जैन ज्ञान-JAIN RELIGION
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Tuesday, June 5, 2012
Friday, June 1, 2012
6 dhaala-chathi dhaal(Complete)
६ ढाला
छठी ढाल
पांच महाव्रत
षट काय जीव न हननतैं सब विधि दरव हिंसा टरी
रागादी भाव निवारतैं के हिंसा न भावित अवतरी
जिनके न लेश मृषा,न जल म्रण हूँ बिना दीयों गहैं
अठदशसहस विधि शीलधर,चिद ब्रह्मा में नित रमि रहे
शब्दार्थ
१,षट काय-६ कायिक जीव
२.न-नहीं
३.हननतैं-नुक्सान न पहुंचाते हैं,हिंसा नहीं करते हैं
४.सब विधि-हर प्रकार की
५.दरव-द्रव्य हिंसा
६.टरी-नहीं होती है
७.रागादी भाव-राग,द्वेष,क्रोध,मान,माया,लोभ,काम अदि
८.निवारतैं-दूर करके
९.भावित-भाव हिंसा
१०.अवतरी-नहीं होती है
११.न-नहीं
१२.जिनके-वह मुनिराज
१३.लेश-जरा सा भी
१४.मृषा-झूठ
१५.न जल-म्रण-नहीं जल और मिटटी
१६.हूँ-भी
१७.बिना दीयों-बिना दिए
१८.गहैं-ग्रहण नहीं करते
१९.अथदससहस-अठारह हजार
२०.विधि-प्रकार के
२१.शील धर-ब्रहमचर्य को धारण करके
२२.चिद-चैतन्य
२३.ब्रह्मा-आत्मा स्वरुप
२४.नित-हमेशा
२५.रमि-लीं रहते
भावार्थ
मुनिराजों के पांच-महा व्रतों का वर्णन
कर रहे हैं..सच्चे गुरुओं ने षट कायिक जीवों की हिंसा का त्याग किया होता
है,जिससे हर प्रकार की द्रव्य हिंसा नहीं होती है..और वह
राग-द्वेष,काम,क्रोध,मान,माया,लोभ और कामादि भावों का त्याग कर देते
हैं..दूर रहते हैं..जिससे भाव हिंसा नहीं होती है..यह अहिंसा महा व्रत
है..वह मुनिराज जरा सा भी झूठ नहीं बोलते..न ही स्थूल रूप से न अन्य किसी
रूप से..यह सत्याणु महाव्रत है..वह मुनिराज यहाँ तक की कहीं की जल और
मिटटी भी बिना दिए ग्रहण नहीं करते..यह अचौर्यनु व्रत है..और वह मुनिरह
अठारह हजार प्रकार के शीलों को धारण करते हैं...और हमेशा अपने चैतन्य
आत्मा स्वरुप में रमण करते हैं..लीं रहते हैं..यह ब्रहमचर्य महा व्रत
है...अपरिग्रह महाव्रत का वर्णन आगे के श्लोकों में मिलेगा.
अपरिग्रह महाव्रत और इर्या,तथा भाषा samiti
अंतर चतुर्दश भेद बाहर संग दशधा तैं टलें
परमाद तजि चउ कर माहि लखी समिति इर्यातैन चलें
जग सुहितकर सब अहितहर श्रुति सुखद सब संशय हरैं
भ्रम रोग हर जिनके वचन मुख चन्द्रतैं अमृत झरें
शब्दार्थ
१.अंतर-अंतरंग के
२.चतुर्दश-चौदह
३.भेद-प्रकार के
४.बहिरंग-बाहर के
५.संग-परिग्रह
६.दशधा-दस प्रकार के
७.तैं-इन दोनों से
८.तलें-त्याग करते हैं
९.परमाद-आलस्य
१०.तजि-त्याग कर
११.चउ-चार
१२.कर-हाथ
१३.माहि-जमीन
१४.लखी-देख कर
१५.समिति इर्या -इर्या समिति से चलते हैं
१६.जग-संसार का
१७.सुहितकर-भला करने वाली
१८.सब-सारे
१९.अहितहर-बुराई का नाश करने वाली
२०.श्रुति-सुनने में अच्छी लगने वाली
२१.सुखद-प्रिय लगने वाली
२२.संशय-शंका
२३.हरैं-हरने वाली
२४.भ्रम रोग-मिथ्यात्व-मोह रुपी रोग
२५.हर-दूर करके
२६.वचन-वाणी
२७.मुख चंद्रतैन-मुख चन्द्र-मंडल से
१८.झरे-झरते हैं
भावार्थ
मुनिराज
ने अन्तरंग के १४
परिग्रह(मिथ्यात्व,क्रोध,मान,माया,लोभ,रति,अरति,शोक,भय,हास्य,जुगुप्सा,स्त्री
वेद,नपुंसक वेद,पुन-वेद) और बाहर के १० परिग्रहों का त्याग किया होता
है..यह अपरिग्रह महा व्रत है...वह मुनिराज प्रमाद न करते हुए,आलस्य न करते
हुए..जीव दया के लिए चार-हाथ जमीन देखकर चलते हैं..जिससे किसी चींटी अदि
जीव की हिंसा न हो..यह इर्या समिति है...मुनिराज हमेशा सबके लिए
कल्याणकारी,सब विनाश को हरने वाली,कानों को प्रिय लगने वाली..और शंका अदि
को हरने वाली वाणी बोलते हैं..और मिथ्यात्व-मोह रुपी रोग को हरने वाले वचन
ऐसे प्रतीत होते हैं..जैसे की मुखारबिन्द से-मुख चन्द्र से अमृत झर रहे
हों.
