Bhaktamar Stotra is Sanskrit Language Based Jainism's Most Famous Devotional Prayer and Psalm & Incredible Poem Composition of Acharya Manatuna ji - A Most Beautiful & Precious Meaningful has infinite energy. This is Also One of the Single Prayer Accepted by All Sects equally..
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* भक्तामर स्तोत्र के पढने का कोई एक निश्चित नियम नहीं है, भक्तामर को किसी भी समय प्रातः, दोपहर, सायंकाल या रात में कभी भी पढ़ा जा सकता है, कोई समय सीमा निश्चित नहीं है, क्योकि ये सिर्फ भक्ति प्रधान स्तोत्र है जिसमे भगवन की स्तुति है !!
Q.1: भक्तामर स्तोत्र की रचना किसने की थी, इस स्तोत्र का दूसरा नाम क्या है, इस स्तोत्र का नाम "भक्तामर" क्यों पड़ा?, यह कौन सी भाषा में लिखा गया है तथाये कौनसे छंद में लिखा गया है?
A.1: भक्तामर स्तोत्र के रचना मानतुंग आचार्य जी ने की थी, इस स्तोत्र का दूसरा नाम आदिनाथ स्रोत्र भी है, यह संस्कृत में लिखा गया है, प्रथम अक्षर भक्तामर होने के कारण ही इस स्तोत्र का नाम भक्तामर स्तोत्र पढ़ गया, ये वसंत-तिलका छंद में लिखा गया है! हम लोग भक्ताम्बर बोलते है जबकि ये भक्तामर है !
Q.2: भक्तामर स्तोत्र में कितने शलोक है तथा हर शलोक में कौन सी शक्ति निहित है, ऐसे कौन से 4 अक्षर है जो की 48 के 48 काव्यो में पाए जाते है?
A.2: भक्तामर स्तोत्र में 48 शलोक है , हर शलोक में मंत्र शक्ति निहित है, इसके 48 के 48 शलोको में “म“ “न“ “त“ “र“ यह चार अक्षर पाए जाते है!
Q.3: भक्तामर स्तोत्र की रचना कौन से काल में हुई? 11वी शताब्दी में राजा भोज के काल में या 7वी शताब्दी में राजा हर्षवर्धन के काल में ?
A.3: वैसे तो जो इस स्तोत्र के बारे में सामान्य ये है की आचार्य मानतुंग को जब राजा हर्षवर्धन ने जेल में बंद करवा दिया था तब उन्होंने भक्तामर स्तोत्र की रचना की तथा 48 शलोको पर 48 ताले टूट गए! अब आते है इसके बारे में दुसरे तथा ज्यादा रोचक तथा पर,जिसके अनुसार आचार्य मान तुंग जी ने जेल में रहकर में ताले तोड़ने के लिए नहीं अपितु सामान्य स्तुति की है भगवन आदिनाथ की तथा अभी 10 प्रसिद्ध विद्वानों ने ये सिद्ध भी किया प्रमाण देकर की आचार्य श्री जी राजा हर्षवर्धन के काल ११वी शताब्दी में न होकर वरन 7वी शताब्दी में राजा भोज के काल में हुए है तो इस तथा अनुसार तो आचार्य श्री 400 वर्ष पूर्व होचुके है राजा हर्षवर्धन के समय से !
Q.4: भक्तामर स्तोत्र का अब तक लगभग कितनी बार पदानुवाद हो चुका है!, इतनी ज्यादा बार इस स्तोत्र का अनुवाद क्यों हुआ तथा यह इतना प्रसिद्ध क्यों हुआ जबकि संसार में और भी स्तोत्र है ?
A.4: भक्तामर स्तोत्र का अब तक लगभग 130 बार अनुवाद हो चुका है बड़े बड़े धार्मिक गुरु चाहे वो हिन्दू धर्मं के हो वो भी भक्तामर स्तोत्र की शक्ति को मानते है तथा मानते है भक्तामर स्तोत्र जैसे कोई स्तोत्र नहीं है!, अपने आप में बहुत शक्तिशाली होने के कारण यह स्तोत्र बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुआ! यह स्तोत्र संसार का इकलोता स्तोत्र है जिसका इतनी बार अनुवाद हुआ जो की इस स्तोत्र की प्रसिद्ध होने को दर्शाता है !
Q.5: क्या आप संस्कृत का भक्तामर स्तोत्र पढ़ते है तथा सही उच्चारण करते है? यहाँ तक की अनुराधा पौडवाल ने जो भक्तामर स्तोत्र को गया है उस में भी कुछ संस्कृत सम्बन्धी गलतिया है !
A.5: अगर आप सही उच्चारण करना सीखना चाहते है तो आप भक्तामर स्तोत्र जो क्षुल्लक ध्यान सागर जी महाराज ने गया है तथा जिसको Edit करके बाद में Music डाल दिया गया है, www.wuistudio.com वेबसाइट से डाउनलोड कर सकते है !
Q.6: क्या भक्तामर स्तोत्र को किसी भी समय पढ़ा जा सकता है तथा क्या धुन तथा समय का प्रभाव अलग होता है?
A.6: भक्तामर स्तोत्र के पढने का कोई एक निश्चित नियम नहीं है, भक्तामर को किसी भी समय प्रातः, दोपहर, सायंकाल या रात में कभी भी पढ़ा जा सकता है, कोई समय सीमा निश्चित नहीं है, क्योकि ये सिर्फ भक्ति प्रधान स्तोत्र है जिसमे भगवन की स्तुति है, धुन तथा समय का प्रभाव अलग अलग होता है!
भक्तामर स्तोत्र का प्रसिद्ध तथा सर्वसिद्धिदायक महामंत्र- ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्हं श्री वृषभनाथतीर्थंकराय् नमः
ये लेख क्षुल्लक ध्यानसागर जी महाराज (आचार्य विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित शिष्य) के प्रवचनों के आधार पर लिखा गया है ! टाइप करने में मुझसे कही कोई गलती हो गई हो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ !
