राम लक्ष्मण के वन-गमन की कथाएँ-व्रज-कर्ण की कथा.
राम लक्ष्मण आगे के वनों में जाते हैं,तप्सियों के यहाँ रहते हैं..तापसी राम-चन्द्र को देखकर मोहित हो जाते है..इसलिए उन्हें अपने पास रख लेते हैं...ताप्सियों की बच्ची उन्हें पानी पिलाती हैं,भोजन का बंदोवस्त करती हैं,राम लक्ष्मण सीता के साथ आगे जाने को तैयार होते हैं...तापसी उन्हें आगे जाने से रोकते हैं..आगे के रास्ते के बारे में बताते हैं...कीचड से भरा हुआ थोडा आगे जाकर घनघोर वन अदि के बारे में बताते हैं...लेकिन राम-लक्ष्मण निर्भय होकर आगे बढ़ते हैं..रास्ते में पड़ने वाले वनों को निहारते हैं..आगे त्रिकूटाचल पर्वत आता है, मालवा देश के पास भी पहुँचते हैं....वहां पे अति रमणीक नगर दिखाई देता है,सुन्दर-सुन्दर घर..और पेड़ पौधे अदि,लेकिन कोई भी मनुष्य दिखाई नहीं देता है...तब राम लक्ष्मण से कहते हैं की यह नगर मनुष्यों के बिना शोभायमान नहीं हो रहा है,जिस प्रकार वीत-राग भाव के बिना मुनि पद शोभायमान नहीं होता,उसी प्रकार यह नगर भी शोभा नहीं दे रहा,लक्ष्मण कहते हैं की कहाँ गए लोग,क्या मलेच्छ उठा कर ले गए,कौन ले गया...तब दूर से आते हुए एक दरिद्र इंसान को रोक कर पूछते हैं तोह वह राजा व्रज कर्ण की कथा कहते हैं जो की इस प्रकार है:-
उज्जयिनी नगरी का राजा सिन्होदर राज्य करता था..उसका सेवक था दशांग नगर का राजा पापी व्रजकर्ण-जो काम-मोह में असाक्त था,न किसी की चिन्तक,जीवों को कष्ट देने वाला....एक बार वन में गया तोह मुनिराज देखे तोह उनसे कहा की क्या आप इन चक्करों में कपडे उतारकर बैठे हो,मेरी तरह मौज करो--तोह मुनिराज उसे कामी जान कर नरक के दुखों की बातें और पाप का फल बताते हैं..जिससे व्रजकर्ण अनु-व्रत धारण करता है और यह नियम लेता है की वीतरागी भगवन,निर्ग्रन्थ गुरु और उनके द्वारा लिखे हुए शास्त्रों के अलावा किसी को प्रणाम नहीं करेगा..फिर सोचता है की मैं तोह सिन्होदर का सेवक हूँ,उसे सर नहीं झुकाया तोह वह मुझे मारेगा,इसलिए वह एक अंगूठी बनता है,जिसमें मुनि-सुव्रत नाथ भगवान की प्रतिमा होती है..तब राजा व्रजकर्ण सिन्होदर को सर न झुका के मूर्ती के आगे सर झुकता..एक बार किसी दुश्मन ने उस अंगूठी के बारे में बता दिया....जिससे राजा सिन्होदर क्रोधित हुआ और आक्रमण के लिए उसे मायाचारी से बाहार बुलाने के लिए भेजा लेकिन वह विधुतप्रभ नाम के एक व्यक्ति की बात मानकर आगे नहीं गया...सिन्होदर राजा क्रोधित हुआ..उसने पूरे राज्य को जला दिया..और सब मनुष्य भाग गए...यह कथा दरिद्र राम-चन्द्र से कहता है..और दुखी होता है..तब राम चन्द्र जी उन्हें अपना हार देते हैं जिससे वह प्रसन्न हो जाता है,राम लक्ष्मण आगे जाकर चंद्रप्रभु-भगवान के मंदिर के दर्शन करते हैं..और विश्राम करते हैं...राम लक्ष्मण को उज्जयिनी नगरी में भेजते हैं..वहां सिन्होदर के दूत खड़े होते हैं...वहां व्रज-कर्ण भी होता है...जो उनके भोजन की व्यवस्था करता है,व्रज-कर्ण अनु व्रत को पालता है...इस बात की राम-चन्द्र अति प्रशंसा करते हैं..और कहते हैं की हम तुम्हारी मदद करेंगे,तुम धन्य हो तुमने अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए,हमारे आगे भी सर नहीं झुकाया...सही बात है जिनेन्द्र भगवान के अलावा किसी को सर क्यों झुकायें?..इस काम के लिए रामचंद्र लक्ष्मण को सिन्होदर की सभा में राजा भरत के दूत के रूप में भेजते हैं...लक्ष्मण कहते हैं की व्रज-कर्ण को वापिस राज्य-दे-दो..लेकिन सिन्होदर राजा उसकी काफी निंदा करते हैं...और उनकी प्रशंसा करने वाले लक्ष्मण को सामंतो और सैनिकों से घेर लेते हैं...लक्ष्मण तोह उन्हें हाल में ही पटक देते हैं,किसी को पैर से,मुष्टि से,हाथ से,जिस प्रकार रुई हवा से उडती उस प्रकार लक्ष्मण शत्रुओं को उड़ाते..और इस प्रकार लक्ष्मण सिन्होदर को बांध-कर रामचंद्र-भ्राता के पास ले जाते हैं....सिन्होदर राम से क्षमा मांगते हैं,और व्रज कर्ण और विधुत प्रभ को बुलाया जाता है...सिन्होदर विधुत प्रभ को वापिस दशांग-नगर का राज्य देते हैं और आधी-संपत्ति देते हैं..व्रज-कर्ण विधुत-प्रभ को सेनापति बनाते हैं...राजा सिन्होदर और राजा व्रजकर्ण अपनी पुत्रियों को लक्ष्मण को देने का प्रस्ताव देते हैं..लेकिन लक्ष्मण कहते हैं की अभी तोह हम-वनवासी हैं समय आने पर kisi क्षेत्र अदि का नाम लेकर माताओं के समक्ष हम आपके प्रस्ताव को अपनाएंगे.. इस प्रकार आगे बढ़-जाते हैं...आगे नल-कुंवर नगर आता है.............
लिखने का आधार-शास्त्र श्री पदम् पुराण
अगर अल्प-बुद्धि और प्रमाद के कारण कोई गलती हो...तोह सुधार कर पढ़ें और बताएं..
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