Monday, August 1, 2011

jeev tatva-jeev are anant


संसार में जीव अनन्त हैं

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यहां पर एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि इस संसार में विद्यमान जीवराशि में से कर्म क्षय करके जीव मुक्ति में गए हैं, जाते हैं और जाएँगे, इस प्रकार प्रतिक्षण संसार में से जीव कम होते जा रहे हैं, ऐसी स्थिति में भविष्य में कोई समय ऐसा क्यों नहीं आ सकता जब यह संसार जीवों से खाली हो जाय?
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इस प्रश्न के समाधान का विचार करने से पूर्व एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि संसार जीवों से रहित हो जाय यह किसी भी शास्त्र को मान्य नहीं है। हमारी विचारदृष्टि में भी यह बात नहीं आती। दूसरी ओर मुक्ति में से जीव संसार में वापिस लौटे यह बात भी मानी जा सके ऐसी नहीं है; क्योंकि यह तो सब कोई मानते हैं कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने पर ही मोक्ष मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसके कारण संसार में जन्म लेना पड़ता है वह कर्म-सम्बन्ध किसी भी रूप में जब मुक्त जीवों के साथ नहीं होता तो फिर वे संसार में वापिस कैसे आ सकते हैं? यदि मोक्ष में से वापिस लौटना माना जाय तो फिर मोक्ष का महत्त्व ही लुप्त हो जायगा। जहां से पुनः पतन का प्रसंग उपस्थित हो उसे मोक्ष ही नहीं कह सकते। अतएव प्रस्तुत प्रश्न का समाधान करते समय यह ध्यान में रखना आवश्यक प्रतीत होता है कि संसार जीवों से शून्य नहीं होता और मोक्ष में से जीव वापिस लौटते भी नहीं-इन दो सिद्धान्तों को किसी प्रकार की क्षति न पहुंचने पाए। शास्त्र कहते हैं कि जितने जीव मोक्ष में जाते हैं उतने जीव संसार में से अवश्य कम होते जाते हैं ; फिर भी जीवराशि अनन्त होने के कारण संसार जीवों से शून्य हो ही नहीं सकता। संसारवर्ती जीवराशि में नए जीवों का समावेश सर्वथा न होने पर भी और संसार में से जीवों की निरन्तर कमी होती रहने पर भी भविष्य में किसी भी समय जीवों का अन्त न आए इतने अनन्त जीव समझने चाहिए। इस प्रकार की `अनन्त' शब्द की व्याख्या शास्त्र करते हैं। सूक्ष्म में सूक्ष्म (अविभाज्य) काल को जैनशास्त्रों में `समय' कहते हैं। `समय' इतना सूक्ष्म काल है कि एक सेकण्ड में वे कितने बीत जाते हैं यह हम जान ही नहीं सकते। ऐसे समग्र भूत-भविष्य काल के समय अनन्तानन्त हैं, इसी प्रकार संसारवर्ती जीव भी अनन्तानन्त हैं जिनकी किसी भी काल में समाप्ति होने की संभावना ही नहीं है। [प्रस्तुत दृष्टान्त से जीवों की अनन्तता की कुछ कल्पना आ सकती है।]

जीव के विभाग

सामान्यतः जीव के दो भेद हैं - संसारी और मुक्त। संसार में भ्रमण करनेवाले जीव संसारी कहलाते हैं। संसार शब्द `सम्' उपसर्गपूर्वक `सृ' धातु से बना है। `सृ' धातु का अर्थ गमन, भ्रमण होता है। `सम्' उपसर्ग उसी अर्थ को पुष्ट करनेवाला है। अतः `संसार' शब्द का अर्थ हुआ भ्रमण। ८४ लाख जीवयोनियों में अथवा चार गतियों में परिभ्रमण करने का नाम संसार है और परिभ्रमण करनेवाला जीव संसारी कहलाता है। दूसरी तरह संसार शब्द का अर्थ ८४ लाख जीवयोनि अथवा चार गति भी हो सकता है। शरीर का नाम भी संसार है। इस प्रकार संसार में आबद्ध जीव संसारी कहे जाते हैं। आत्मा की कर्मबद्ध अवस्था ही `संसार' शब्द का मूलभूत अर्थ है। इस पर से संसारी जीव का यह लक्षण बराबर समझ में आ सकता है।