First n Foremost is [भावना-भव ऩाशिनी]
सर्व विघ्न उपद्रवनाशक
भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् ।
सम्यक्प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा-
वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥1॥
शत्रु तथा शिरपीडा नाशक
यःसंस्तुतः सकल-वांग्मय-तत्त्वबोधा-
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुरलोक-नाथै ।
स्तोत्रैर्जगत्त्रितय-चित्त-हरै-रुदारैः,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥2॥
सर्वसिद्धिदायक
बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ,
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोहम् ।
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
मन्यःक इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥3॥
जलजंतु निरोधक
वक्तुं गुणान् गुण-समुद्र! शशांक-कांतान्,
कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोपि बुद्धया ।
कल्पांत-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं,
को वा तरीतु-मलमम्बु निधिं भुजाभ्याम् ॥4॥
नेत्ररोग निवारक
सोहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश,
कर्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृतः ।
प्रीत्यात्म-वीर्य-मविचार्य्य मृगी मृगेन्द्रं,
नाभ्येति किं निज-शिशोः परि-पालनार्थम् ॥5॥
विद्या प्रदायक
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,
त्वद्भक्ति-रेव-मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र-चारु-कालिका-निकरैक-हेतु ॥6॥
सर्व विष व संकट निवारक
त्वत्संस्तवेन भव-संतति-सन्निबद्धं
पापं क्षणात्क्षय-मुपैति शरीर-भाजाम् ।
आक्रांत-लोक-मलिनील-मशेष-माशु,
सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्॥7॥
सर्वारिष्ट निवारक
मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ताफल-द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दुः ॥8॥
सर्वभय निवारक
आस्तां तव स्तवन-मस्त-समस्त-दोषं,
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हंति ।
दूरे सहस्त्र-किरणः कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकास-भांजि ॥9॥
कूकर विष निवारक
नात्यद्भुतं भुवन-भूषण-भूतनाथ,
भूतैर्गुणैर्भुवि भवंत-मभिष्टु-वंतः ।
तुल्या भवंति भवतो ननु तेन किं वा,
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥10॥
इच्छित-आकर्षक
दृष्ट्वा भवंत-मनिमेष-विलोकनीयं,
नान्यत्र तोष-मुपयाति जनस्य चक्षुः ।
पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धो,
क्षारं जलं जलनिधे रसितुँ क इच्छेत् ॥11॥
हस्तिमद-निवारक
यैः शांत-राग-रुचिभिः परमाणु-भिस्त्वं,
निर्मापितस्त्रि-भुवनैक-ललाम-भूत ।
तावंत एव खलु तेप्यणवः पृथिव्यां,
यत्ते समान-मपरं न हि रूपमस्ति ॥12॥
चोर भय व अन्यभय निवारक
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरगनेत्र-हारि,
निःशेष-निर्जित-जगत्त्रित-योपमानम् ।
बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डु-पलाश-कल्पम् ॥13॥
आधि-व्याधि-नाशक लक्ष्मी-प्रदायक
सम्पूर्ण-मण्डल-शशांक-कला कलाप-
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंग्घयंति ।
ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर-नाथमेकं,
कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम ॥14॥
राजसम्मान-सौभाग्यवर्धक
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि-
नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
कल्पांत-काल-मरुता चलिता चलेन
किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् ॥15॥
सर्व-विजय-दायक
निर्धूम-वर्त्ति-रपवर्जित-तैलपूरः,
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी-करोषि ।
गम्यो न जातु मरुतां चलिता-चलानां,
दीपोपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः ॥16॥
सर्व उदर पीडा नाशक
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्यः,
स्पष्टी-करोषि सहसा युगपज्जगंति ।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभावः,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र लोके ॥17॥
शत्रु सेना स्तम्भक
नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं।
गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् ।
विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्प-कांति,
विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशांक-विम्बम् ॥18॥
जादू-टोना-प्रभाव नाशक
किं शर्वरीषु शशिनान्हि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमःसु नाथ ।
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,
कार्यं कियज्-जलधरैर्जल-भारनम्रैः ॥19॥
संतान-लक्ष्मी-सौभाग्य-विजय बुद्धिदायक
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं
नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु ।
तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं,
नैवं तु काच-शकले किरणा-कुलेपि ॥20॥
सर्व वशीकरण्
मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः,
कश्चिन्मनो हरति नाथ भवांतरेपि ॥21॥
भूत-पिशाचादि व्यंतर बाधा निरोधक
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान्-
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्र-रश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुर-दंशु-जालम् ॥22॥
प्रेत बाधा निवारक
त्वामा-मनंति मुनयः परमं पुमांस-
मादित्य-वर्ण-ममलं तमसः पुरस्तात्
त्वामेव सम्य-गुपलभ्य जयंति मृत्युं,
नान्यः शिवः शिव-पदस्य मुनीन्द्र पंथाः ॥23॥
शिर पीडा नाशक
त्वा-मव्ययं विभु-मचिंत्य-मसंखय-माद्यं,
ब्रह्माण-मीश्वर-मनंत-मनंग केतुम् ।
योगीश्वरं विदित-योग-मनेक-मेकं,
ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदंति संतः ॥24॥
नज़र (दृष्टि देष) नाशक
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
त्त्वं शंकरोसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात् ।
धातासि धीर! शिव-मार्ग-विधेर्-विधानात्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोसि ॥25॥
आधा शीशी (सिर दर्द) एवं प्रसूति पीडा नाशक
तुभ्यं नम स्त्रिभुवनार्ति-हाराय नाथ,
तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल-भूषणाय ।
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ॥26॥
शत्रुकृत-हानि निरोधक
को विस्मयोत्र यदि नाम गुणैरशेषै,
स्त्वं संश्रितो निरवकाश-तया मुनीश ।
दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वैः,
स्वप्नांतरेपि न कदाचिद-पीक्षितोसि ॥27।।
सर्व कार्य सिद्धि दायक
उच्चैर-शोक-तरु-संश्रित-मुन्मयूख-
माभाति रूप-ममलं भवतो नितांतम् ।
स्पष्टोल्लसत-किरणमस्त-तमोवितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति ॥28॥
नेत्र पीडा व बिच्छू विष नाशक
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभाजते तव वपुः कानका-वदातम ।
बिम्बं वियद्-विलस-दंशु-लता-वितानं,
तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्त्र-रश्मेः ॥29॥
शत्रु स्तम्भक
कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभं,
विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कांतम् ।
उद्यच्छशांक-शुचि-निर्झर-वारि-धार-
मुच्चैस्तटं सुर-गिरेरिव शात-कौम्भम् ॥30॥
राज्य सम्मान दायक व चर्म रोग नाशक
छत्र-त्रयं तव विभाति शशांक-कांत-
मुच्चैः स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम् ।
मुक्ता-फल-प्रकर-जाल-विवृद्ध-शोभं,
प्रख्यापयत्-त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥31॥
संग्रहणी आदि उदर पीडा नाशक
गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्वभाग-
स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगम-भूति-दक्षः ।
सद्धर्म-राज-जय-घोषण-घोषकः सन्,
खे दुन्दुभिर्-ध्वनति ते यशसः प्रवादि ॥32॥
सर्व ज्वर नाशक
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात
संतानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा ।
गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिवः पतति ते वयसां ततिर्वा ॥33॥
गर्व रक्षक
शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि-विभा विभोस्ते,
लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमा-क्षिपंती ।
प्रोद्यद्दिवाकर्-निरंतर-भूरि-संख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ॥34॥
दुर्भिक्ष चोरी मिरगी आदि निवारक
स्वर्गा-पवर्ग-गममार्ग-विमार्गणेष्टः,
सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस-त्रिलोक्याः ।
दिव्य-ध्वनिर-भवति ते विशदार्थ-सर्व-
भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणैः प्रयोज्यः ॥35॥
सम्पत्ति-दायक
उन्निद्र-हेम-नवपंकजपुंज-कांती,
पर्युल्लसन्नख-मयूख-शिखा-भिरामौ ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः,
पद्मानि तत्र विबुधाः परि-कल्पयंति ॥36॥
दुर्जन वशीकरण
इत्थं यथा तव विभूति-रभूज्जिनेन्द्र,
धर्मोप-देशन विधौ न तथा परस्य ।
