संसार में जीव अनन्त हैं
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यहां पर एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि इस संसार में विद्यमान जीवराशि में से कर्म क्षय करके जीव मुक्ति में गए हैं, जाते हैं और जाएँगे, इस प्रकार प्रतिक्षण संसार में से जीव कम होते जा रहे हैं, ऐसी स्थिति में भविष्य में कोई समय ऐसा क्यों नहीं आ सकता जब यह संसार जीवों से खाली हो जाय?
...
इस प्रश्न के समाधान का विचार करने से पूर्व एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि संसार जीवों से रहित हो जाय यह किसी भी शास्त्र को मान्य नहीं है। हमारी विचारदृष्टि में भी यह बात नहीं आती। दूसरी ओर मुक्ति में से जीव संसार में वापिस लौटे यह बात भी मानी जा सके ऐसी नहीं है; क्योंकि यह तो सब कोई मानते हैं कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने पर ही मोक्ष मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसके कारण संसार में जन्म लेना पड़ता है वह कर्म-सम्बन्ध किसी भी रूप में जब मुक्त जीवों के साथ नहीं होता तो फिर वे संसार में वापिस कैसे आ सकते हैं? यदि मोक्ष में से वापिस लौटना माना जाय तो फिर मोक्ष का महत्त्व ही लुप्त हो जायगा। जहां से पुनः पतन का प्रसंग उपस्थित हो उसे मोक्ष ही नहीं कह सकते। अतएव प्रस्तुत प्रश्न का समाधान करते समय यह ध्यान में रखना आवश्यक प्रतीत होता है कि संसार जीवों से शून्य नहीं होता और मोक्ष में से जीव वापिस लौटते भी नहीं-इन दो सिद्धान्तों को किसी प्रकार की क्षति न पहुंचने पाए। शास्त्र कहते हैं कि जितने जीव मोक्ष में जाते हैं उतने जीव संसार में से अवश्य कम होते जाते हैं ; फिर भी जीवराशि अनन्त होने के कारण संसार जीवों से शून्य हो ही नहीं सकता। संसारवर्ती जीवराशि में नए जीवों का समावेश सर्वथा न होने पर भी और संसार में से जीवों की निरन्तर कमी होती रहने पर भी भविष्य में किसी भी समय जीवों का अन्त न आए इतने अनन्त जीव समझने चाहिए। इस प्रकार की `अनन्त' शब्द की व्याख्या शास्त्र करते हैं। सूक्ष्म में सूक्ष्म (अविभाज्य) काल को जैनशास्त्रों में `समय' कहते हैं। `समय' इतना सूक्ष्म काल है कि एक सेकण्ड में वे कितने बीत जाते हैं यह हम जान ही नहीं सकते। ऐसे समग्र भूत-भविष्य काल के समय अनन्तानन्त हैं, इसी प्रकार संसारवर्ती जीव भी अनन्तानन्त हैं जिनकी किसी भी काल में समाप्ति होने की संभावना ही नहीं है। [प्रस्तुत दृष्टान्त से जीवों की अनन्तता की कुछ कल्पना आ सकती है।]
जीव के विभाग
सामान्यतः जीव के दो भेद हैं - संसारी और मुक्त। संसार में भ्रमण करनेवाले जीव संसारी कहलाते हैं। संसार शब्द `सम्' उपसर्गपूर्वक `सृ' धातु से बना है। `सृ' धातु का अर्थ गमन, भ्रमण होता है। `सम्' उपसर्ग उसी अर्थ को पुष्ट करनेवाला है। अतः `संसार' शब्द का अर्थ हुआ भ्रमण। ८४ लाख जीवयोनियों में अथवा चार गतियों में परिभ्रमण करने का नाम संसार है और परिभ्रमण करनेवाला जीव संसारी कहलाता है। दूसरी तरह संसार शब्द का अर्थ ८४ लाख जीवयोनि अथवा चार गति भी हो सकता है। शरीर का नाम भी संसार है। इस प्रकार संसार में आबद्ध जीव संसारी कहे जाते हैं। आत्मा की कर्मबद्ध अवस्था ही `संसार' शब्द का मूलभूत अर्थ है। इस पर से संसारी जीव का यह लक्षण बराबर समझ में आ सकता है।
