मुनि श्री चिन्मय सागर जी द्वारा रचित इस स्तुति का विशुद्ध भावो से नित्य पाठ करने से सं...सारी प्राणी को बाधा, आदि-व्याधि संकट में संबल और शांति प्रदान करती हैं !
पाप प्रनाशक विघन विनाशक, शाशवत सुख के हो दाता
भविजन त्राता शांति प्रदाता, सत पथ दर्शक हो ज्ञाता
जिनके पग में सुर नर किन्नर . तीन लोक सब झुक जाता
उन चरणों में मन, वच, तन से, नित्य नवाता मैं माथा !!१!!
भावार्थ :-पाप कर्म से प्रताड़ित प्राणी मात्र के हे पाप प्रनाशक ! अन्तराय कर्म से सहित जीवो के विघ्न विनाशक, मोक्ष पथ के प्रदर्शक/ हितोपदेशी, भव्य जीवो के रक्षक त्राता, संतप्त संसारी प्राणी को शांति प्रदाता , अविनश्वर/ अक्षय सुख के दाता, लोकालोक के ज्ञाता/ सर्वज्ञ, तीन लोक के इन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र सब जिनके चरणों में झुक जाते हैं, ऐसे उन जिनेन्द्र भगवन के चरणों में मैं मन, वचन, काय से अपना मस्तक झुकता हूँ , अर्थात प्रणाम करता हूँ!.....
ज्ञानी ध्यानी परम तपस्वी, सुर नर पशु जब करते हैं
तब गुण थुति तब शांति जिनेश्वर, शब्दहीन क्या डरते हैं
हे प्रभु तव थुति स्वर्ण कलश को, नहीं शब्दों से भरता हूँ
शुद्ध भाव से भरा कलश ले, नवहन थुति तव करता हूँ !!२!!
भावार्थ -: हे शांति जिनेश्वर !स्वयं स्तुत्य होकर भी ज्ञानी, ध्यानी, परम तपस्वी, गणधरादी एवं अणिमा आदि रिधियों से सहित परम एश्वर्य को भोगने वाले देवो के स्वामी स्वयं इन्द्र चारो गतियों में श्रेष्ठ मनुष्य और सब से निक्रस्थ कहलाने वाले पशु भी जब आपके गुणों की स्तुति करते है , तब हम शब्दहीन क्या डरते हें? अर्थात नहीं!
हे प्रभु ! स्वर्ण कलश के सामान मूल्यवान आपकी स्तुति हें ! अत: इस स्तुति रूपी स्वर्ण कलश को मैं मात्र शब्द रूपी जल से ही नहीं भरना चाहता हूँ अर्थात शुद्ध भाव रूपी सुधा से भरता हूँ ! और अमृत तुल्य शुद्ध भाव से भरे कलश को लेकर स्वार्थ, लोभ, लाभ, ख्याति , पूजा , चाह, आह आदि भावो से रहित होकर स्तुति रूपी आपका अभिषेक करता हूँ, क्यूंकि मैं मुनि हूँ, जल से भरे कलशो से अभिषेक आदि नहीं कर सकता हूँ!
वर्तमान को देख विषमता ,भविषत को क्या गौण करूँ
भूल आपको वीतराग जिन, तव थुति बिन क्या मौन धरूँ
वृक्ष शिशिर ऋतु विषम समय क्या, बसंत विस्मृत कर देता
फल बिन लघुतर आम्रवृक्ष को, कृषक नहि क्या जल देता!!३!!
भावार्थ :- जैसे शीत लहर के कारण पतझड़ होकर एकाकी खड़ा वह वृक्ष क्या कभी शिशिर ऋतु के विषम समय में बसंत ऋतु में आने वाले फल फूलो की बहार को क्या विस्मृत कर देता हें? अर्थात भुला देता हें? नहीं!
फिर एकाकी खड़ा मैं अपनी वर्तमान की इस विषमता को देखकर , वर्तमान से ही बनने वाले उस भविष्य को क्या गौण करूँ ? हे वीतराग जिनदेव! विषम स्थिति के कारण आपको भूल कर आपकी स्तुति के बिना क्या मैं मौन धारण करूँ? नहीं, इस विषम समय में समता धारण कर स्तुति करता हूँ!
फल से रहित उस लघुतर आम्र वृक्ष को क्या कृषक जल नहीं देता? फिर क्या मैं वर्तमान में माक्ष का आभाव देखकर आपकी स्तुति करना बंद कर दूँ? कैसे बंद कर सकता हूँ?
भूत आपका शांति जिनेश्वर ,भविषत का मम संबल हैं
वर्तमान तव विषम समय से, बचने का मम कम्बल हैं
निश्चित हे जिन ! तव थुति से ही, होता जीवन मंगल हैं
तव थुति बिन भव महाभयानक, देख सामने जंगल हैं!!४!!
भावार्थ :-हे शांति जिनेश्वर! वर्तमान के विषम समय में आपका भूतकाल ही मेरे लिए संबल है! क्यूंकि आपका भूतकाल भी मेरे जैसा ही था और वर्तमान में विषम समय से बचने के लिए आपका वर्तमान ही मेरे लिए कम्बल है, क्यूंकि लोग कम्बल ओढ़ कर ही शीत लहर के विषम समय से बचते है ! वैसे ही मैं एक मात्र साधन आपके वर्तमान का स्मरण अर्थात स्तुति रूपी कम्बल ओढ़कर ही विषम समय रूपी लहर से बच जाता हूँ!
हे जिनेंद्रदेव! निशित ही आपकी स्तुति से मेरा जीवन मंगलमय होता है, अन्यथा महा भयानक संसार रूपी घनघोर जंगल ही सामने है! अत: उस संसार रूपी जंगल से बचने के लिए मैं आपकी स्तुति करता हूँ!
पुत्र पिता के पैर पकड़कर , होकर खड़े हिलाता हैं
मुलचूल तक हिलकर खुद ही, स्वेद बहुत बहाता हैं
उस सम हिलकर स्वेद बहाने , बाहर कर्म बहाता हूँ
तव थुति कर मैं स्वेद रहित हो, तुम सम जिन बन जाता हूँ!!५!!
भावार्थ :- शक्तिहीन अक्षम बालक ही तो पहले पिता के पैर पकड़कर खड़ा होता है, और अज्ञानता के कारण पिता के पैर हिलाकर पिताजी को ही चलायमान करना चाहता है, किन्तु आमूल चूल तक स्वयं ही हिलकर पसीना बढ़ाता है!
इसी प्रकार हे भगवन! मेरे पास इतनी क्षमता और शक्ति कहाँ है, की आपकी स्तुति कर सकू ! किन्तु आपके ही सहारे से बालक के सामान आपके ही चरणों को पकड़कर स्तुति करने के लिए खड़ा हो जाता हूँ, और स्तुति के माध्यम से हे अचल ! निश्चल ! वीतरागी ! आपको ही आमूल चूल तक हिलाना चाहता हैं!
किन्तु स्वयं ही उस बालक के समान स्तुति करते करते आमूल चुल तक हिलकर बहुत ही पसीना बहाता हूँ, पसीने के भने कर्मो को बहार निकाल कर आप जैसे ही स्वेद से से रहित अचल निश्चल वीतरागी जिन बन जाता हूँ!
विद्या बल पर उड़ने से वह ,उर्धवगामी क्या कहलाता
नभ में उड़कर नभ चर प्राणी,मोक्ष महल में क्या जाता
तुम सम बनने ईर्यापथ से, मोक्ष मार्ग पर जब बढ़ता
तव धुन में तब हे जिन! मुझको, कंकर पत्थर नहि गढ़ता !!६!!
भावार्थ :-हे ऊर्धव्गामी ! कोई आकाश गामिनी विद्या के धारी विध्याधरादी विद्या के बल पर आकाश में उड़ने मात्र से क्या वे ऊर्धव्गामी कहलाते हैं? आकाश में उड़ने वाले नभचरप्राणी पक्षी आदि आकाश में उड़कर क्या मोक्ष महल में जा सकते हैं? आपके समान ऊर्धव्गामी बनने के लिए हमे भी आप जैसा इर्यापथ से मोक्षमार्ग पर चलना ही पड़ेगा, अर्थात त्रयोदश प्रकार चरित्र को धारण करना ही पड़ेगा, तभी संभव है!
हे जिनेन्द्र देव ! आप जैसे ऊर्धव्गामी बनने के लिए आपकी धुन में आप जैसा ही इर्यापथ से मोक्ष मार्ग पर जब आगे बढ़ता हूँ, तब मुझे मार्ग में आने वाले ये कंकर , पत्थर नहीं गड़ते है, अर्थात आपकी धुन में मोक्ष मार्ग पर चलने से मार्ग में आने वाले बाधा , उपसर्ग, प्रिशयों का ज्ञान और भान भी मुझे नहीं होता है!
वीतराग से जिसे राग हैं, वह क्या तुमको तज सकता
वीतराग वश फिर मैं कैसे, देव सरागी भज सकता
वीतराग से बिना राग क्या, वीतराग जिन बन सकता
तुम अनुरागी मुझको भी क्या, कोई रागी कह सकता !!७!!
भावार्थ :-हे वीतराग जिनदेव वीतरागता से जिसे राग है, वह भव्य जीव राग द्वेष से रहित आपको क्या तज सकता है ? वीतरागता को पाने के लिए फिर मैं आपको तजकर रागी द्वेषी देवो को कैसे भज सकता हूँ ? और कोई वीतरागता को पाने के लिए वीतराग जिनदेव से अनुराग किये बिना सरागी देवो का सेवन कर , क्या वीतरागी बन सकता हैं?
क्यूंकि साधन के अनुसार ही साध्य की सीधी होती हैं, हे वीतरागी ! आपका अनुरागी मुझको भी क्या कोई रागी कह सकता हैं ? नहीं, क्यूंकि वीतरागी के प्रति जो अनुराग हैं, वह भी तो वीतरागता के लिए ही कारण हैं!
अतुल अगम्य पारदर्शी हो, चिंतामणि सर्वज्ञ महा
अज्ञ रहा मैं मणि के आगे, कान्तिहीन वह कांच कहाँ
सुमणि किरण से कांच सुनिश्चित, कान्ति मान क्या नहि होता
ज्ञान भानु जिन तव प्रसाद से, अज्ञ विज्ञ क्या नहि होता !!८!!
भावार्थ :-हे भगवन , पारलोकिक होने से आप बेजोड़ अर्थात अतुलनीय हो, इन्द्रियों के द्वारा देखे nahi जाने से हमारी पहुँच के बाहर होने से आप अगम्य हो, स्पष्ट पूर्ण रूप से पदार्थो को युगपत देखने वाले होने से पारदर्शी हो ! सम्पूर्ण द्रव्यों के सम्पूर्ण गुण एवं पर्यायों को युगपत जानने वाले होने से सर्वग्य हो !