यादृक् प्रभा देनकृतः प्रहतान्ध-कारा,
तादृक्कुतो ग्रह-गणस्य विकासिनोपि ॥37॥
हाथी वशीकरण
श्च्योतन-मदा-विल-विलोल-कपोल-मूल-
मत्त-भ्रमद-भ्रमर-नाद विवृद्ध-कोपम् ।
ऐरावताभ-मिभ-मुद्धत-मापतंतं,
दृष्टवा भयं भवति नो भवदा-श्रितानाम् ॥38॥
सिंह भय निवारक
भिन्नेभ-कुम्भ-गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त-
मुक्ताफल-प्रकर-भूषित-भूमिभागः ।
बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणा-धिपोपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥39॥
अग्नि भय निवारक
कल्पांत-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं,
दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिंगम् ।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख-मापतंतं,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्य-शेषम् ॥40॥
सर्प विष निवारक
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं,
क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतंतम् ।
आक्रामति क्रमयुगेन निरस्त-शंकस्-
त्वन्नाम-नाग-दमनी हृदि यस्य पुंस ॥41॥
युद्ध भय निवारक
वल्गत्तुरंग-गज-गर्जित-भीम-नाद-
माजौ बलं बलवतामपि भू-पतीनाम् ।
उद्यद्-दिवाकर-मयूख-शिखा-पविद्धं,
त्वत्कीर्त्तनात्-तम इवाशु भिदा-मुपैति ॥42॥
युद्ध में रक्षक और विजय दायक
कुंताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह-
वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे ।
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्-
त्वत्-पाद-पंकज-वना-श्रयिणो लभंते ॥43॥
भयानक-जल-विपत्ति नाशक
अम्भो-निधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र-
पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ ।
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्-
त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद्-व्रजंति ॥44॥
सर्व भयानक रोग नाशक
उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशाः
त्वत्पाद-पंकज-रजोमृतदिग्ध-देहाः,
मर्त्या भवंति मकर-ध्वज-तुल्य-रूपाः ॥45॥
कारागार आदि बन्धन विनाशक
आपाद-कण्ठ-मुरुशृंखल-वेष्टितांगा,
गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघाः ।
त्वन्नाम-मंत्र-मनिशं मनुजाः स्मरंतः
सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवंति ॥46॥
सर्व भय निवारक
मत्त-द्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम् ।
तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमान-धीते ॥47॥
मनोवांछित सिद्धिदायक
स्तोत्र-स्त्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्-निबद्धां
भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् ।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजसं
तं मानतुंगमवश समुपैति लक्ष्मीः ॥48॥
2. सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करुँगा
3. देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं
4. हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं| अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं
5. हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं
6. विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं
7. आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है|
8. हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगा| निश्चय से पानी की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं|
9. सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है| जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है|
10. हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता |
11. हे अभिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते| चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं |
12. हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है |
13. हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता |
14. पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण, तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं |
15. यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं |
16. हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत् प्रकाशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती |
17. हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं |
18. हमेशा उदित रहने वाला, मोहरुपी अंधकार को नष्ट करने वाला जिसे न तो राहु ग्रस सकता है, न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं, अत्यधिक कान्तिमान, जगत को प्रकाशित करने वाला आपका मुखकमल रुप अपूर्व चन्द्रमण्डल शोभित होता है |
19. हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन |
20. अवकाश को प्राप्त ज्ञान जिस प्रकार आप में शोभित होता है वैसा विष्णु महेश आदि देवों में नहीं | कान्तिमान मणियों में, तेज जैसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकड़े में नहीं होता |
21. हे स्वामिन्| देखे गये विष्णु महादेव ही मैं उत्तम मानता हूँ, जिन्हें देख लेने पर मन आपमें सन्तोष को प्राप्त करता है| किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? जिससे कि प्रथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता |
22. सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी| नक्षत्रों को सभी दिशायें धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं |
23. हे मुनीन्द्र! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं | वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर म्रत्यु को जीतते हैं | इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है |
24. सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक ज्ञानस्वरुप और अमल कहते हैं |
25. देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हैं| तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण आप ही शंकर हैं| हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हैं| और हे स्वामिन्! आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं |
26. हे स्वामिन्! तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले आपको नमस्कार हो, प्रथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप आपको नमस्कार हो, तीनों जगत् के परमेश्वर आपको नमस्कार हो और संसार समुन्द्र को सुखा देने वाले आपको नमस्कार हो|
27. हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?
28. ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला, आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है, अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित सूर्य बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है |
29. मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर, आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के उच्च शिखर पर आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के समूह वाले सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है|
30. कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है शोभा जिसकी, ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, सुमेरुपर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है, के स्वर्ण निर्मित ऊँचे तट की तरह शोभायमान हो रहा है|
31. चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले, आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके तीन लोक के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं|
32.गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करने वाला, तीन लोक के जीवों को शुभ विभूति प्राप्त कराने में समर्थ और समीचीन जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करने वाला दुन्दुभि वाद्य आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है|
33. सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगन्धित वायु के साथ गिरने वाले श्रेष्ठ मनोहर मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा आपके वचनों की पंक्तियों की तरह आकाश से होती है|
34. हे प्रभो! तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कान्ति से युक्त होकर भी चन्द्रमा से शोभित रात्रि को भी जीत रही है|
35. आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्षमार्ग की खोज में साधक, तीन लोक के जीवों को समीचीन धर्म का कथन करने में समर्थ, स्पष्ट अर्थ वाली, समस्त भाषाओं में परिवर्तित करने वाले स्वाभाविक गुण से सहित होती है|
36. पुष्पित नव स्वर्ण कमलों के समान शोभायमान नखों की किरण प्रभा से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं वहाँ देव गण स्वर्ण कमल रच देते हैं|
37. हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य था वैसा अन्य किसी का नही हुआ| अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?