एषणा समिति,आदान निक्षेपण समिति और व्युत्सर्ग समिति
छियालीस दोष बिन सुकुल श्रावक तनै घर अशन को
लें तप बढ़ावन को नहीं तन पोषते तजि रसन को
शुची संयम ज्ञान उपकरण लखी कें गहें लखी कें धरें
निर्जन्तु थान विलोक तन मल मूत्र श्लेषम परिहरै
शब्दार्थ
१.छियालीस दोष-छियालीस प्रकार के दोष.
२. बिना-दूर करके
३.सुकुल-उत्तम कुल के श्रावक के यहाँ
४.तनै- यहाँ,श्रावक जहाँ निवास करता है
५.अशन-आहार
६.पोषते-पुष्ट करने के लिए नहीं
७.तजि-त्याग करते हैं
८.रसन-६ या उनमें से किन्ही रसों का
9शुची-शुद्धता का प्रतीक कमंडल
१०.संयम-संयम का प्रतीक पिच्ची
११.ज्ञान-ज्ञान का प्रतीक शास्त्र
१२.लखी कै-देख कर
१३.गहें-ग्रहण करते hain
१४.धरें-रखते हैं
१५.निर्जन्तु-जीव रहित
१६.थान-स्थान
१७.विलोक-देख कर के
१८.श्लेषम-खकार,अन्य मेल अदि
१८.परिहरैन-छोड़ते हैं
भावार्थ
सच्चे
मुनिराज छियालीस दोषों की बिना सुकुल श्रावक के निवास स्थान पर आहार को
लेते हैं..वह भी तपस्या को बढ़ाने के लिए..न की तन को पुष्ट करने के
लिए...मुनिराज सिर्फ इसलिए आहार करते हैं..जिससे वह स्वाध्याय अदि काम
अच्छे से कर पाएं..और मुनिराज आहार में रसों अदि का त्याग करते हैं..मतलब ६
रसो में से किसी एक रस का दो रस का या सारे रसों का त्याग करते हैं..यह एषणा समिति है..वह मुनिराज संयम का उपकरण पिच्छि,ज्ञान
का उपकरण शास्त्र जी..और सुचिता का उपकरण कमंडल जीव दया की भावना से देख
कर रखते हैं..और देख कर उठाते हैं..जिससे किसी जीव का घात ना हो..यह आदान निक्षेपण समिति है वह
मुनिराज निर्जन्तु स्थान को देखकर ही..यानी की जीव रहित स्थान देखकर शरीर
में से निकलने वाली मल,मैल,मूत्र,खकार अदि को छोड़ते हैं यह व्युत्सर्ग
समिति है.इस तरह से पांच समितियों का वर्णन पूरा हुआ.
तीन गुप्ति और पंचेन्द्रिय निरोध
सम्यक प्रकार निरोध मन वच काय आतम ध्यावते
तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण उपल खाज खुजावते
रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असुहावने
तिन में न राग विरोध पंचेन्द्रिय जय पद पावने
शब्दार्थ
१.सम्यक प्रकार-भली प्रकार से,यथार्थ प्रकार से
२.निरोध-प्रवर्ती को रोक कर
३.मन-वच-काय-मन वचन और काय को रोक कर
४.ध्यावते-ध्यान करते हैं
५.तिन-उनकी
६.सुथिर-शांत
७.मृग-गण-हिरन और अन्य जानवर
८.उपल-पत्थर
९.खाज-खुजली
१०.खुजवते-खुजाने लगते हैं
११.रस-रसना इन्द्रिय के विषय
१२.रूप-चक्षु इन्द्रिय के विषय
१३.गंध-घ्राण इन्द्रिय के विषय
१४.फरस-स्पर्शन इन्द्रिय के विषयों
१५.शब्द-शुभ असुहावने-कर्ण इन्द्रिय के विषय
१६.राग-विरोध-रतइ-आरती-शुभ और अशुभ भाव
१७.जयं-जीतने वाले
१८.पावने-प्राप्त करते हैं
भावार्थ
तब
निर्ग्रन्थ मुनि..भली प्रकार से यथार्थ प्रकार से मन-वच-काय की प्रवर्ती
को रोक कर आत्मा का ध्यान करते हैं...तोह उनकी शांत और सुथिर मुद्रा को
देखकर मृग गण..उनकी इतनी शांत मुद्रा को देख कर,स्थिर मुद्रा को देख कर
मृग अदि जो जानवर होते हैं...उनको शिला समझ कर,पत्थर समझ कर शरीर की खुजली
को शांत करते हैं....यह त्रिगुप्ती हैं...निर्ग्रन्थ
मुनि..रसना,स्पर्शन,चक्षु,घ्राण और कर्ण इन्द्रियों के विषय में राग द्वेष
नहीं करते हैं..समता भाव रखते हैं....अच्छा आहार मिल गया तोह राग
नहीं....और थोडा कम आहार मिला तोह द्वेष नहीं...करते हैं....सुन्दर..असुंदर
की तरफ आकर्षित और अनाकर्षित नहीं होते...बदबूदार और खुशबूदार वस्तुओं
में राग-द्वेष नहीं करते...इस तरह से पांचो इन्द्रियों को वश में करने
