अरहंत,सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधू की सर्वप्रथम स्वरुप सहित वंदना,भावना का महत्व और भावना का स्वयं के जीवन से सम्बन्ध करने हेतु मंगलाचरण
मंगलाचरण
अथ दस विकार हीन प्रभु को ह्रदय धरूँ
हर आत्मा सदेह भी उनके सामान है
नित जीव को निश्चय से चैतन्य प्राण हैं
मैं सिद्ध प्रभु को सदैव ध्यान में धरूँ
शिव लब्धि हेतु उनको शत-शत नमन करूँ
दर्शन सु ज्ञान वीर्य ताप चरित्र को सदा
जो आचरण करें करायें सूरि शिव प्रदा
जो द्वादशांग सिन्धु में निमंग्न नित रहे
वे उपाध्याय निश्चय शिव धाम को गहें
सद दृष्टी ज्ञान व्रत के साधक हुए महान,
निर्ग्रन्थ साधू वह हैं सब जानता जहान
वे हों कभी प्रमत्त-अप्रमत्त की पल में
पाते निजात्मा रस पुरुषार्थ अचल में
तुम निर्विकल्प नित रहो यही परम दशा,
किंचित भी सूक्ष्म मोह का रहे नहीं नशा
नित ज्ञान भाव लीं रहो सत्य है यही,
ज्ञानी तभी कहाओगे जब राग हो नहीं
ज्ञायक भी दशा न रहे वह जो है सो ही हो
वह अवक्तव्य स्वानुभूति माय दशा अहो
हितकर तुम्हे यही है तन्मय सदा रहो
चिद्रूप रत सु ज्ञान गंग में सदा बहो
अरिहंत सिद्ध भगवन आचार्य उपाध्याय
साधू हैं पंच परमेष्ठी नित्य निज रमाय
इस सबने पूर्व दशा में भाई थी भावना
तब पूज्य सुपद पाया,नाश गयी कामना
ज्यौं मंद वायु झोकों से अग्नि जल उठे,
त्यौं द्वादशअनुप्रेक्षा से राग सब मिटे
हे भव्य! भावना से भाव का विनाश हो
पंकज खिले विराग का निज में निवास हो
अनित्य भावना
पर्याय अनित्य है शारीर क्षणभंगुर है,जिसने जन्म लिया है उसका मरण भी है,इस अनित्यता को जानकार हमें अपना हित करना है,जीवन का सन्देश देने वाली यह अनित्य भावना
राजा हो कोई बादशाह क्षत्रवान हो,
षट खंड का हो,अधिपति चक्रवती महान हो.
जो चले हाथियों पे या सदा चले पैदल
कोई रहे महलों में या कोई रहे तरुतल
धनवान हो,बलवान हो या बुद्धिमान हो महान,
धनहीन हो,कमजोर हो,मूर्ख हो या नादान
जिसने भी यहाँ जन्म लिया देह का संयोग,
निश्चित उसे मरना पड़े होगा सकल वियोग
यह देह धन-मकान कोई नित्य नहीं हैं,
चपला चमक सामान बिछुड़ते भी यहीं हैं
हर क्षण बदल रहीं हैं सभी वस्तुएं यहाँ
एक समय पूर्व देखि वह वस्तु है कहाँ
तुम सर्वथा सदैव नित्य मान रहे हो,
यह भूल महा दुःख दाई पाल रहे हो
जग नित्य न था है नहीं न नित्य रहेगा,
परिणमनशील दिशा में सदा ही बहेगा
उत्पाद की जब बात करो,व्यय भी रहेगा
ज्ञानी रहे ध्रुव धाम में कुछ भी नहीं कहेगा
पर्याय तोह हर द्रव्य की है एक समय की
होना है,वही होगी,पीछे की हो चुकी
पर्याय सब अनित्य मरण भी तोह नियत है
ध्रुव धाम एक नित्य है जो पर से विरत है
ध्रुवता कभी मरती नहीं पर्याय न अमर है
नित भाओ यही भावना कुछ दिन की सफ़र है
२.अशरण भावना
हे आत्मन जितने समय तक आयु कर्म लेकर आये हो,उतने समय तक ही जीवन रहेगा,मृत्यु का समय आने पर माता-पिता अदि कोई भी जीवन बचने में सक्षम नहीं हैं,मौत निश्चित है समय का कोई भरोसा नहीं,जगत और संयोग अशरण है व्यवहार से पंच परमेष्ठी और निश्चय से निज-शुद्धात्मा ही शरणभूत है संसार में और कुछ भी शरण लेने योग्य नहीं है ऐसा मंगल माय सन्देश दे रही है अशरण भावना.