चिंतामणि जो चिंतित सांसारिक पदार्थो को ही देने वाला होता है, किन्तु आप शाश्वत सुख अर्थात स्वर्ग मोक्ष को भी देने वाले होने से महाचिंतामणि हो , हे जिनेन्द्र देव! आप सर्वग्य के आगे मैं अज्ञ कहाँ? जगमगाता हुआ उस महामणि के आगे वह कांतिहीन कांच कहाँ ? किन्तु उस सुमणि किरणों की सुसंगति से कांतिहीन वह कांच भी क्या कान्तिमान नहीं होता? निश्चित ही वह कांच भी मणि के समान जगमगाने लगता हैं ! हे ज्ञान भानु शांतिनाथ भगवान् आपकी संगति एवं स्तुति के प्रसाद से फिर मैं अज्ञ क्या विज्ञ नहीं हो सकता?
बिल्ली से वह सिंह पुत्र भी, कभी डरा क्या डर सकता
तुम सपूत हो जर्जर तन से, चिन्मय कैसे डर सकता
तव थुति तप कर्म खपा कर , रहित शरीरी बन सकता
पर नहि मैं तो तुमको तजकर, तन के पीछे लग सकता !!९!!
भावार्थ :-हे शांतिनाथ भगवन , आप तो नरसिंह हो , आप जैसे शेर की संतान मैं मैं शावक हूँ की बिल्ली एवं बिल्ली की आवाज़ सुनकर वह शेर का बच्चा आज तक कभी डरा है क्या? आगे भी डर सकता हैं क्या? फिर आप नरसिंह के सपूत हो कर जर्जर तन रूपी बिल्ली एवं बिल्ली की उस आवाज़ सुनकर मैं चिन्मय कैसे दर सकता हूँ..
डरना तो दूर की बात, हे अशरीरी ! आपकी स्तुति कर, घोर घोर - घनघोर तपकर कर्मो को खपकर आप जैसे रहित शरीरी बन सकता हूँ , पर हे पतितोधारक !आप एवं अपनी अविनश्वर स्वात्मा को छोड़कर , नश्वर एवं अशुचि इस शरीर के पीछे तीन काल में भी मैं नहीं लग सकता हूँ!
वन में रहकर शेर विपिन से, कभी प्रभावित क्या होता
भूल विपिन को वन का राजा , पत्थर पर क्या नहि सोता
तव गुण गाते भव वन तन को, भूल हमेशा हूँ देता
हे जिन! तव थुति करते - करते, स्वात्म नींद में सो लेता !!१०!!
भावार्थ :-
घरघोर जंगल में रहकर भी वह जंगल का राजा सिंह कभी उस जंगल से प्रभावित होता है क्या? वह वनराज घनघोर जंगल को भूलकर ऊँचे ऊँचे पर्वतो के उन पत्थरो की चट्टानों प् क्या नहीं सोता है? हे शांतिनाथ जिनेन्द्र दुर्जय , दुर्गम , दुस्तर ऐसे संसार रूपी घनघोर जंगल में रहकर इस से फिर मैं कैसे प्रभावित हो सकता हूँ? जिस प्रकार वनराज वन में रहकर भी वन को भूलकर निश्चिन्त होकर पत्थर की चट्टानों पर सो जाता है उसी प्रकार मैं भी आपके गुणों को गाते गाते संसार रूपी घनघोर जंगल एवं तन में रहकर भी इन दोनों को भूल जाता हूँ और आपकी स्तुति करते करते ही स्वात्मा की नींद से संसार एवं हड्डी रूपी चट्टानों पर सो जाता हूँ !
योग्य समय पर योग्य क्षेत्र में , कृषक बीज क्या नहि बोता
योग्य समय पर बीज वपन वह, बहुत फसल क्या नहि देता
नर भव पाकर तव थुति कर क्या, कर्म कालिमा नहि धोता
हे जिन! तव थुति भविजन को, शुभ शाश्वत सुख क्या नहि देता !!११!!
भावार्थ :- योग्य समय पर योग्य क्षेत्र में किसान क्या बीज नहीं बोता है? और योग्य समय का बोना क्या बहुत फसल नहीं देता हैं ? इस प्रकार भव्य जीव नर भव रूपी योग्य समय और कर्म भूमि रूपी योग्य क्षेत्र को पाकर , आपकी स्तुति रूपी बीज का वपन क्या करम कालिमा को नहीं धोता हैं? हे जिनेश्वर ! आपकी स्तुति रूपी बीज का वपन भव्य जीवो के लिए शुभ अर्थात प्रशस्त , हितकर , आल्हादक उस शाश्वत सुख को प्राप्त नहीं देता है?
यत्र तत्र सर्वत्र जगत में , राग द्वेष ही फैला है
स्वार्थ लोभ भय सदा मोह से, जन- जन का मन मैला है
निराकार हो निर्विकार तुम निर्भय निष्चल मेरु हैं
तव थुति कर वह भीरु भी क्या, बनता नहीं सुमेरु है !!१२!!
भावार्थ :- जहाँ देखो , वहां चारो और संसार में राग और द्वेष ही फैला हैं ! संसारी प्राणी अत्रान , आकस्मिक मरण , वेदना , अगुप्ति, इह - परलोक आदि सप्त भयो से भयभीत अशांत आकुल व्याकुल हो उठा हैं! स्वार्थ , लोभ और मोह आदि विकारों से सदा जन जन का मन मलिन हो गया हैं! ऐसे आंधी तूफ़ान में भी आप निर्विकार, निराकार , निर्भय चलायमान नहीं होने वाले निश्चल मेरु के सामान हैं ! स्वार्थ ,लोभ,मोह, राग, द्वेष, भव आदि से भयभीत वह भव्य भीरु आपकी स्तुति करके क्या आप जैसा निर्विकार, निश्चल, निर्भय, निराकार नहीं बन सकता हैं?
दोष रहित जिन भाव भक्ति से, आया तव गुण गाने को
तुम थुति से मैं नहीं चाहता, धन वैभव कुछ खाने को
यह थुति तव कुछ पाने को नहीं, करता दोष मिटने को
क्षुधा तृषा सब शीघ्र नाशकर , सिध्दाल्य में जाने को !!१३!!
भावार्थ :- क्षुधा , तृषा आदि से रहित हे शांतिनाथ भगवन! आपकी इस स्तुति से मैं गोधन, गजधन चाहता नहीं हूँ, न ही वैभव , विभूति चाहता हूँ , और न ही कुछ खाने- पीने को , आप देते भी कहाँ हैं? यदि देंगे तो भगवन भी कैसे कहलायेंगे? क्यूंकि आप तो दोषों से रहित ही होते हैं ! इसलिए तो हे गुणनिधि! भाव और भक्ति से आपके गुण गाने के लिए अर्थात स्तुति करने के लिए आया हूँ, अन्यथा जाता ही क्यूँ? हे जिनदेव ! यह स्तुति कुछ पाने के लिए नहीं ,क्षुधा , तृषा आदि १८ दोषों को मिटाने के लिए और सब दोषों को नाश कर शीघ्र ही आप जैसे सिद्धालय में जाने के लिए कर रहा हूँ!
पग- पग पर जग विस्मित होता, पर नहीं विस्मित विस्मय से
स्मय विस्मय से रहित जिनेश्वर, भिन्न निराला है जग से
इसीलिए तो विस्मित होकर, झुकता जग हैं तव पग में
स्मय विस्मय बिन, तुम सम बनने, चलता हूँ मैं तव मग में !!१४!!
भावार्थ :- संसारी प्राणी स्पर्श, रूप, रस , गंध ,शब्द आदि को देखकर , कभी परिवर्तनशील संसार में इन्द्रादि के वैभव को देखकर एवं कभी इन्द्रादि को आपके चरणों में झुकते हुए देखकर विस्मित अर्थात आश्चर्य चकित हो जाता हैं! किन्तु न झुकने वालों को देखकर , न विस्मित होने वालो को देखकर , विस्मयकारी संसार और संसार के पदार्थो कों देखकर आप न तो प्रभावित होते हैं , न ही विस्मित होते हैं! स्मय और विस्मय से विरहित हे शांतिनाथ जिनेश्वर! विस्मित होने वाले एवं विस्मयकारी इस संसार में रहकर भी इन दोनों से भिन्न निराले ही रहते हैं, हे जिनेश्वर! स्मय विस्मय से रहित आपको देखकर संसार और विस्मित होता है, विस्मित होकर धन्य- धन्य हो कहते हुए आपके चरणों में झुका चला जाता हैं ! हे भगवन ! मैं भी आप जैसे स्मय विस्मय से रहित होने के लिए आपकी स्तुति करता हुआ आपके मार्ग पर अविरल रूप से चलता हूँ!
वज्र कवच धर वीर पुरुष का , शत्रु वर्ग क्या कर सकता
अस्त्र शास्त्र के प्रहार से क्या, वीर कभी वह मर सकता
कषाय इन्द्रिय विषय शत्रु से, क्षमाशील क्या डर सकता
वितरागमय वज्र कवच धर, महावीर क्या मर सकता !!१५!!
भावार्थ :- वज्र कवच धारण करने वाले वीर पुरुष का अर्थात योधा का शत्रु समूह क्या कुछ बिगाड़ सकता हैं? शत्रुओ के अस्त्र -शास्त्र के प्रहारों से वह वीर पुरुष क्या कभी मर सकता हैं?
इसी प्रकार आप जैसे वीतराग्तामय वज्र कवच को धारण करने वाला वह महावीर अर्थात योधा साधक विषय, कषाय एवं इन्द्राय रूपी शत्रुओं के प्रहारों से क्या मर सकता हैं? या घायल हो सकता हैं? क्षमाशील व्यक्ति क्रोधादि कषायों के प्रहार से क्या डर सकता है? नहीं , जैसे जैसे उन पर प्रहार होगा , वैसे वैसे ही वे सुरक्षित एवं शीतल होते चले जायेंगे! क्षमा एवं वीतरागता से बढ़कर दुनिया में कोई वज्र कवच नहीं है! उसको धारण करने वालों को विषय , कषाय एवं इन्द्रय रूपी शत्रु उन्हें शुब्द विचलित एवं नाश नहीं कर सकते हैं , किन्तु स्वयमेव ही नाश को प्राप्त हो जाते हैं!
हे जड़ दीपक अरु सूरज से , अन्धकार तो नश जाता
पर प्रकाश में जागकर भी जग , मोह नींद में सो जाता
धर्म दिवाकर तव दर्शन से, मोह नींद से जग जाता
ज्ञान पुंज चिद पिण्ड प्रखर से, मिथ्यातम भी भग जाता !! १६!!
भावार्थ :-सूरज और दीपक तो जड़ हैं, उनके प्रकाश से रात का घोर अंधकार तो नाश जाता हैं , पर महा भयानक मिथ्यात्वरूपी अंधकार नहीं, सूरज का उदय होते ही प्रकाश को देखकर घरी नींद से सारा संसार जाग जाता , किन्तु जागते ही क्षण की देरी किये बिना मैं और मेरा , तू और तेरा , राग - द्वेष रूपी मोह की नींद में जागते ही सो जाता हैं! धर्मरुपी प्रकाश देने वाले हे दिवाकर ! आपके दर्शन मात्र से ही संसारी प्राणी मोहरूपी गहरी नींद से भी जाग जाता हैं! हे प्रखर चैतन्य पिंड ! हे ज्ञान पुंज ! आपकी किरणों से अनादि कालीन मिथ्यातव रूपी अंधकार भी भाग जाता हैं !