वाले पंचेंद्रिया जय पद पाने वाले जिनेन्द्र कहलाते हैं..और जिनेन्द्र पद
पाते हैं
मुनियों के ६ आवश्यक और सात शेष गुण
समता सम्हारें थुति उचारें वंदना जिनदेव को
नित करैं प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण तजें तन अहमेव को
जिनके न न्हौंन न दन्त धोवन लेश अम्बर आवरण
भूमहि पिछली रयनि में कछु शयन एकासन करन
शब्दार्थ
१.समता-समता भाव..सामायिक
२.सम्हारें-धारण करते हैं
३.थुति-स्तुति या स्तवन
४.उचारें-उचारते हैं
५.को-जिनेन्द्र भगवन की
६.नित-रोज
७.प्रत्याख्यान-पापों को तजने का निश्चय
८.प्रतिक्रमण-पापों का प्रायश्चित और क्षमा
९.तजें-त्यागते
१०.अहमेव को-ममत्व को
११.न्हौंन-नहाते नहीं हैं
१२.दन्त धोवन-दांत साफ़ नहीं करना
१३.अम्बर-वस्त्र,परिग्रह
१४.आवरण-pehente
१५.न-नहीं
१६.भुमाहि-जमीन पर
१७.पिछली रयनि-रात्रि के पिछले प्रहर में
१८.कछु-थोडा सा
१९शयन-निद्रा लेते हैं
२०.एकासन-एक करवट से
भावार्थ
वह
मुनिराज ६ आवश्यक गुण पालते हैं..पहला रोज सामयिक करते हैं..और समता से
रहते हैं..हर प्राणी से समता भाव रखते हैं...राग-द्वेष नहीं करते हैं..वह
रोज चौबीस तीर्थंकरों की या सिद्ध भगवंतों की समूह रूप से स्तुति करते
हैं..यह स्तुति है..तीसरा वह किन्ही एक तीर्थंकर की की वंदना करते
हैं..वंदना से मतलब है अपने श्लोक खुद बना कर बोलते हैं...चौथा वह मुनि रोज
प्रत्याख्यान करते हैं..पापों को तजने का नियाम लेते हैं या आगे से न करने
का नियम लेते हैं..पांचवा प्रतिक्रमण करते हैं..और चता शारीर
से मोह त्याग कर कायोत्सर्ग करते हैं...यह ६ आवश्यक हुए..अब सात-शेष गुण
भी हैं..पहला वह मुनि स्नान नहीं करते हैं.दूसरा वह न दांत dhote हैं..तीसरा kinchit matra भी शरीर
पर वस्त्र परिग्रह नहीं रखते हैं...चौथा वह रात्री के पिछले प्रहर में
जमीन पर एक करवट से थोड़ी देर विश्राम करते हैं...बाकी के शेष गुण अगले दोहे
में..
मुनियों के शेष सात गुण और राग द्वेष का अभाव
एक बार दिन में ले आहार खड़े अलप निज पान में
कंचलोच करत न डरत परिषह,सो लगें निज ध्यान में
अरि मित्र, महल मसान,कंचन कांच,निंदन थुति करन
अर्घावतरण असि प्रहारन में सदा समता धरन
शब्दार्थ
१.अलप-थोडा सा
२.पान-हाथ में
३.कांच लोंच-केश लोंच
४.परिषह-२२ प्रकार के परिषहों से
५.सो लगें-जब लग जाते हैं
६.अरि-दुश्मन
७.मित्र-दोस्त
८.महल-राज-महल-संपत्ति
९.मसान-शमशान
१०.कंचन-सोना
११.निंदन-बुरे करने वाला
१२.थुति करन-स्तुति करने वाला,प्रशंसा करने वाला
१३. अर्घावतरण-अर्घ चढाने वाला,पूजा करने वाला
१४.असि प्रहरण-तलवार से बार करने वाला
१५.सदा-हमेशा
१६.समता धरन-समता भाव,एक जैसा व्यवहार करते हैं
भावार्थ
मुनियों
के बचे हुए शेष गुणों का वर्णन कर रहे हैं..वह मुनि एक बार दिन में आहार
लेते हैं...वह भी थोडा सा..एक समय सीमा के अंतर्गत...वह मुनि भोजन खड़े
होकर करते हैं..और निज हाथों से ही भोजन करते हैं..किसी वर्तन अदि का
उपयोग नहीं करते हैं....वह मुनि केश लोंच करते हैं...(यानी की सिर और दाढ़ी
के बालों का खींच कर त्याग करते हैं..न की कैंची अदि उपकरण से)..और
परिषहों से नहीं डरते हैं..जो की २२ प्रकार के होते हैं...और हमेशा अपने
आत्मा स्वाभाव में अपने आप में लींन रहते हैं....उन मुनियों के अन्दर
राग-द्वेष का आभाव होता है..यानि की दुश्मन-दोस्त,महल-शमशान,सोना और
कांच,निंदा करने वाला और प्रशंसा करने वाला,पूजा करने वाला और तलवार से बार
करने वाला,प्रहार करने वाला...इन सब से एक जैसा समता का भाव रखते
हैं..भेदभाव नहीं करते हैं..राग-द्वेष नहीं करते हैं.
