भगवान ऋषभ देव
तीर्थंकर होने से पहले के भव
तीर्थंकर होने से पहले के भव
१.आखिर का ९वा भव -राजा महाबल
मध्यलोक के बीचों बीच जम्बुद्वीप है...उस जम्बू-द्वीप के बीचों बीच सुमेरु पर्वत है..और सुमेरु पर्वत के पूर्व और पश्चिम में दोनों तरफ विदेह क्षेत्र हैं...जहाँ से मुनिराज देह का त्याग कर मुनिराज "विदेह" हो जाते हैं..वहां हमेशा चौथा काल रहता है...उसमें पश्चिमी विदेह क्षेत्र की अलकापुरी नाम की नगरी में एक अतिबल नाम के विद्याधर राजा राज्य करता थे ...जिन्होंने संसार के भोगों से विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की..और सारा राज्य पुत्र महा बल को दे दिया...अब यह "महाबल" ही ऋषभ देव का १० भव पहले का जीव हैं..महाबल के राज्य में चार मंत्री थे.१.महामति २.सभिन्न मति ३.शत मति और ४.स्वयंबुद्ध ..स्वयंबुद्ध शुद्ध सम्यक दृष्टी थे और बाकी के तीनों मिथ्यादृष्टि थे....
पीछे से आठवा भव
-ललितांग देव
एक बार राजा का जन्म दिवस आया..राजा को उत्साहित देखकर सम्यक्दृष्टि स्वयं बुद्ध ने जैनत्व का उपदेश दिया और कहा कि "हे! राजन यह राज पाट तोह पुण्य कर्म का फल है..जैन धर्म धारण करो"..बाकी के तीनो मिथ्यादृष्टि स्वयं बुद्ध मंत्री से सहमत नहीं हुए और उनमें से एक ने"परलोक का अस्तित्व नहीं माना"..दुसरे ने आत्मा को स्वतंत्र तत्त्व नहीं माना"..तीसरे न आत्मा नाम कि किसी वस्तु को ही नहीं माना ..और कहने लगा कि संसार शून्य...लेकिन स्वयंबुद्ध ने उनको जैन धर्म कि प्रमाणिक बातों से ...लोक परलोक कि मौजूदगी...आत्मा का स्वतंत्र पना...और पुण्य पाप अदि को साबित कर दिया...सारे मंत्र गणों ने स्वयं बुद्ध मंत्री कि प्रशंसा करी..और जैन धर्म कि प्रभावना करी..एक बार स्वयं बुद्ध मंत्री मेरु पर्वत में शास्वत जिनालय के दर्शन हेतु गया और जिन-बिम्ब कि वंदना करके आत्मगुणों का चिंतन करने लगा..तभी वहां पर युगमंधर तीर्थंकर के समवोशरण में से दो मुनिराज आ रहे थे..मंत्री ने मुनिराज से राजा महाबल कि भव्य और अभाव्यता के बारे में पुछा..उनमें से आदित्य गति नामक मुनिराज ने बताया कि "राजा महाबल भव्य हैं...और इतना ही नहीं वह दसवें भाव से ऋषभ देव नाम के भरत क्षेत्र कि आगामी चौबीसी में तीर्थंकर होंगे..और सुनो राजा ने धर्म के बीज पूर्व भाव में ही बो दिए हैं..और भोगों के बीज भी बो दिए थे...राजा महाबल पूर्व भव में विदेह क्षेत्र में जयवर्मा नाम के राज्य पुत्र थे..उनके छोटे भाई...श्री वर्मा थे...और वह प्रजा के प्रिय थे...इस कारण राज्य गद्दी उनको मिल गयी..और वह इस कारण अपनी उपेक्षा से विरक्त होकर मुनि बन गए..जब मुनि बनकर तप करने लगे..तभी उन्होंने एक विद्याधर कि विभूति को देखकर आकर्षित हो गए...और ऐसे भाव आये कि अगले भवों में मैं इसे पाऊं..लेकिन उसी समय एक बड़े से भयंकर सापं ने शरीर को काट लिया...और उनका जीव वहां से चय कर विद्याधर राजा हुआ..जो कि महाबल हैं..जिनके राज्य में तुम मंत्री हो..हे मंत्री...आज तुम्हारे राजा को दो सपने आये हैं..एक कि राजा के दरबार के वह तीनों मंत्री राजा महाबल को कीचड में डाल रहे हैं..और तुमने उन्हें निकाला है और अभिषेक किया है..दूसरा उन्होंने देखा है..कि तीव्र गति से जलने वाली अग्नि जीर्ण शीर्ण हो रही है..इनमें से एक सपना राजा कि स्वर्ग कि विभूति का सूचक है..और दूसरा आयु सिर्फ एक माह बची है उसका सूचक है..हे मंत्री आप इन सपनो का अर्थ राजा को बताओ..तब वहां से मुनि चले जाते हैं..और मंत्री राजा को सपने का फल बताने जाता है..और कहता है"कि जिनेन्द्र देव के द्वारा बताया गया धर्म ही हर दुःख का नाश करने वाला है..इसलिए वीतराग धर्म को धारण करो"...राजा महाबल संन्यास लेते हैं..और स्वयंबुद्ध मंत्री को समाधी निर्यापक बनाते हैं...और राजा का जीव समता भाव से प्राण त्याग करते हैं..और वहां से चय कर दुसरे ईशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में ललितांग नाम के देव होते हैं.
