्थोंका आश्रय करता है तो शुभ अशुभ विकल्पों रूप हो जाता है और जब केवल अन्तरात्माका आश्रय करता है तो निर्विकल्प होनेके कारण शुद्ध कहलाता है शुभ अशुभ उपयोग संसारका कारण हैं अतः परमार्थसे हेय हैं और शुद्धोपयोग मोक्ष व आनन्दका कारण है


18 PAAPSTHAN
pranatipaat,mrishvaad,adattadaan,maithun,parigrah, krodh,maan,maya,lobh,raag,dvesh,kalah,abhyakhyaan,paishunya,par-parivaad,rati-arati,mayamrishvaad aur mithyadarshan shalya..
इंद्रियो के घोडे किस तरह नचाते है;एक इंद्रि के चक्कर मै हाथी हथनी को समझ कर गहरे गड्डे मै फस जाता और जीवन भर गुलामी करता और मनुष्य...2:दो इंद्रि के चक्कर मै कितने ही पक्षी अनाज को देख कर बहेलिये के जाल मे फस जाते.और इंसान भक्ष्य अभक्ष्य का ध्यान छोड ना जाने क्या क्या खा जाता.3;सुगंध के चक्कर कीट बनते हुए भोजन की खुशबु से उसमे गिर कर ज...ान गवा देते.कस्तुरी मृग जहा तहा भटकता रहता.और मनुष्य देशी विदेशी पर्फ्यूम जो किन जीवो के कलेवर से बना है भूल कर उपयोग करता है.चंदन पुष्प का प्रयोग तो भूल ही गये..4..आंखो के चक्कर मै पतंगा दीप की लौ से टकरा कर जान दे देता है.मनुष्य मनोरम दृष्यो के चक्कर श्लील अश्लील दृष्य देखता है.और क्या क्या नही करता जानते ही है.5.कर्णेदिय तो बडी विचित्र है.भगवन के भजन प्रवचन छोड अश्लील संगीत पॉप,आदि संगीत सुनते है.और इनका नियत्रक मन तो और भी विचित्र जो सभी इंद्रिय घोडो को बेलगाम छोड आनंद उठाता है


तत्व-चर्चा -
प्रश्न - पाप के कितने प्रकार है और वोह क्या हैं ?
उत्तर - १८ तरह के होते हैं |
१. प्राणातिपात (हिंसा )
२. मृषावाद ( असत्य )
...३. अदत्तादान ( चोरी )
४. मैथुन ( अब्र्ह्म्च्र्य )
५. परिग्रह
६. क्रोध
७. मान
८. माया
९. लोभ
१०.राग
११.द्वेष
१२.कलह
१३.अभ्याख्यान ( मिथ्या आरोप लगाना )
१४.पैशुन्य ( चुगली )
१५.परपरिवाद ( निंदा करना )
१६.रति-अरति ( असंयम में रूचि व संयम में अरुचि )
१७.माया-मृषा ( माया सहित झूठ बोलना )
१८.मिथ्यादर्शन शल्य ( विपरीत दर्शन में श्रद्धा )
ये भेद वास्तव में पाप-तत्व के नहीं किन्तु जिन कारणों





















8 comments:

  1. ardh pudgal paravartan kaal ke bare mein thoda aur bataiye? "jo ki samyak darshan ki yogyataa hei." to kya samyagdarshan ardh pudgal paravartan ke baad hi hota hain?

    ReplyDelete
  2. दिगंबर जैन धर्म अनादीसे हैं और सच्चा आनंद तो खुद ही हैं यह जानते हुऐ एक आनंद हि हैं यह जाणणा ही सच्चाई हैं और सच्चा आनंद तो धर्म्यध्यान से प्रत्यक्षात अनुभूती ही शुध्दोपयोग हैं. प्रमाण
    प्रमाण नय अधिगमः एक सिध्दांत प्रवेशिका एक परंपरागत साधन हैं. शुध्दोपयोग से ही अविरत सम्यकत्व हैं ही. होता हैं कहो ना आनंद हैं आप जानते है के मानता नहीं तो मिथ्यात्व ही हैं यह जानते है के मानतेहैं उत्कर्ष ही हैं. उपहास नहीं क्युं सच्ची एक बाराभावना से ही हम सब कुछ जाणकर प्रत्यक्षात मैं हूँ इसकी देशना प्रदान कोई भी कहते नहीं हैं कि अहम् ब्रह्मास्मी हूँ. यही तो पंचमकाल हैं मगर कुछ भी विचीत्रता से हैं और सच्चा माणूस सत्य कीं सच्चाई कहीं हैं यह जाणणा ही आत्मीयता अपनी अपनेसे हैं तो सब झंटटौको गौण करो और प्रत्यक्षात मात्र मैं तो एक अखंडित निजध्रूव हूँ जाणणा सुलभ हैं.

    ReplyDelete
  3. शुध्दोपयोग हैं और सच्चा आनंद तो खुद ही हैं . है ना .जयजिनेन्द्र जी प्रथमाचार्य के शिष्य पुज्यश्री वीरसागरजी कीं आज्ञा से खोज भी हुई हैं. प्रत्यक्षात अनुभूती करो हम चेतन ध्रूवात्मा शाश्वत सत्य हैं.
    जहां तिर्यंच प्राणी भी अनुभूती कीं सच्चाई जाणकर स्वर्गारोहीत होता हैं. हमें भी प्रेरणा हैं यह भी कहो ना आनंद हैं.


    ReplyDelete
  4. मगर सत्य कीं सच्चाई कहीं हैं. परिक्षा करो और अनुभुती एक आनंद मार्ग आहे हे अलिखित नियम परंपरा संस्कृती हैं.

    ReplyDelete
  5. https://l.facebook.com/l.php?u=https%3A%2F%2Fjainagam.blogspot.com%2Fp%2Fblog-page.html&h=AT3FzRbX9qTqMYYIo5Q42J9UBielGYJfT6-yASKf3CGjJWVyYQLezPIrW_9uAiJ2h3ceewmBcKgjGi50gVXc9p_Px38Q5ww2QweGvce9r8wfg0pMLyIMamX5vJBAP2_N1iGgT3JwkA

    ReplyDelete
  6. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete