Friday, June 10, 2011

6 dhaala-teesri dhaal-samyak darshan ke ashta ang

६ ढाला

तीसरी ढाल
सम्यक दर्शन के अष्ट अंग

जिन वच में शंका न,धारे वृष,भव सुख भाँछा भाने
मुनि तन मलिन न देख घिनावे,तत्त्व कुतत्व पिछाने
निज गुना अरु पर औगुण ढाके,वा निज धर्म बढावे
कामादिक कर वृषतै चिगते,निज पर को सु दिढ़आवे
धर्मी सो गोवक्ष प्रीती सम कर,जिन धर्म दिपावे
इन गुना ते विपरीत दोष वसु तिनको सतत खिपावें


शब्दार्थ
१.वच-वचन
२.वृष-वीतराग धर्म
३.भांछा-छह
४.भाने-नहीं करना
५.घिनावे-घ्रणा न करना
६.मलिन-गंध
७.तत्व-कुतत्व-सही गलत
८.पिछाने-पहचान करना
९.औगुण-अव गुण
१०.ढाके-ढकना
११.निज धर्म- वीतराग=आत्म धर्म
१२.कामादिक-काम,क्रोध,मान,माया,लोभ,राग,द्वेष अदि
१३.वृषतै-धर्म से
१४.चिगते-भटकते
१५.सु-फिर से
१६.दिढ़आवे -सही रास्ते पे ले आना
१७.गोवक्ष-गाय-बछड़े के सामान प्रीती
१८.सो-से
१९.सम-सामान
२०.दिपावे-प्रभावना करे
२१.वसु-आठ
२२.सतत-हमेशा
२३.खिपावे-दूर रहना चाहिए

भावार्थ
श्री जिनेन्द्र भगवान (वीतरागी,सर्वज्ञ और हितोपदेशी) की वाणी पे शंका नहीं करना निशंकित अंग है..जिन धर्म के अलावा और किसी अन्य धर्म को धारण नहीं करना और जिनेन्द्र भगवान से सांसारिक सुख की चाह न करना निकान्छित अंग है...मूल गुणों का पालन और परिषह सहने वाले..परम त्यागी,तपस्वी मुनि राज के मैले शरीर को देखकर घृणा न करना..और उनकी सेवा के भाव रखना..निर्वचिकित्सा अंग है..और सही और गलत तत्व की पहचान करना अमूढ़दृष्टी अंग है...अपने गुणों को और दुसरे के गुणों को उजागर न करना...बल्कि ढकना..और अपने वीतराग धर्म में वृद्धि करना उपगूहन अंग है..और काम,क्रोध,मान,माया,लोभ,राग.विकार अदि कारों की वजह से अगर खुद धर्म से डिग रहे हैं..तोह संभल जाना और कोई दूसरा डिग रहा है तोह उसे संभाल लेना स्तिथिकरण अंग है...अपने साधर्मी से गाय-बछड़े के सामान प्रीती करना..या प्रीती रखना...वात्सल्य अंग है..और जैन धर्म की प्रभावना ( वीतराग धर्म की प्रभावना करना)..यानि की धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेना...प्रभावना करना...रात्रि भोजन अदि का त्याग करना प्रभावना अंग है.इस प्रकार यह सम्यक दर्शन के अष्ट अंग हैं...और इन अंगों के विपरीत आठ दोष हैं..जिनको हमेशा त्यागना चाहिए..दूर रहना चाहिए.

रचयिता-श्री दौलत राम ji
लिखने का आधार-swadhyay( ६ ढाला,संपादक -श्री रतन लाल बैनाडा ji,डॉ शीतल चंद जैन)

जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.


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