Tuesday, August 16, 2011

anant-veerya kevali ka dharmopdesh

एक बार रावण सुमेरु पर्वत के दर्शन कर आ रहे थे..आकाश मार्ग से पुष्पक विमान से ६ कुलाचल और सात-क्षेत्रों को निहारते...तब ही एक उद्यत-शब्द की आवाज सुनाई दी...तब वह मारीच मंत्री से  आवाज के बारे में पूछते हैं..तब वह बताते हैं की यहाँ स्वर्ण पर्वत के नीचे श्री अनंत-वीर्य केवली bhagwan की गन्धकुटी आई हुई है..इसलिए देवों के मुकुट से आसमान लाल हो गया है और आवाज भी देवों की ही आ रही है...ऐसा जानकार रावण वहां गन्धकुटी में गए और विद्याधरों के स्थान पर बैठ गए..तब वहां एक व्यक्ति ने भगवन से कहा की हे भगवन यहाँ सब धर्मं,अधर्म का स्वरुप जानना चाहते हैं..इसलिए   कहें...फिर केवल ज्ञानी अनंत-गुण और अनंत पर्याय को जानने वाले भगवन कहते हैं की यह जीव अनादी काल से अष्ट कर्म रुपी बंधन में फंसा हुआ है..और इन्द्रिय भोग रुपी वेदना इसे अनादी काल से सता रही है..संसार में इन्द्रिय सुखों में तल्लीन रहता है..मनुष्य हो कर भी आयु को व्यथा बिगाड़ता है..जो जीव शराब अदि पीते हैं वह नरक जाते हैं..कैसा है नरक महा दुखों से भरा..वहां उसे कांच गला-गला कर पिलाया जाता है..जो जीव मांस-भक्षण करते हैं उन्हें नरक में उन्ही का मांस खिलाया जाता है...जो जीव KUSHEEL रते,पर STRI SEVAN करते,व्यसनों में लीं रहते..पंचेंद्रिया के भोगों में तल्लीन होकर दुश कृत्य करते,माता-पिता परिवारियों की हत्या करते,पर को दुःख देते,पशु काटते,जीवों को मारते,शिकार जाते,कंदमूल खाते वह जीव नरक में जाते हैं घोर दुखों को सहन करते हैं..जो जीव मायाचारी-माया कषय में लीं रहते..वह तिर्यंच योनी में जाते,क्षेदन,भेदन,भूख-प्यास के दुःख सहते हैं....जो जीव खोटी क्रियाओं में धर्म मानते,हिंसा में धर्म,खोटी क्रियाओं में,बलि चढाने में स्वर्ग के सपने दिखाते,ऐसा कथन करते ,शास्त्रों में लिखते वह दुष्ट है..और वह भी कुयोनी में जाते..और संसार भ्रमण करते ..SHUDDH परिणामों से मनुष्य योनी मिलती है...देवों के भी सुख नहीं होता..DEV अज्ञान  TAP  SE  BHI  बन     जाते हैं..उसमें भी  अल्प -ऋद्धि धारी और ज्यादा ऋद्धियों वाले देव..उनमें जलन..इद्न्रिया भोगों के बाद भी तृप्ति नहीं होती..