रत्नत्रय अदि अन्य धर्म
तप तपैं द्वादश धरें अरु वृष दस रत्नत्रय सेवें सदा
मुनि साथ वा एकल विचरें हैं नहीं भाव सुख कदा
यों हैं सकल संजम चरित्र,सुनिए स्वरूपाचरण अब
जिस होत प्रकटी आपनी निधि,मिटे पर की प्रवर्ती सब
शब्दार्थ
1.तप तपैं द्वादश-बारह प्रकार के तप तपते हैं
२.अरु-और
३.वृष दस-दस धर्म
४.रत्नत्रय-सम्यक ज्ञान,सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र.
५.सेवें-धारण करते हैं
६.सदा-हमेशा
७.मुनि साथ-संघ के साधुओं के साथ
८.वा-या
९.एकल-अकेले ही.
१०.विचरें-विहार करते हैं
११.चहैं-चाहते नहीं हैं
१२.भाव सुख-सांसारिक,भौतिक सुख
१३,यों -इस प्रकार
१४.होत-होने से
१५.प्रकति-प्रकट होती है
१६.आपनी निधि-दर्शन ज्ञान स्वाभाव
१७.मिटे-मिट जाती है
१८.पर की-पर पदार्थों से
१९.प्रवर्ती-साड़ी निर्भरता
भावार्थ
वह
मुनिराज बारह प्रकार के तपों को धारण करते हैं.(अन्तरंग और बहिरंग
तप)...और १० धर्मों को धारण करते हैं..तथा सम्यक दर्शन,सम्यक ज्ञान और
सम्यक चरित्र को धारण करते हैं...मुनियों के साथ या एकल विहारी होकर विहार
करते हैं..और भौतिक,इन्द्रियजन,अस्थायी सांसारिक सुखों से विरक्त होते
हैं..और चाहते नहीं..इस प्रकार सकल संयम चरित्र का वर्णन हुआ...अब
स्वरूपाचरण चरित्र का वर्णन कर रहे हैं..जिस के प्रकट होने से आत्मा की
निधियां प्रकट होती हैं..और पर पदार्थों से हर प्रकार की प्रवर्ती मिट जाती
HAIN.
स्वरूपाचरण रूप चरित्र
जिन परम-पैनी सुबुधि छैनी अंतरात्म भेदिया
वर्णादी अरु रागादि से निज भाव को न्यारा किया
निज माहीं निज के हेतु,निजकर आपो आप गह्यो
गुण-गुणी,ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय मंझार कछु न भेद रह्यो
शब्दार्थ
१.जिन-जिन्होंने
२.परम-सबसे ज्यादा
३.पैनी-तीक्ष्ण
४.सुबुधि-सम्यक ज्ञान,भेद विज्ञान
५.छैनी-सम्यक ज्ञान रुपी छैनी से
६.अंतरात्म-आत्मा में
७.भेदिया-दाल दिया
८.वर्णादी-द्रव्य कर्म
९.रागादी-राग-द्वेष अदि से
१०.निज भाव को-आत्मा स्वरुप को
११.निज माहि-आत्मा में
१२.निज के हेतु-आत्मा के लिए
१३.निज कर-आत्मा के द्वारा
१४.आपो आप-खुद बा खुद..आत्मा ही आत्मा के लिए
१५.गह्यो-प्राप्त करती है
१६.ज्ञाता-जानने वाला
१७.ज्ञेय-जानने योग्य
१८.गुणी-जिसमें गुण हों
१९.मंझार-में
२०.कछु न भेद रह्यो-कुछ अंतर नहीं रह जाता है
भावार्थ
स्वरूपाचरण
रूप चरित्र की बात कह रहे हैं..मुनिराज स्वरूपाचरण रूप में परम-पैनी-परम
तीक्ष्ण सम्यक ज्ञान या भेद विज्ञान रुपी छैनी से जब आत्मा को भेदते
हैं...इस सम्यक ज्ञान के छैनी को परम-तीक्ष्ण इसलिए कहा है क्योंकि कर्म
रुपी मैल को काटने के लिए तोड़ने के लिए संसार की कोई भी छैनी नहीं है..चाहे
आग में बैठ जाओ..पानी में बैठ जाओ...कर्म नहीं जलेंगे..लेकिन सम्यक तप की
अग्नि एक ऐसे अग्नि है..जो कर्म रुपी मैल को जलने में समर्थ है..इसलिए इस
सम्यक ज्ञान-भेद विज्ञान रुपी छैनी को परम पैनी कहा है...और इस सम्यक ज्ञान
रुपी छैनी से मुनिराज जब आत्मा को भेदते हैं..तोह राग-द्वेष अदि भाव
कर्मों से और द्रव्य कर्मों से निज को न्यारा कर लेते हैं..वह मुनिराज खुद
में ही यानी की आत्मा में,आत्मा के लिए,आत्मा के द्वारा आत्मा को प्राप्त
कर लेते हैं..फिट गुण-गुणी,ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय के बीच में कोई भी अंतर नहीं
बचता है क्योंकि..जो जानने वाला है..वोही ज्ञान और जो ज्ञान है वह ही
जानने योग्य..गुण भी आत्मा है..और गुणी भी आत्मा है.