कल्पवृक्ष की छत्र छाव में , बैठ दुखी नर होता क्या
सर्दी, गर्मी, भूख प्यास से, पीड़ित होकर रोता क्या
हाय जिन! तुम सम कल्पवृक्ष ताज, धीजन वह क्या जायेगा
बबूल वृक्ष की छत्र छाव में , शाश्वत सुख क्या पायेगा !!१७!!
भावार्थ :-कल्पवृक्ष की छत्र छाँव में बैठकर भी मनुष्य क्या कभी दुखी होता है? सर्दी, गर्मी , भूख ,प्यास आदि से प्रताड़ित हो कर क्या रोता है? हे जिनेन्द्र भगवन ! यह कल्पवृक्ष तो मात्र कल्पित लोकिक वस्तुओ को ही देता हैं , किन्तु आप अकल्पित अलोकिक एवं अचिन्त्य फल को भी देने वाले हैं ! अत: आप महाकल्पवृक्ष है, फिर आप जैसे कल्पवृक्ष की छत्र छाँव में बैठकर भी क्या दुखी होंगे? और बुद्धिमान आप जैसे सच्चे वीतराग भगवान् रूपी कल्पवृक्ष को छोड़कर क्या दूसरो की शरण में जायेगा ? यदि जायेगा भी तो वह धीमान कैसे कहलायेगा? यदि चला भी जायेगा , तो सरगी देवी, देवता रूपी बबूलवृक्ष की झुरमुट छत्र छाँव में शाश्वत सुख रूपी घनी छाया को क्या पायेगा?
महादेव हो शान्ति जिनेश्वर, शांति प्रदाता हो जग में
परम शांति को पता हु मैं , हे परमेश्वर तव पग में
निर्भय होकर निराबाध से, चलता हूँ जब तव पग में
व्यंतर भी भयभीत होकर, भग जाता हैं पल भर में !!१८!!
भावार्थ :-हे देवो के देव , महादेव! संतप्त और अशांत संसार को शांति प्रदान करने वाले हे शांतिनाथ जिनेश्वर ! संसार सागर से पार लगाने में नाव के समान आपके पावन चरणों में मैं परम शांति को पाता हूँ ! हे परमेश्वर आपका अनुगामी बन आपके पीछे- २ निर्भीक होकर निराबाध रूप से आपके मार्ग पैर अर्थात आपके चरण चिन्हों पर जब मैं चलता हूँ , तब आपके इस रूप को देखकर उपसर्ग करने में उतारू वह व्यंतर भी भयभीत हो कर पल भर में ही भाग जाता हैं , अर्थात आपके संरक्षण में आपके चरण चिन्हों पर जो भी चलेगा, उसके मार्ग में कोई भी बाधा उपस्थित नहीं कर सकता हैं!
हे जिन ! जग के वैद्यराज भी , शरण तुम्हारी जब आते
तब हम उनके पाद मूल में , रोग नाश क्या कर पाते
वैद्यो के तुम वैद्यराज हो, तव पग कैसे तज सकता
जनम मरण भव रोग नाश को , विष भक्षण क्या कर सकता !!१९!!
भावार्थ :-हे शांतिनाथ भगवन ! संसार के सभी वैधराज भी आपकी शरण में जाते हैं अत: आप वेधो के भी वैध हैं! जनम , जरा, मृत्यु रूपी भव रोग को नाश करने के लिए जब वे राज वैध भी आपकी शरण में ही आते हैं, तब उनकी शरण में जाकर क्या कोई रोग नाश कर पायेगा? हे वेधो के भी वैधनाथ ! फिर हम अमृततुल्य आपकी चरण शरण को कैसे तज सकते हैं ? हे म्रत्युंजयी ! जनम जरा, मृत्यु, रूपी भव रोग को नाश करने के लिए क्या कोई विशभक्षण कर सकता हैं? नीम - हकीम की शरण में जा सकता है? और विशभक्षण कर क्या कोई म्रत्युंजयी हो सकता हैं? फिर मैं सरगी देवी- देवताओं की स्तुति रूपी विष भक्षण कैसे कर सकता हूँ और सेवन का क्या म्रत्युंजयी हो सकता हूँ? नहीं हो सकता
राग द्वेष की पगडण्डी तो, भव वन में भटकाती हैं
ओषधि सेवन करके भी नर, अमर हुआ क्या हो सकता
हे जिनवाणी शिव सुख खानी, नहीं दूषित वह पानी हैं
मात पिता की बैठ गोद में, बालक पर से डरता क्या
भावार्थ :-माता- पिता की गोद में बैठा वह बालक क्या कभी किसी से डरता हैं, चिंता और भय से मुक्त होकर क्या वह अपने आप में क्रीडा नहीं करता हैं! हे जिनेन्द्र भगवन! आप ही मेरे सच्चे माता, पिता, भ्राता , गुरु , रक्षक, त्राता सब कुछ हो! आपको छोड़कर इस संसार में मेरा कोई नहीं है!
राजाश्रित नर नोकर चाकर, और प्रजा से डरता क्या
परमातम जिन परमेष्ठी हो, परम पूज्य परमेश्वर हो
पुत्र धनी का निर्धन अरु वह, दीन दुखी भी हो सकता
द्वेष कलेश आवेश दोष सब, पाप कर्म मल धुल जाते
मंद मधुर मुस्कान देख वह, बालक भी निज पालक की
तव थुति से ही ऊष्मा उर्जा, पल पल मुझको बल मिलता
भावार्थ :-जड़कर्मो के संयोग की वजह से मैं चिन्मय होकर भी चेतना से रहित जडवत हो गया हूँ , मुझ में अनंत शक्ति विद्यमान होते हुए भी मैं शक्तिहीन बन गया हूँ , किन्तु हे जिनेन्द्र भगवन ! आपकी स्तुति एवं भक्ति से मुझे ऊष्मा मिलती हैं , उर्जा मिलती है , चेतनता इतनी जग जाती हैं , आपकी स्तुति से ही पथ पर आगे भाधने के लिए मुझे पल – पल बल मिलता हैं, आपकी स्तुति रूपी संबल लेकर शक्तिहीन होते हुए भी आपके मार्ग पर विचलित नहीं होते हुए आप जैसे अविरल चलने लगता हूँ !
रण आँगन में सेना भी वह, रण मेरी जब सुनती है
रोग स्वयं के भूल जगत जन, पर को रोगी कहते हैं
माँ से शिशु को मात्र द्रव्य से, मनुष्य अलग तो कर सकता
प्राणवायु का सेवन करने, वाला भी क्या मर सकता
भावार्थ :-प्राणवायु का सेवन करने वाला क्या मर सकता हैं?प्राणवायु के सेवन के बिना अर्थात श्वास लिए बिना भी जिव जगत में क्या कभी जिन्दा रह सकता हैं ? इसी प्रकार हे शांति जिनेश्वर ! आप जैसे प्राणवायु को छोड़कर मैं कैसे जिन्दा रह सकता हूँ अर्थात आप ही मेरे प्राणवायु हैं , अर्थात आपके बिना मैं एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता हूँ, आप जैसे प्राणवायु को छोड़कर सरागी देवी, देवतारुपी धुम्रपान का सेवन मैं क्या कर सकता हूँ? करके भी क्या मैं अन्दर से स्वस्थ, सुन्दर एवं जिन्दा रह सकता हूँ? अमर हो सकता हूँ? फिर मैं उनका सेवन कर धुम्रपान को भी क्या प्राणवायु कह सकता हूँ, अर्थात आपकी तुलना मैं उनके साथ कैसे कर सकता हूँ?
कैदी सम जग मुझको भी क्या, कैद कोई कर रख सकता
देह बांधकर रखने से क्या, तव दर्शन बिन रुक सकता
तन को तजकर भाग भाग कर, भावो से मैं आता हूँ
पैर पकड़कर दर्शन कर मैं, हे जिन! तव गुण गता हूँ !!३८!!
भावार्थ :-हे जिनेन्द्र भगवन! इस संसार में कोई कैदी के सामान चार दीवारों के बीच जेल में मुझ चेतन को भी क्या कैद करके रख सकता हैं ? यदि कोई बंदकर रखता भी हैं , तो तन के बंधन मात्र से आपके दर्शन के बिना मैं क्या रुक सकता हूँ? ऐसी स्थिति में भी मैं तन को छोड़कर भावो से भाग भाग कर आपके दर्शन के लिए आता हूँ, और आपके युगल चरण कमलो को पकड़कर भाव विभोर होकर दर्शन कर भरमर के समान आपके गुणों को गाता हूँ , अर्थात तन से भी ज्यादा मुझे आप प्रिय हैं ! तन भी बार बार मिल सकता हैं, पर आप नहीं, आपका मार्ग नहीं! अथ: तन को भी छोड़ने के लिए तैयार हूँ, पर आप एवं आपके मार्ग एवं भक्ति को नहीं , दुनिया के लोग मेरे तन को भान्धकर रख सकते हैं , पर मुझको और मेरे भावो को नहीं!
पश्चिम दिश से, आंधी बाधा, आ जब बादल टकराते
देख दिवाकर भय से शशि क्या, अपने पथ से भग जाते
रवि सम इन में निर्भीक होकर, आगे जब तुम बढ़ जाते
बाधा परीषह उपसर्गों से, फिर हम कैसे डर पाते !!३९!!
भावार्थ :-सूर्य और चन्द्रमा पूर्व दिशा में उदित होकर निज पर को प्रकाशित करते हुए अन्धकार को हारते हुए अविरल रूप से अपनी यात्रा करते रहते हैं, तब सामने से अर्थात पश्चिम दिशा से आती हुई आंधी , आते हुए बाधा एवं बादलों को देखकर दिवाकर क्या घबरा जाते हैं ? आकर टकराने के भय से अथवा उनसे पूर्ण रूप से ढक जाने के भय से सूर्य और चंद्रमा अपने पथ को छोड़कर क्या मार्ग से भाग जाते हैं? आज तक न ही भागे हैं और न ही भाग सकते हैं ! अर्थात इन सब में क्या वे सुद्रढ़ एवं अडिग नहीं रहते हैं?हे शांति जिनेश्वर ! सूर्य के समान आप इन सब में निर्भीक होकर जब आप आगे भाद जाते हो , तो फिर पंचेंद्र्य विषय वासना रूपी आंधी , उपसर्ग , परिशय रूपी बाधाएं और पश्चिमी देश से आती हुई पश्चिमी संस्कृति एवं सभ्यता रूपी बादलों को देखकर उनके टकराने के अथवा उनसे खुद ढकने के भय से भयभीत होकर आपके पीछे – पीछे चलने वाला चिन्मय रूपी चन्द्रमा क्या आपके पथ को अर्थात मोक्ष मार्ग को ही छोड़कर भाग सकता हैं? जब आप इन सब से नहीं डरते हैं, तब आपका अनुगामी मैं कैसे दर सकता हूँ?