उन सम गुणोंपलब्धि हेतु नित नमन करूँ
हैं अतिशय चौतीस जिन्हें अष्ट प्रातिहार्य
प्रकटे अनंत चतुष्टय सदा अपरिहार्य
यूँ तोह अनंत गुणों के प्रभु निधान हैं
छियालीस गुण कथन तोह उपचार ज्ञान है
उनका निवास तोह सदैव ध्रौव्य धाम है
लब्धि हो तदगुणों की,उनको प्रणाम है
जो सिद्ध प्रभु शुद्ध सर्व कर्म हीन हैं
आवागमन विमुक्त नित स्वरुप लीं हैं
व्यवहार से स्थान अग्र-लोकभाग में
निश्चय रहे तन्मय अरूप वीतराग में
हर आत्मा सदेह भी उनके सामान है
नित जीव को निश्चय से चैतन्य प्राण हैं
मैं सिद्ध प्रभु को सदैव ध्यान में धरूँ
शिव लब्धि हेतु उनको शत-शत नमन करूँ
दर्शन सु ज्ञान वीर्य ताप चरित्र को सदा
जो आचरण करें करायें सूरि शिव प्रदा
जो द्वादशांग सिन्धु में निमंग्न नित रहे
वे उपाध्याय निश्चय शिव धाम को गहें
सद दृष्टी ज्ञान व्रत के साधक हुए महान,
निर्ग्रन्थ साधू वह हैं सब जानता जहान
वे हों कभी प्रमत्त-अप्रमत्त की पल में
पाते निजात्मा रस पुरुषार्थ अचल में
तुम निर्विकल्प नित रहो यही परम दशा,
किंचित भी सूक्ष्म मोह का रहे नहीं नशा
नित ज्ञान भाव लीं रहो सत्य है यही,
ज्ञानी तभी कहाओगे जब राग हो नहीं
ज्ञायक भी दशा न रहे वह जो है सो ही हो
वह अवक्तव्य स्वानुभूति माय दशा अहो
हितकर तुम्हे यही है तन्मय सदा रहो
चिद्रूप रत सु ज्ञान गंग में सदा बहो
अरिहंत सिद्ध भगवन आचार्य उपाध्याय
साधू हैं पंच परमेष्ठी नित्य निज रमाय
इस सबने पूर्व दशा में भाई थी भावना
तब पूज्य सुपद पाया,नाश गयी कामना
ज्यौं मंद वायु झोकों से अग्नि जल उठे,
त्यौं द्वादशअनुप्रेक्षा से राग सब मिटे
हे भव्य! भावना से भाव का विनाश हो
पंकज खिले विराग का निज में निवास हो
अनित्य भावना
पर्याय अनित्य है शारीर क्षणभंगुर है,जिसने जन्म लिया है उसका मरण भी है,इस अनित्यता को जानकार हमें अपना हित करना है,जीवन का सन्देश देने वाली यह अनित्य भावना
राजा हो कोई बादशाह क्षत्रवान हो,
षट खंड का हो,अधिपति चक्रवती महान हो.
जो चले हाथियों पे या सदा चले पैदल
कोई रहे महलों में या कोई रहे तरुतल
धनवान हो,बलवान हो या बुद्धिमान हो महान,
धनहीन हो,कमजोर हो,मूर्ख हो या नादान
जिसने भी यहाँ जन्म लिया देह का संयोग,
निश्चित उसे मरना पड़े होगा सकल वियोग
यह देह धन-मकान कोई नित्य नहीं हैं,
चपला चमक सामान बिछुड़ते भी यहीं हैं
हर क्षण बदल रहीं हैं सभी वस्तुएं यहाँ
एक समय पूर्व देखि वह वस्तु है कहाँ
तुम सर्वथा सदैव नित्य मान रहे हो,
यह भूल महा दुःख दाई पाल रहे हो
जग नित्य न था है नहीं न नित्य रहेगा,
परिणमनशील दिशा में सदा ही बहेगा
उत्पाद की जब बात करो,व्यय भी रहेगा
ज्ञानी रहे ध्रुव धाम में कुछ भी नहीं कहेगा
पर्याय तोह हर द्रव्य की है एक समय की
होना है,वही होगी,पीछे की हो चुकी
पर्याय सब अनित्य मरण भी तोह नियत है
ध्रुव धाम एक नित्य है जो पर से विरत है
ध्रुवता कभी मरती नहीं पर्याय न अमर है
नित भाओ यही भावना कुछ दिन की सफ़र है
२.अशरण भावना
हे आत्मन जितने समय तक आयु कर्म लेकर आये हो,उतने समय तक ही जीवन रहेगा,मृत्यु का समय आने पर माता-पिता अदि कोई भी जीवन बचने में सक्षम नहीं हैं,मौत निश्चित है समय का कोई भरोसा नहीं,जगत और संयोग अशरण है व्यवहार से पंच परमेष्ठी और निश्चय से निज-शुद्धात्मा ही शरणभूत है संसार में और कुछ भी शरण लेने योग्य नहीं है ऐसा मंगल माय सन्देश दे रही है अशरण भावना.