स्वरूपाचरण रूप चरित्र
जहाँ ध्यान ध्याता ध्येय को न विकल्प वच न भेद जहाँ
चिदभाव कर्म चिदेश करता चेतना क्रिया तहां
तीनों अभिन्न अखिन्न शुद्धोपयोग की निश्चल दशा
प्रकति जहाँ दृग ज्ञान चरण तीनधा एकै लसा
शब्दार्थ
१.ध्याता-जो ध्यान करे
२.ध्येय-ध्यान करने योग्य
३.वच-वचन का
४.भेद-अंतर नहीं रहता है
५.चिदभाव कर्म- चेतना ही कर्म
६.चिदेश करता-चेतना ही करता
७.तहां-वहां
८.अभिन्न-एक ही
९.अखिन्न-बाधा रहित
१०.निश्चल-अटल
११.प्रकति-जहाँ प्रकट होती है
१२.दृग-सम्यक दर्शन
१३.ज्ञान-सम्यक ज्ञान
१४.चरन-सम्यक चरित्र
१५.तीनधा-तीनों
१६,एकै-एक साथ
१७.लसा-शोभायमान होती हैं
भावार्थ
उस स्वरूपाचरण
रूप चरित्र में ध्यान करने वाला,ध्यान करने योग्य वास्तु और
ध्यान का कोई विकल्प नहीं रहता और न ही वचन का विकल्प होता है...उस चरित्र
में तोह चेतना ही कर्म अहि चेतना ही करता है और चेतना ही क्रिया
है..यह अवस्था जब एक साथ बाधा रहित..हो जाती या आ जाती
है..तोह वह ही शुद्धोपयोग की निश्चल दशा है..जहाँ सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान
और सम्यक चरित्र एक साथ प्रकट हो कर शोभायमान होते हैं.
स्वरूपाचरण रूप चरित्र और निर्विकल्प ध्यान
प्रमाण-नय-निक्षेप को उघोत न अनुभव में दिखे
दृग-ज्ञान सुख बलमय सदा नहीं आनु भाव जु मो विखे
मैं साध्य-साधक-मैं अबाधक,कर्म अरु तसु फलिन्तैं
चित-पिण्ड,चंड,अखंड सुगुण अकरंड च्युत पुनि कलिन्तैन
शब्दार्थ
१.प्रमाण-वस्तु के सारे अंशों को जानना
२.नय-वस्तु के अंश को जानना
३.उघोत-प्रकाश
४.अनुभव में-ध्यान में
५.दृग-अनंत दर्शन
६.ज्ञान-अनंत ज्ञान
७.सुख-अनंत सुख
८.बलमय-अनंत बल
९.आनु भाव-कोई दूसरा भाव
१०.जू मो विखे-मेरे में नहीं है
११.मैं साध्य-मैं ही साधने लायक हूँ
१२.साधक-साधने वाला हूँ
१३.अबाधक-बाधा रहित हूँ
१४.अरु-और
१५.तासु-उसके
१६.फलिंतैन-फल से
१७.चित-पिण्ड-चेतना का पिण्ड हूँ
१८.चंड-निर्मल और ऐश्वर्या शाली हूँ
१९.अखंड-भेद रहित
२०.सुगुण अकरंड-अनंत गुणों की पिटारा हूँ
२१.च्युत-रहित हूँ
२२.कलिन्तैन-दोषों से
भावार्थ
उस
स्वरूपाचरण रूप चरित्र में मुनिराज को वास्तु के सारे अंशों को जानना या
एक अंशों को जानना सम्बंधित कोई भी प्रकाश ध्यान में नहीं होता है..क्योंकि
प्रमाण नय भी तोह विकल्प ही हैं..लेकिन मुनिराज निर्विकल्प ध्यान में होते
हैं..उन्हें तोह बस इस बात का अनुभव होता है की मेरा स्वाभाव तोह अनंत
दर्शन,अनंत ज्ञान,अनंत सुख और अनंत बल है जो हमेशा रहता है..और मेरे अन्दर
कोई मेरे राग-द्वेष अदि भाव मौजूद नहीं है..मैं ही साधने योग्य हूँ और मैं
ही साधक हूँ..और मैं कर्म और उसके फलों से बाधा रहित हूँ,कर्म और उसके फल
मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते..मैं तोह चेतना का भंडार हूँ,निर्मल और ऐश्वर्य
शाली हूँ,और भेद रहित कभी न खत्म होने वाले अनंत गुणों का पिटारा हूँ और
मैं हर प्रकार के दोष,मेल,गंदगी,पाप अदि से रहित हूँ.