मायावी जिन दर्शन को भी, कभी रेवती जाती क्या
महासती हो तजकर पति को, मोहित पर से होती क्या
फिर मैं तुमको, तजकर पर से, मोहित कैसे हो सकता
रागी द्वेषी गुण गाकर भी, महाव्रती क्या हो सकता !!४०!!
भावार्थ :-रेवती को ठगने के लिए माया से क्षुल्लक जी ने जिनेन्द्र भगवन का रूप धारण कर समवशरण में मायावी जिनेन्द्र देव बनकर रेवती को दर्शन दिए , परन्तु दर्शन के लिए क्या रेवती रानी गई थी? सच्ची श्राविका जा सकती हैं क्या? जब मायावी जिनरूप के भी वह रानी दर्शन नहीं कर सकती है , तब मैं महाव्रती साक्षात् सरागी देवी देवताओं के दर्शन / सेवन कैसे कर सकता हूँ? करके भी क्या कोई महाव्रती बना रह सकता हैं?
क्या पतिव्रता महासती अपने पति को छोड़कर परपुरुषों से मोहित प्रभावित होती हैं? यदि होती हैं , तो क्या वे महासती कहलाएंगी? फिर महाव्रती रत्नत्रय से युक्त मुनि होकर हे शांतिनाथ भगवान् ! वीतरागी जिनदेव रूपी सच्चे भगवन को छोड़कर सरागी देवी- देवताओं और कुदेवो से मैं कैसे मोहित और प्रभावित हो सकता हूँ? रागी देवेशी आदि को वीतराग जिनदेव के समान या उनसे ज्यादा गुण गाकर भी अर्थात आयतन समझकर आदर , भक्ति , स्तुति , पूजन , विधान आदि स्वयं करके , दूसरों से करा कर के भी क्या कोई महाव्रती हो सकता हैं?
बंद करन से तोता भी वह, बंद बोलना करता क्या
करते मम उपहास देखकर, मैं क्या तुम उपहास करूँ
भावार्थ :-हे जिनेन्द्र भगवन ! आपके इस यथाजात rup को देखकर लोग मेरा उपहास करते हैं, इसलिए मैं भी क्या आपका उपहास करू? आपकी जिनरूप मुद्रा की उपासना को तज दूँ? आपके इस यथाजात जिनरूप को छोड़कर अन्य की शरण में जाऊ?
छंद शास्त्र साहित्य ज्ञान नहीं, हिंदी भाषा भाषी हूँ
तेंदूखेड़ा जबलपुर के, शक्तिनगर श्रीधाम महा
पचीसो पचीस रहा वह महावीर निर्वाण महा
*जंगल वाले बाबा नमो नमः *
पाप प्रनाशक विघन विनाशक, शाशवत सुख के हो दाता
भविजन त्राता शांति प्रदाता, सत पथ दर्शक हो ज्ञाता
जिनके पग में सुर नर किन्नर . तीन लोक सब झुक जाता
उन चरणों में मन, वच, तन से, नित्य नवाता मैं माथा !!१!!
भावार्थ :-पाप कर्म से प्रताड़ित प्राणी मात्र के हे पाप प्रनाशक ! अन्तराय कर्म से सहित जीवो के विघ्न विनाशक, मोक्ष पथ के प्रदर्शक/ हितोपदेशी, भव्य जीवो के रक्षक त्राता, संतप्त संसारी प्राणी को शांति प्रदाता , अविनश्वर/ अक्षय सुख के दाता, लोकालोक के ज्ञाता/ सर्वज्ञ, तीन लोक के इन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र सब जिनके चरणों में झुक जाते हैं, ऐसे उन जिनेन्द्र भगवन के चरणों में मैं मन, वचन, काय से अपना मस्तक झुकता हूँ , अर्थात प्रणाम करता हूँ!.....
ज्ञानी ध्यानी परम तपस्वी, सुर नर पशु जब करते हैं
तब गुण थुति तब शांति जिनेश्वर, शब्दहीन क्या डरते हैं
हे प्रभु तव थुति स्वर्ण कलश को, नहीं शब्दों से भरता हूँ
शुद्ध भाव से भरा कलश ले, नवहन थुति तव करता हूँ !!२!!
भावार्थ -: हे शांति जिनेश्वर !स्वयं स्तुत्य होकर भी ज्ञानी, ध्यानी, परम तपस्वी, गणधरादी एवं अणिमा आदि रिधियों से सहित परम एश्वर्य को भोगने वाले देवो के स्वामी स्वयं इन्द्र चारो गतियों में श्रेष्ठ मनुष्य और सब से निक्रस्थ कहलाने वाले पशु भी जब आपके गुणों की स्तुति करते है , तब हम शब्दहीन क्या डरते हें? अर्थात नहीं!
हे प्रभु ! स्वर्ण कलश के सामान मूल्यवान आपकी स्तुति हें ! अत: इस स्तुति रूपी स्वर्ण कलश को मैं मात्र शब्द रूपी जल से ही नहीं भरना चाहता हूँ अर्थात शुद्ध भाव रूपी सुधा से भरता हूँ ! और अमृत तुल्य शुद्ध भाव से भरे कलश को लेकर स्वार्थ, लोभ, लाभ, ख्याति , पूजा , चाह, आह आदि भावो से रहित होकर स्तुति रूपी आपका अभिषेक करता हूँ, क्यूंकि मैं मुनि हूँ, जल से भरे कलशो से अभिषेक आदि नहीं कर सकता हूँ!
वर्तमान को देख विषमता ,भविषत को क्या गौण करूँ
भूल आपको वीतराग जिन, तव थुति बिन क्या मौन धरूँ
वृक्ष शिशिर ऋतु विषम समय क्या, बसंत विस्मृत कर देता
फल बिन लघुतर आम्रवृक्ष को, कृषक नहि क्या जल देता!!३!!
भावार्थ :- जैसे शीत लहर के कारण पतझड़ होकर एकाकी खड़ा वह वृक्ष क्या कभी शिशिर ऋतु के विषम समय में बसंत ऋतु में आने वाले फल फूलो की बहार को क्या विस्मृत कर देता हें? अर्थात भुला देता हें? नहीं!
फिर एकाकी खड़ा मैं अपनी वर्तमान की इस विषमता को देखकर , वर्तमान से ही बनने वाले उस भविष्य को क्या गौण करूँ ? हे वीतराग जिनदेव! विषम स्थिति के कारण आपको भूल कर आपकी स्तुति के बिना क्या मैं मौन धारण करूँ? नहीं, इस विषम समय में समता धारण कर स्तुति करता हूँ!
फल से रहित उस लघुतर आम्र वृक्ष को क्या कृषक जल नहीं देता? फिर क्या मैं वर्तमान में माक्ष का आभाव देखकर आपकी स्तुति करना बंद कर दूँ? कैसे बंद कर सकता हूँ?
भूत आपका शांति जिनेश्वर ,भविषत का मम संबल हैं
वर्तमान तव विषम समय से, बचने का मम कम्बल हैं
निश्चित हे जिन ! तव थुति से ही, होता जीवन मंगल हैं
तव थुति बिन भव महाभयानक, देख सामने जंगल हैं!!४!!
भावार्थ :-हे शांति जिनेश्वर! वर्तमान के विषम समय में आपका भूतकाल ही मेरे लिए संबल है! क्यूंकि आपका भूतकाल भी मेरे जैसा ही था और वर्तमान में विषम समय से बचने के लिए आपका वर्तमान ही मेरे लिए कम्बल है, क्यूंकि लोग कम्बल ओढ़ कर ही शीत लहर के विषम समय से बचते है ! वैसे ही मैं एक मात्र साधन आपके वर्तमान का स्मरण अर्थात स्तुति रूपी कम्बल ओढ़कर ही विषम समय रूपी लहर से बच जाता हूँ!
हे जिनेंद्रदेव! निशित ही आपकी स्तुति से मेरा जीवन मंगलमय होता है, अन्यथा महा भयानक संसार रूपी घनघोर जंगल ही सामने है! अत: उस संसार रूपी जंगल से बचने के लिए मैं आपकी स्तुति करता हूँ!
पुत्र पिता के पैर पकड़कर , होकर खड़े हिलाता हैं
मुलचूल तक हिलकर खुद ही, स्वेद बहुत बहाता हैं
उस सम हिलकर स्वेद बहाने , बाहर कर्म बहाता हूँ
तव थुति कर मैं स्वेद रहित हो, तुम सम जिन बन जाता हूँ!!५!!
भावार्थ :- शक्तिहीन अक्षम बालक ही तो पहले पिता के पैर पकड़कर खड़ा होता है, और अज्ञानता के कारण पिता के पैर हिलाकर पिताजी को ही चलायमान करना चाहता है, किन्तु आमूल चूल तक स्वयं ही हिलकर पसीना बढ़ाता है!
इसी प्रकार हे भगवन! मेरे पास इतनी क्षमता और शक्ति कहाँ है, की आपकी स्तुति कर सकू ! किन्तु आपके ही सहारे से बालक के सामान आपके ही चरणों को पकड़कर स्तुति करने के लिए खड़ा हो जाता हूँ, और स्तुति के माध्यम से हे अचल ! निश्चल ! वीतरागी ! आपको ही आमूल चूल तक हिलाना चाहता हैं!
किन्तु स्वयं ही उस बालक के समान स्तुति करते करते आमूल चुल तक हिलकर बहुत ही पसीना बहाता हूँ, पसीने के भने कर्मो को बहार निकाल कर आप जैसे ही स्वेद से से रहित अचल निश्चल वीतरागी जिन बन जाता हूँ!
विद्या बल पर उड़ने से वह ,उर्धवगामी क्या कहलाता
नभ में उड़कर नभ चर प्राणी,मोक्ष महल में क्या जाता
तुम सम बनने ईर्यापथ से, मोक्ष मार्ग पर जब बढ़ता
तव धुन में तब हे जिन! मुझको, कंकर पत्थर नहि गढ़ता !!६!!
भावार्थ :-हे ऊर्धव्गामी ! कोई आकाश गामिनी विद्या के धारी विध्याधरादी विद्या के बल पर आकाश में उड़ने मात्र से क्या वे ऊर्धव्गामी कहलाते हैं? आकाश में उड़ने वाले नभचरप्राणी पक्षी आदि आकाश में उड़कर क्या मोक्ष महल में जा सकते हैं? आपके समान ऊर्धव्गामी बनने के लिए हमे भी आप जैसा इर्यापथ से मोक्षमार्ग पर चलना ही पड़ेगा, अर्थात त्रयोदश प्रकार चरित्र को धारण करना ही पड़ेगा, तभी संभव है!