संसारी जीवों के अनेक प्रकार से भेद किए जा सकते हैं। परन्तु मुख्य दो भेद हैं - स्थावर एवं त्रस। दुःख दूर करने की तथा सुख प्राप्त करने की प्रवृत्तिचेष्टा-गतिचेष्टा जहां पर नहीं है वे स्थावर और जहां पर है वे त्रस। पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पांच का स्थावर में समावेश होता है। ये पृथ्वीकाय आदि पांच एक स्पर्शन (त्वचा) इन्द्रियवाले होने के कारण एकेन्द्रिय कहलाते हैं। इनके भी दो भेद हैं - सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म जलकाय, सूक्ष्म तेजस्काय, सूक्ष्म वायुकाय और सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। ये अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण अपनी चक्षु से हम इन्हें देख नहीं सकते। बादर (स्थूल) पृथ्वीकाय, बादर जलकाय, बादर तेजस्काय, बादर वायुकाय तथा बादर वनस्पतिकाय प्रत्यक्ष देखने में आते हैं। घर्षण, छेदन आदि प्रहार जिस पर न हुआ हो वैसी मिट्टी, पत्थर आदि पृथ्वी जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं उन जीवों को बादर पृथ्वीकाय समझना। जिस जल को अग्नि आदि से आघात न पहुंचा हो अथवा अन्य किसी वस्तु के मिश्रण का जिस पर प्रभाव न पड़ा हो वैसा जल कुआं, नदी, तालाब आदिका जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर जलकाय जीव हैं। इसी प्रकार दीपक, अग्नि, बिजली आदि जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर तेजस्काय जीव हैं। अनुभूयमान वायु जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर वायुकाय हैं। और वृक्ष, शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प, कन्द आदि बादर वनस्पतिकाय हैं।
उपर्युक्त सचेतन पृथ्वी को छेदन-भेदन आदि आघात लगने से उनमें रहे हुए जीव उनमें से च्युत हो जाते हैं और इस प्रकार वह पृथ्वी अचेतन (अचित्त) बन जाती है। इसी प्रकार पानी को गरम करने से अथवा उसमें शक्कर आदि पदार्थों का मिश्रण करने से वह पानी अचेतन हो जाता है। इसी प्रकार वनस्पति भी अचेतन बन सकती है।
दो इन्द्रियां-त्वचा और जीभ जिन्हें होती हैं वे द्वीन्द्रिय कहे जाते हैं। कृमि, केंचुआ, जोंक, शङ्ख आदि का द्वीन्द्रिय में समावेश होता है। जूं, खटमल, चींटी, इन्द्रगोप आदि त्वचा, जीभ और नाक इन तीन इन्द्रियोंवाले होने के कारण त्रीन्द्रिय कहे जाते हैं। त्वचा, जीभ, नाक और आंख-इनचार इन्द्रियोंवाले मक्खी, मच्छर, भौंरे, टिड्डी, बिच्छू आदि चतुरिन्द्रिय कहलाते हैं। त्वचा, जीभ, नाक, आंख और कान इन पांच इन्द्रियोंवाले जीव पंचेन्द्रिय कहे जाते हैं। पंचेन्द्रिय जीव के चार भेद हैं- (१) मनुष्य, (२) पशु, पक्षी, मत्स्य, सर्प, नकुल आदि तिर्यंच, (३) स्वर्ग में रहनेवाले देवता, तथा (४) नरक में रहनेवाले नारक।
त्रसमें इन द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों का समावेश होता है।
इस प्रकार स्थावर एवं त्रस में सम्पूर्ण संसारी जीव समाविष्ट हो जाते हैं। अब रहे मुक्त जीव। उनका वर्णन मोक्षतत्त्व के प्रकरण में किया जायेगा।
अजीव
चैतन्यरहित-जड़ पदार्थों को अजीव कहते हैं। जैन शास्त्रों में अजीव के पांच भेद किए गए हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल।
यहां पर धर्म और अधर्म ये दो तत्त्व पुण्य और पापरूप समझने के नहीं हैं, किन्तु इन नामों के ये दो भिन्न ही पदार्थ हैं। ये पदार्थ (द्रव्य) आकाश की भांति सम्पूर्ण लोक में व्यापक हैं, और अरूपी हैं। इन दो पदार्थों का उल्लेख किसी भी जैनेतर दर्शन में नहीं है। जैनशास्त्रों में ही इनका प्रतिपादन है। जिस प्रकार अवकाश देने के कारण आकाश का अस्तित्व सब विद्वान् मानते हैं उसी प्रकार ये दो पदार्थ भी जैनशास्त्रों में सहेतुक माने गए
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यहां पर एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि इस संसार में विद्यमान जीवराशि में से कर्म क्षय करके जीव मुक्ति में गए हैं, जाते हैं और जाएँगे, इस प्रकार प्रतिक्षण संसार में से जीव कम होते जा रहे हैं, ऐसी स्थिति में भविष्य में कोई समय ऐसा क्यों नहीं आ सकता जब यह संसार जीवों से खाली हो जाय?
