तत्वार्थ सूत्र
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः।। १
सम्यक दर्शन,सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र की एकता हो मोक्ष मार्ग है (न ही अकेला सम्यक दर्शन,न अकेला सम्यक ज्ञान,और न अकेला सम्यक चरित्र,न दो एक साथ,बल्कि तीनों की एकता ही मोक्ष मार्ग है)
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।। २
तत्व के अर्थ का जैसे श्री जिनेन्द्र भगवन ने श्रद्धान बताया है,वैसा श्रद्धान करना..(सिर्फ तत्वों को जानने से,या याद हो जाने से सम्यक दर्शन नहीं,तत्व के अर्थ का श्रद्धान होना सम्यक दर्शन है,जैसे जैसे किसी ने पुद्गल बोला,तोह ऐसी भावना की जिसमें वर्ण ,रस,गंध हैं,स्पर्श हैं.. वस्तु है,वह पुद्गल..जैसे की यह शरीर)
तन्निसर्गादधिगमाद्वा।। ३
यह सम्यक दर्शन प्राप्ति की दृष्टी से दो प्रकार का है ..निसर्ग सम्यक-दर्शन जो बिना उपदेश के हो जाए (मान लीजिये मुनिराज सामने से निकले मन में भावना आई,की यही सच्चा धर्म है,सच्चे साधू हैं,मतलब बिना उपदेश के)..और दूसरा प्रकार है अधिगम-जो की उपदेश के माध्यम से हो
जीवजीवास्रव बन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्।।
जीव-अजीव-आश्रव-वंध -संवर-निर्जरा और मोक्ष यह सात तत्व हैं (तत्व का प्रक्टिकल इस्तेमाल हर जगह है..जैसे कहीं से कुछ सोना निकला,तोह वह गंदे या मैले फॉर्म में होता है,उसमें तरह-तरह की मेटल मिक्स होती हैं,फिर उसकी प्रोसेस करते हैं,यह जानते हैं की कैसे गंध्गी आई,कैसे हटायें,कैसे शुद्ध हो...और फिर तरह तरह की मशीन में डालते हैं..और अग्नि में उबालते हैं जिससे वह शुद्ध हो जाता है,उसी प्रकार यह जीव है,इसकी भी ऐसी कहानी है..यह जीव को भी शुद्ध अवस्था को प्राप्त होना है)
नामस्थापना द्रव्य भावतस्तन्न्यासः।।
सम्यक दर्शन के बारे में नाम,स्थापना,द्रव्य और भाव से जान सकते हैं (नाम यानी की किसी का नाम नेत्रवान है,वल्कि उसके पास नेत्र नहीं है,तब भी नेत्रवान कहते हैं,स्थापना निक्षेप..प्रतिमा है लेकिन उसमें हम साक्षात् भगवान को मान कर पूजते हैं,द्रव्य निक्षेप-सेठ जी का पुत्र है तोह उसे भी लोग सेठ जी बोलते हैं,जबकि वह यह सब जानता भी नहीं है,भाव निक्षेप यानी की पुजारी जी हैं,मतलब मंदिर में पूजा करते हैं..लेकिन जब वह खाना खा रहे हैं,तब भी उन्हें पुजारी जी बोला जाता है,यह भाव निक्षेप है)
प्रमाणनयैरधिगमः।
सम्यक दर्शन के बारे में प्रमाण(वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान)...और नय के माध्यम से जाना जा सकता है(नय के माध्यम से वस्तु का कथन किया जाता है,प्रमाण के माध्यम से नहीं,जैसे की कोई लड़का है वह किसी का पुत्र है,भाई है,दोस्त है..लेकिन हम उसके बारे में बताएँगे तोह एक ही बात कहेंगे की यह उसका बेटा है,या किसी दूसरी जगह उसका भाई है,या किसी तीसरी जगह कहेंगे की यह दोस्त है)
निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरण स्थितिविधानतः।।
सम्यक दर्शन के बारे में निर्देश (मतलब सम्यक दर्शन है क्या जानकारी है),स्वामित्व (इसका स्वामी कौन है,जीव स्वामी है),साधन(कैसे प्राप्त किया जाए),अधिकरण(कहाँ होता है,त्रस-नाली में होता है,या जहाँ त्रस जीवों का निवास है,अधिकरण मतलब उसका SUBSTRATUM क्या है),स्तिथि (कब तक होता है ओप्शमिक कब तक होता है,क्षयिक कब तक होता है,क्षयिक कब तक होता है)..विधान(कितने प्रकार का है,भेद-उपभेद अदि के माध्यम से)
सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शनकालान्तर भावाल्पबहुत्त्वैश्च।।
सम्यक दर्शन के बारे में सत,संख्या,क्षेत्र,स्पर्शन,कालांतर,भाव,अल्प बहुत के माध्यम से जाना जा सकता है(इसको उद्धरण के माध्यम से समझें(दूकानदार के पास गए..मैंने कहा रोतोमो पेन दो..(पेन है मतलब होगा तब ही तोह कोई देगा..मतलब सत,दो पेन दे दो (संख्या),और यह पेन दूकान से मिला(क्षेत्र),कहाँ कहाँ ऐसी दुकाने हैं(स्पर्शन),कब से कब तक मिलता है(काल), (कब-कब दूकान बंद रहती हैअंतर,यह जानना भी तोह जरूरी है)..भाव (कितने का है .(भाव) लेकिन यहाँ पर सम्यक दर्शन के लिए भाव का मतलब कीमत नहीं है यहाँ मतलब है की किसके कैसे भाव है KSHAYIK.सम्यक दृष्टी के क्षयिक भाव,ओप्शमिक के ओप्शमिक भाव..अदि-अदि)कितने कितने (हरे वाले तीन,सफ़ेद वाले चार.(अल्प-बहुत).))
मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम्।।
मति-श्रुति अवधि,मन पर्याय और केवल ज्ञान यह ज्ञान है
तत्प्रमाणे
यह ज्ञान प्रमाण है (मतलब अब हम प्रमाण के बारे में बात कर रहे हैं,फिर अंत में नय की बात करेंगे)
आद्ये परोक्षम्।।
शुरू के दो (मति और श्रुति ज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं(इन्द्रिय और मन के माध्यम से होते हैं..कोई चीज को आँखों से देखते हैं,लाइट गयी तोह नहीं देख पायेंगे,हमें कोई मीडियम चाहिए..यानि की परोक्ष ज्ञान है)
.. ..
प्रत्यक्षमन्यत्
बचे हुए तीन प्रत्यक्ष ज्ञान है(अवधि,मन-पर्याय और केवल ज्ञान)
मतिःस्मृतिः संज्ञाचिन्ताभिनिबोध इत्यानर्थान्तरम्।।
मति,स्मृति,संज्ञा,चिंता(चिंतन),अभिनीबोध मति ज्ञान के दुसरे नाम हैं
तदिन्द्रयानिन्द्रियनिमित्तम्।।
यह मन और इन्द्रिय के माध्यम से होते हैं
अवग्रहेहावाय धारणाः।।
मति-ज्ञान चार प्रकार से इस तरह है -अवाग्रह,इहा ,अवाय,धारणा..(मतलब हमने किसी चीज को देखा पता लगा की कोई नीली सी,लम्बी सी चीज है (यह अवाग्रह है)..फिर यह बात आई की यह किसके पास रहती HAI (इहा)..फिर पता लगा की यह राजेश के पास रहती है (अवाय)..फिर यह बात दिमाग में बैठ गयी की यह चीज ऐसे-ऐसे है...जब भी उसको देखेंगे याद आ जायेगा(धारणा))हम किसी चीज को देखते हैं तोह कितने स्टेप्स में जानते हैं...यह आचार्य भगवंतों ने कितनी गहरे से बता दिया है...मति ज्ञान के सब मिलकर ३३६ भेद हैं..इसी ज्ञान से पूरा संसार चल रहा..