हे जिनेन्द्र देव ! आप जैसे ऊर्धव्गामी बनने के लिए आपकी धुन में आप जैसा ही इर्यापथ से मोक्ष मार्ग पर जब आगे बढ़ता हूँ, तब मुझे मार्ग में आने वाले ये कंकर , पत्थर नहीं गड़ते है, अर्थात आपकी धुन में मोक्ष मार्ग पर चलने से मार्ग में आने वाले बाधा , उपसर्ग, प्रिशयों का ज्ञान और भान भी मुझे नहीं होता है!
वीतराग से जिसे राग हैं, वह क्या तुमको तज सकता
वीतराग वश फिर मैं कैसे, देव सरागी भज सकता
वीतराग से बिना राग क्या, वीतराग जिन बन सकता
तुम अनुरागी मुझको भी क्या, कोई रागी कह सकता !!७!!
भावार्थ :-हे वीतराग जिनदेव वीतरागता से जिसे राग है, वह भव्य जीव राग द्वेष से रहित आपको क्या तज सकता है ? वीतरागता को पाने के लिए फिर मैं आपको तजकर रागी द्वेषी देवो को कैसे भज सकता हूँ ? और कोई वीतरागता को पाने के लिए वीतराग जिनदेव से अनुराग किये बिना सरागी देवो का सेवन कर , क्या वीतरागी बन सकता हैं?
क्यूंकि साधन के अनुसार ही साध्य की सीधी होती हैं, हे वीतरागी ! आपका अनुरागी मुझको भी क्या कोई रागी कह सकता हैं ? नहीं, क्यूंकि वीतरागी के प्रति जो अनुराग हैं, वह भी तो वीतरागता के लिए ही कारण हैं!
अतुल अगम्य पारदर्शी हो, चिंतामणि सर्वज्ञ महा
अज्ञ रहा मैं मणि के आगे, कान्तिहीन वह कांच कहाँ
सुमणि किरण से कांच सुनिश्चित, कान्ति मान क्या नहि होता
ज्ञान भानु जिन तव प्रसाद से, अज्ञ विज्ञ क्या नहि होता !!८!!
भावार्थ :-हे भगवन , पारलोकिक होने से आप बेजोड़ अर्थात अतुलनीय हो, इन्द्रियों के द्वारा देखे nahi जाने से हमारी पहुँच के बाहर होने से आप अगम्य हो, स्पष्ट पूर्ण रूप से पदार्थो को युगपत देखने वाले होने से पारदर्शी हो ! सम्पूर्ण द्रव्यों के सम्पूर्ण गुण एवं पर्यायों को युगपत जानने वाले होने से सर्वग्य हो !
चिंतामणि जो चिंतित सांसारिक पदार्थो को ही देने वाला होता है, किन्तु आप शाश्वत सुख अर्थात स्वर्ग मोक्ष को भी देने वाले होने से महाचिंतामणि हो , हे जिनेन्द्र देव! आप सर्वग्य के आगे मैं अज्ञ कहाँ? जगमगाता हुआ उस महामणि के आगे वह कांतिहीन कांच कहाँ ? किन्तु उस सुमणि किरणों की सुसंगति से कांतिहीन वह कांच भी क्या कान्तिमान नहीं होता? निश्चित ही वह कांच भी मणि के समान जगमगाने लगता हैं ! हे ज्ञान भानु शांतिनाथ भगवान् आपकी संगति एवं स्तुति के प्रसाद से फिर मैं अज्ञ क्या विज्ञ नहीं हो सकता?
बिल्ली से वह सिंह पुत्र भी, कभी डरा क्या डर सकता
तुम सपूत हो जर्जर तन से, चिन्मय कैसे डर सकता
तव थुति तप कर्म खपा कर , रहित शरीरी बन सकता
पर नहि मैं तो तुमको तजकर, तन के पीछे लग सकता !!९!!
भावार्थ :-हे शांतिनाथ भगवन , आप तो नरसिंह हो , आप जैसे शेर की संतान मैं मैं शावक हूँ की बिल्ली एवं बिल्ली की आवाज़ सुनकर वह शेर का बच्चा आज तक कभी डरा है क्या? आगे भी डर सकता हैं क्या? फिर आप नरसिंह के सपूत हो कर जर्जर तन रूपी बिल्ली एवं बिल्ली की उस आवाज़ सुनकर मैं चिन्मय कैसे दर सकता हूँ..
डरना तो दूर की बात, हे अशरीरी ! आपकी स्तुति कर, घोर घोर - घनघोर तपकर कर्मो को खपकर आप जैसे रहित शरीरी बन सकता हूँ , पर हे पतितोधारक !आप एवं अपनी अविनश्वर स्वात्मा को छोड़कर , नश्वर एवं अशुचि इस शरीर के पीछे तीन काल में भी मैं नहीं लग सकता हूँ!
वन में रहकर शेर विपिन से, कभी प्रभावित क्या होता
भूल विपिन को वन का राजा , पत्थर पर क्या नहि सोता
तव गुण गाते भव वन तन को, भूल हमेशा हूँ देता
हे जिन! तव थुति करते - करते, स्वात्म नींद में सो लेता !!१०!!
भावार्थ :-
घरघोर जंगल में रहकर भी वह जंगल का राजा सिंह कभी उस जंगल से प्रभावित होता है क्या? वह वनराज घनघोर जंगल को भूलकर ऊँचे ऊँचे पर्वतो के उन पत्थरो की चट्टानों प् क्या नहीं सोता है? हे शांतिनाथ जिनेन्द्र दुर्जय , दुर्गम , दुस्तर ऐसे संसार रूपी घनघोर जंगल में रहकर इस से फिर मैं कैसे प्रभावित हो सकता हूँ? जिस प्रकार वनराज वन में रहकर भी वन को भूलकर निश्चिन्त होकर पत्थर की चट्टानों पर सो जाता है उसी प्रकार मैं भी आपके गुणों को गाते गाते संसार रूपी घनघोर जंगल एवं तन में रहकर भी इन दोनों को भूल जाता हूँ और आपकी स्तुति करते करते ही स्वात्मा की नींद से संसार एवं हड्डी रूपी चट्टानों पर सो जाता हूँ !
योग्य समय पर योग्य क्षेत्र में , कृषक बीज क्या नहि बोता
योग्य समय पर बीज वपन वह, बहुत फसल क्या नहि देता
नर भव पाकर तव थुति कर क्या, कर्म कालिमा नहि धोता
हे जिन! तव थुति भविजन को, शुभ शाश्वत सुख क्या नहि देता !!११!!
भावार्थ :- योग्य समय पर योग्य क्षेत्र में किसान क्या बीज नहीं बोता है? और योग्य समय का बोना क्या बहुत फसल नहीं देता हैं ? इस प्रकार भव्य जीव नर भव रूपी योग्य समय और कर्म भूमि रूपी योग्य क्षेत्र को पाकर , आपकी स्तुति रूपी बीज का वपन क्या करम कालिमा को नहीं धोता हैं? हे जिनेश्वर ! आपकी स्तुति रूपी बीज का वपन भव्य जीवो के लिए शुभ अर्थात प्रशस्त , हितकर , आल्हादक उस शाश्वत सुख को प्राप्त नहीं देता है?
यत्र तत्र सर्वत्र जगत में , राग द्वेष ही फैला है
स्वार्थ लोभ भय सदा मोह से, जन- जन का मन मैला है
निराकार हो निर्विकार तुम निर्भय निष्चल मेरु हैं
तव थुति कर वह भीरु भी क्या, बनता नहीं सुमेरु है !!१२!!
भावार्थ :- जहाँ देखो , वहां चारो और संसार में राग और द्वेष ही फैला हैं ! संसारी प्राणी अत्रान , आकस्मिक मरण , वेदना , अगुप्ति, इह - परलोक आदि सप्त भयो से भयभीत अशांत आकुल व्याकुल हो उठा हैं! स्वार्थ , लोभ और मोह आदि विकारों से सदा जन जन का मन मलिन हो गया हैं! ऐसे आंधी तूफ़ान में भी आप निर्विकार, निराकार , निर्भय चलायमान नहीं होने वाले निश्चल मेरु के सामान हैं ! स्वार्थ ,लोभ,मोह, राग, द्वेष, भव आदि से भयभीत वह भव्य भीरु आपकी स्तुति करके क्या आप जैसा निर्विकार, निश्चल, निर्भय, निराकार नहीं बन सकता हैं?
दोष रहित जिन भाव भक्ति से, आया तव गुण गाने को
तुम थुति से मैं नहीं चाहता, धन वैभव कुछ खाने को
यह थुति तव कुछ पाने को नहीं, करता दोष मिटने को
क्षुधा तृषा सब शीघ्र नाशकर , सिध्दाल्य में जाने को !!१३!!
भावार्थ :- क्षुधा , तृषा आदि से रहित हे शांतिनाथ भगवन! आपकी इस स्तुति से मैं गोधन, गजधन चाहता नहीं हूँ, न ही वैभव , विभूति चाहता हूँ , और न ही कुछ खाने- पीने को , आप देते भी कहाँ हैं? यदि देंगे तो भगवन भी कैसे कहलायेंगे? क्यूंकि आप तो दोषों से रहित ही होते हैं ! इसलिए तो हे गुणनिधि! भाव और भक्ति से आपके गुण गाने के लिए अर्थात स्तुति करने के लिए आया हूँ, अन्यथा जाता ही क्यूँ? हे जिनदेव ! यह स्तुति कुछ पाने के लिए नहीं ,क्षुधा , तृषा आदि १८ दोषों को मिटाने के लिए और सब दोषों को नाश कर शीघ्र ही आप जैसे सिद्धालय में जाने के लिए कर रहा हूँ!
पग- पग पर जग विस्मित होता, पर नहीं विस्मित विस्मय से
स्मय विस्मय से रहित जिनेश्वर, भिन्न निराला है जग से
इसीलिए तो विस्मित होकर, झुकता जग हैं तव पग में
स्मय विस्मय बिन, तुम सम बनने, चलता हूँ मैं तव मग में !!१४!!
भावार्थ :- संसारी प्राणी स्पर्श, रूप, रस , गंध ,शब्द आदि को देखकर , कभी परिवर्तनशील संसार में इन्द्रादि के वैभव को देखकर एवं कभी इन्द्रादि को आपके चरणों में झुकते हुए देखकर विस्मित अर्थात आश्चर्य चकित हो जाता हैं! किन्तु न झुकने वालों को देखकर , न विस्मित होने वालो को देखकर , विस्मयकारी संसार और संसार के पदार्थो कों देखकर आप न तो प्रभावित होते हैं , न ही विस्मित होते हैं! स्मय और विस्मय से विरहित हे शांतिनाथ जिनेश्वर! विस्मित होने वाले एवं विस्मयकारी इस संसार में रहकर भी इन दोनों से भिन्न निराले ही रहते हैं, हे जिनेश्वर! स्मय विस्मय से रहित आपको देखकर संसार और विस्मित होता है, विस्मित होकर धन्य- धन्य हो कहते हुए आपके चरणों में झुका चला जाता हैं ! हे भगवन ! मैं भी आप जैसे स्मय विस्मय से रहित होने के लिए आपकी स्तुति करता हुआ आपके मार्ग पर अविरल रूप से चलता हूँ!