संसारी जीवों के अनेक प्रकार से भेद किए जा सकते हैं। परन्तु मुख्य दो भेद हैं - स्थावर एवं त्रस। दुःख दूर करने की तथा सुख प्राप्त करने की प्रवृत्तिचेष्टा-गतिचेष्टा जहां पर नहीं है वे स्थावर और जहां पर है वे त्रस। पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पांच का स्थावर में समावेश होता है। ये पृथ्वीकाय आदि पांच एक स्पर्शन (त्वचा) इन्द्रियवाले होने के कारण एकेन्द्रिय कहलाते हैं। इनके भी दो भेद हैं - सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म जलकाय, सूक्ष्म तेजस्काय, सूक्ष्म वायुकाय और सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। ये अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण अपनी चक्षु से हम इन्हें देख नहीं सकते। बादर (स्थूल) पृथ्वीकाय, बादर जलकाय, बादर तेजस्काय, बादर वायुकाय तथा बादर वनस्पतिकाय प्रत्यक्ष देखने में आते हैं। घर्षण, छेदन आदि प्रहार जिस पर न हुआ हो वैसी मिट्टी, पत्थर आदि पृथ्वी जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं उन जीवों को बादर पृथ्वीकाय समझना। जिस जल को अग्नि आदि से आघात न पहुंचा हो अथवा अन्य किसी वस्तु के मिश्रण का जिस पर प्रभाव न पड़ा हो वैसा जल कुआं, नदी, तालाब आदिका जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर जलकाय जीव हैं। इसी प्रकार दीपक, अग्नि, बिजली आदि जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर तेजस्काय जीव हैं। अनुभूयमान वायु जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर वायुकाय हैं। और वृक्ष, शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प, कन्द आदि बादर वनस्पतिकाय हैं।

उपर्युक्त सचेतन पृथ्वी को छेदन-भेदन आदि आघात लगने से उनमें रहे हुए जीव उनमें से च्युत हो जाते हैं और इस प्रकार वह पृथ्वी अचेतन (अचित्त) बन जाती है। इसी प्रकार पानी को गरम करने से अथवा उसमें शक्कर आदि पदार्थों का मिश्रण करने से वह पानी अचेतन हो जाता है। इसी प्रकार वनस्पति भी अचेतन बन सकती है।

दो इन्द्रियां-त्वचा और जीभ जिन्हें होती हैं वे द्वीन्द्रिय कहे जाते हैं। कृमि, केंचुआ, जोंक, शङ्ख आदि का द्वीन्द्रिय में समावेश होता है। जूं, खटमल, चींटी, इन्द्रगोप आदि त्वचा, जीभ और नाक इन तीन इन्द्रियोंवाले होने के कारण त्रीन्द्रिय कहे जाते हैं। त्वचा, जीभ, नाक और आंख-इनचार इन्द्रियोंवाले मक्खी, मच्छर, भौंरे, टिड्डी, बिच्छू आदि चतुरिन्द्रिय कहलाते हैं। त्वचा, जीभ, नाक, आंख और कान इन पांच इन्द्रियोंवाले जीव पंचेन्द्रिय कहे जाते हैं। पंचेन्द्रिय जीव के चार भेद हैं- (१) मनुष्य, (२) पशु, पक्षी, मत्स्य, सर्प, नकुल आदि तिर्यंच, (३) स्वर्ग में रहनेवाले देवता, तथा (४) नरक में रहनेवाले नारक।

त्रसमें इन द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों का समावेश होता है।

इस प्रकार स्थावर एवं त्रस में सम्पूर्ण संसारी जीव समाविष्ट हो जाते हैं। अब रहे मुक्त जीव। उनका वर्णन मोक्षतत्त्व के प्रकरण में किया जायेगा।

