Friday, June 24, 2011

6 dhaala-chauthi dhaal-punya paap ke falon mein harsh-vishad ka nished

                                                  ६ ढाला
                                                 चौथी ढाल
                                  पुण्य पाप के फलों में हर्ष विषाद का निषेद

                                    पुण्य पाप फलमाहीं हरख बिलखौ मत भाई
                                                      यह पुद्गल परजाय उपजै-विनसे फिर थाई
                                                       लाख बात की बात यह निश्चय उर लाओ
                                                    तोरि सकल जग-द्वंद-फंद निज आतम ध्याओ 

शब्दार्थ
१.फलमाहीं- फलों में
२.हरख-हर्ष,rati
३.विलखौ-दुखी मत हो,अरतु
४.भाई-हे भव्य जीवों
५.पुद्गल-अजीव का एक प्रकार,जिसमें वर्ण,रस,गंध,स्पर्श हों
६.परजाय-एक पर्याय 
७.उपजै-उपजती है
८.विनसे-नष्ट हो जाती है
९.फिर-फिर से 
१०.थाई-पैदा हो जाती है
११.लाख बात की बात-सबसे बड़ी और ख़ास बात,या सीधी सीधी बात तोह यही है
१२.तोरि-तोड़कर
१३.सकल-सारे
१४.जग-संसार के
१५.द्वंद-फंद-झगडे,झंजत,मसलें,सुख-दुःख
१६.ध्याओ-ध्यान करो

भावार्थ
हे भव्य जीवों पुण्य और पाप के फलों में रति,अरति या हर्ष-विषाद करना छोडो...क्योंकि शुभ और अशुभ तोह पुद्गल की पर्याय हैं...यह बार उपज-जाती हैं,नष्ट हो जाती हैं,पैदा हो जाती,फिर उपज जायेंगे..और फिर नष्ट हो जायेंगी...अतः यह तोह अस्थायी हैं..हमेशा न रहने वाली हैं...यह तो असाता और साता वेदनीय कर्म के उदय से आती हैं..और कर्म तोह पुद्गल ही है...अतः हमेशा नहीं रहती हैं..आज सुख तोह कल नहीं,आज घर है तोह कल  कंगाल है,आज पुत्र ऐसा कर रहा है,कल बदल जाए..कोई भरोसा नहीं...यह सारे विषय,भोग,सुन्दरता,घर-वार,स्त्री,हाथी,घोड़े,मकान सम्पदा सब अस्थायी हैं..और सब अशुभ और शुभ के उदय से आती जाती रहती हैं..और यह सारी क्षण-भंगुर हैं..इसलिए इनके संयोग और वियोग में क्या दुखी होना?...लाख बात की बात तोह यह जान लेनी चाहिए..और ह्रदय में धारण कर लेनी चाहिए कि सच्चा सुख आत्मा स्वरुप में ही है,सुख कहीं बहार नहीं मिलता है..उल्टा बहार तोह दुःख ही दुःख है..इसलिए इस संसार के झगडे-झंजतों से बच कर,मोह-माया में नहीं पड़ना चाहिए और आत्मा का ध्यान करना चाहिए.

रचयिता- कविवर श्री दौलत राम जी
 लिखने का आधार-स्वाध्याय (६ ढाला,संपादक-पंडित रत्न लाल बैनाडा जी,डॉ शीतल चंद जैन)

जा वाणी के ज्ञान सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक. 

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