38. आपके आश्रित मनुष्यों को, झरते हुए मद जल से जिसके गण्डस्थल मलीन, कलुषित तथा चंचल हो रहे है और उन पर उन्मत्त होकर मंडराते हुए काले रंग के भौरे अपने गुजंन से क्रोध बढा़ रहे हों ऐसे ऐरावत की तरह उद्दण्ड, सामने आते हुए हाथी को देखकर भी भय नहीं होता|
39. सिंह, जिसने हाथी का गण्डस्थल विदीर्ण कर, गिरते हुए उज्ज्वल तथा रक्तमिश्रित गजमुक्ताओं से पृथ्वी तल को विभूषित कर दिया है तथा जो छलांग मारने के लिये तैयार है वह भी अपने पैरों के पास आये हुए ऐसे पुरुष पर आक्रमण नहीं करता जिसने आपके चरण युगल रुप पर्वत का आश्रय ले रखा है|
40. आपके नाम यशोगानरुपी जल, प्रलयकाल की वायु से उद्धत, प्रचण्ड अग्नि के समान प्रज्वलित, उज्ज्वल चिनगारियों से युक्त, संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई वन की अग्नि को पूर्ण रुप से बुझा देता है|
41. जिस पुरुष के ह्रदय में नामरुपी-नागदौन नामक औषध मौजूद है, वह पुरुष लाल लाल आँखो वाले, मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले, क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए, सामने आते हुए सर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरो से लाँघ जाता है|
42. आपके यशोगान से युद्धक्षेत्र में उछलते हुए घोडे़ और हाथियों की गर्जना से उत्पन भयंकर कोलाहल से युक्त पराक्रमी राजाओं की भी सेना, उगते हुए सूर्य किरणों की शिखा से वेधे गये अंधकार की तरह शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती है|
43. हे भगवन् आपके चरण कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष, भालों की नोकों से छेद गये हाथियों के रक्त रुप जल प्रवाह में पडे़ हुए, तथा उसे तैरने के लिये आतुर हुए योद्धाओं से भयानक युद्ध में, दुर्जय शत्रु पक्ष को भी जीत लेते हैं|
44. क्षोभ को प्राप्त भयंकर मगरमच्छों के समूह और मछलियों के द्वारा भयभीत करने वाले दावानल से युक्त समुद्र में विकराल लहरों के शिखर पर स्थित है जहाज जिनका, ऐसे मनुष्य, आपके स्मरण मात्र से भय छोड़कर पार हो जाते हैं|
45. उत्पन्न हुए भीषण जलोदर रोग के भार से झुके हुए, शोभनीय अवस्था को प्राप्त और नहीं रही है जीवन की आशा जिनके, ऐसे मनुष्य आपके चरण कमलों की रज रुप अम्रत से लिप्त शरीर होते हुए कामदेव के समान रुप वाले हो जाते हैं|
46. जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाममंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते है|
47. जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढ़ता है उसका मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र जलोदर रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न भय मानो डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है|
48. हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि) गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है|
Which brighten gems in crowns of prostrating Devas,
Destroying darkness of sins helping fallen,
In mundane ocean at the first of this creation
2) Prayer I do of that Lord who has been praised by
Lord of celestials with complete knowledge of
All principles and meritorious mind wonderful
Fantastic hymns which attract hearts of the three words.
3) Thy throne has been adored by angles Almighty
Myself without knowledge shameless try to do this
Expect the boy who else tries to catch the moon in water
Only because he doesn’t know the sky as the Moon place.
4) Bright like the Moon Thy features can’t be explained there
Even by angle preceptor with wide good knowledge
How can a man swim off sea vomiting the crocodiles
At the time of world destruction really impossible
5) Still I do the hymn of Thou Lord of saints ! Really
Shameless incapable just like that of deer which
Faces the Loin to protect child only of love there
This is the gift of Mature for Thy devotees
6) Though ignorant I am Lord Laughed at by scholars
But by devotion only Thy hymn is spoken off
Just like the Nightingale sounds very sweet in spring there
Seeing the bunches of buds of that fine mango
7) As the darkness of the night is destroyed by Sunrays
Sins acquired in the many births vanish by prayer
Immediately of Thou Oh! Lord completely
So I compose this Thy hymn for freedom early.
8) Drop of water on lotus leaf looks like the pearl there
People enjoy the beauty in the absence of the pearl
So this Thy hymn because of Thy greatness only
Cherishes the hearts of devotees even though I am small
9) Thou are devoid of all those eighteen defects Lord !
Only Thy name is enough for destroying sins Lord !
Just Like the Sun who very far away from the lotii
Blossoms them in the lakes by only the bright rays
10) Thou ornaments of universe ! Lord of all Living ones,
What wonder is there Oh ! Lord if you make like thou
What sis the use of that rich who can’t make sheltered one
Equal to him in wealth soon this is Thy greatness Lord.
11) One who sees once Thy beauty never goes to another
No satisfaction for eyes elsewhere expect Thou
Drinking the sweet water of Milk Ocean who likes
Sipping of the salt water of Atlantic Ocean
12) Atoms by which Thou were made quite beautiful ones
Only so much not more there in the world exist then
So parallel no man was there for Thou Oh ! Lord !
Thou art the Beauty of the three universe in total
13) Where Thy face which attract men heaven beings angles
Where that of Moon with many spots Which fades in the day Light
Thou art the Lord un parallel in the all three universe
He who compares Thy self with any one is not right
14) Thy fine and beautiful attributes even cross the three worlds
Who comes and shelter Thou Lord becomes free completely
None restrict him form going any where in universe
Just like the Moon rays move free in the Sky and else where
15) Thy heart is so strong even Heavenly Beauties couldn’t
Shake off at all no Wonder Does Great Mountain shake
Even by strong wind at the worlds destruction time there
Where small hillocks are powered Really Thou art Great !
16) Thou art the Great Light with no fume filament oil
Still Thou lighten the Three Worlds completely Oh Lord !
Even the wind which shaken Mountains also there
Can’t harm Thy light meritorious universal
17) Thou art The Great Sun never set Not caught by Rahu
Brightness the Three Worlds at a time rightly completely
Neither Clouds can come in Thy path nor can disturb you
Thou Excellent Sun ever shine blossom all of us Lord !
18) Thou art the Moon destroying delusion darkness
Neither disturbed by Clouds nor by Rahu any time
Thy Face louts is glittering with Great Light Oh ! Lord !
plendid Moon in The universe ever rising shining.
19) Why Moon in night ? Why Sun in day? When Thou art there?
Thy feet distruct the sins Lord! When grains are ripen
What is the use of Clouds filled with water in the field
No need of anything is there where Almighty is.
20) As knowledge exist in Thou Infinite Oh! Lord !
So not in Brahma Hari Har exist there Oh! Lord !
Greatness of luster of Gems is not there in Glass
Though fine it looks with many rays attractive only
21) People get satisfied only after getting Thou
But not with other Gods who have attachment aversion
When once one sees Thou Oh Lord ! in this existence
Will not be attached by any else in future
22) Hundreds of Ladies give birth for hundred Sons there
But no other Mother has , given birth for great Son ,
Equal to Thou only East gives birth for Bright Sun
Other directions give birth for many Stars and Planets
23) Thou Extreme Masculine Bright Spotless and Darkless
Saints offer Salutation Victor over death
After attaining Thy self this only is the Path
For Salvation from mundane worries. Lord of all the Saints
24) Thou In destructible ! Might ! In conceives Lord !