हे जीव! जितनी आयु है उतना ही जियोगे
जब आयु कर्म अंत हो फिर तोह न बचोगे
माता-पिता हों पास में नारी पतिव्रता
भगिनी व सहोदर सभी,पुकारती सुता
हों यन्त्र मंत्र तंत्र धन-जवाहरात भी
तलवार तोप शस्त्र हों सेनायें हों सभी
पर जिंदगी का एक भी पल नहीं बढ़ सकता
यह जी मौत से कदापि बच नहीं सकता
मृगराज की पकड़ में ज्यों हिरन आ गया,
त्यों मृत्युराज को भी यह जीव भा-गया
सब देवताओं-देवी को नावों माथ
कोई भी मौत टालने में दे सके न साथ
बचने के लिए फिर करो कितनी ही कामना
पर अंत में होता ही है मृत्यु का सामना
ज्यौं सूर्या सदा चले पश्चिम के रास्ते,
त्यों जीव का भी जन्म है मृत्यु के वास्ते
कोई न बचाता,न तुझे कोई शरण है
पर शरण मानकर तू करे जन्म मरण है
जब द्रव्य गुण पर्याय का भी भेद है अशरण,
कैसे कहें तुझे हैं जग में कोई शरण
यह बाह्य तोह अज्ञान का फैलाव है जहां
तू परम ज्ञानमई प्रभु सिद्ध के सामान
शुद्धात्म तत्व शुद्ध स्वभाव सत्य शरण है,
जग अशरण,निज आतम ही तारण-तरण है.
संसार भावना
इस दुःख भरे संसार में सुख ढूंढना ही अज्ञान है सुख कहीं बाहर नहीं है आत्मा में ही है और संसार का स्वरुप बहुत विचित्र है,चाह कामना ही जीव को दुःख का कारण है,संसार सागर में कोई सुखी दिखाई नहीं देता,संसार के स्वरुप का वास्तविक चित्रण करने वाली है यह संसार भावना
संसार में सुख है नहीं निश्चय यह जान लो,
संसार के स्वरुप को सच-सच पिछान लो
देखो तोह आँख खोलकर क्या हो रहा यहाँ
कोई हंस रहा कोई रो रहा सुख चैन है कहाँ?
निर्धन दुखी है इसलिए चाहता है धन
धनवान में दुखी रहे तृष्णा में फस मन
जो जी रहा अभाव में वह तोह सदा दुखी
जिसको मिले सद्भाव में,वह भी है नहीं सुखी
है पुत्र जनम की खुशी तोह कहीं दुःख वियोग,
किसी को मिली स्वास्थ्यता,किसी को लगा रोग
कोई को पुत्र चाह से रहता है सदा गम
कोई को बहुत संतति से है नाक में दम
यह मेरा है,तेरा है,यह मान रहा है
दुःख दर्द के सामान को सुख जान रहा है
पर वस्तुओं की चाह से संसार बस रहा
हे जीव! जाग व्यर्थ ही नर-भव भव विनाश रहा
बाहर की और देखा की संसार बस गया,
शुभ अशुभ राग-जहर भरा सांप डस गया
यह मोह राग-द्वेष भाव ही तोह है संसार
तब बाह्य में निमित्त बने तन-धन परिवार
इच्छाएं तोह अनंत है,हर एक में दुःख है
तुम अपना भला चाहो तोह संतोष में सुख है
चाहा कभी होता नहीं बस बढ़ता है संसार
वास्तु स्वरुप जान लो,हो जाओगे भव पार
एकत्व भावना
संसार में जीव अकेला आता है,अकेला चला जाता है,एकत्व प्रकृति का नियम है,धर्म और कर्म में कोई किसी का साथी नहीं है तो जीव जैसे करता है वैसा ही फल उसको भोगना पड़ता है,इस संसार में न कोई तेरा है,न कोई मेरा है जग चिड़िया रैन बसेरा है,ऐसे एकत्व के भाव को व्यक्त कर रही है यह चौथी एकत्व भावना.
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