वज्र कवच धर वीर पुरुष का , शत्रु वर्ग क्या कर सकता
अस्त्र शास्त्र के प्रहार से क्या, वीर कभी वह मर सकता
कषाय इन्द्रिय विषय शत्रु से, क्षमाशील क्या डर सकता
वितरागमय वज्र कवच धर, महावीर क्या मर सकता !!१५!!
भावार्थ :- वज्र कवच धारण करने वाले वीर पुरुष का अर्थात योधा का शत्रु समूह क्या कुछ बिगाड़ सकता हैं? शत्रुओ के अस्त्र -शास्त्र के प्रहारों से वह वीर पुरुष क्या कभी मर सकता हैं?
इसी प्रकार आप जैसे वीतराग्तामय वज्र कवच को धारण करने वाला वह महावीर अर्थात योधा साधक विषय, कषाय एवं इन्द्राय रूपी शत्रुओं के प्रहारों से क्या मर सकता हैं? या घायल हो सकता हैं? क्षमाशील व्यक्ति क्रोधादि कषायों के प्रहार से क्या डर सकता है? नहीं , जैसे जैसे उन पर प्रहार होगा , वैसे वैसे ही वे सुरक्षित एवं शीतल होते चले जायेंगे! क्षमा एवं वीतरागता से बढ़कर दुनिया में कोई वज्र कवच नहीं है! उसको धारण करने वालों को विषय , कषाय एवं इन्द्रय रूपी शत्रु उन्हें शुब्द विचलित एवं नाश नहीं कर सकते हैं , किन्तु स्वयमेव ही नाश को प्राप्त हो जाते हैं!
हे जड़ दीपक अरु सूरज से , अन्धकार तो नश जाता
पर प्रकाश में जागकर भी जग , मोह नींद में सो जाता
धर्म दिवाकर तव दर्शन से, मोह नींद से जग जाता
ज्ञान पुंज चिद पिण्ड प्रखर से, मिथ्यातम भी भग जाता !! १६!!
भावार्थ :-सूरज और दीपक तो जड़ हैं, उनके प्रकाश से रात का घोर अंधकार तो नाश जाता हैं , पर महा भयानक मिथ्यात्वरूपी अंधकार नहीं, सूरज का उदय होते ही प्रकाश को देखकर घरी नींद से सारा संसार जाग जाता , किन्तु जागते ही क्षण की देरी किये बिना मैं और मेरा , तू और तेरा , राग - द्वेष रूपी मोह की नींद में जागते ही सो जाता हैं! धर्मरुपी प्रकाश देने वाले हे दिवाकर ! आपके दर्शन मात्र से ही संसारी प्राणी मोहरूपी गहरी नींद से भी जाग जाता हैं! हे प्रखर चैतन्य पिंड ! हे ज्ञान पुंज ! आपकी किरणों से अनादि कालीन मिथ्यातव रूपी अंधकार भी भाग जाता हैं !
कल्पवृक्ष की छत्र छाव में , बैठ दुखी नर होता क्या
सर्दी, गर्मी, भूख प्यास से, पीड़ित होकर रोता क्या
हाय जिन! तुम सम कल्पवृक्ष ताज, धीजन वह क्या जायेगा
बबूल वृक्ष की छत्र छाव में , शाश्वत सुख क्या पायेगा !!१७!!
भावार्थ :-कल्पवृक्ष की छत्र छाँव में बैठकर भी मनुष्य क्या कभी दुखी होता है? सर्दी, गर्मी , भूख ,प्यास आदि से प्रताड़ित हो कर क्या रोता है? हे जिनेन्द्र भगवन ! यह कल्पवृक्ष तो मात्र कल्पित लोकिक वस्तुओ को ही देता हैं , किन्तु आप अकल्पित अलोकिक एवं अचिन्त्य फल को भी देने वाले हैं ! अत: आप महाकल्पवृक्ष है, फिर आप जैसे कल्पवृक्ष की छत्र छाँव में बैठकर भी क्या दुखी होंगे? और बुद्धिमान आप जैसे सच्चे वीतराग भगवान् रूपी कल्पवृक्ष को छोड़कर क्या दूसरो की शरण में जायेगा ? यदि जायेगा भी तो वह धीमान कैसे कहलायेगा? यदि चला भी जायेगा , तो सरगी देवी, देवता रूपी बबूलवृक्ष की झुरमुट छत्र छाँव में शाश्वत सुख रूपी घनी छाया को क्या पायेगा?
महादेव हो शान्ति जिनेश्वर, शांति प्रदाता हो जग में
परम शांति को पता हु मैं , हे परमेश्वर तव पग में
निर्भय होकर निराबाध से, चलता हूँ जब तव पग में
व्यंतर भी भयभीत होकर, भग जाता हैं पल भर में !!१८!!
भावार्थ :-हे देवो के देव , महादेव! संतप्त और अशांत संसार को शांति प्रदान करने वाले हे शांतिनाथ जिनेश्वर ! संसार सागर से पार लगाने में नाव के समान आपके पावन चरणों में मैं परम शांति को पाता हूँ ! हे परमेश्वर आपका अनुगामी बन आपके पीछे- २ निर्भीक होकर निराबाध रूप से आपके मार्ग पैर अर्थात आपके चरण चिन्हों पर जब मैं चलता हूँ , तब आपके इस रूप को देखकर उपसर्ग करने में उतारू वह व्यंतर भी भयभीत हो कर पल भर में ही भाग जाता हैं , अर्थात आपके संरक्षण में आपके चरण चिन्हों पर जो भी चलेगा, उसके मार्ग में कोई भी बाधा उपस्थित नहीं कर सकता हैं!
हे जिन ! जग के वैद्यराज भी , शरण तुम्हारी जब आते
तब हम उनके पाद मूल में , रोग नाश क्या कर पाते
वैद्यो के तुम वैद्यराज हो, तव पग कैसे तज सकता
जनम मरण भव रोग नाश को , विष भक्षण क्या कर सकता !!१९!!
भावार्थ :-हे शांतिनाथ भगवन ! संसार के सभी वैधराज भी आपकी शरण में जाते हैं अत: आप वेधो के भी वैध हैं! जनम , जरा, मृत्यु रूपी भव रोग को नाश करने के लिए जब वे राज वैध भी आपकी शरण में ही आते हैं, तब उनकी शरण में जाकर क्या कोई रोग नाश कर पायेगा? हे वेधो के भी वैधनाथ ! फिर हम अमृततुल्य आपकी चरण शरण को कैसे तज सकते हैं ? हे म्रत्युंजयी ! जनम जरा, मृत्यु, रूपी भव रोग को नाश करने के लिए क्या कोई विशभक्षण कर सकता हैं? नीम - हकीम की शरण में जा सकता है? और विशभक्षण कर क्या कोई म्रत्युंजयी हो सकता हैं? फिर मैं सरगी देवी- देवताओं की स्तुति रूपी विष भक्षण कैसे कर सकता हूँ और सेवन का क्या म्रत्युंजयी हो सकता हूँ? नहीं हो सकता
राग द्वेष की पगडण्डी तो, भव वन में भटकाती हैं
हे जिन! निश्चित शरण आपकी ,दुःख से मुक्ति दिलाती हैं
राजमार्ग से जो नर चलता, भटक कभी क्या वह सकता
महाभयानक भव वन में क्या, भव दुःख ठोकर खा सकता !!२०!!
भावार्थ :-पगडण्डी की शरण में जो भी जायेगा, पगडण्डी को जो भी अपनाएगा अर्थात आपके रतन त्रय तलवार की धार के सामान राजमार्ग को छोड़कर राग द्वेष रूपी पगडण्डी से शीघ्र ही जो मोक्ष जाना चाएगा, उसको पगडण्डी निश्चित रूप से संसार रूपी घनघोर जंगल में भटकाती है, किन्तु हे जिनेन्द्र भगवन! आपकी शरण तो निश्चित रूप से भव्य जीवो को भव दुःख से मुक्ति दिलाती हैं , क्यूंकि आपके वितरागमय राजमार्ग से जो मनुष्य चलता है , वह कभी संसार रूपी जंगल से क्या भटक सकता हैं? और महाभयानक भव वन में भटककर संसार के दुखरुपी ठोकरों को क्या खा सकता हैं? हे भगवन! आपका वितरागमय मार्ग , राजमार्ग के सामान है और सराग्मार्ग तो रागद्वेष रूपी , गड्ढो से सहित हैं , जो नरक निगोड आदि संसार रूपी जंगल में भटकने वाली पगडण्डी के समान हैं! पगडण्डी से चलने वालों को ही ठोकर लगती हैं, राजमार्ग से चलने वालों को नहीं , और पगडण्डी से चलन्ने वाला ही भटक सकता हैं , राजमार्ग से चलने वाला नहीं!
ओषधि सेवन करके भी नर, अमर हुआ क्या हो सकता
हे जिन! निजरस अमृत पीकर मरा कभी क्या मर सकता
फिर मैं कैसे परमोषधी तज , ओषधि सेवन कर सकता
होकर तुम संतान कभी क्या, आधि व्याधि से डर सकता !!२१!!
भावार्थ :-सिद्धरस आदि ओषधि का सेवन कर कोई मनुष्य सिद्ध, बुध , नित्य निरंजन हुआ है क्या? ऐसे अनेक परकार के सिद्धरसो का सेवन कर के भी क्या कोई सिद्ध हो सकता है? हे जिनेन्द्र भगवन ! आप जैसे शुधात्म सुधारस का पान करने वाला भी कभी क्या मरा हैं? या आगे मर सकता है? और जिस ओषधि से द्रव्य प्राणों की भी रक्षा नहीं हो सकती है ! उस ओषधि से भाव प्राणों की रक्षा कैसे संभव हैं ? जिसने निश्चय प्राणों की रक्षार्थ ओषधि का सेवन किया हैं, वह भी क्या मर सकता हैं? हे प्राणनाथ जिनदेव! फिर आपके उस परमोश्धि को छोड़कर इस जड़ ओषधि का सेवन मैं कैसे का सकता हूँ? आपकी संतान होकर मैं चिन्मय भी क्या कभी आधि व्याधि से दर सकता हूँ? आपने जिस परमोश्धि का सेवन कर सकता हूँ? अर्थात नहीं!
हे जिनवाणी शिव सुख खानी, नहीं दूषित वह पानी हैं
समीचीन हैं, सारभूत हैं, इसमें नहीं मनमानी हैं
अमृत सम हैं अमर बनाती, पीते निश्चित ज्ञानी हैं
स्याद्वाद्मयी तुमरी वाणी , हे जिन! जग कल्याणी हैं !!२२!!
