Friday, May 25, 2012

NIKAANSKHIT ANG


संसार के भोग कर्म उदय के अधीन हैं,अंत से सहित हैं,दुःख से सहित,पाप के बीज हैं..इसलिए ऐसे भोग  में सुख की आस्था नहीं करने वाले को निकान्क्षित अंग होता है.

संसार के भोग कर्म उदय के अधीन हैं,अशुभ कर्म का उदय होगा तोह जिन पैसो से मकान खरीद रहे हैं...वह पैसे भी चोरी हो जाते हैं या चोरी हो जाते हैं,हाथ में आई रोटी भी कोई क्षीण लेता है..
उसमें भी हजारों परधीनताओं से सहित हैं...जैसे गर्मी में एसी,पंखे की अधीनता.,सर्दी में रजाई की अधीनता,...कुछ खरीदना है तोह पैसों की अधीनता,कहीं जाना है तोह सबसे पहले स्वस्थ शरीर की अधीनता,फिर वाहान की अधीनता,और उसे सही करवाने के लिए एक नौकर की अधीनता,..खाने के लिए रोटी की अधीनता....उसमें भी बनाने वाला होने की अधीनता...भोगों के लिए स्त्री की अधीनता....,पढने के लिए चश्मों की अधीनता,...अदि-अदि हजारों परधीनताओं से सहित हैं..संसार के भोग.

मुनि क्षमा सागर जी महाराज ने एक दृष्टांत दिया था
की एक आदमी भैंस को रस्सी से बाँध कर ले जा रहा है....अगर हमसे पुछा जाए की कौन किस्से बंधा है...तोह आम आदमी यही कहेगा..की भैंस रस्सी से बंधी है.......या भैंस आदमी से बंधी है....लेकिन सही मायने में आदमी भैंस से बंधा हुआ है...अगर रस्सी छोड़ दी जाए तोह कौन-किसके पीछे भागेगा..आदमी भैंस के पीछे,या भैंस आदमी के पीछे...........सही जवाब आदमी भैंस के पीछे....तोह कौन-किसके अधीन है-आदमी भैंस के अधीन है...इस प्रकार यह भोग हजारों परधीनताओं से सहित हैं..
उसके बाद भी अंत सहित हैं...स्वाधिष्ट खाने का स्वाद खाने की अवधि तक ही आता है...अब जो दाल स्वाधिष्ट लग रही थी,सुख दाई लग रही थी...मूंह में जाने तक उसमें स्वाद आना भी बंद हो जाता है..,एक न एक दिन स्त्री का,पति का,मकान का,रिश्तेदारों का,सुख सुविधाओं का वियोग होता ही है.
और ऐसा भी नहीं है की यह भोग एक अखंड धरा-प्रवाह के साथ चलें...यह बीच-बीच में दुखदायी भी होते हैं...दुःख से सहित होते हैं.....वोह ही चीज कभी अच्छी लगती है...तोह वोह ही चीज कभी खराब भी लगती है..बुखार के समय ठंडा पानी ही दुखदायी होता है...जो बहुत अच्छा लगता है...ज्यादा एसी की हवा भी कभी-कभी दुःख को देने वाली हो जाती है...और बाहार निकलते ही दुःख को देने वाली होती है,बीमारी का कारण होती है...जिस चीज का संयोग है उस चीज का वियोग भी है..इसलिए अंत सहित है

और यह भोग पाप के बीज हैं...इन्ही के कारण जीव पाप करता है...कोई पंखा चलाएगा तोह जीव हिंसा करेगा,स्त्री भोग में जीव हिंसा,कुछ खाने में जीव हिंसा...धर्म से दूर रखते हैं ,इन भोगों में फसकर जीव आत्मा-परमात्मा का ध्यान नहीं करता है......

इसलिए सम्यक-दृष्टी इन विषय भोगों में सुख मानता ही नहीं है तोह इनकी वह चाह कैसे कर सकता है......वह तोह स्वर्ग से ऊपर एह्मिन्द्र की आयु में भी सुखों की आस्था नहीं रखता है..जब सुख ही नहीं मानेगा...तोह चाहेगा कैसे...

समयक-दृष्टी को सात-तत्व का अटल श्रद्धां होने से बहुत आनंद आता है...और आत्म सुख का चिंतवन करते हुए आनंद-माय रहता है.......

गृहस्थ सम्यक-दृष्टी इन विषयों में सुख भी नहीं मानता,लेकिन उसमें फंसा भी रहता है.....तोह इस बारे में कहा गया...की जैसे कोई रोगी कडवी औषधि पीने में सुख न मानते हुए भी पीता है,और यह चाहता है की कब यह छूते,उसी प्रकार गृहस्थ सम्यक-दृष्टी अपने आप को संयम लेने में असमर्थ जानकार..गृहस्थी में रहता है...लेकिन गृहस्थ के भोगों से विरक्त ही रहता है,जैसे ६ ढाला में लिखा है की "गेही पै गृह में न रचे ज्यों जलते भिन्न कमल है,  नगर नारी का प्यार यथा कादे में हेम अमल है"...जैसे कमल कीचड में रहकर भी कीचड में लिप्त नहीं होता,वेश्या का प्यार सिर्फ दिखावे का होता है,सोना कीचड में कीचड रहित रहता है...उसी प्रकार..सम्यक-दृष्टी घर में रहकर भी घर से विरक्त रहता है...
 
जैसे भरत-चक्रवती अविरत सम्यक-दृष्टी थे...९६००० रानियाँ होकर भी उनसे विरक्त रहते थे.......कितने महान थे!!!!!

 धन्य है ऐसे निकान्क्षित अंग को पालन करने वाले लोग जिन्हें स्वर्ग तोह बहुत दूर एह्मिन्द्र में भी सुख नहीं मानते और आत्मा के शास्वत सुख का चिंतवन करते हुए सात भयों से रहित(निशंकित )..और आनंद मय रहते हैं.

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