बहुबहुविधक्षिप्रानिः सृतानुक्त ध्रुवाणां सेतराणाम्।।
बारह प्रकार से मति ज्ञान होता है
इनमें से हर मति ज्ञान कई प्रकार के हैं,बहुतचीजों को जानना(बहु),बहुत प्रकार की चीजों का ज्ञान (बहु विध),क्षिप्र(जल्दी जान लेते हैं,कभी कभी चीजों को जल्दी जानते हैं),अ-क्षिप्रा (धीरे-धीरे समझना),अनिश्रत(आधी अधूरी बातों से पूरी बातें जान लेना)..निश्रत(पूरी तरह से चीज आये तब ही जानना..अनुक्त(थोड़ी सी बात से पूरी बात जानना,सुनते ही देखते ही पता चलना)..उक्त (अनुक्त का पता चलना)..ध्रुव (जिस चीज का जितना ज्ञान वैसा ही ज्ञान रहना)...अध्रुव ज्ञान(जिस चीज को जितना जाना उतना नहीं बना रहा,जैसे देखते देखते भूलते जाते हैं,याद किया शाम को भूल-न)..बिजली चमकना अदि अध्रुव अवग्रह हैं.
अर्थस्य।।
यहाँ तक व्यक्त पदार्थों का कथन हुआ अब अव्यक्त पदार्थों का कथन कर रहे हैं.
व्यञ्जनस्यावग्रहः
अव्यक्त चीजों को सिर्फ अवग्राह के माध्यम से जाना जाता है(न इहा होती है,न अवाय न धारणा)..(कहीं कोई आवाज आ गयी..बस समझ में आया आवाज आई,यह जानने की कोशिश नहीं होती है की किसने की कैसे हुई.. ..कुछ चीजों का बस अवाग्रह ही होता है,यह नहीं जाना जाता की किसने की,और कैसे हुई)
कोई चीज हमारे पास आई,देखते ही गायब हुई...और सिर्फ अवग्रह ही होकर रह गया)
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्।।
अव्यक्त चीजों को जानने में मन और चक्षु इन्द्रिय का इस्तेमाल नहीं होता (बहुत सी चीजें कानों में पड़ती है,ओझल हो जाती हैं..कोई ध्यान नहीं देता ,मन भी उधर नहीं जाता है,और चक्षु इन्द्रिय का भी कोई रोले नहीं होता..यह सब प्रक्टिकल चीजें हैं)
श्रुतं मतिपूर्वं ह्यनेकद्वादशभेदम्।।
श्रुत ज्ञान मति ज्ञान के बाद ही होता है (पदार्थ के विशेष के बारे में जानना)..यह दो प्रकार का है,बारह प्रकार का है(अंग प्रविष्ट-१२ अंगों का ज्ञान ) और कई प्रकार का है (अंग बाह्य)
भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्।। २१
भव् प्रत्य-भव के निमित्त से
अवधि ज्ञान (दो प्रकार का भव-प्रत्य,गुण प्रत्य--जिसमें भव प्रत्य नारकियों को और देवों को होता है,मतलब जन्म से साथ होता है)
क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्।।
क्षयोपषम के माध्यम से,सम्यक दर्शन,व्रत अदि गुणों के प्रकट होने के माध्यम से जो अवधि ज्ञान है वह गुण प्रत्या है..जो की ६ प्रकार का है (अनुगामी-एक भव से दुसरे भव जाए वह अनुगामी,अनानुगामी-जो अगले भव में छूट जाए वह अनानुगामी,जो अवधि ज्ञान जितनी मात्र है उससे बढ़ता रहे वह वर्धमान है,और जो घटता जाए वह हीमान,और जो न घटे न बढे वह अवस्थित,और जो कभी बढे कभी घटे वह अनवस्थित)...और यह मनुष्य और तिर्यंच को होता है
ऋजुविपुलमती मनः पर्ययः।।
मन-पर्याय ज्ञान ऋजुमति और विपुल मति दो प्रकार का है.
विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः।।
विपुल-मति ज्यादा विशुद्ध है ऋजु मति-मन पर्याय ज्ञान से ..विपुल मति मन की कुटिल बातों को किसी के मन में दिमाग से निकली हुई बातों को भी पता कर लेता है,लेकिन ऋजु मति सिर्फ सरल बातों को पता कर सकता है...यह ऋद्धि-धारी संयमी मुनियों को ही होता है
विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयोऽवधिमनः पर्यययोः।। २५
अवधि ज्ञान की और मनः-पर्याय ज्ञान के अलग-अलग क्षेत्र है...अवधि ज्ञान ज्यादा क्षेत्रों में मिलेगा,लेकिन मति ज्ञान-ऋद्धि धारी मुनियों में मिलेगा...मनः-पर्याय ज्ञान ज्यादा शुद्ध है अवधि ज्ञान से
मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वस्रवपार्यायेषु।।
मति,श्रुत,अवधि,मनः-पर्याय ज्ञान ६ द्रव्यों का होता है(लेकिन इसमें द्रव्य क्षेत्र का प्रमाण होता है)
रूपिष्ववधेः।। २७
अवधि ज्ञान रुपी पदार्थों का ही होता है,पुद्गल पदार्थों का.
तदनन्तभागे मनः पर्यस्य।।
मनः पर्याय ज्ञान से अवधि ज्ञान से जानी हुई चीज के अनंत-वे भाग के बारे में भी जाना जा सकता है.
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।।
सारे द्रव्य और सारी पर्याय को केवल ज्ञान से जाना जा सकता है
एकादीनि भाज्यानियुगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः।।
किसी भी जीव को कम से कम एक ज्ञान और ज्यादा से ज्यादा ४ ज्ञान एक साथ हो सकते हैं,अगर एक है तोह सिर्फ और सिर्फ केवल ज्ञान,दो हैं तोह मति-श्रुति ज्ञान,अगर तीन हैं तोह मति श्रुति अवधि या मनः पर्याय ज्ञान और चार हैं तोह मति-श्रुति-अवधि और मन-पर्याय ज्ञान होंगे
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।। 31
मति-श्रुति और अवधि ज्ञान ...यह विपरीत भी हो जाते हैं,मिथ्यात्व के साथ विपरीत भी होते हैं.
सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्।।
वास्तविकता से भ्रमित होने के कारण,मिथ्यात्व से ग्रसित होने के कारण वास्तु को सही नहीं न पहचान-पाने के कारण यह विपरीत हो-जाते हैं.
नैगमसंग्रहव्यवहारर्जु सूत्रशब्द समभिरूढैवंभूता नयाः।।
कथन करने के लिए जिसका आलंबन लिया जाए वह नय है.
नया सात प्रकार के हैं १.नैगम(जो विचार लौकिक रूधि में,सामान्य व्यवहार में देखने में आये hain २.संग्रह ३.व्यवहार ४.ऋजु ५.सूत्र-शब्द 6. समभिरू ७.दैवंभूता ..यह सात प्रकार की ने हैं..(इनको एक उद्धरण के माध्यम से समझेंगे ...जैसे की एक आदमी को किसी यात्रा पे जाना है..तोह जब वह जाने के लिए कपडे तैयार करता है..तब वह यात्री कहलाया जा सकता है,लेकिन कोई कहे हम तोह तब मानेंगे जब वह जाने के लिए तैयार हो,कोई तीसरा यह भी कह सकते हैं की जब वह स्टेशन पे पहुंचेगा तब यात्री कहलायेगा,चौथा यह भी कह सकता है की जब वह टिकेट खरीदेगा तब यात्री कहलायेगा पांचवा यह भी कह सकता है की यात्री तोह तब होगा जब वह ट्रेन पे चढ़ रहा हो,६ यह भी कह सकता है की यात्री तोह जब है जब वह बैठ गया हो..और सातवा यह भी कह सकता है जब ट्रेन चालू हो जाए वास्तव में तोह यात्री तब ही है...इस तरह से यह सात तरीके हैं..किसी को यात्री कहने के ...देखा जाए तोह पहले वाले का भी दृष्टिकोण सही है..और सातवे वाले का..कोई पूजा नहीं करता तब भी उसे पुजारी बोलते हैं..बहुत से लोग कहते हैं की यह पूजा नहीं कर रहा तोह हम इसे पुजारी नहीं बोलेंगे...तोह उनका कहना भी सही है..नय से मतलब यह निकलता है.
लिखने का आधार-मुनि श्री क्षमा सागर जी महाराज सवार दिए हुए श्री तत्वार्थ सूत्र अध्याय १ पर प्रवचन.
