६ ढाला
छठी ढाल
यह राग आग दहै सदा तातैं समामृत सेइये
चिर भजे विषय कषाय,अब तोह त्याग निजपद बेइये
कहाँ रच्यो पर पद में न तेरो पद यह क्यों दुःख सहे
दौल होऊं सुखी निजपद रूचि दाव न चूको यह
शब्दार्थ
१.आग-अग्नि
२.दहै-जलाती है
३.तातैं-इसलिए
४.समामृत-समता भाव रुपी अमृत
५.सेइये-पीजिये
६.चिर-अनंत काल से
७.भजे-पुष्ट किये..लगा रहा
८.निजपद-आत्मा स्वरुप का ध्यान,निज स्वरुप का ध्यान
९.बेइये-ध्यान करो
१०.कहाँ रच्यो-कहाँ खो गए हो
११.पर पद-पर पदार्थ में-शारीर में
१२.न तेरो पद यह-यह तेरा स्वरुप नहीं है
१३.दौल होऊं सुखी-दौलत राम सुखी होऊं
१४.निज पद रूचि-अपने स्वरुप में रूचि रख कर
१५.दाब-मौका
१६.चुको-मत खोना है
भावार्थ
कविवर दौलत राम जी अपने आप को संबोधते हुए कह रहे हैं की ..यह राग-द्वेष रुपी आग हमेशा जलाती है..और अनंत काल से जला रही है..अब तोह इसे त्याग कर समता भाव रुपी अमृत पियो..मैंने अनंत काल से विषय-कषायों को ही तोह भज है..इन्ही में तोह रहा हूँ..और उसके कारण दुःख सहा है..अब तोह इन्हें त्याग कर निजस्वरूप को ध्यान करू..मैं कहाँ पर पदार्थ में अचेतन वस्तुओं में..शरीर में रच रहा हूँ..यह मेरा पद नहीं है..तोह मैं इसके चक्कर में क्यों दुखी हो रहा हूँ.इन पर-पदार्थों के चक्कर में दुःख सह रहा हूँ...अब मैं सुखी होऊंगा..तोह निजपद में रूचि रखकर..इस दुर्लभ अवसर को नहीं खोना है.
रचयिता-कविवर दौलत राम जी
लिखने का आधार-स्वाध्याय(६ ढाला,संपादक-पंडित श्री रत्न लाल बैनाडा जी,डॉ शीतल चंद जैन जी)
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.
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