Un- countable the first, One , Supreme the Able
External ! Cupid-victor Thou ! Ascetic Master One !
Also many Knowledge-nature stainless Saints say
25) As Thou profess the Heavenly Thou are the Buddha
As Thou make all the three worlds Happy Thou Shankar !
Thou art the Bramha creating Path of Salvation
Thou art Jinendra Purushottama in this Universe.
26) Blowing for Thou who wash off worries of the Three Worlds
Blowing for Ornaments of this Beautiful Earth
Blowing for Lord of all these Three Universe now
Blowing for Great Lord who dries-off Mundane Ocean
27) What wonder is there when All Attributes have taken
Shelter in Thou only Lord ! Else where they are not
Even-in dream defects don’t appear near Thou
Ass all other give place and welcome errors Lord !
28) Just like the Sun who looks Fine in the midst of blue clouds
Expanding rays of bright Light Thy body Beautiful
In the midst of tree Ashoka shines there ever Lord !
Granduer of Samavasarana is Pratiharya
29) Thy Golden body oh ! Lord ! glitters in the Throne there
This Pratiharya Simhasana wonderful there
With beautiful gem rays bright just like the Sun Great
Rising over the of Udayachal Mountain.
30) White and beautiful Chamaras on the both side of Thy
Golden body which move up and down charmingly
Look like the water falls on both sides of Golden
Summit of the Meru Mountain with Moon Bright water.
31) Just like the Moon trio Thy parasoltrio with
Charming pearl group there brighter than Great Sun show that
Thou art the Lord ! of all these lower and higher
Also the middle Three Universe Bowings we do now
32) Wonder sounds of different Trumpets and Drums there
Produce in sky which indicate cheer for the Three words
Those Victors Sounds which Wringle Narrate Thy Great Fame there
This Pratiharya Dundubhi of Thou Almighty
33) Rose Lotus Jasmine Coral many kinds of flowers were
Showered there in Samavasarana reverse facing up Lord !
Perfumed drops of water with Fine Breeze Heavenly
Just like the Shower of Thy Words Fine and Diving there
34) Winning over the all Bright things in the Universe Thy
Bhamandal with the Light of the Suns Many shining Splendour
But cold also like Moon there exist behind Thou
So neither nights nor darkness Ever Light Delight there
35) Thou art the only Expert in the Three Worlds Oh ! Lord !
For explaining the Principles of the exact real Path
Thy voice Divine which emerges show us the path of
Heaven and Salvation for all in their all Languages
36) Where ever Thou keep Thy Feet Lord ! there those Celestials
Form the Golden lotii charming with bright rays
Still Thou art not attached with this Grandeur Oh ! Lord !
But this devotion is of those Heavenly beings
37) As Thy splender Glory Lord in the Samavasarana
At the time of Discourse Divine no other have this Grandeur
As Sun can destroy darkness with powerful rays there
Even the group of many Stars Planets can’t do this deed
38) He who has taken shelter in Thy feet Oh ! My Lord !
Will not be terrored with Elephant intoxicated
With temples swelling run out on which bees are roaming there
Coming up in front with anger paused by the bees there
39) He who has strong faith in Thy Feet firm like the mountain
Will not be attacked by even Cruel King Lion there
Which is breaking temples of that Elephant with blood swell?
With the pearl on earth sprayed there will
40) Even The Terrible Fire with increasing flame Lord!
By the air blowing highly in destruction time there
Burning and swallowing all things in the Universe
Will be put out by Thy Name Water completely
41) One who has Thy name in heart can cross the Serpent
Neck of which is blue like that of Nightingale there
Even with Hood standing eyes red with anger Lord!
Lust of the Snake gets destroyed by Thy Name Medicine
42) Just like the Darkness is destroyed by the Sun rays
Thy Hymn destroys the Strongest Army in which there
Horses are jumping Elephant are roaring with terroring
Noise of Soldier shouting weapons sounding harshly.
43) One who attains Thy scared feet-duels Oh! My Lord !
Will Victor over the battle however Greater be
With blood flowing like water by goad piercing
Soldiers on Elephant fighting on Horses speedily
44) One who always remembers Thinks of Thou only
Sitting in the boats to cross the Sea where in crocodiles are
Coming up in anger along with Whales wavering waves
Will reach the bank with very ease even through the water fire
45) Pearson who applies Dust of Thy Feet Lotii Lord !
If at all he is attacked by severs Disease which
Liking to make man die will soon become there
Pain Free and Beautiful Lord! Thy Miracle Great this
46) He who remember s always Thy Name Divine Lord !
Will get freedom by strong chain Bondage over him
Starting from feet to neck which crush the complete body
As Manatungasooree was freed in Dhara there
47) That man or women who reads this Divine Hymn of Great Lord !
Will be away from Fears of Elephant Line Fire
Serpent Battle Sea Illness Bondage all these Eight
With purity of heart and full Concentration
48)
This Garland of Thy attributes Oh ! Lord ! Jinendra
Made of Flowers of Different colours Scented Beautiful
Has been composed by “MANOGNA” for sin destruction
Which makes the man who reads Rich Wise Gay Divine Fine?
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* भक्तामर स्तोत्र के पढने का कोई एक निश्चित नियम नहीं है, भक्तामर को किसी भी समय प्रातः, दोपहर, सायंकाल या रात में कभी भी पढ़ा जा सकता है, कोई समय सीमा निश्चित नहीं है, क्योकि ये सिर्फ भक्ति प्रधान स्तोत्र है जिसमे भगवन की स्तुति है !!
Q.1: भक्तामर स्तोत्र की रचना किसने की थी, इस स्तोत्र का दूसरा नाम क्या है, इस स्तोत्र का नाम "भक्तामर" क्यों पड़ा?, यह कौन सी भाषा में लिखा गया है तथाये कौनसे छंद में लिखा गया है?
A.1: भक्तामर स्तोत्र के रचना मानतुंग आचार्य जी ने की थी, इस स्तोत्र का दूसरा नाम आदिनाथ स्रोत्र भी है, यह संस्कृत में लिखा गया है, प्रथम अक्षर भक्तामर होने के कारण ही इस स्तोत्र का नाम भक्तामर स्तोत्र पढ़ गया, ये वसंत-तिलका छंद में लिखा गया है! हम लोग भक्ताम्बर बोलते है जबकि ये भक्तामर है !
Q.2: भक्तामर स्तोत्र में कितने शलोक है तथा हर शलोक में कौन सी शक्ति निहित है, ऐसे कौन से 4 अक्षर है जो की 48 के 48 काव्यो में पाए जाते है?
A.2: भक्तामर स्तोत्र में 48 शलोक है , हर शलोक में मंत्र शक्ति निहित है, इसके 48 के 48 शलोको में “म“ “न“ “त“ “र“ यह चार अक्षर पाए जाते है!