असीम आनंद-और केवली अवस्था
यों चिंत्य निज में थिर भये तिन अकथ आनंद भयो
सो इन्द्र नाग-नरेन्द्र व अह्मिन्द्र को नहीं कहो
तबही शुक्लध्यानाग्नीकरी चऊ घाति विधि कानन दह्यो
सब लख्यो केवल ज्ञानकरि,भविलोक को शिव-मग कह्यो
शब्दार्थ
१.यों-इस प्रकार से
२.चिंत्य-चिंतन करते हुए
३.निज में-आत्मा स्वाभाव में
४.थिर भये-थिर हो जाते हैं..ध्यान करते हैं
४.थिर भये-थिर हो जाते हैं..ध्यान करते हैं
५.तिन-उन्हें
६.अकथ-अकथनीय
७.आनंद भयो-आनंद होता है
८.सो-वैसा आनंद
९.इन्द्र-नाग-नरेन्द्र-सौधर्म इन्द्र,नागेन्द्र और राजा-महाराजा चक्रवती आदियों को भी
१०.अह्मिन्द्र-स्वर्ग के ऊपर के देव
११.को नहीं कह्यो-उनको भी नहीं होता है
१२.तबहि-उसी समय
१३.शुक्लध्यानाग्नीकरि-शुक्ल ध्यान रुपी अग्नि से
१७.चऊ घाति विधि-चारो घतिया कर्म
१८.कानन-कर्म
१९.नाश-ख़त्म हो जाते हैं
२०.सब-सब कुछ
२१.लख्यो केवल ज्ञानकरी-केवल ज्ञान के माध्यम से
२२.भविलोक को-भव्य जीवों को
२३.शिव मग कह्यो-भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग का उपदेश देते हैं
भावार्थ
पिछले
श्लोक में बताये गए आत्मा स्वरुप का
चिंतन KARTE HAIN TOH UNHEIN VAH AKATHNIYA...SHABDON के द्वारा न बताया जा सकने वाला आनंद
होता है...वैसा आनंद न ही इन्द्र..न नागेन्द्र..न नरेन्द्र,न चक्रवती यहाँ
तक की अह्मिन्द्रों को भी नहीं आता है..तब ही शुक्ल-ध्यान रुपी अग्नि के
माध्यम से चारो घातिया कर्मों का नाश कर देते HAIN..और केवल ज्ञान के
माध्यम से सब कुछ एक समय जन जाते HAIN...सकल द्रव्य के अनंत गुण और अनंत
परजाय HAIN..और इन सब को एक ही समय में..१ सेकंड के लाखवे हिस्से में जान
जाते HAIN...और भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग का उपदेश देते HAIN.
पुनि घाति शेष अघाति विधि,छिनमाहीं अष्टम भू- वसै
वसु कर्म विनसें सुगुण वसु सम्यक्त्व अदिक सब लसैं
संसार खार-अपार पारावार,तरि तीरहि गए
अविकार,अकाल,अरूप,शुद्ध,चिद्रूप अविनाशी भये
शब्दार्थ
१.पुनि-फिर उसके बाद
२.घाति-नष्ट करके
३.शेष अघाति-विधि --बचे हुए अघतियों कर्मों को
४.छिनमाहीं- बहुत कम समय में
५.अष्टम भू-आठवी पृथ्वी -ईषत प्रागार-मोक्ष
६.वसु कर्म-आठों कर्म विनाश जाते हैं
७.सुगुण वसु-आठ मूल गुण
८.सम्यक्त्व अदिक-अनंत दर्शन,अनंत ज्ञान,अनंत वीर्य,अनंत चरित्र,सूक्ष्मत्व
९.लसैं-शोभायमान होते हैं
१०.संसार खार अपार पारावार -संसार रुपी खारे और अनंत समुद्र से
११.तरि-तर कर
१२.तीरहि -किनारे पे
१३.अविकार-राग-द्वेष रहित
१४.अकाल-शारीर रहित
१५.अरूप-रूप रहित-ज्ञान-दर्शन ही जिसका रूप
१६.शुद्ध-दोष रोहित
१७.चिद्रूप-दर्शन ज्ञान
१८.अविनाशी-स्थिर-नित्य
१९.भये-हो गए
भावार्थ
वह
मुनिराज चार-घातियां कर्मों के नाश के बाद,केवली अवस्था को प्राप्त करने
के बाद-बाकी बचे हुए ४ अघातिया कर्मों का नष्ट कर देते हैं(वेदनीय कर्म,आयु
कर्म,नाम कर्म और गोत्र कर्म)...और उन चारों कर्मों को नष्ट करते ही समय
के लाखवे हिस्से में अष्टम भू ईषत
प्रागार पृथ्वी पर पहुँच जाते हैं..और आठों कर्मों के विनाशने
के कारण अष्ट गुण (अनंत-दर्शन,अनंत ज्ञान,अनंत चरित्र,अनंत
वीर्य) अदि प्रकट हो जाते हैं...और यह सब शोभायमान होते
हैं...वह बहुत धन्य है क्योंकि उन्होंने संसार रुपी खारे,दुःख से भरे हुए
समुद्र को पार कर लिया और किनारे पे पहुँच गए..और अविकार-राग द्वेष रहित
( जो दुःख का कारण है),२.अकाल-शारीर रहित ३.अरूप-रूप रहित ४.शुद्ध -दोष
रहित,चैतन्य और स्थिर स्वाभाव को पार कर लिया..अब वह अपने आप में पूरे
हैं..और उन्होंने सब कुछ पा लिया है.
