पवंजय और अंजना का वियोग और फिर संयोग
पवंजय अंजना से विवाह कर के तोह आ गए..लेकिन उन को लाते ही दुःख दिए...उनकी तरफ देखा ही नहीं..न बात करते न उधर की तरफ आते यहाँ तक की चेहरा भी नहीं सुहाता था..इतना द्वेष भाव आ गए थे..अंजना भी दिन भर रोती रहती थीं..पति को ही सब कुछ मानती थीं....कभी पत्र के माध्यम से अपनी बात कहती थीं..लेकिन पवंजय मानने को तैयार नहीं..अपने अशुभ कर्मों को कोसती थीं अंजना...खोयी-खोयी रहती..बैठती तोह खड़ी नहीं हो पातीं..खड़ी होतीं तोह बैठ नहीं पाती ..और दुखी ही रहती..शोक-मग्न ही रहती थीं...उधर राजा वरुण नाम के राजा थे जो रावण की आगया नहीं मानते थे जिस कारण रावण ने दूत भेजा और संदेशा भिजबाया कि आप या तोह युद्ध करो..या प्रणाम करो..वरुण राजा मान के कारण युद्ध करने को तैयार हुआ..तोह रावण कि सेना युद्ध करने आई ...राजा वरुण के पुत्रो ने रावण के बहनोई ( चन्द्र नखा-जो बहन थीं..उनके पति)..को पकड़ लिया..रावण नहीं चाहते थे कि खर-दूषण मारा जाए..इसलिए उन्होंने राजा प्रहलाद को पत्र लिखा पूरा वृतांत कहते हुए..राजा प्रह्लाद पत्र सुनते ही युद्ध के लिए उघमी हुए..पुत्र पवंजय ने रोका कि मेरे होते हुए आप कैसे जा रहे हैं..मेरे होते हुए..पिता के मन करने पर भी पवंजय नहीं मानते हैं..अतः मानना पड़ता है..अंजना उन्हें रोकती हैं..तोह पवंजय कहते हैं कि युद्ध के समय तुझे देख लिया यह अशुभ है..अंजना पैरों में पड़ गयी लेकिन नहीं माने पवंजय...पवंजय ने युद्ध क्षेत्र के पास विद्या से एक महल बना दिया..जिसके पास सरोवर था..जिसमें तरह-तरह के पशु-पक्षी थे...उसमें एक हंस-और हंसिनी का जोड़ा था..जिसमें वह एक दुसरे का वियोग सह रहे थे..हंस-हंसिनी को देखता तोह तड़पता..और दुखी होता..एक रात बिताना भी भारी पड़ रहा था..तभी पवंजय सोचने लगे कि यह एक रात नहीं बिता पा रहे हैं अंजना मेरे बिना २२ साल कैसे बिताएगी..ऐसा जानकार भावों में बदलाब आया.पश्चाताप हुआ...प्रिय मित्र प्रहस्त को बुलाया और अपनी बात कही-पछतावे वाली...मित्र की बात सुनकर प्रहस्त बोले की इस तरह युद्ध से वापिस जाना तोह ठीक नहीं..और अंजना को यहाँ बुलाना सही नहीं..लज्जा का कारण है..हम यहाँ से गुप्त रूप से वापिस आदित्यपुर नगर में जायेंगे वहां तुम अंजना से मिल-लेना..ऐसा सुनकर वह दोनों अंजना से मिलने चले गए...पहले प्रहस्त ने पवंजय के आने के बारे में अंजना को बताया तोह अंजना अति हर्षित हुईं..ऐसा मानने लगीं की दुःख के दिन गए..आज प्राण-वल्लभ आ गए..तब पवंजय उनसे मिले..वह उनके चरणों में गिरी...पवंजय ने उनसे माफ़ी-मांगी अंजना से शीघ्र ही क्षमा कर दिया..पवंजय ने अंजना को व्यतीत किया और उन्होंने महल में ही रात्री व्यतीत की..सुबह प्रहस्त उन्हें जगाने के लिए और युद्ध में वापिस चलने के बारे में याद दिलाया..तोह वह अंजना को छोड़ कर जाने लगे..तब अंजनाने रोक कर कहा की उनके पेट में पवंजय का गर्भ आ चूका है....और अगर लोक में यह बात फैली तोह लोग मुझे गलत ही मानेंगे...क्योंकि उनकी जानकारी में तोह आप मुझसे अभी भी द्वेष रखे हुए हैं..तब पवंजय कहते हैं की तुम यह अंगूठी,हार अदि जो मेरे द्वारा तुम्हे अभी दिया हुआ है..वह सब दिखा देना लोग मान जायेंगे..ऐसा कहकर पवंजय चले जाते हैं युद्ध के लिए...
पुण्य के योग से कभी कोई सुख मिल भी जाता है तोह वह क्षण-भंगुर हैं...पाप-तिमिर ,मोह तिमिर का नाश करने वाला जिन देव द्वारा बताया हुआ जिन धर्म ही सच्चे सुख..यानी की निराकुल आनंद सुख को प्राप्त करता है.
लिखने का आधार श्री रविसेन आचार्य द्वारा रचित पदम्-पुराण है...बहुत विस्तार से दिए हुए वर्णन को बहुत कम शब्दों में सीमित करके लिखा है..लिखने से सम्भंदित कोई भूल हो,कोई गलती हो(शब्द-या उसके अर्थ की)..अल्प बुद्धि के कारण..तोह क्षमा करें और गलती बताएं.
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.
अभी और भी है.
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