Q.3: भक्तामर स्तोत्र की रचना कौन से काल में हुई? 11वी शताब्दी में राजा भोज के काल में या 7वी शताब्दी में राजा हर्षवर्धन के काल में ?
A.3: वैसे तो जो इस स्तोत्र के बारे में सामान्य ये है की आचार्य मानतुंग को जब राजा हर्षवर्धन ने जेल में बंद करवा दिया था तब उन्होंने भक्तामर स्तोत्र की रचना की तथा 48 शलोको पर 48 ताले टूट गए! अब आते है इसके बारे में दुसरे तथा ज्यादा रोचक तथा पर,जिसके अनुसार आचार्य मान तुंग जी ने जेल में रहकर में ताले तोड़ने के लिए नहीं अपितु सामान्य स्तुति की है भगवन आदिनाथ की तथा अभी 10 प्रसिद्ध विद्वानों ने ये सिद्ध भी किया प्रमाण देकर की आचार्य श्री जी राजा हर्षवर्धन के काल ११वी शताब्दी में न होकर वरन 7वी शताब्दी में राजा भोज के काल में हुए है तो इस तथा अनुसार तो आचार्य श्री 400 वर्ष पूर्व होचुके है राजा हर्षवर्धन के समय से !
Q.4: भक्तामर स्तोत्र का अब तक लगभग कितनी बार पदानुवाद हो चुका है!, इतनी ज्यादा बार इस स्तोत्र का अनुवाद क्यों हुआ तथा यह इतना प्रसिद्ध क्यों हुआ जबकि संसार में और भी स्तोत्र है ?
A.4: भक्तामर स्तोत्र का अब तक लगभग 130 बार अनुवाद हो चुका है बड़े बड़े धार्मिक गुरु चाहे वो हिन्दू धर्मं के हो वो भी भक्तामर स्तोत्र की शक्ति को मानते है तथा मानते है भक्तामर स्तोत्र जैसे कोई स्तोत्र नहीं है!, अपने आप में बहुत शक्तिशाली होने के कारण यह स्तोत्र बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुआ! यह स्तोत्र संसार का इकलोता स्तोत्र है जिसका इतनी बार अनुवाद हुआ जो की इस स्तोत्र की प्रसिद्ध होने को दर्शाता है !
Q.5: क्या आप संस्कृत का भक्तामर स्तोत्र पढ़ते है तथा सही उच्चारण करते है? यहाँ तक की अनुराधा पौडवाल ने जो भक्तामर स्तोत्र को गया है उस में भी कुछ संस्कृत सम्बन्धी गलतिया है !
A.5: अगर आप सही उच्चारण करना सीखना चाहते है तो आप भक्तामर स्तोत्र जो क्षुल्लक ध्यान सागर जी महाराज ने गया है तथा जिसको Edit करके बाद में Music डाल दिया गया है, www.wuistudio.com वेबसाइट से डाउनलोड कर सकते है !
Q.6: क्या भक्तामर स्तोत्र को किसी भी समय पढ़ा जा सकता है तथा क्या धुन तथा समय का प्रभाव अलग होता है?
A.6: भक्तामर स्तोत्र के पढने का कोई एक निश्चित नियम नहीं है, भक्तामर को किसी भी समय प्रातः, दोपहर, सायंकाल या रात में कभी भी पढ़ा जा सकता है, कोई समय सीमा निश्चित नहीं है, क्योकि ये सिर्फ भक्ति प्रधान स्तोत्र है जिसमे भगवन की स्तुति है, धुन तथा समय का प्रभाव अलग अलग होता है!
भक्तामर स्तोत्र का प्रसिद्ध तथा सर्वसिद्धिदायक महामंत्र- ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्हं श्री वृषभनाथतीर्थंकराय् नमः
ये लेख क्षुल्लक ध्यानसागर जी महाराज (आचार्य विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित शिष्य) के प्रवचनों के आधार पर लिखा गया है ! टाइप करने में मुझसे कही कोई गलती हो गई हो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ !
First n Foremost is [भावना-भव ऩाशिनी]
- SANSKRIT BHAKTAMAR STOTRA ------------------------------------------
सर्व विघ्न उपद्रवनाशक
भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् ।
सम्यक्प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा-
वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥1॥
शत्रु तथा शिरपीडा नाशक
यःसंस्तुतः सकल-वांग्मय-तत्त्वबोधा-
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुरलोक-नाथै ।
स्तोत्रैर्जगत्त्रितय-चित्त-हरै-रुदारैः,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥2॥
सर्वसिद्धिदायक
बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ,
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोहम् ।
बालं विहाय जल-संस्थित-मिन्दु-बिम्ब-
मन्यःक इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥3॥
जलजंतु निरोधक
वक्तुं गुणान् गुण-समुद्र! शशांक-कांतान्,
कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोपि बुद्धया ।
कल्पांत-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं,
को वा तरीतु-मलमम्बु निधिं भुजाभ्याम् ॥4॥
नेत्ररोग निवारक
सोहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश,
कर्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृतः ।
प्रीत्यात्म-वीर्य-मविचार्य्य मृगी मृगेन्द्रं,
नाभ्येति किं निज-शिशोः परि-पालनार्थम् ॥5॥
विद्या प्रदायक
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम,
त्वद्भक्ति-रेव-मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र-चारु-कालिका-निकरैक-हेतु ॥6॥
सर्व विष व संकट निवारक
त्वत्संस्तवेन भव-संतति-सन्निबद्धं
पापं क्षणात्क्षय-मुपैति शरीर-भाजाम् ।
आक्रांत-लोक-मलिनील-मशेष-माशु,
सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम्॥7॥
सर्वारिष्ट निवारक
मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु,
मुक्ताफल-द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दुः ॥8॥
सर्वभय निवारक
आस्तां तव स्तवन-मस्त-समस्त-दोषं,
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हंति ।
दूरे सहस्त्र-किरणः कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकास-भांजि ॥9॥
कूकर विष निवारक
नात्यद्भुतं भुवन-भूषण-भूतनाथ,
भूतैर्गुणैर्भुवि भवंत-मभिष्टु-वंतः ।
तुल्या भवंति भवतो ननु तेन किं वा,
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥10॥
इच्छित-आकर्षक
दृष्ट्वा भवंत-मनिमेष-विलोकनीयं,
नान्यत्र तोष-मुपयाति जनस्य चक्षुः ।
पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धो,
क्षारं जलं जलनिधे रसितुँ क इच्छेत् ॥11॥
हस्तिमद-निवारक
यैः शांत-राग-रुचिभिः परमाणु-भिस्त्वं,
निर्मापितस्त्रि-भुवनैक-ललाम-भूत ।
तावंत एव खलु तेप्यणवः पृथिव्यां,
यत्ते समान-मपरं न हि रूपमस्ति ॥12॥
चोर भय व अन्यभय निवारक
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरगनेत्र-हारि,
निःशेष-निर्जित-जगत्त्रित-योपमानम् ।
बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डु-पलाश-कल्पम् ॥13॥
आधि-व्याधि-नाशक लक्ष्मी-प्रदायक
सम्पूर्ण-मण्डल-शशांक-कला कलाप-
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंग्घयंति ।
ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वर-नाथमेकं,
कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम ॥14॥
राजसम्मान-सौभाग्यवर्धक
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि-
नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
कल्पांत-काल-मरुता चलिता चलेन
किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् ॥15॥
सर्व-विजय-दायक
निर्धूम-वर्त्ति-रपवर्जित-तैलपूरः,
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी-करोषि ।
गम्यो न जातु मरुतां चलिता-चलानां,
दीपोपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः ॥16॥
सर्व उदर पीडा नाशक
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्यः,
स्पष्टी-करोषि सहसा युगपज्जगंति ।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभावः,
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र लोके ॥17॥
शत्रु सेना स्तम्भक
नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं।
गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम् ।
विभ्राजते तव मुखाब्ज-मनल्प-कांति,
विद्योतयज्-जगदपूर्व-शशांक-विम्बम् ॥18॥
जादू-टोना-प्रभाव नाशक
किं शर्वरीषु शशिनान्हि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमःसु नाथ ।
