६ ढाला
छठी ढाल
स्वरूपाचरण रूप चरित्र
जिन परम-पैनी सुबुधि छैनी अंतरात्म भेदिया
वर्णादी अरु रागादि से निज भाव को न्यारा किया
निज माहीं निज के हेतु,निजकर आपो आप गह्यो
गुण-गुणी,ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय मंझार कछु न भेद रह्यो
शब्दार्थ
१.जिन-जिन्होंने
२.परम-सबसे ज्यादा
३.पैनी-तीक्ष्ण
४.सुबुधि-सम्यक ज्ञान,भेद विज्ञान
५.छैनी-सम्यक ज्ञान रुपी छैनी से
६.अंतरात्म-आत्मा में
७.भेदिया-दाल दिया
८.वर्णादी-द्रव्य कर्म
९.रागादी-राग-द्वेष अदि से
१०.निज भाव को-आत्मा स्वरुप को
११.निज माहि-आत्मा में
१२.निज के हेतु-आत्मा के लिए
१३.निज कर-आत्मा के द्वारा
१४.आपो आप-खुद बा खुद..आत्मा ही आत्मा के लिए
१५.गह्यो-प्राप्त करती है
१६.ज्ञाता-जानने वाला
१७.ज्ञेय-जानने योग्य
१८.गुणी-जिसमें गुण हों
१९.मंझार-में
२०.कछु न भेद रह्यो-कुछ अंतर नहीं रह जाता है
भावार्थ
स्वरूपाचरण रूप चरित्र की बात कह रहे हैं..मुनिराज स्वरूपाचरण रूप में परम-पैनी-परम तीक्ष्ण सम्यक ज्ञान या भेद विज्ञान रुपी छैनी से जब आत्मा को भेदते हैं...इस सम्यक ज्ञान के छैनी को परम-तीक्ष्ण इसलिए कहा है क्योंकि कर्म रुपी मैल को काटने के लिए तोड़ने के लिए संसार की कोई भी छैनी नहीं है..चाहे आग में बैठ जाओ..पानी में बैठ जाओ...कर्म नहीं जलेंगे..लेकिन सम्यक तप की अग्नि एक ऐसे अग्नि है..जो कर्म रुपी मैल को जलने में समर्थ है..इसलिए इस सम्यक ज्ञान-भेद विज्ञान रुपी छैनी को परम पैनी कहा है...और इस सम्यक ज्ञान रुपी छैनी से मुनिराज जब आत्मा को भेदते हैं..तोह राग-द्वेष अदि भाव कर्मों से और द्रव्य कर्मों से निज को न्यारा कर लेते हैं..वह मुनिराज खुद में ही यानी की आत्मा में,आत्मा के लिए,आत्मा के द्वारा आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं..फिट गुण-गुणी,ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय के बीच में कोई भी अंतर नहीं बचता है क्योंकि..जो जानने वाला है..वोही ज्ञान और जो ज्ञान है वह ही जानने योग्य..गुण भी आत्मा है..और गुणी भी आत्मा है.
रचयिता-कविवर श्री दौलत राम जी
लिखने का आधार-स्वाध्याय(६ ढाला,संपादक-पंडित श्री रत्न लाल बैनाडा जी,डॉ शीतल चंद जैन जी)
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.
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