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक
अध्याय १
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः।। १
सम्यक दर्शन,सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र की एकता हो मोक्ष मार्ग है (न ही अकेला सम्यक दर्शन,न अकेला सम्यक ज्ञान,और न अकेला सम्यक चरित्र,न दो एक साथ,बल्कि तीनों की एकता ही मोक्ष मार्ग है)
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।। २
तत्व के अर्थ का जैसे श्री जिनेन्द्र भगवन ने श्रद्धान बताया है,वैसा श्रद्धान करना..(सिर्फ तत्वों को जानने से,या याद हो जाने से सम्यक दर्शन नहीं,तत्व के अर्थ का श्रद्धान होना सम्यक दर्शन है,जैसे जैसे किसी ने पुद्गल बोला,तोह ऐसी भावना की जिसमें वर्ण ,रस,गंध हैं,स्पर्श हैं.. वस्तु है,वह पुद्गल..जैसे की यह शरीर)
तन्निसर्गादधिगमाद्वा।। ३
यह सम्यक दर्शन प्राप्ति की दृष्टी से दो प्रकार का है ..निसर्ग सम्यक-दर्शन जो बिना उपदेश के हो जाए (मान लीजिये मुनिराज सामने से निकले मन में भावना आई,की यही सच्चा धर्म है,सच्चे साधू हैं,मतलब बिना उपदेश के)..और दूसरा प्रकार है अधिगम-जो की उपदेश के माध्यम से हो
जीवजीवास्रव बन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्।।
जीव-अजीव-आश्रव-वंध -संवर-निर्जरा और मोक्ष यह सात तत्व हैं (तत्व का प्रक्टिकल इस्तेमाल हर जगह है..जैसे कहीं से कुछ सोना निकला,तोह वह गंदे या मैले फॉर्म में होता है,उसमें तरह-तरह की मेटल मिक्स होती हैं,फिर उसकी प्रोसेस करते हैं,यह जानते हैं की कैसे गंध्गी आई,कैसे हटायें,कैसे शुद्ध हो...और फिर तरह तरह की मशीन में डालते हैं..और अग्नि में उबालते हैं जिससे वह शुद्ध हो जाता है,उसी प्रकार यह जीव है,इसकी भी ऐसी कहानी है..यह जीव को भी शुद्ध अवस्था को प्राप्त होना है)
नामस्थापना द्रव्य भावतस्तन्न्यासः।।
सम्यक दर्शन के बारे में नाम,स्थापना,द्रव्य और भाव से जान सकते हैं (नाम यानी की किसी का नाम नेत्रवान है,वल्कि उसके पास नेत्र नहीं है,तब भी नेत्रवान कहते हैं,स्थापना निक्षेप..प्रतिमा है लेकिन उसमें हम साक्षात् भगवान को मान कर पूजते हैं,द्रव्य निक्षेप-सेठ जी का पुत्र है तोह उसे भी लोग सेठ जी बोलते हैं,जबकि वह यह सब जानता भी नहीं है,भाव निक्षेप यानी की पुजारी जी हैं,मतलब मंदिर में पूजा करते हैं..लेकिन जब वह खाना खा रहे हैं,तब भी उन्हें पुजारी जी बोला जाता है,यह भाव निक्षेप है)
प्रमाणनयैरधिगमः।
सम्यक दर्शन के बारे में प्रमाण(वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान)...और नय के माध्यम से जाना जा सकता है(नय के माध्यम से वस्तु का कथन किया जाता है,प्रमाण के माध्यम से नहीं,जैसे की कोई लड़का है वह किसी का पुत्र है,भाई है,दोस्त है..लेकिन हम उसके बारे में बताएँगे तोह एक ही बात कहेंगे की यह उसका बेटा है,या किसी दूसरी जगह उसका भाई है,या किसी तीसरी जगह कहेंगे की यह दोस्त है)
निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरण स्थितिविधानतः।।
सम्यक दर्शन के बारे में निर्देश (मतलब सम्यक दर्शन है क्या जानकारी है),स्वामित्व (इसका स्वामी कौन है,जीव स्वामी है),साधन(कैसे प्राप्त किया जाए),अधिकरण(कहाँ होता है,त्रस-नाली में होता है,या जहाँ त्रस जीवों का निवास है,अधिकरण मतलब उसका SUBSTRATUM क्या है),स्तिथि (कब तक होता है ओप्शमिक कब तक होता है,क्षयिक कब तक होता है,क्षयिक कब तक होता है)..विधान(कितने प्रकार का है,भेद-उपभेद अदि के माध्यम से)
सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शनकालान्तर भावाल्पबहुत्त्वैश्च।।
सम्यक दर्शन के बारे में सत,संख्या,क्षेत्र,स्पर्शन,कालांतर,भाव,अल्प बहुत के माध्यम से जाना जा सकता है(इसको उद्धरण के माध्यम से समझें(दूकानदार के पास गए..मैंने कहा रोतोमो पेन दो..(पेन है मतलब होगा तब ही तोह कोई देगा..मतलब सत,दो पेन दे दो (संख्या),और यह पेन दूकान से मिला(क्षेत्र),कहाँ कहाँ ऐसी दुकाने हैं(स्पर्शन),कब से कब तक मिलता है(काल), (कब-कब दूकान बंद रहती हैअंतर,यह जानना भी तोह जरूरी है)..भाव (कितने का है .(भाव) लेकिन यहाँ पर सम्यक दर्शन के लिए भाव का मतलब कीमत नहीं है यहाँ मतलब है की किसके कैसे भाव है KSHAYIK.सम्यक दृष्टी के क्षयिक भाव,ओप्शमिक के ओप्शमिक भाव..अदि-अदि)कितने कितने (हरे वाले तीन,सफ़ेद वाले चार.(अल्प-बहुत).))
मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम्।।
मति-श्रुति अवधि,मन पर्याय और केवल ज्ञान यह ज्ञान है
तत्प्रमाणे
यह ज्ञान प्रमाण है (मतलब अब हम प्रमाण के बारे में बात कर रहे हैं,फिर अंत में नय की बात करेंगे)
आद्ये परोक्षम्।।
शुरू के दो (मति और श्रुति ज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं(इन्द्रिय और मन के माध्यम से होते हैं..कोई चीज को आँखों से देखते हैं,लाइट गयी तोह नहीं देख पायेंगे,हमें कोई मीडियम चाहिए..यानि की परोक्ष ज्ञान है)
.. ..
प्रत्यक्षमन्यत्
बचे हुए तीन प्रत्यक्ष ज्ञान है(अवधि,मन-पर्याय और केवल ज्ञान)
मतिःस्मृतिः संज्ञाचिन्ताभिनिबोध इत्यानर्थान्तरम्।।
मति,स्मृति,संज्ञा,चिंता(चिंतन),अभिनीबोध मति ज्ञान के दुसरे नाम हैं
तदिन्द्रयानिन्द्रियनिमित्तम्।।
यह मन और इन्द्रिय के माध्यम से होते हैं
अवग्रहेहावाय धारणाः।।
मति-ज्ञान चार प्रकार से इस तरह है -अवाग्रह,इहा ,अवाय,धारणा..(मतलब हमने किसी चीज को देखा पता लगा की कोई नीली सी,लम्बी सी चीज है (यह अवाग्रह है)..फिर यह बात आई की यह किसके पास रहती HAI (इहा)..फिर पता लगा की यह राजेश के पास रहती है (अवाय)..फिर यह बात दिमाग में बैठ गयी की यह चीज ऐसे-ऐसे है...जब भी उसको देखेंगे याद आ जायेगा(धारणा))हम किसी चीज को देखते हैं तोह कितने स्टेप्स में जानते हैं...यह आचार्य भगवंतों ने कितनी गहरे से बता दिया है...मति ज्ञान के सब मिलकर ३३६ भेद हैं..इसी ज्ञान से पूरा संसार चल रहा..