सिद्ध अवस्था
निजमाहीं लोक अलोक गुण-पर्याय प्रतिबिंबित थये
रही हैं अनंत काल,यथा-तथा शिव परिणये
धनि धन्य हैं वह जीव,जो नर-भाव पाय यह कारज कियो
तिन्हीं अनादि भ्रमण पंच-प्रकार तजो वर-सुख लियो
शब्दार्थ
१.निजमाहीं-उन्हें अपने अन्दर ही..आत्मा में
२.लोक-अलोक-लोककाश और अलोकाकाश
३.गुण-पर्याय-जो एक द्रव्य को दुसरे द्रव्य से भिन्न करे वह गुण...और द्रव्य की अवस्थाएं पर्याय
४.प्रतिबिंबित थये -झलकने लगते हैं
५.रही हैं अनंतकाल-अनंत काल तक वहीँ पर रहेंगे
६.यथा-जिस प्रकार
७.परिणय-गए हैं
८.धनि-धन्य हैं वह जीव- वह जीव बहुत धन्य हैं.
९.जो नर भव पाय-मनुष्य योनी की पाकर
१०.यह कारज किया-यह पुरुषार्थ किया
११.तिन्ही-उन्होंने
१२.अनादि-जिसका न अदि है
१३.पंच प्रकार-द्रव्य,क्षेत्र,भाव,काल,भव
१७.तजि-त्याग कर
१८.वर सुख लियो-उत्तम सुख प्राप्त किया
भावार्थ
जिन्होंने
आठों कर्मों को नष्ट करके..शिव पद प्राप्त किया...सिद्ध अवस्था में
उन्होंने अपने आत्मा स्वरुप में दर्पण के सामान लोक और अलोक
के गुण और पर्याय झलकते हैं..या प्रतिबिंबित होते हैं....अब वह वहां
निराकुल अवस्था में अनंत काल तक रहेंगे...जिस प्रकार उन्होंने शिव सुख को
प्राप्त किया है..उसी प्रकार अब वह अनंत काल तक वहां रहेंगे..इसलिए ऐसे जीव
धन्य हैं जिन्होंने दुर्लभ मनुष्य पर्याय,सुकुल और जिनवाणी,सच्चे देव
शास्त्र गुरु की शरण पाकर यह पुरुषार्थ किया..और उन्होंने अपने अनादि काल
से द्रव्य,क्षेत्र,भाव,काल और भव के परिवर्तन को त्याग कर उत्तम सुख पाया.
रत्नत्रय धारण करने का उपदेश
मुख्योपचार दुभेद यों बडभागी रत्नत्रय धरैं
अरु धरेंगे,ते शिव गहैं,निज सुयश जल जग मल हरैं
इमि जानि आलस हानि,साहस ठानी यह सिख आदरो
जबलौं न रोग जरा गहैं,तबलौं निज हित हित करो
शब्दार्थ
१.मुख्योपचार--व्यवहार और निश्चय
२.दुभेद-दो प्रकार से
३.यों बडभागी रत्नत्रय धरैं- इस तरह से बहुत भाग्यवान रत्नत्रय को धारण करते हैं
४.शिव-मोक्ष
५.गहैं-पाते हैं
६.मल-गंधगी
७.इमि -इतना
८.हानि-त्याग कर
९.सिख-शिक्षा
१०.ठानी-धारण कर
११.जबलौं-जब तक
१२.जरा-बुढापा
१३.तबलौं-तब तक
भावार्थ
निश्चय या
व्यवहार रूप से जो भाग्यशाली और पुरुषार्थी जीव रत्नत्रय को धारण करते
हैं..या आगे धारण करेंगे..वह शिव को..यानी की निराकुल आनंद सुख को प्राप्त
होंगे..और अपने सुयश..ख्याति रुपी जल से संसार का मॉल हरेंगे..इसलिए इतना
जानने के बाद आलस का त्याग करके साहस ठान इस सीख को ग्रहण करो..की जब तक
शारीर में रोग-बुढापा अदि न लग जाए..जब तक अपना हित करलो.