अजीव

चैतन्यरहित-जड़ पदार्थों को अजीव कहते हैं। जैन शास्त्रों में अजीव के पांच भेद किए गए हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल।

यहां पर धर्म और अधर्म ये दो तत्त्व पुण्य और पापरूप समझने के नहीं हैं, किन्तु इन नामों के ये दो भिन्न ही पदार्थ हैं। ये पदार्थ (द्रव्य) आकाश की भांति सम्पूर्ण लोक में व्यापक हैं, और अरूपी हैं। इन दो पदार्थों का उल्लेख किसी भी जैनेतर दर्शन में नहीं है। जैनशास्त्रों में ही इनका प्रतिपादन है। जिस प्रकार अवकाश देने के कारण आकाश का अस्तित्व सब विद्वान् मानते हैं उसी प्रकार ये दो पदार्थ भी जैनशास्त्रों में सहेतुक माने गए
 
 
जीव

जिस प्रकार दूसरे पदार्थ प्रत्यक्ष दिखते हैं उस प्रकार जीव प्रत्यक्ष नहीं दिखता, परन्तु वह स्वानुभव-प्रमाण से जाना जा सकता है। `मैं सुखी हूं', `मैं दुःखी हूं' ऐसा संवेदन शरीर को नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो पृथ्वी आदि पञ्चभूतों का बना हुआ है। यदि शरीर को आत्मा माना जाय तो मृत शरीर में भी ज्ञान का प्रकाश क्यों न माना जाय? मृत शरीर को ...भी सजीव शरीर क्यों न कहा जाय? परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि इच्छा, अनुभूति आदि गुण मृतक शरीर में नहीं होते। इससे सिद्ध होता है कि इन गुणों का उपादान शरीर नहीं, किन्तु कोई दूसरा ही तत्त्व है और उसी का नाम आत्मा है। शरीर पृथ्वी आदि भूतसमूह का बना हुआ होने के कारण भौतिक है अर्थात् वह जड़ है; और जिस प्रकार भौतिक घट, पट आदि जड़ पदार्थों में ज्ञान, इच्छा आदि धर्मों का अस्तित्व नहीं है उसी प्रकार जड़ शरीर भी ज्ञान, इच्छा आदि गुणों का उपादानरूप आधार नहीं हो सकता।

शरीर में पांच इन्द्रियां हैं, परन्तु इन इन्द्रियों को साधन बनानेवाला आत्मा इन इन्द्रियों से भिन्न है; क्योंकि इन्द्रियों द्वारा आत्मा रूप, रस आदि जानता है। वह चक्षु से रूप देखता है, जीभ से रस ग्रहण करता है, नाक से गन्ध लेता है, कान से शब्द सुनता है, त्वचा (चमड़ी) से स्पर्श करता है। उदाहरणार्थ, जिस प्रकार चाकू से कलम बनाई जाती है, परन्तु चाकू और बनानेवाला दोनों भिन्न हैं; हँसुए से घास आदि काटा जाता है परन्तु हँसुआ और काटनेवाला दोनों भिन्न हैं; दीपक से देखा जाता है परन्तु दीपक और देखनेवाला दोनों जुदा जुदा हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों से रूप, रस आदि विषय ग्रहण किए जाते हैं, परन्तु इन्द्रियग्राम और विषयों को ग्रहण करनेवाला दोनों भिन्न ही हैं। साधक को साधन की अपेक्षा होती है, परन्तु इससे साधक और साधन ये दोनों एक नहीं हो सकते। इन्द्रियां आत्मा को ज्ञान प्राप्त कराने में साधनभूत हैं। अतः साधनभूत इन्द्रियां और उनके द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेवाला आत्मा दोनों एक नहीं हो सकते। मृत शरीर में इन्द्रियों का अस्तित्व होने पर भी मृतक को उनसे किसी प्रकार का ज्ञान नहीं होता-इसका क्या कारण है? इस परसे यही प्रतीत होता है कि इन्द्रियां और उनसे ज्ञान प्राप्त करनेवाला आत्मा दोनों पृथक् ही हैं। इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इन्द्रियों को यदि आत्मा माना जाय तो एक शरीर में पांच आत्मा मानने पड़े और यह अघटित ही है।