पीछे से आठवा भव
-ललितांग देव
राजा महाबल का जीव..और ऋषभ देव तीर्थानाक्र का जीव जो कि आठ भाव पहले ललितांग नाम के देव होते हैं..स्वर्ग कि विभूति को देखकर आश्चर्यचकित होते हैं..जब ही एकदम से अवधि ज्ञान प्रकट होता है..और पूर्व भव को जान जाते है..वहां जब शेष आयु रह जाती है..तब स्वयंप्रभा नाम की देवी मिलती हैं...और वह उनकी प्रिय हो जाती हैं..वह उनके साथ नंदन वन,नन्दीश्वर दीप,कुण्डलपुर की पहाड़ियां,मानुषोत्तर पर्वत अदि पर जिन बिम्ब की वंदना करते हैं...६ महीने पहले आँखे कमजोर पड़ जाती है..और आभूषण अदि में तेज नहीं दीखता है..कल्पवृक्ष कम्पायमान दिखते हैं..अन्य देव मृत्यु के बारे में बताते हैं..वह भयभीत हो जाते हैं..लेकिन अन्य देव धैर्य बंधाते हैं...और कहते हैं धर्म का सहारा लो...इस प्रकार ललितंग देव का जीव नमोकार पढ़ते पढ़ते शरीर को त्यागते हैं..देह अदृश्य हो जाता है,विलय हो जाती है.
आखिरी से सातवाँ भव-राजा व्रजघंघ
पूर्व विदेह क्षेत्र में एक पुष्कलावती नाम का देश है..उसमें उत्पल्खेटक नाम की नगरी है..उस नगरी में व्रजबाहू नाम का राजा था..उसके यहाँ एक पुत्र रत्न हुआ जिसका नाम उन्होंने "व्रजघंघ " रखा..जो आदिनाथ भगवन का सात भव पहले काया यों कह लें की जो ललितांग देव का जीव था...उसी विदेह क्षेत्र पुण्डरीकीर्णी नाम की नगरी में एक वज्रदंत नाम का राजा था..उसके यहाँ पुत्री रत्न आई..जिसका नाम उन्होंने श्रीमती रखा..जो स्वयं-प्रभा देवी का जीव है..
राजा वज्रदंत चक्रवती के पिताजी यशोधर मुनिराज को केवल ज्ञान हो गया.तभी देवों के विमान वहां पर उत्सव बनाने आये..विमानों के देखकर श्रीमती पूर्व भव सम्बन्धी याद कर के बेहोश हो गयी..तभी एक पंडिता नाम की एक चतुर्द्हाय माता ने उन्हें सचेत किया..और पूर्व भव से सम्बंधित एक चित्र बनवा लिया..और कहा की जो इस चित्र के गूढ़ अर्थ को समझ ले..वह ही ललितांग देव का जीव होगा.
राजा वज्रदंत को दो खुशखबरी मिल रही थी..एक तोह आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है..और दूसरा यशोधर मुनिराज को केवल ज्ञान हुआ है...बड़े भावों से वज्रदंत चक्रवती ने यशोधर मुनिराज की प्रथम केवल ज्ञान की पूजा में जाने का निर्णय लिया..और वंदना करते ही..उन्हें अवधि ज्ञान हो गया..विशुद्ध भावों से की हुई वंदना बहुत शुभ फल दायक होती है..जिसके कारण उन्होंने ललितांग देव,श्रीमती और खुद के विषय में जान लिया..वह राजमहल वापिस आये तोह उन्होंने पुत्री को समझाया और पूर्व भवों के विषय में बताया..और कहा की"मैं पूर्व भव में अच्युत स्वर्ग का देव था...तभी दो इन्द्र मेरे पास आये थे..और बोले थे की हम युग्मंधर तीर्थंकर के दर्शन करके आ रहे हैं..जिससे हमें सम्यकदर्शन हुआ है...इसलिए आप उनका चरित्र हमसे कहें..उन देवों के साथ अन्य देव भी आये थे..जिनमें तुम और ललितांग देव भी थे..जिसके कारण सबको सम्यक-दर्शन हुआ और तुम्हे अतिशय धर्म लाभ हुआ..हे पुत्री ललितांग देव का जीव इसी विदेह क्षेत्र में उत्पल्खेटक नाम की नगरी में RAJ
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