बहुबहुविधक्षिप्रानिः सृतानुक्त ध्रुवाणां सेतराणाम्।।
बारह प्रकार से मति ज्ञान होता है
इनमें से हर मति ज्ञान कई प्रकार के हैं,बहुतचीजों को जानना(बहु),बहुत प्रकार की चीजों का ज्ञान (बहु विध),क्षिप्र(जल्दी जान लेते हैं,कभी कभी चीजों को जल्दी जानते हैं),अ-क्षिप्रा (धीरे-धीरे समझना),अनिश्रत(आधी अधूरी बातों से पूरी बातें जान लेना)..निश्रत(पूरी तरह से चीज आये तब ही जानना..अनुक्त(थोड़ी सी बात से पूरी बात जानना,सुनते ही देखते ही पता चलना)..उक्त (अनुक्त का पता चलना)..ध्रुव (जिस चीज का जितना ज्ञान वैसा ही ज्ञान रहना)...अध्रुव ज्ञान(जिस चीज को जितना जाना उतना नहीं बना रहा,जैसे देखते देखते भूलते जाते हैं,याद किया शाम को भूल-न)..बिजली चमकना अदि अध्रुव अवग्रह हैं.
अर्थस्य।।
यहाँ तक व्यक्त पदार्थों का कथन हुआ अब अव्यक्त पदार्थों का कथन कर रहे हैं.
व्यञ्जनस्यावग्रहः
अव्यक्त चीजों को सिर्फ अवग्राह के माध्यम से जाना जाता है(न इहा होती है,न अवाय न धारणा)..(कहीं कोई आवाज आ गयी..बस समझ में आया आवाज आई,यह जानने की कोशिश नहीं होती है की किसने की कैसे हुई.. ..कुछ चीजों का बस अवाग्रह ही होता है,यह नहीं जाना जाता की किसने की,और कैसे हुई)
कोई चीज हमारे पास आई,देखते ही गायब हुई...और सिर्फ अवग्रह ही होकर रह गया)
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्।।
अव्यक्त चीजों को जानने में मन और चक्षु इन्द्रिय का इस्तेमाल नहीं होता (बहुत सी चीजें कानों में पड़ती है,ओझल हो जाती हैं..कोई ध्यान नहीं देता ,मन भी उधर नहीं जाता है,और चक्षु इन्द्रिय का भी कोई रोले नहीं होता..यह सब प्रक्टिकल चीजें हैं)
श्रुतं मतिपूर्वं ह्यनेकद्वादशभेदम्।।
श्रुत ज्ञान मति ज्ञान के बाद ही होता है (पदार्थ के विशेष के बारे में जानना)..यह दो प्रकार का है,बारह प्रकार का है(अंग प्रविष्ट-१२ अंगों का ज्ञान ) और कई प्रकार का है (अंग बाह्य)
भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्।। २१
भव् प्रत्य-भव के निमित्त से
अवधि ज्ञान (दो प्रकार का भव-प्रत्य,गुण प्रत्य--जिसमें भव प्रत्य नारकियों को और देवों को होता है,मतलब जन्म से साथ होता है)
क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्।।
क्षयोपषम के माध्यम से,सम्यक दर्शन,व्रत अदि गुणों के प्रकट होने के माध्यम से जो अवधि ज्ञान है वह गुण प्रत्या है..जो की ६ प्रकार का है (अनुगामी-एक भव से दुसरे भव जाए वह अनुगामी,अनानुगामी-जो अगले भव में छूट जाए वह अनानुगामी,जो अवधि ज्ञान जितनी मात्र है उससे बढ़ता रहे वह वर्धमान है,और जो घटता जाए वह हीमान,और जो न घटे न बढे वह अवस्थित,और जो कभी बढे कभी घटे वह अनवस्थित)...और यह मनुष्य और तिर्यंच को होता है
ऋजुविपुलमती मनः पर्ययः।।
मन-पर्याय ज्ञान ऋजुमति और विपुल मति दो प्रकार का है.
विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः।।
विपुल-मति ज्यादा विशुद्ध है ऋजु मति-मन पर्याय ज्ञान से ..विपुल मति मन की कुटिल बातों को किसी के मन में दिमाग से निकली हुई बातों को भी पता कर लेता है,लेकिन ऋजु मति सिर्फ सरल बातों को पता कर सकता है...यह ऋद्धि-धारी संयमी मुनियों को ही होता है
विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयोऽवधिमनः पर्यययोः।। २५
अवधि ज्ञान की और मनः-पर्याय ज्ञान के अलग-अलग क्षेत्र है...अवधि ज्ञान ज्यादा क्षेत्रों में मिलेगा,लेकिन मति ज्ञान-ऋद्धि धारी मुनियों में मिलेगा...मनः-पर्याय ज्ञान ज्यादा शुद्ध है अवधि ज्ञान से
मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वस्रवपार्यायेषु।।
मति,श्रुत,अवधि,मनः-पर्याय ज्ञान ६ द्रव्यों का होता है(लेकिन इसमें द्रव्य क्षेत्र का प्रमाण होता है)
रूपिष्ववधेः।। २७
अवधि ज्ञान रुपी पदार्थों का ही होता है,पुद्गल पदार्थों का.
तदनन्तभागे मनः पर्यस्य।।
मनः पर्याय ज्ञान से अवधि ज्ञान से जानी हुई चीज के अनंत-वे भाग के बारे में भी जाना जा सकता है.
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।।
सारे द्रव्य और सारी पर्याय को केवल ज्ञान से जाना जा सकता है
एकादीनि भाज्यानियुगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः।।
किसी भी जीव को कम से कम एक ज्ञान और ज्यादा से ज्यादा ४ ज्ञान एक साथ हो सकते हैं,अगर एक है तोह सिर्फ और सिर्फ केवल ज्ञान,दो हैं तोह मति-श्रुति ज्ञान,अगर तीन हैं तोह मति श्रुति अवधि या मनः पर्याय ज्ञान और चार हैं तोह मति-श्रुति-अवधि और मन-पर्याय ज्ञान होंगे
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।। 31
मति-श्रुति और अवधि ज्ञान ...यह विपरीत भी हो जाते हैं,मिथ्यात्व के साथ विपरीत भी होते हैं.
सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्।।
वास्तविकता से भ्रमित होने के कारण,मिथ्यात्व से ग्रसित होने के कारण वास्तु को सही नहीं न पहचान-पाने के कारण यह विपरीत हो-जाते हैं.
नैगमसंग्रहव्यवहारर्जु सूत्रशब्द समभिरूढैवंभूता नयाः।।
कथन करने के लिए जिसका आलंबन लिया जाए वह नय है.
नया सात प्रकार के हैं १.नैगम(जो विचार लौकिक रूधि में,सामान्य व्यवहार में देखने में आये hain २.संग्रह ३.व्यवहार ४.ऋजु ५.सूत्र-शब्द 6. समभिरू ७.दैवंभूता ..यह सात प्रकार की ने हैं..(इनको एक उद्धरण के माध्यम से समझेंगे ...जैसे की एक आदमी को किसी यात्रा पे जाना है..तोह जब वह जाने के लिए कपडे तैयार करता है..तब वह यात्री कहलाया जा सकता है,लेकिन कोई कहे हम तोह तब मानेंगे जब वह जाने के लिए तैयार हो,कोई तीसरा यह भी कह सकते हैं की जब वह स्टेशन पे पहुंचेगा तब यात्री कहलायेगा,चौथा यह भी कह सकता है की जब वह टिकेट खरीदेगा तब यात्री कहलायेगा पांचवा यह भी कह सकता है की यात्री तोह तब होगा जब वह ट्रेन पे चढ़ रहा हो,६ यह भी कह सकता है की यात्री तोह जब है जब वह बैठ गया हो..और सातवा यह भी कह सकता है जब ट्रेन चालू हो जाए वास्तव में तोह यात्री तब ही है...इस तरह से यह सात तरीके हैं..किसी को यात्री कहने के ...देखा जाए तोह पहले वाले का भी दृष्टिकोण सही है..और सातवे वाले का..कोई पूजा नहीं करता तब भी उसे पुजारी बोलते हैं..बहुत से लोग कहते हैं की यह पूजा नहीं कर रहा तोह हम इसे पुजारी नहीं बोलेंगे...तोह उनका कहना भी सही है..नय से मतलब यह निकलता है.
लिखने का आधार-मुनि श्री क्षमा सागर जी महाराज सवार दिए हुए श्री तत्वार्थ सूत्र अध्याय १ पर प्रवचन.
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक
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