दूसरी दृष्टि से देखें तो जिस मनुष्य की आंख नष्ट हो गई है उसे भी पहले अर्थात् आंख के अस्तित्वकाल में देखे हुए पदार्थों का स्मरण होता है। किन्तु इन्द्रियों को आत्मा मानने पर यह सम्भव नहीं हो सकता। इन्द्रियों से आत्मा को पृथक् माने पर ही यह घट सकता है, क्योंकि आंख से देखी हुई वस्तु का स्मरण आंख के अभाव में न तो आंख से ही हो सकता है और न दूसरी इन्द्रियों से ही। दूसरी इन्द्रियों से स्मरण न होने में कारण यह है कि जिस प्रकार एक मनुष्य द्वारा देखी हुई वस्तु का स्मरण दूसरा नहीं कर सकता उसी प्रकार आंख से देखे हुए पदार्थ का स्मरण दूसरी इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता। एक का अनुभव दूसरे को स्मरण करने में कारणभूत नहीं हो सकता-यह समझी जा सके ऐसी सुगम बात है। इससे यही फलित होता है कि आंख से देखी हुई वस्तुओं का, आंख के नष्ट होने पर भी, स्मरण करनेवाली जो शक्ति है वह चैतन्यस्वरूप आत्मा ही है। आत्माने चक्षुरिन्द्रिय द्वारा जिन वस्तुओं को पहले देखा था उन्हीं वस्तुओं का चक्षुरिन्द्रिय के अभाव में भी पूर्व अनुभव से उत्पन्न संस्कार के उद्बोधन के द्वारा वह स्मरण कर सकता है। इस प्रकार अनुभव एवं स्मरण के (जो अनुभव करता है वही स्मरण करता है-इस प्रकार के) घनिष्ट सम्बन्ध से भी स्वतंत्र चैतन्यस्वरूप आत्मा सिद्ध होता है।

`अमुक वस्तु देखने के पश्चात् मैंने उसका स्पर्श किया, तदनन्तर मैंने वह सूंघी, फिर चक्खी'-ऐसा अनुभव मनुष्य को हुआ करता है। इस अनुभव के ऊपर विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस वस्तु को देखनेवाला, छूनेवाला, सूंघनेवाला और चखनेवाला भिन्न नहीं, किन्तु एक ही है। परन्तु वह एक कौन है? वह आंख नहीं हो सकती, क्योंकि उसका कार्य केवल देखने का ही है, छूने आदि का नहीं। वह स्पर्शन-इन्द्रिय (त्वचा) भी नहीं हो सकती, क्योंकि उसका कार्य सिर्फ छूने का ही है, देखने आदि का नहीं। इसी प्रकार वह नाक अथवा जीभ भी नहीं हो सकती, क्योंकि नाक का कार्य केवल सूंघने का और जीभ का कार्य केवल चखने का ही है। इससे यह निःशंक सिद्ध होता है कि वस्तु को देखनेवाला, छूनेवाला, सूंघनेवाला और चखनेवाला जो एक है वह इन्द्रियों से भिन्न आत्मा ही है।