भावार्थ :-हे जिनेन्द्र भगवन ! आपकी वाणी अर्थात जिनवाणी मोक्ष सुख की खान है ! विषय कषाय एवं एकान्तवाद आदि से प्रदूषित पानी है वह, अपितु वह अमृत के सामान हैं! छोटे बच्चे , बूढ़े, स्त्री , पुरुष , नारकी, देव , पशु, आदि जो भी इसका पान करेगा, उसको यह अमर बनती हैं , अमृतव को प्राप्त करने की भावना रखने वाले वह ज्ञानी ही नियम से जिनवानी का पान करते है , अज्ञानी नहीं! हे शांति जिनेश्वर ! अनेकांत और स्याद्वाद्मयी आपकी वाणी जन कल्याणी है, अर्थात जगत के प्राणी मात्र का कल्याण करने वाली है, क्यूंकि हे सर्वग्य, आपकी वाणी सारभूत है, समीचीन हैं , इसमें किसी प्रकार की मनमानी नहीं है!
मात पिता की बैठ गोद में, बालक पर से डरता क्या
चिंता भय से मुक्त होएकर, क्रीडा वह नहीं करता क्या
हे जिन! सच्चे मात पिता तुम, भ्राता गुरु अरु त्राता हो
निज में क्रीडा जब में करता, होता दुःख भी साता वो !!२३!!
भावार्थ :-माता- पिता की गोद में बैठा वह बालक क्या कभी किसी से डरता हैं, चिंता और भय से मुक्त होकर क्या वह अपने आप में क्रीडा नहीं करता हैं! हे जिनेन्द्र भगवन! आप ही मेरे सच्चे माता, पिता, भ्राता , गुरु , रक्षक, त्राता सब कुछ हो! आपको छोड़कर इस संसार में मेरा कोई नहीं है!
फिर बालक के समान आपकी गोद में बैठकर कुदेव, रागी, द्वेषी, व्यंतर , उपसर्ग , रोगादि परीषहो से मैं कैसे दर सकता हूँ? संसार की चिंता और भय से मुक्त होकर, आपके जैसे ही अपनी शुद्धात्मा में क्रीडा करता हूँ, तो वह दुःख भी सुख में अपने आप ही परिवर्तित हो जाता हैं!
राजाश्रित नर नोकर चाकर, और प्रजा से डरता क्या
महाराज को छोड़ प्रजा से, कभी मित्रता करता क्या
राजा अरु तुम महाराज के, हे जिन! नहीं सरताजा क्या
फिर मैं रुज अरु कर्मो से डर, शरण किसी की गहता क्या !!२४!!
भावार्थ :-हे भगवन ! जिसको राजा का आश्रय कभी प्राप्त हो गया हो , क्या वह व्यक्ति राजा के नोकर , चाकर, अंगरक्षक , प्रजा आदि से डरता है? महाराजा को छोड़कर प्रजा आदि से मित्रता करता हैं ? हे शांति जिनेश्वर ! प्रजा का पालन पोषण करने वाले राजा और २८ मुल्गुनो का पालन करने वाले महाराजा के भी क्या आप सरताज नहीं हैं? ये लोग भी क्या आपको सिर पर धारण नहीं करते है? अर्थात राजा, प्रजा आदि से क्या आप वन्दनीय पूजनीय नहीं हैं? फिर मैं आप जैसी विभूति सरताज का आश्रय पाकर आपके गुणगान/ पूजा, स्तुति , सेवादी करने वाले इंद्र – नरेन्द्र , आपके अंगरक्षक यक्ष – यक्षिणी आदि से भी क्या डर सकता है? हे वीतरागी देव आपको c होड़कर आपके नोकर- चाकर आदि अंगरक्षक से क्या मैं मित्रता कर सकता हूँ? रोगादि परिषय एवं तीव्र अशुभ करम के उदय से डरकर आपके सेवक और रागी- द्वेषी कुदेवादी की सेवा और सेवन मैं कैसे कर सकता हूँ?
परमातम जिन परमेष्ठी हो, परम पूज्य परमेश्वर हो
जग जन तारक जग्दोधारक, जगन्नाथ जगदीश्वर हो
विश्वनाथ हो विश्वासी विभु, विश्व व्यापी प्रभु अविनाशी
शाश्वत सुन्दर शिवशंकर हो, सिद्धाल्या के रहवासी !!२९!!
भावार्थ :-हे जिनेन्द्र भगवन आप सभी आत्माओ में सर्वश्रेष्ठ होने से परमात्मा हो, परम इष्ट पद को प्राप्त करने वाले होने से परमेष्ठी हो , जगद- वन्द्य होने से परम पूज्य हो, ईश्वर से भी श्रेष्ठ होने से परमेश्वर हो, संसारी प्राणियों को संसार से पार उतारने वाले तारक होने से जगत- उद्धारक हो, इन्द्र , नरेन्द्र, नागेन्द्रादी अर्थात जगत के सभी जीव आपको नाथ मानते हैं! अत: आप जगन्नाथ हो, जन – जन के ईश्वर होने से जगदीश्वर हो, अन्तरंग वैभव को पाने के विभु हो, प्राणी – मात्र के प्रार्थना के योग्य होने से प्रभु हो, सम्पूर्ण विश्व के ही विश्वास के योग्य होने से आप विश्वासी हो , विश्व के सम्पूर्ण पदार्थो को युगपत, स्पष्ट रूप से जानने वाले सर्वग्य होने से विश्वव्यापी हो, शाश्वत हो, सत्य हो , शिव हो, सुन्दर हो, शंकर हो, हे शांतिनाथ भगवन ! आप तो सिद्धालय के रहवासी हो !
पुत्र धनी का निर्धन अरु वह, दीन दुखी भी हो सकता
पर नहीं तुम सुत दीन दुखी अरु, निर्धन पीड़ित हो सकता
परम पूज्य हे शांति जिनेश्वर! शाश्वत शिव सुख स्वामी हो
मात्र धनी क्या जिन भी बनते, निश्चित तुम अनुगामी वो !!३०!!
भावार्थ :-दुनिया में धनवान का पुत्र भी निर्धन बनकर दीन, हीन, दुखी होता हुआ देखने में आता हैं , वह भी दरिद्री बनकर भीख मांग सकता हैं! पर शाश्वत शिव सुख के स्वामी हे शांति जिनेश्वर ! आपके शरणार्थी सुत आपके भक्त भव्य जीव न ही निर्धन हो सकते हैं , न ही दीन- दुखी हो सकते हैं! और न ही कभी वह रोगादि से पीड़ित हो सकते हैं ! हे परम पूज्य ! आपका अनुगामी वह स्वस्थ , सुन्दर, सुखी एवं धनवान ही नहीं, अपितु निश्चित ही आपके समान परम पूज्य जिनेन्द्र भगवन भी बन जाता हैं !
द्वेष कलेश आवेश दोष सब, पाप कर्म मल धुल जाते
स्मय भय विस्मय दुःख बाधा अरु, संकट सब हैं टल जाते
तव थुति से जिन, निश्चित , दुर्गुण, विषय विषमता नश जाते
आकुलता से ले विराम वह, परम शांति को पा जाते !!३१!!
भावार्थ :-हे शांति जिनेश्वर ! भाव भक्ति से आपकी स्तुति करने से भव्य जीवो के अनेक प्रकार के dvesh , कलेश , आवेश आदि १८ प्रकार के दोष , पाप , करम रूपी मॉल आदि सब धुल जाते हैं! मद, मत्सर , भय, विस्मय ,दुःख , बंधाएं और सब प्रकार के संकट टल जाते हैं ! हे जिनेन्द्र भगवन ! आपकी स्तुति से दुर्गुण, विषय , विषमता आदि नाश को प्राप्त हो जाते हैं, इतना ही नहीं , आपकी स्तुति कर आप जैसे आकुलता से विराम लेकर भव्य जीव परमशान्ति को पा जाते हैं !
मंद मधुर मुस्कान देख वह, बालक भी निज पालक की
शक्तिहीन भी चलकर जाता, शीघ्र गोद अभिभावक की
शिशु सम हे जिन पथ पर चलता, मुझमे क्षमता शक्ति कहाँ
देख आपकी मूरत को मैं, चलकर करता भक्ति यहाँ !!३२!!
भावार्थ :-अपने पालक की मंद मधुर मुस्कान देखकर वह शक्तिहीन और भयभीत बालक भी चलकर शीघ्र ही अपने अभिभावक की गोद में जिस प्रकार पहुँच जाता हैं, उसी प्रकार हे शांति जिनेश्वर ! आपके पथ पर चलने के लिए मेरे पास इतनी भी क्षमता एवं शक्ति कहाँ है? वज्र वृषभ नाराच संहनन के अभाव में शक्तिहीन और संसार शारीर एवं भोंगो से भयभीत मैं उस शिशु के समान आपकी वितरागमय , शांत , प्रसन्न छवि को देखकर ही मात्र शब्दों से ही नहीं, आपके मार्ग पर चलकर यहाँ आपकी स्तुति और भक्ति करता रहता हू और मुझे पूर्ण विश्वास है, की उस शिशु के सामान शक्तिहीन होते हुए भी आपकी छवि को देखते देखते , स्तुति एवं भक्ति करते करते शीघ्र ही मैं भी एक दिन आपकी गोद में पहुँच जाऊंगा !
तव थुति से ही ऊष्मा उर्जा, पल पल मुझको बल मिलता
तव थुति संबल लेकर चिन्मय , अविचल जिनपथ पर चलता
ऊष्मा पाकर बर्फ समा नित, कर्म कालिमा है गलता
तुम दर्शन से शांति जिनेश्वर, मुरझाया मम मन खिलता !!३३!!
भावार्थ :-जड़कर्मो के संयोग की वजह से मैं चिन्मय होकर भी चेतना से रहित जडवत हो गया हूँ , मुझ में अनंत शक्ति विद्यमान होते हुए भी मैं शक्तिहीन बन गया हूँ , किन्तु हे जिनेन्द्र भगवन ! आपकी स्तुति एवं भक्ति से मुझे ऊष्मा मिलती हैं , उर्जा मिलती है , चेतनता इतनी जग जाती हैं , आपकी स्तुति से ही पथ पर आगे भाधने के लिए मुझे पल – पल बल मिलता हैं, आपकी स्तुति रूपी संबल लेकर शक्तिहीन होते हुए भी आपके मार्ग पर विचलित नहीं होते हुए आप जैसे अविरल चलने लगता हूँ !
आपकी स्तुति से ही मेरी आत्मा के एक -एक प्रदेश में उष्मा एवं उर्जा का संचार होता हैं , जिस प्रकार सूर्य की उस ऊष्मा और उर्जा को पाकर बर्फ का वह पर्वत पिघल जाता हैं, उसी प्रकार मेरी आत्मा की उस ऊष्मा और उर्जा को पाकर कर्म रूपी बर्फ का वह पर्वत भी गल जाता है , पिघल जाता हैं! हे शांति जिनेश्वर ! भाव विभोर होकर जब मैं आपकी शांत, वितरागमय ,निराकुल मुद्रा का दर्शन करता हूँ, तब थका हारा मुरझाया हुआ मेरा मन रूपी उपवन दर्शनमात्र से ही कमल के समान खिल उठता हैं!