ह राग आग दहै सदा तातैं समामृत सेइये
चिर भजे विषय कषाय,अब तोह त्याग निजपद बेइये
कहाँ रच्यो पर पद में न तेरो पद यह क्यों दुःख सहे
दौल होऊं सुखी निजपद रूचि दाव न चूको यह
शब्दार्थ
१.आग-अग्नि
२.दहै-जलाती है
३.तातैं-इसलिए
४.समामृत-समता भाव रुपी अमृत
५.सेइये-पीजिये
६.चिर-अनंत काल से
७.भजे-पुष्ट किये..लगा रहा
८.निजपद-आत्मा स्वरुप का ध्यान,निज स्वरुप का ध्यान
९.बेइये-ध्यान करो
१०.कहाँ रच्यो-कहाँ खो गए हो
११.पर पद-पर पदार्थ में-शारीर में
१२.न तेरो पद यह-यह तेरा स्वरुप नहीं है
१३.दौल होऊं सुखी-दौलत राम सुखी होऊं
१४.निज पद रूचि-अपने स्वरुप में रूचि रख कर
१५.दाब-मौका
१६.चुको-मत खोना है
भावार्थ
कविवर
दौलत राम जी अपने आप को संबोधते हुए कह रहे हैं की ..यह राग-द्वेष रुपी आग
हमेशा जलाती है..और अनंत काल से जला रही है..अब तोह इसे त्याग कर समता भाव
रुपी अमृत पियो..मैंने अनंत काल से विषय-कषायों को ही तोह भज है..इन्ही
में तोह रहा हूँ..और उसके कारण दुःख सहा है..अब तोह इन्हें त्याग कर
निजस्वरूप को ध्यान करू..मैं कहाँ पर पदार्थ में अचेतन वस्तुओं में..शरीर
में रच रहा हूँ..यह मेरा पद नहीं है..तोह मैं इसके चक्कर में क्यों दुखी हो
रहा हूँ.इन पर-पदार्थों के चक्कर में दुःख सह रहा हूँ...अब मैं सुखी
होऊंगा..तोह निजपद में रूचि रखकर..इस दुर्लभ अवसर को नहीं खोना है.
ग्रन्थ कर्ता की भावना
एक नव वसु एक वर्ष की तीज शुक्ल बैसाख
करयो तत्व उपदेश यह रखी बुधजन की बाख
लघु दीं तथा प्रमाद्तैं शब्द अर्थ की भूल
सुधि सुधार पढो सदा जो पाओ भव कूल
शब्दार्थ
१.एक नव वसु एक-१८९१ वर्ष की (1891 )
२.तीज शुक्ल बैसाख-बैसाख महीने की शुक्ल पक्ष की तीज
३.कार्यो-किया
४.तत्व उपदेश-तत्वों क उपदेश
५.लखी-देखकर
६.बुधजन-बुधजन कवी को देखकर
७.लघु दीं-अल्प बुद्धि
८.प्रमाद्तैं-आलस्य के कारण
९.शब्द-अर्थ-शब्द या उनके अर्थ बताने
१०.भूल-गलती
११.सुधि-बुद्धिमान
१२.भव कूल-संसार से तर जाओ.
भावार्थ
अब
कविवर दौलत राम जी कह रहे हैं कि १८९१ (1891 ) वर्ष में वैसाख महीने कि
शुला पक्ष कि तीज को यह तत्वों क उपदेश उन्होंने पूरा किया है..जिसके लिए
उन्हें प्रेरणा बुधजन कवि से मिली है..वह हमसे कह रहे हैं कि अगर
अल्प-बुद्धि तथा प्रमाद के कारण अगर शब्दों के अर्थ बताने में गलती हुई
हो..तोह ज्ञानी जन,बुद्धिमान जन उन्हें सुधर कर पढ़ लें..और भव सागर से पार
उतरें.
रचयिता-कविवर दौलत राम जी
लिखने क आधार-स्वाध्याय(६ ढाला,संपादक-पंडित श्री रत्न लाल बैनाडा जी,डॉ श्री शीतल चंद जैन जी)
(सम्पूर्ण ६
ढाला कि फेसबुक पे पोस्टिंग्स पूरी हुईं..अगर मुझसे अल्प बुद्धि या प्रमाद
के कारण कविवर दौलत राम जी कि बात यहाँ तक पहुँचाने में कोई भूल हो(शब्द
अर्थ कि भूल हुई हो) तोह बुद्धिमान लोग सुधार कर पढ़ें.)
मिथ्यातम नासवे को, ज्ञान के प्रकासवे को,
आपा-पर भासवे को, भानु-सी बखानी है ।
छहों द्रव्य जानवे को, बन्ध-विधि भानवे को,
स्व-पर पिछानवे को, परम प्रमानी है ॥
आपा-पर भासवे को, भानु-सी बखानी है ।
छहों द्रव्य जानवे को, बन्ध-विधि भानवे को,
स्व-पर पिछानवे को, परम प्रमानी है ॥
अनुभव बतायवे को, जीव के जतायवे को,
काहू न सतायवे को, भव्य उर आनी है ।
जहाँ-तहाँ तारवे को, पार के उतारवे को,
सुख विस्तारवे को, ये ही जिनवाणी है ॥
काहू न सतायवे को, भव्य उर आनी है ।
जहाँ-तहाँ तारवे को, पार के उतारवे को,
सुख विस्तारवे को, ये ही जिनवाणी है ॥
हे जिनवाणी भारती, तोहि जपों दिन रैन,
जो तेरी शरणा गहै, सो पावे सुख चैन ।
जा वाणी के ज्ञान तें, सूझे लोकालोक,
सो वाणी मस्तक नवों, सदा देत हों ढोक ॥
जो तेरी शरणा गहै, सो पावे सुख चैन ।
जा वाणी के ज्ञान तें, सूझे लोकालोक,
सो वाणी मस्तक नवों, सदा देत हों ढोक ॥
सबको साथ देने के लिए शुक्रिया.सबको जय जिनेन्द्र
जय जिनेन्द्र जय जिनवाणी माता..जय जिन धर्म..वीतराग धर्म
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