आत्मा में कृष्ण, श्वेत, पीत आदि कोई वर्ण नहीं है, अतः वह दूसरी वस्तुओं की भांति प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। प्रत्यक्ष न होने के कारण वह कोई वस्तु ही नहीं है ऐसा नहीं माना जा सकता। परमाणु भी चर्मचक्षु से नहीं दिखते, फिर भी अनुमान प्रमाण से उनका अस्तित्व माना जाता है। स्थूल कार्य की निष्पत्ति के लिये सूक्ष्म-परम सूक्ष्म अणुओं के अस्तित्व की सिद्धि अनुमान प्रमाण पर ही अवलम्बित है। परमाणु मूर्त-रूपी होने पर भी यदि प्रत्यक्षगम्य नहीं हैं तो फिर अमूर्त-अरूपी आत्मा कैसे प्रत्यक्ष दीख सकता है? ऐसा होने पर भी यह एक समझने की बात है कि संसार में कोई सुखी तो कोई दुःखी, कोई विद्वान् तो कोई मूर्ख, कोई सेठ तो कोई नौकर-इस प्रकार की अनन्त विचित्रताएं दृष्टिगोचर होती हैं। यह तो प्रत्येक व्यक्ति समझ सकता है कि बिना कारण ये विलक्षणताएं सम्भव नहीं हो सकतीं। शतशः प्रयत्न करने पर भी बुद्धिशाली मनुष्य को इष्ट वस्तु प्राप्त नहीं होती, जब कि दूसरे मनुष्य को बिना प्रयत्न के ही अभीष्ट लाभ मिल जाता है। ऐसी अनेकानेक घटनाएँ हमारी दृष्टि के सामने ही होती हैं। एक ही स्त्री की कुक्षि से साथ ही उत्पन्न युगल में से दोनों प्राणी एकजैसे नहीं होते। उनकी जीवनचर्या एक-दूसरे की अपेक्षा अत्यन्त भिन्न होती है। तो प्रश्न यह होता है कि इन सब विचित्रताओं का कारण क्या है? ऐसा नहीं हो सकता कि ये सब घटनाएँ अनियमित हों। इनका कोई-न-कोई नियामक-प्रयोजक होना चाहिए। इस परसे तत्त्वज्ञ महात्माओंने कर्म का अस्तित्व सिद्ध किया है; और कर्म के अस्तित्व के आधार पर आत्मा स्वतः सिद्ध होता है, क्योंकि आत्मा को सुख-दुःख देनेवाला कर्मपुञ्ज आत्मा के साथ अनादिकाल से संयुक्त है और इसीके कारण आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है। कर्म एवं आत्मा की सिद्धि हो जाने पर परलोक की सिद्धि के लिये कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता। जैसा शुभ अथवा अशुभ कार्य जीव करता है वैसा ही परलोक (पुनर्जन्म) उसे मिलता है। जिस प्रकार की शुभ अथवा अशुभ क्रिया की जाती है उसी प्रकार की `वासना' आत्मा में स्थापित हो जाती है। यह वासना विभिन्न प्रकार के परमाणुसमूहों का एक समुच्चय ही है। इसीको दूसरे शब्द में `कर्म' कहते हैं। इस प्रकार के नए नए कर्म आत्मा के साथ बंधते रहते हैं और पुराने कर्म अपना समय पूर्ण होने पर झड़ते जाते हैं। शुभ अथवा अशुभ क्रिया द्वारा बंधनेवाले शुभ अथवा अशुभ कर्म परलोक तक, अरे! अनेकानेक जन्मों तक फल दिए बिना ही आत्मा के साथ संयुक्त रहते हैं और फलविपाक के उदय के समय अच्छे या बुरे फलों का अनुभव आत्मा को कराते हैं। फल-विपाक के उपभोग की जब तक अवधि होती है तब तक आत्मा उस फल का अनुभव करता है और अनुभव हो जाने के पश्चात् वह कर्म आत्मा पर से झड़ जाता है। इस पर से यही फलित होता है कि वर्तमान जीवन और परलोक की गति इस `कर्म' के बल पर अवलम्बित हैं।

उपर्युक्त युक्ति-प्रमाणों द्वारा तथा `मैं सुखी हूँ,' `मैं दुःखी हूँ' ऐसी शरीर में नहीं, इन्द्रियों में नहीं, किन्तु हृदय के अन्तस्तम प्रदेश में अर्थात् अन्तरात्मा में सुस्पष्ट अनुभूयमान जो संवेदना, जो कि प्रत्यक्ष प्रमाणरूप है, उसके द्वारा भी शरीर एवं इन्द्रियों से भिन्न स्वतंत्र आत्मतत्त्व सिद्ध होता है।

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