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इस प्रश्न के समाधान का विचार करने से पूर्व एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि संसार जीवों से रहित हो जाय यह किसी भी शास्त्र को मान्य नहीं है। हमारी विचारदृष्टि में भी यह बात नहीं आती। दूसरी ओर मुक्ति में से जीव संसार में वापिस लौटे यह बात भी मानी जा सके ऐसी नहीं है; क्योंकि यह तो सब कोई मानते हैं कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने पर ही मोक्ष मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसके कारण संसार में जन्म लेना पड़ता है वह कर्म-सम्बन्ध किसी भी रूप में जब मुक्त जीवों के साथ नहीं होता तो फिर वे संसार में वापिस कैसे आ सकते हैं? यदि मोक्ष में से वापिस लौटना माना जाय तो फिर मोक्ष का महत्त्व ही लुप्त हो जायगा। जहां से पुनः पतन का प्रसंग उपस्थित हो उसे मोक्ष ही नहीं कह सकते। अतएव प्रस्तुत प्रश्न का समाधान करते समय यह ध्यान में रखना आवश्यक प्रतीत होता है कि संसार जीवों से शून्य नहीं होता और मोक्ष में से जीव वापिस लौटते भी नहीं-इन दो सिद्धान्तों को किसी प्रकार की क्षति न पहुंचने पाए। शास्त्र कहते हैं कि जितने जीव मोक्ष में जाते हैं उतने जीव संसार में से अवश्य कम होते जाते हैं ; फिर भी जीवराशि अनन्त होने के कारण संसार जीवों से शून्य हो ही नहीं सकता। संसारवर्ती जीवराशि में नए जीवों का समावेश सर्वथा न होने पर भी और संसार में से जीवों की निरन्तर कमी होती रहने पर भी भविष्य में किसी भी समय जीवों का अन्त न आए इतने अनन्त जीव समझने चाहिए। इस प्रकार की `अनन्त' शब्द की व्याख्या शास्त्र करते हैं। सूक्ष्म में सूक्ष्म (अविभाज्य) काल को जैनशास्त्रों में `समय' कहते हैं। `समय' इतना सूक्ष्म काल है कि एक सेकण्ड में वे कितने बीत जाते हैं यह हम जान ही नहीं सकते। ऐसे समग्र भूत-भविष्य काल के समय अनन्तानन्त हैं, इसी प्रकार संसारवर्ती जीव भी अनन्तानन्त हैं जिनकी किसी भी काल में समाप्ति होने की संभावना ही नहीं है। [प्रस्तुत दृष्टान्त से जीवों की अनन्तता की कुछ कल्पना आ सकती है।]
जीव के विभाग
सामान्यतः जीव के दो भेद हैं - संसारी और मुक्त। संसार में भ्रमण करनेवाले जीव संसारी कहलाते हैं। संसार शब्द `सम्' उपसर्गपूर्वक `सृ' धातु से बना है। `सृ' धातु का अर्थ गमन, भ्रमण होता है। `सम्' उपसर्ग उसी अर्थ को पुष्ट करनेवाला है। अतः `संसार' शब्द का अर्थ हुआ भ्रमण। ८४ लाख जीवयोनियों में अथवा चार गतियों में परिभ्रमण करने का नाम संसार है और परिभ्रमण करनेवाला जीव संसारी कहलाता है। दूसरी तरह संसार शब्द का अर्थ ८४ लाख जीवयोनि अथवा चार गति भी हो सकता है। शरीर का नाम भी संसार है। इस प्रकार संसार में आबद्ध जीव संसारी कहे जाते हैं। आत्मा की कर्मबद्ध अवस्था ही `संसार' शब्द का मूलभूत अर्थ है। इस पर से संसारी जीव का यह लक्षण बराबर समझ में आ सकता है।