दान तीन प्रकार से दिए जाते हैं १.उत्तम पात्र जो मुनिराज है वह २.माध्यम पात्र -श्रावक-श्राविका को..और ३.जघन्य पात्र-सम्यक-दृष्टी श्रावक को..उत्तम पात्र को दान-देने से उत्तम-भोगभूमि,माध्यम पात्र को दान देने से माध्यम-भोग भूमि और जघन्य पात्र को दान-देने से जघन्य भोग भूमि...लंगड़े,दीं-दुखियों पर दया करुना दान है..करुणा दान पात्र दान के बारबार नहीं है..मिथ्यादृष्टि,मिथ्या धारणाओं को अपनाने वालों का दान देना महा-पाप है,हिंसक,क्रोधी,मानी,मायावी..और स्त्री अदि रखने वाले लोगों को दान-देना श्रद्धा-वश दान देना महा-पाप है..दुःख का कारण है..जिसके पास सब है उसको दान-देने का क्या प्रयोजन?..जो वस्त्रादि रखते हैं,स्त्री रखते हैं..राग-द्वेष युक्त हैं..वह कुदेव है..जहाँ राग-द्वेष है वहां मोह है..और जप मोहि है वह संसारी है..वह भगवान् नहीं हो सकता ...इच्छाओं क पूर्ती पूर्व जन्म के या पूर्व कर्मों के कारण होती है..इन कुदेवों से नहीं..इनको दान-देना,पूजा अदि करना गृहीत मिथ्यात्व है..जो हिंसा-दान में,अस्त्र-शस्त्र दान में धर्म-बताते..हिंसा में त्रस-जीव,विकल त्रय जीवों की हिंसा में धर्म बताते ऐसे धर्मों में भी दान-देना पाप का कारण है..भूमि दान देना पाप का कारण है..लेकिन जिन मंदिर के लिए भूमि देना पुण्य का कारण है..क्योंकि जिस प्रकार सरोवर पे एक दो बूँद विष की गिर जाने से सरोवर विषैला नहीं हो जाता..इसलिए जिन-मंदिर बनवाने की हिंसा में पाप नहीं होता..क्योंकि जितना हिंसा का पाप लगता है...उससे कई गुना पुण्य होता है.या सिर्फ पुण्य ही मिलता है.संसार में जिनेन्द्र देव ही मुक्ति का कारण है..मिथ्या-देव नहीं..जो खुद लंगड़ा है क्या वह किसी दुसरे को देशांतर ले जा सकता है?..इसी प्रकार जिनेन्द्र देव ही भव-सागर से मुक्ति का कारण है...जो अस्त्र-वस्त्र धारण करें,परिग्रह करें और अपने आप को पूजनीय मानें..वह पापी है..संसार में डुबाते हैं..इनको श्रद्धा-वश दान-देने में पाप-अर्जन है....जिनेन्द्र  dev के द्वारा बताये हुए धर्म का लक्षण सुनो..एक मुनि धर्मं है..जो मुनिराज पालन करते हैं..वह ३ गुप्ती,पांच समितियां पालन करते हैं..५ महाव्रत,७ शेष गुण..६ आवश्यक पालन करते हैं..तरह-तरह की निधिओं के स्वामी होते हैं..चाहे तोह धरती हिला दे,बारिश करवा दें..सब सामर्थ्यवान होते हैं..लेकिन चरित्र से डिग नहीं होते..धर्म रक्षा के लिए ऐसा भी करते हैं..वह मुनि उसी भाव में सिद्ध पद प्राप्त करते हैं..इसी भव में नहीं तोह तीसरे भव में प्राप्त करते हैं..बीच में इन्द्रों की नरेन्द्रों की...स्वर्ग के देवों के सुख भोगते हैं..स्वर्ग के सुख अनुपम हैं..देवों में सुन्दर जिनालय होते हैं..पदम्-राग मणि के,इन्द्र नील मणि के तथा तरह-तरह की मणियों से सुशोबित ऊँचे-ऊँचे,शिखरों से सुशोभित जिन मंदिर होते हैं..उन देवों के शारीर सप्त-धातु रहित होते हैं..वह शारीर वीर्य-रज का नहीं होता है...पसीने नहीं आते,भूख लगे-प्यास लगे तोह अमृत झर आये..