Saturday, May 21, 2011

6 dHala-doosri dhaal-grahit mithyagyan,grahit mithyacharitra aur kavi ka mithyatva tyagne ka updesh

६ ढाला

दूसरी ढाल

गृहीत मिथ्याज्ञान का स्वरुप

एकान्तवाद दूषित समस्त,विषयादिक पोषक अप्रशस्त
कपिलादी रचित श्रुत को अभ्यास,सो है कुबोध बहु दें त्रास

गृहीत मिथ्यचरित्र का स्वरुप

जो ख्याति लाभ पूजादि छह,धरि कारन-विविध-विध देह्दाह
आतम अनातम के ज्ञान हीन,जे-जे करनी तन कारन छीन

कवि का मिथ्यात्व त्यागने का उपदेश

ते सब मिथ्यचरित्र त्याग अब निज आतम के पंथ लाग 
जगजाल भ्रमण को देहु त्याग,अब दौलत निज आतम सुपाग 


शब्दार्थ

१.एकान्तवाद-एकांत पक्ष
२.दूषित-गंध
३.समस्त-हर तरफ से
४.विषयादिक-पाँचों इन्द्रिय के विषय,मोह,माया,राग और द्वेष
५.पोषक-पुष्ट करने वाला
६.अप्रशस्त-खोटा
७.कपिलादी-खोटे गुरु
८.रचित-लिखित
९.श्रुत-वाणी,शास्त्र
१०.अभ्यास-पढना,पढ़ना,सुनना और सुनना
११.कुबोध-गृहीत मिथ्याज्ञान
१२.बहु-बहुत
१३.त्रास-दुःख
१४.ख्याति-मान-सम्मान
१५.लाभ-फायदा
१६.पूजादि-पूजा,पाठ,पूज्य बनने की छह
१७.विविध-विभिन्न प्रकार ले
१८.देह-दाह-शरीर को प्रताड़ित करने वाली
१९.कारन-करना
२०.आतम-जीव,आत्मा के स्वरुप को जाने बिना
२१.अनातम-मैं पर के ज्ञान
२२.हीन-नहीं
२३.जे-जे -जितनी भी कार्य हैं,क्रिया हैं
२४.तन-शरीर
२५.छीन-कमजोर
२६.मिथ्याचरित्र-खोटा,झूठा चरित्र,मिथ्या व्यवहार
२७.पंथ-रास्ते पे
२८.लाग-लग जा
२९.सुपाग-भलि प्रकार से लीन होना

भावार्थ
कवि कहते हैं की जो-जो पुस्तकें,किताबें,शास्त्र-एकान्तपक्ष से दूषित हैं..यानि की वास्तु के अन्य धर्मों को नकार कर सिर्फ एक धर्म पर ध्यान दिया है..और अन्य स्वाभाव को नकार दिया है..वह एकान्तवाद हैं..और जो शास्त्र एकांत-पक्ष की बातें करते हैं..वह एकांतवाद से दूषित शास्त्र,जैन धर्म अनेकान्तवाद है,वस्तु को हर दृष्टी से देखा है...तत्व दृष्टी,द्रव्य दृष्टी,शारीरिक दृष्टी..और विभिन्न रूप से देखा है..यही अनेकांत वाद है,इसे हम ऐसे समझें की"जैसे कोई गृहस्थ है,वह किसी का पति भी है,वह किसी का पिता भी है,वह किसी का बेटा भी है,वह किसी का भाई भी है...अगर सांसारिक दृष्टी से देखा जाए तोह.....अगर कोई कहे की वह गृहस्थ सिर्फ पिता है,भाई,पुत्र अन्य नहीं है,सिर्फ पिता है...यानि की यह एकान्तवाद है,और उस गृहस्थ को पिता,भाई,पुत्र अदि सब मानना अनेकान्तवाद है,जैसा की हम अन्य धर्मों में देखते हैं की"इश्वर को ही सबकुछ बताया है,ऐसा ही है,तुम ऐसे ही हो,ऐसा करोगे तोह ही तुम स्वर्ग जाओगे,ऐसा नहीं करोगे तोह ही तुम नरक जाओगे.,,ऐसा ही है,वैसा ही है" इस तरह से मानना एकान्तवाद है क्योंकि यहाँ पे वस्तु के अन्य पक्षों को नकार दिया है....अतः एकान्तवाद से दूषित शास्त्र,जिसमें विषय,कषाय,पंचेंद्रियों की चाह को पुष्ट करने वाली बातें लिखी हैं,खोटी हिंसात्मक,हिंसा में धर्म बताने वाली बातें हैं...वह सब खोटे शास्त्र हैं..,,खोटे गुरुओं द्वारा,कुगुरू,कुदेव अदि की कही हुई बातों को,शास्त्रों  पढना-पढ़ना,सुनना-सुनना अग्राहित मिथ्याज्ञान है जो बहुत दुःख देने वाला है.
जितनी भी करनी हैं,क्रियाएं हैं जो ख्याति,यश,सम्मान,किसी सांसारिक लाभ,किसी सांसारिक आशा,किसी मोह,किसी डर अपनी पूजा करवाने के लिए,अपने मोह के लिए...शरीर को दुर्बल बनाने वाली,जलाने वाली,आत्मा और पर-वस्तुओं में अंतर जाने बिना,आत्मा के ज्ञान के बिना जितनी भी करनी हैं,क्रिया हैं यह सब मिथ्या हैं..और सिर्फ शरीर को कमजोर,क्षीण करने वाली हैं...न इनसे किसी कर्म की निर्जरा संभव है..न कर्मों का आश्रव रुक पाता अथवा यह सब क्रियाएं मिथ्या हैं,झूठी हैं..इन क्रियाओं को करना गृहीत मिथ्याचरित्र कहलाता है.

अब कविवर दौलत राम जी दूसरी ढाल के अंतिम श्लोक में यह अपने आप को संबोधन करते हैं की अब इन दोनों प्रकार के (गृहीत और गृहीत)मिथ्याचरित्र,मिथ्यादर्शन,और मिथ्याज्ञान को त्यागो...और अपने आत्मा की कल्याण की राह पे निकल जाओ,अब संसार में बहुत भ्रमण कर लिया,अब इस संसार रुपी जाले को त्याग दो,और हे "दौलत" अपने आत्मा स्वरुप में,निज स्वरुप में भली प्रकार से लीं हो जाओ.
(दूसरी ढाल पूरी हुई)

रचयिता-श्री दौलत राम JI

लिखने का आधार-६ ढाला क्लास्सेस-श्रीमती पुष्पा बैनाडा जी.

जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.

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