संसारी जीवों के अनेक प्रकार से भेद किए जा सकते हैं। परन्तु मुख्य दो भेद हैं - स्थावर एवं त्रस। दुःख दूर करने की तथा सुख प्राप्त करने की प्रवृत्तिचेष्टा-गतिचेष्टा जहां पर नहीं है वे स्थावर और जहां पर है वे त्रस। पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पांच का स्थावर में समावेश होता है। ये पृथ्वीकाय आदि पांच एक स्पर्शन (त्वचा) इन्द्रियवाले होने के कारण एकेन्द्रिय कहलाते हैं। इनके भी दो भेद हैं - सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म जलकाय, सूक्ष्म तेजस्काय, सूक्ष्म वायुकाय और सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। ये अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण अपनी चक्षु से हम इन्हें देख नहीं सकते। बादर (स्थूल) पृथ्वीकाय, बादर जलकाय, बादर तेजस्काय, बादर वायुकाय तथा बादर वनस्पतिकाय प्रत्यक्ष देखने में आते हैं। घर्षण, छेदन आदि प्रहार जिस पर न हुआ हो वैसी मिट्टी, पत्थर आदि पृथ्वी जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं उन जीवों को बादर पृथ्वीकाय समझना। जिस जल को अग्नि आदि से आघात न पहुंचा हो अथवा अन्य किसी वस्तु के मिश्रण का जिस पर प्रभाव न पड़ा हो वैसा जल कुआं, नदी, तालाब आदिका जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर जलकाय जीव हैं। इसी प्रकार दीपक, अग्नि, बिजली आदि जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर तेजस्काय जीव हैं। अनुभूयमान वायु जिन जीवों के शरीरों के पिण्ड हैं वे बादर वायुकाय हैं। और वृक्ष, शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प, कन्द आदि बादर वनस्पतिकाय हैं।
उपर्युक्त सचेतन पृथ्वी को छेदन-भेदन आदि आघात लगने से उनमें रहे हुए जीव उनमें से च्युत हो जाते हैं और इस प्रकार वह पृथ्वी अचेतन (अचित्त) बन जाती है। इसी प्रकार पानी को गरम करने से अथवा उसमें शक्कर आदि पदार्थों का मिश्रण करने से वह पानी अचेतन हो जाता है। इसी प्रकार वनस्पति भी अचेतन बन सकती है।
दो इन्द्रियां-त्वचा और जीभ जिन्हें होती हैं वे द्वीन्द्रिय कहे जाते हैं। कृमि, केंचुआ, जोंक, शङ्ख आदि का द्वीन्द्रिय में समावेश होता है। जूं, खटमल, चींटी, इन्द्रगोप आदि त्वचा, जीभ और नाक इन तीन इन्द्रियोंवाले होने के कारण त्रीन्द्रिय कहे जाते हैं। त्वचा, जीभ, नाक और आंख-इनचार इन्द्रियोंवाले मक्खी, मच्छर, भौंरे, टिड्डी, बिच्छू आदि चतुरिन्द्रिय कहलाते हैं। त्वचा, जीभ, नाक, आंख और कान इन पांच इन्द्रियोंवाले जीव पंचेन्द्रिय कहे जाते हैं। पंचेन्द्रिय जीव के चार भेद हैं- (१) मनुष्य, (२) पशु, पक्षी, मत्स्य, सर्प, नकुल आदि तिर्यंच, (३) स्वर्ग में रहनेवाले देवता, तथा (४) नरक में रहनेवाले नारक।
त्रसमें इन द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों का समावेश होता है।
इस प्रकार स्थावर एवं त्रस में सम्पूर्ण संसारी जीव समाविष्ट हो जाते हैं। अब रहे मुक्त जीव। उनका वर्णन मोक्षतत्त्व के प्रकरण में किया जायेगा।
अजीव
चैतन्यरहित-जड़ पदार्थों को अजीव कहते हैं। जैन शास्त्रों में अजीव के पांच भेद किए गए हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल।
यहां पर धर्म और अधर्म ये दो तत्त्व पुण्य और पापरूप समझने के नहीं हैं, किन्तु इन नामों के ये दो भिन्न ही पदार्थ हैं। ये पदार्थ (द्रव्य) आकाश की भांति सम्पूर्ण लोक में व्यापक हैं, और अरूपी हैं। इन दो पदार्थों का उल्लेख किसी भी जैनेतर दर्शन में नहीं है। जैनशास्त्रों में ही इनका प्रतिपादन है। जिस प्रकार अवकाश देने के कारण आकाश का अस्तित्व सब विद्वान् मानते हैं उसी प्रकार ये दो पदार्थ भी जैनशास्त्रों में सहेतुक माने गए
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