टाँगे चांदी सामान सुन्दर....उत्पाद शैया से जनम लेते हैं..एक की आयु पूरी होती है..दुसरे देव आ जाते हैं...बहुत समय तक देव गति में रहते हैं...जो की सिर्फ धर्म की वजह से है..जिनेन्द्र देव के द्वारा बताया हुआ धर्म ही इसका कारण है..तरह-तरह की चक्रवती  आदियों की आयु पाते हैं..लाखों सेवक सर झुकाते हैं..सिर्फ धर्म के माध्यम से ही यह संभव है..यह तोह मुनि धर्म का वर्णन हुआ..अब स्नेह आग में पड़े हुए श्रावक धर्म का वर्णन सुनो..श्रावक व्रत या मुनि धर्म मनुष्य पर्याय में ही पाले जाते हैं इसलिए मनुष्य पर्याय ही श्रेष्ठ है..जिस प्रकार पशुओं में सिंह,पक्षिओं में गरुण,वृक्षों में चन्दन का वृक्ष..पाषण में रत्ना,देवों में इन्द्र श्रेष्ठ है..उसी प्रकार योनिओं में मनुष्य योनी श्रेष्ठ है..मनुष्य योनी मिलने का बाबजूद भी जो जीव श्रावक या मुनिओं के व्रत धारण नहीं करे..वह कुगतियों में भ्रमण करता है...फिर केवली भगवान श्रावक के वर्तों का वर्णन करते हैं....तभी कमल-नयनी कुम्भकरण भगवान से कहते हैं हे भगवान अब भी तृप्ति नहीं हुई...इसलिए एक बार और धर्म का स्वरुप कहें..तब भगवान कहते हैं अब विशेष रूप से धर्म का वर्णन सुनो..पहले मोक्ष-मार्ग के कारण-आठों कर्मों के नाश में कारण मुनि धर्म का स्वरुप कहते हैं...केवली भगवान मुनियों का धर्म कहने के बाद पुनः श्रावक का धर्म कहते हैं...श्रावक के धर्म में दशो-दिशाओं के प्रमाण,देश व्रत,अप्ध्याँ अदि व्रतों का पूरा संक्षेप में वर्णन करते हैं..कहते हैं की इन श्रावक के व्रतों को पालकर जीवों को १६ स्वर्गों तक की विभूतियाँ मिलती हैं..जो की सिर्फ धर्म का प्रभाव है..यह धर्म ही संसार रुपी वन से तारने में समर्थ है..कैसा है संसार सागर?..यह संसार सागर से मोह-रुपी अन्धकार से भरा हुआ.कषाय रुपी सांप जीव को डस रहे हैं..विषय चाह रुपी आग जलाती रहती है..जिससे यह जीव सिर्फ मनुष्य योनी मिलने के बाद ही मुक्त हो पाटा है..मनुष्य योनी के मिलने के बाद भी नियमों का,चरित्र कोan धारण नहीं किया..तोह वह जीव महा-मूर्ख है..जिस प्रकार कोई मूर्ख धागे के लिए रत्नमयी हार को चूर-चूर कर देते हैं..उसी प्रकार यह जीव क्षणिक विषय सुखों के लिए धर्म-रुपी हार को  चूर-चूर कर देता है...जिस प्रकार पत्थर की नाव खुद भी डूबती और आश्रितों को भी डुबोती है..उसी प्रकार यह कुतीर्थ का श्रद्धां..मिथ्या गुरुओं का श्रद्धान जीव को संसार रुपी सागर में डुबोता है..जो परिग्रह के धारी है..वह मिथ्यगुरु हैं..वह संसार रुपी सागर से नहीं टार सकते.क्योंकि वह विषय कषायों में पड़े हुए..आत्मा सुख का अनुभव ही नहीं करते हैं..न आत्मा को जानते हैं..उनके पूजने से तोह मोह-मिथ्यात्व ही पुष्ट हो सकता है..जिसके कारण यह जीव अशुभ गतियों में ही गिर सकता है..कभी संसार से नहीं टर-सकता....धर्म ही सुख का कारण है..धर्म के बिना सुख नहीं है..यह जीव अनंत काल से विषय कषायों को पुष्ट कर रहा है..