Thursday, July 14, 2011

indriya janya sukha are not sukh

विकल्प दो प्रकार के होते है:

१) ज्ञानात्मक - में पर का नही हू, पर मेरा नही है, पर मेरा न था, मेरा न होगा, न रहेगा, में तो चैतन्य स्वरूपी ज्ञायक तत्त्व हूँ, ऐसे विकल्प को ज्ञानात्मक विकल्प कहते है. इन विकल्पों में राग तो है, लेकिन यह राग भक्ति, पूजा आदि करते समय जो राग होता है उससे अलग है.

२) कषायात्मक - मुझे ये चाहिए, मुझे यह छोड़ना है आदि जो कषाय युक्त विकल्प है.

यह कथन " नीज आत्मा को अरिहंत और सिद्ध के रूप में चिंतन किया जाय तो वह चरम शरीरी को मुक्ति प्रदान करते है ", इस को परम्परा कारण से कथन मानना, क्योंकि अगर चरम शरीरी नही है तो यह चिंतन तो देव गति का ही कारण बनता है और अगर शुक्ल ध्यान में जाएगा तो चिंतन का प्रश्न ही नही रहता.

धर्मं ध्यान में व्यक्त राग का सदभाव होता है और शुक्ल ध्यान में व्यक्त राग का आभाव और अव्यक्त राग का सदभाव होता है.
इसके बाद हमने नम्बर ६ के विशेषार्थ (पृष्ठ ७ का अन्तिम पारा) और अर्थ पढ़े.
इसमे यह बात आई हुई है की जो इन्द्रियजनित सुख या दुःख मालूम पड़ते है, वह वास्तव में सुख या दुःख नही है किन्तु वासना मात्र है.

वासना किसे कहते है?
पर का निमित्त पाकर जो परिणाम होते है उसे वासना कहते है
जो ५ इन्द्रिय के विषय में सुहावने लगने रूप परिणाम है सो ही सुख है ऐसा प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में तो यह सुख काल्पनिक है क्योंकि यह विषय सुख रूप तब ही लगते है जब उनके प्रति राग भाव हो और वह ही विषय दुःख रूप लगते है जब उनके प्रति द्वेष भाव हो, और जब राग या द्वेष कोई भी भाव न हो, तो न तो वह सुख रूप लगते है और न तो दुःख रूप. ऐसे काल्पनिक सुख-दुःख उन्ही को होते है, जो की देह को परमार्थ से अपनी मानते है. ऐसे जीव बहिरात्मा होते है. ज्ञानीजन भी देह को अपनी मानते है, किन्तु उपचार से (अनुपचरित असदभुत व्यवहार नय से).

यह बात २ उदहारण द्वारा समजाइ गई है.

१) एक पति को कोई काल में अपनी पत्नी की बातें व चेष्टा अची लगती है, तब पत्नी के प्रति वह राग रूप परिणामित हुआ होता है. लेकिन कोई काल में किसी और विचारो से जब वह चींटी होता है, तब वही पत्नी की बातें उसे संताप देने वाली लगती है.

२) एक चिडिया जब अपने बच्चे के साथ रहती है, तब उसे दोपहार के सूरज की कड़ी धुप भी सुहावनी लगती है, लेकिन जब वह अपने बच्चे से बिछूड जाती है, तब रात्रि के चंद्रमा की शीतल किरणे भी उसे असहाय लगने लगती है.

इससे निष्कर्ष यही निकलता है की बाहर के कोई भी विषय न तो इष्ट है न तो अनिष्ट है, लेकिन अपनी राग कषाय से सुखदाय या राग से दुख्दय मानते है, लेकिन परमार्थ से न तो वह सुखदायक है न तो वह दुखदायक है. इसलिए यह सब इन्द्रियजनित सुख काल्पनिक है

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