रण आँगन में सेना भी वह, रण मेरी जब सुनती है
शत्रु वर्ग से लड़ने को तब, बाहु फड़कने लगती हैं
हे जिन! जब मैं जिनवानीमय , रण भेरी को सुनता हूँ
बाहु फड़कने लगती हैं तब, विधि से लड़ने लगता हूँ !!३४!!
भावार्थ :-युद्ध के लिए रण आँगन में खड़ी वह सेना जब रणभेरी को सुनती हैं, तब सुनते ही शत्रु वर्ग से लड़ने के लिए सेना की बाहु जिस प्रकार फड़कने लगती हैं ! उसी प्रकार कर्म रूपी शत्रुओं से लड़ने के लिए हमेशा – हमेशा के लिए सावधान होकर रणागन में खड़ा साधक योधा मैं जिनवानी रूपी रणभेरी को जब सुनता हूँ , तब करम रूपी बलवान शत्रु से लड़ने के लिए मेरी बाहू फड़कने लगती हैं , और मैं निर्भीक निडर , निरीह होकर द्रढ़ता के साथ अविरल रूप से कर्मो से लड़ने लगता हूँ, अर्थात आपकी वाणी सुनकर मुझे कारणों से लड़ते हुए मोक्ष मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा मिलती हैं!
रोग स्वयं के भूल जगत जन, पर को रोगी कहते हैं
रोग देखकर रोगी जन को, दूर हमेशा करते हैं
रोगी जन अरु हे जिन! तुमको, दूर कोई क्या कर सकता
जन्म जरा भव रोग मरण क्या, तुम बिन कोई हर सकता !!३५!!
भावार्थ :-संसार का प्रत्यक प्राणी जनम, जरा, मृत्यु , रूपी महाभयानक रोग से ग्रसित हैं, अनादिकाल से आज तक इस भव रोग से एक समय के लिए भी मुक्त नहीं हो पाया हूँ स्वयं के इस महाभयानक भव रोग को भूल कर दुसरो के रोगों को देखने वाला छिद्रान्वेषी स्वयं की गलती को भूल दुसरे की गलती को देखता हैं , अपने आपको स्वस्थ एवं समझदार समझता हैं, और किसी के शारीर में कुछ समय के लिए कोई रोग हो जाता हैं तो उसे रोगी कहकर उससे ग्लानी करने लगता हैं, अपने बीच से उसको दूर करने लगता हैं. किन्तु भव रोग की ही शांति करने वाले हे शांति जिनेश्वर ! वे रोगों को तो अपने से दूर कर सकते हैं , पर उनके ह्रदय में विराजमान आपको भी कोई क्या दूर कर सकता हैं? और अपने से आपको दूर कर क्या कोई स्वयं के जनम , जरा , मृत्यु रूपी भव रोग को हर सकता हैं? अत: मैं आपकी स्तुति कर रहा हूँ, क्यूंकि मुझे तन का रोग नहीं , चेतन का रोग दूर करना हैं ! चेतन का यह भव रोग ही दूर हो जायेगा , तो तन का रोग कैसे रह पायेगा? अपने आप ही समाप्त हो जायेगा !
माँ से शिशु को मात्र द्रव्य से, मनुष्य अलग तो कर सकता
पर क्या कोई शांति जिनेश्वर, माँ की ममता हर सकता
इस विध तुमसे जग जन मुझको, दूर द्रव्य से कर सकते
पर क्या कोई मम हर्दय से, हे जिन! तुमको हर सकते !!३६!!
भावार्थ :-ममता से भरी माँ से शिशु को मनुष्य मात्र द्रव्य से तो अलग कर सकता हैं , किन्तु इन दोनों को दूर करके भी क्या कोई मनुष्य माँ की ममता को भी हर सकता हैं ? अर्थात माँ की ममता को ही हरने को क्षमता इस दुनिया में क्या किसी के पास हैं? इसी प्रकार हे शांति जिनेश्वर! संसार के सब लोग मिलकर भी आपसे और आप के इस मार्ग से मुझको द्रव्य से तो दूर कर सकते हैं , पर मेरे ह्रदय में , मेरे रग-रग में विराजमान आपको भी क्या कोई छीन सकता हैं ? अर्थात हे शांतिनाथ भगवन ! साक्षात् आप ही क्यूँ न हो , साक्षात् मेरे गुरु भी क्यूँ न हों, इतना ही नहीं, इस संसार की कोई भी शक्ति ,कोई भी व्यक्ति, मुझको मेरे भीतर के मोक्षमार्ग से एवं आपके अनुराग से एक क्षण के लिए भी विचलित अर्थात अलग नहीं कर सकता हैं!
प्राणवायु का सेवन करने, वाला भी क्या मर सकता
शवास लिए बिन जीव जगत में, जिया कभी क्या जी सकता
प्राण वायु हो परम परमेश्वर, तुम बिन क्या मैं रह सकता
तुमको तजकर धुम्रपान को, प्राण वायु क्या कह सकता !!३७!!
भावार्थ :-प्राणवायु का सेवन करने वाला क्या मर सकता हैं?प्राणवायु के सेवन के बिना अर्थात श्वास लिए बिना भी जिव जगत में क्या कभी जिन्दा रह सकता हैं ? इसी प्रकार हे शांति जिनेश्वर ! आप जैसे प्राणवायु को छोड़कर मैं कैसे जिन्दा रह सकता हूँ अर्थात आप ही मेरे प्राणवायु हैं , अर्थात आपके बिना मैं एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता हूँ, आप जैसे प्राणवायु को छोड़कर सरागी देवी, देवतारुपी धुम्रपान का सेवन मैं क्या कर सकता हूँ? करके भी क्या मैं अन्दर से स्वस्थ, सुन्दर एवं जिन्दा रह सकता हूँ? अमर हो सकता हूँ? फिर मैं उनका सेवन कर धुम्रपान को भी क्या प्राणवायु कह सकता हूँ, अर्थात आपकी तुलना मैं उनके साथ कैसे कर सकता हूँ?कैदी सम जग मुझको भी क्या, कैद कोई कर रख सकता
देह बांधकर रखने से क्या, तव दर्शन बिन रुक सकता
तन को तजकर भाग भाग कर, भावो से मैं आता हूँ
पैर पकड़कर दर्शन कर मैं, हे जिन! तव गुण गता हूँ !!३८!!
भावार्थ :-हे जिनेन्द्र भगवन! इस संसार में कोई कैदी के सामान चार दीवारों के बीच जेल में मुझ चेतन को भी क्या कैद करके रख सकता हैं ? यदि कोई बंदकर रखता भी हैं , तो तन के बंधन मात्र से आपके दर्शन के बिना मैं क्या रुक सकता हूँ? ऐसी स्थिति में भी मैं तन को छोड़कर भावो से भाग भाग कर आपके दर्शन के लिए आता हूँ, और आपके युगल चरण कमलो को पकड़कर भाव विभोर होकर दर्शन कर भरमर के समान आपके गुणों को गाता हूँ , अर्थात तन से भी ज्यादा मुझे आप प्रिय हैं ! तन भी बार बार मिल सकता हैं, पर आप नहीं, आपका मार्ग नहीं! अथ: तन को भी छोड़ने के लिए तैयार हूँ, पर आप एवं आपके मार्ग एवं भक्ति को नहीं , दुनिया के लोग मेरे तन को भान्धकर रख सकते हैं , पर मुझको और मेरे भावो को नहीं!
पश्चिम दिश से, आंधी बाधा, आ जब बादल टकराते
देख दिवाकर भय से शशि क्या, अपने पथ से भग जाते
रवि सम इन में निर्भीक होकर, आगे जब तुम बढ़ जाते
बाधा परीषह उपसर्गों से, फिर हम कैसे डर पाते !!३९!!
भावार्थ :-सूर्य और चन्द्रमा पूर्व दिशा में उदित होकर निज पर को प्रकाशित करते हुए अन्धकार को हारते हुए अविरल रूप से अपनी यात्रा करते रहते हैं, तब सामने से अर्थात पश्चिम दिशा से आती हुई आंधी , आते हुए बाधा एवं बादलों को देखकर दिवाकर क्या घबरा जाते हैं ? आकर टकराने के भय से अथवा उनसे पूर्ण रूप से ढक जाने के भय से सूर्य और चंद्रमा अपने पथ को छोड़कर क्या मार्ग से भाग जाते हैं? आज तक न ही भागे हैं और न ही भाग सकते हैं ! अर्थात इन सब में क्या वे सुद्रढ़ एवं अडिग नहीं रहते हैं?हे शांति जिनेश्वर ! सूर्य के समान आप इन सब में निर्भीक होकर जब आप आगे भाद जाते हो , तो फिर पंचेंद्र्य विषय वासना रूपी आंधी , उपसर्ग , परिशय रूपी बाधाएं और पश्चिमी देश से आती हुई पश्चिमी संस्कृति एवं सभ्यता रूपी बादलों को देखकर उनके टकराने के अथवा उनसे खुद ढकने के भय से भयभीत होकर आपके पीछे – पीछे चलने वाला चिन्मय रूपी चन्द्रमा क्या आपके पथ को अर्थात मोक्ष मार्ग को ही छोड़कर भाग सकता हैं? जब आप इन सब से नहीं डरते हैं, तब आपका अनुगामी मैं कैसे दर सकता हूँ?
मायावी जिन दर्शन को भी, कभी रेवती जाती क्या
महासती हो तजकर पति को, मोहित पर से होती क्या
फिर मैं तुमको, तजकर पर से, मोहित कैसे हो सकता
रागी द्वेषी गुण गाकर भी, महाव्रती क्या हो सकता !!४०!!
भावार्थ :-रेवती को ठगने के लिए माया से क्षुल्लक जी ने जिनेन्द्र भगवन का रूप धारण कर समवशरण में मायावी जिनेन्द्र देव बनकर रेवती को दर्शन दिए , परन्तु दर्शन के लिए क्या रेवती रानी गई थी? सच्ची श्राविका जा सकती हैं क्या? जब मायावी जिनरूप के भी वह रानी दर्शन नहीं कर सकती है , तब मैं महाव्रती साक्षात् सरागी देवी देवताओं के दर्शन / सेवन कैसे कर सकता हूँ? करके भी क्या कोई महाव्रती बना रह सकता हैं?
क्या पतिव्रता महासती अपने पति को छोड़कर परपुरुषों से मोहित प्रभावित होती हैं? यदि होती हैं , तो क्या वे महासती कहलाएंगी? फिर महाव्रती रत्नत्रय से युक्त मुनि होकर हे शांतिनाथ भगवान् ! वीतरागी जिनदेव रूपी सच्चे भगवन को छोड़कर सरागी देवी- देवताओं और कुदेवो से मैं कैसे मोहित और प्रभावित हो सकता हूँ? रागी देवेशी आदि को वीतराग जिनदेव के समान या उनसे ज्यादा गुण गाकर भी अर्थात आयतन समझकर आदर , भक्ति , स्तुति , पूजन , विधान आदि स्वयं करके , दूसरों से करा कर के भी क्या कोई महाव्रती हो सकता हैं?
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