तब भी इससे विरक्त नहीं होता...यह बड़ा आश्चर्य है...धर्म को धारण करने वाले को स्वर्ग के भोग क्या अह्मिन्द्र के पद भी मिल जाते हैं...और अगले भव से मोक्ष को प्राप्त करते हैं..और सदा सुख को पाते हैं..लेकिन यह बड़ी मूर्खता है की यह जीव धर्म को धारण नहीं करता है..और अधर्म को हितकारी मानता है..केवली भगवन यम और नियम का स्वरुप बताते हुए..रात्री भोज के पापों का वर्णन करते हैं.रात्री भोज करने वाला राक्षस के सामान है..सबसे असुद्ध खाना रात्री भोज ही है..अनेक इस जन्म की और अनंत जन्मों में होने वाली बीमारियों का कारण है..रात्री भोज करने वाले को छोटा कद,असम्मान,बुराइयां,दरिद्रता ..और यहाँ तक की तरस-स्थावर-निगोड की पर्यायों में भी भटकना पड़ता है..यह बड़ी जड़ता है की मिथ्यमातों में इसी में धर्म बता दिया है..पूरे दिन भूखे रहो..और रात्री भोज करके पाप कमाओ..धर्म अहिंसा में ही हैं..हिंसा अधर्म है..और दुःख का कारण है..ऐसे धर्म को जान्ने के लिए बड़े बिरले लोग श्री गुरु के पास धर्म का स्वरुप जानने ले लिए जाते हैं....तरह-तरह के व्रतों को धारण करते हैं..और मोक्षमार्ग प्रशस्त करते हैं...जो जीव ऐसा नियम लेते हैं की मुनि को आहार कराये बिना आहार नहीं करूँगा.वह धन्य है..महा-स्वर्ग की विभूतियाँ पाते हैं..और वहां से मनुष्य हो-कर मोक्ष जाते है ...इस प्रकार अनंत-वीर्य केवली भगवान ने  धर्म का स्वरुप कहा..जिससे सब जीव हर्षित हुए..१.बहुतों ने श्रावक व्रत धारण किये..बहुतों ने मुनि-व्रत धारण किये..बहुतों ने नियम लिए..इन्द्र अदि सम्यक्त्व को प्राप्त हुए...तब एक मुनिराज ने रावण से भी कहा की "हे भव्य तुम भी कुछ नियम लो"...तोह रावण ने सोचते हैं की मैं आहार तोह शुद्ध ही करता हूँ,अभक्ष्य पधार्थ रहित भोजन करता हूँ..रात्री भोजन करता नहीं..श्रावक व्रत धारने में असमर्थ हूँ...और मुनि-व्रत तोह अत्यंत दुर्लभ है..मैं पहाड़ को उठाने वाला,पवन के वेग से चलने वाला..एक नियम लेने में घबरा रहा हूँ..धन्य हैं मुनिराज..ऐसा जानकार अपने मन में विचारते हैं की जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी..उसके साथ मैं बलात्कार नहीं करूँगा...तब वह अपना नियम मुनिराज से सबके सामने कहते हैं..कुम्भकरण भी नियम लेते हैं की वह रोज जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करूँगा,नित-पूजा प्रक्षाल करेंगे..और मुनि को भोजन दे-कर ही आहार करेंगे..इस प्रकार तरह-तरह के जीवों ने व्रत-नियम-सम्यक्त्व-महा-व्रतों को धारण किया..और सब ही अपनी जगह चले गए.

लिखने का आधार श्री रविसेनाचार्य द्वारा विरचित शास्त्र श्री पदम् पुराण है..शास्त्र में दिए गए विस्तार के वर्णन को बहुत ही कम शब्दों में समेट कर लिखा है...
कोई गलती हो,मिसप्रिंट हो तोह बताएं....

जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.
जय जिनेन्द्र.

अभी  और  भी  है . 

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