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनी जीव-लोके,
कार्यं कियज्-जलधरैर्जल-भारनम्रैः ॥19॥
संतान-लक्ष्मी-सौभाग्य-विजय बुद्धिदायक
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं
नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु ।
तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं,
नैवं तु काच-शकले किरणा-कुलेपि ॥20॥
सर्व वशीकरण्
मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः,
कश्चिन्मनो हरति नाथ भवांतरेपि ॥21॥
भूत-पिशाचादि व्यंतर बाधा निरोधक
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान्-
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्र-रश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुर-दंशु-जालम् ॥22॥
प्रेत बाधा निवारक
त्वामा-मनंति मुनयः परमं पुमांस-
मादित्य-वर्ण-ममलं तमसः पुरस्तात्
त्वामेव सम्य-गुपलभ्य जयंति मृत्युं,
नान्यः शिवः शिव-पदस्य मुनीन्द्र पंथाः ॥23॥
शिर पीडा नाशक
त्वा-मव्ययं विभु-मचिंत्य-मसंखय-माद्यं,
ब्रह्माण-मीश्वर-मनंत-मनंग केतुम् ।
योगीश्वरं विदित-योग-मनेक-मेकं,
ज्ञान-स्वरूप-ममलं प्रवदंति संतः ॥24॥
नज़र (दृष्टि देष) नाशक
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित-बुद्धि-बोधात्,
त्त्वं शंकरोसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात् ।
धातासि धीर! शिव-मार्ग-विधेर्-विधानात्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोसि ॥25॥
आधा शीशी (सिर दर्द) एवं प्रसूति पीडा नाशक
तुभ्यं नम स्त्रिभुवनार्ति-हाराय नाथ,
तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल-भूषणाय ।
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ॥26॥
शत्रुकृत-हानि निरोधक
को विस्मयोत्र यदि नाम गुणैरशेषै,
स्त्वं संश्रितो निरवकाश-तया मुनीश ।
दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वैः,
स्वप्नांतरेपि न कदाचिद-पीक्षितोसि ॥27।।
सर्व कार्य सिद्धि दायक
उच्चैर-शोक-तरु-संश्रित-मुन्मयूख-
माभाति रूप-ममलं भवतो नितांतम् ।
स्पष्टोल्लसत-किरणमस्त-तमोवितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति ॥28॥
नेत्र पीडा व बिच्छू विष नाशक
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे,
विभाजते तव वपुः कानका-वदातम ।
बिम्बं वियद्-विलस-दंशु-लता-वितानं,
तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्त्र-रश्मेः ॥29॥
शत्रु स्तम्भक
कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभं,
विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कांतम् ।
उद्यच्छशांक-शुचि-निर्झर-वारि-धार-
मुच्चैस्तटं सुर-गिरेरिव शात-कौम्भम् ॥30॥
राज्य सम्मान दायक व चर्म रोग नाशक
छत्र-त्रयं तव विभाति शशांक-कांत-
मुच्चैः स्थितं स्थगित-भानु-कर-प्रतापम् ।
मुक्ता-फल-प्रकर-जाल-विवृद्ध-शोभं,
प्रख्यापयत्-त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥31॥
संग्रहणी आदि उदर पीडा नाशक
गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्वभाग-
स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगम-भूति-दक्षः ।
सद्धर्म-राज-जय-घोषण-घोषकः सन्,
खे दुन्दुभिर्-ध्वनति ते यशसः प्रवादि ॥32॥
सर्व ज्वर नाशक
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात
संतानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टिरुद्धा ।
गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द-मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिवः पतति ते वयसां ततिर्वा ॥33॥
गर्व रक्षक
शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि-विभा विभोस्ते,
लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमा-क्षिपंती ।
प्रोद्यद्दिवाकर्-निरंतर-भूरि-संख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ॥34॥
दुर्भिक्ष चोरी मिरगी आदि निवारक
स्वर्गा-पवर्ग-गममार्ग-विमार्गणेष्टः,
सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस-त्रिलोक्याः ।
दिव्य-ध्वनिर-भवति ते विशदार्थ-सर्व-
भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणैः प्रयोज्यः ॥35॥
सम्पत्ति-दायक
उन्निद्र-हेम-नवपंकजपुंज-कांती,
पर्युल्लसन्नख-मयूख-शिखा-भिरामौ ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः,
पद्मानि तत्र विबुधाः परि-कल्पयंति ॥36॥
दुर्जन वशीकरण
इत्थं यथा तव विभूति-रभूज्जिनेन्द्र,
धर्मोप-देशन विधौ न तथा परस्य ।
यादृक् प्रभा देनकृतः प्रहतान्ध-कारा,
तादृक्कुतो ग्रह-गणस्य विकासिनोपि ॥37॥
हाथी वशीकरण
श्च्योतन-मदा-विल-विलोल-कपोल-मूल-
मत्त-भ्रमद-भ्रमर-नाद विवृद्ध-कोपम् ।
ऐरावताभ-मिभ-मुद्धत-मापतंतं,
दृष्टवा भयं भवति नो भवदा-श्रितानाम् ॥38॥
सिंह भय निवारक
भिन्नेभ-कुम्भ-गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त-
मुक्ताफल-प्रकर-भूषित-भूमिभागः ।
बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणा-धिपोपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥39॥
अग्नि भय निवारक
कल्पांत-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं,
दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिंगम् ।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख-मापतंतं,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्य-शेषम् ॥40॥
सर्प विष निवारक
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं,
क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतंतम् ।
आक्रामति क्रमयुगेन निरस्त-शंकस्-
त्वन्नाम-नाग-दमनी हृदि यस्य पुंस ॥41॥
युद्ध भय निवारक
वल्गत्तुरंग-गज-गर्जित-भीम-नाद-
माजौ बलं बलवतामपि भू-पतीनाम् ।
उद्यद्-दिवाकर-मयूख-शिखा-पविद्धं,
त्वत्कीर्त्तनात्-तम इवाशु भिदा-मुपैति ॥42॥
युद्ध में रक्षक और विजय दायक
कुंताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह-
वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे ।
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्-
त्वत्-पाद-पंकज-वना-श्रयिणो लभंते ॥43॥
भयानक-जल-विपत्ति नाशक
अम्भो-निधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र-
पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ ।
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्-
त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद्-व्रजंति ॥44॥
सर्व भयानक रोग नाशक
उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशाः
त्वत्पाद-पंकज-रजोमृतदिग्ध-देहाः,
मर्त्या भवंति मकर-ध्वज-तुल्य-रूपाः ॥45॥
कारागार आदि बन्धन विनाशक
आपाद-कण्ठ-मुरुशृंखल-वेष्टितांगा,
गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघाः ।
त्वन्नाम-मंत्र-मनिशं मनुजाः स्मरंतः
सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवंति ॥46॥
सर्व भय निवारक
मत्त-द्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम् ।
तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमान-धीते ॥47॥
मनोवांछित सिद्धिदायक
स्तोत्र-स्त्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्-निबद्धां
भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् ।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजसं
तं मानतुंगमवश समुपैति लक्ष्मीः ॥48॥
- HINDI ARTHA BHAKTAMAR STOTRA ----------------------------------------
2. सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करुँगा
3. देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं
4. हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं| अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं
5. हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं
6. विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं
7. आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है|
8. हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगा| निश्चय से पानी की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं|
9. सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है| जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है|
10. हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता |
11. हे अभिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते| चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं |
12. हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है |
13. हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता |
14. पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण, तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं |
15. यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं |
16. हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत् प्रकाशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती |
17. हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं |
18. हमेशा उदित रहने वाला, मोहरुपी अंधकार को नष्ट करने वाला जिसे न तो राहु ग्रस सकता है, न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं, अत्यधिक कान्तिमान, जगत को प्रकाशित करने वाला आपका मुखकमल रुप अपूर्व चन्द्रमण्डल शोभित होता है |
19. हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन |
20. अवकाश को प्राप्त ज्ञान जिस प्रकार आप में शोभित होता है वैसा विष्णु महेश आदि देवों में नहीं | कान्तिमान मणियों में, तेज जैसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकड़े में नहीं होता |
21. हे स्वामिन्| देखे गये विष्णु महादेव ही मैं उत्तम मानता हूँ, जिन्हें देख लेने पर मन आपमें सन्तोष को प्राप्त करता है| किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? जिससे कि प्रथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता |
22. सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी| नक्षत्रों को सभी दिशायें धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं |
23. हे मुनीन्द्र! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं | वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर म्रत्यु को जीतते हैं | इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है |
24. सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक ज्ञानस्वरुप और अमल कहते हैं |
25. देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हैं| तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण आप ही शंकर हैं| हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हैं| और हे स्वामिन्! आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं |
26. हे स्वामिन्! तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले आपको नमस्कार हो, प्रथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप आपको नमस्कार हो, तीनों जगत् के परमेश्वर आपको नमस्कार हो और संसार समुन्द्र को सुखा देने वाले आपको नमस्कार हो|
27. हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?
28. ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला, आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है, अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित सूर्य बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है |
29. मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर, आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के उच्च शिखर पर आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के समूह वाले सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है|
30. कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है शोभा जिसकी, ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, सुमेरुपर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है, के स्वर्ण निर्मित ऊँचे तट की तरह शोभायमान हो रहा है|
31. चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले, आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके तीन लोक के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं|
32.गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करने वाला, तीन लोक के जीवों को शुभ विभूति प्राप्त कराने में समर्थ और समीचीन जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करने वाला दुन्दुभि वाद्य आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है|
33. सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगन्धित वायु के साथ गिरने वाले श्रेष्ठ मनोहर मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा आपके वचनों की पंक्तियों की तरह आकाश से होती है|
34. हे प्रभो! तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कान्ति से युक्त होकर भी चन्द्रमा से शोभित रात्रि को भी जीत रही है|
35. आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्षमार्ग की खोज में साधक, तीन लोक के जीवों को समीचीन धर्म का कथन करने में समर्थ, स्पष्ट अर्थ वाली, समस्त भाषाओं में परिवर्तित करने वाले स्वाभाविक गुण से सहित होती है|
36. पुष्पित नव स्वर्ण कमलों के समान शोभायमान नखों की किरण प्रभा से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं वहाँ देव गण स्वर्ण कमल रच देते हैं|
37. हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य था वैसा अन्य किसी का नही हुआ| अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?
38. आपके आश्रित मनुष्यों को, झरते हुए मद जल से जिसके गण्डस्थल मलीन, कलुषित तथा चंचल हो रहे है और उन पर उन्मत्त होकर मंडराते हुए काले रंग के भौरे अपने गुजंन से क्रोध बढा़ रहे हों ऐसे ऐरावत की तरह उद्दण्ड, सामने आते हुए हाथी को देखकर भी भय नहीं होता|
39. सिंह, जिसने हाथी का गण्डस्थल विदीर्ण कर, गिरते हुए उज्ज्वल तथा रक्तमिश्रित गजमुक्ताओं से पृथ्वी तल को विभूषित कर दिया है तथा जो छलांग मारने के लिये तैयार है वह भी अपने पैरों के पास आये हुए ऐसे पुरुष पर आक्रमण नहीं करता जिसने आपके चरण युगल रुप पर्वत का आश्रय ले रखा है|
40. आपके नाम यशोगानरुपी जल, प्रलयकाल की वायु से उद्धत, प्रचण्ड अग्नि के समान प्रज्वलित, उज्ज्वल चिनगारियों से युक्त, संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई वन की अग्नि को पूर्ण रुप से बुझा देता है|
41. जिस पुरुष के ह्रदय में नामरुपी-नागदौन नामक औषध मौजूद है, वह पुरुष लाल लाल आँखो वाले, मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले, क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए, सामने आते हुए सर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरो से लाँघ जाता है|
42. आपके यशोगान से युद्धक्षेत्र में उछलते हुए घोडे़ और हाथियों की गर्जना से उत्पन भयंकर कोलाहल से युक्त पराक्रमी राजाओं की भी सेना, उगते हुए सूर्य किरणों की शिखा से वेधे गये अंधकार की तरह शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती है|
43. हे भगवन् आपके चरण कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष, भालों की नोकों से छेद गये हाथियों के रक्त रुप जल प्रवाह में पडे़ हुए, तथा उसे तैरने के लिये आतुर हुए योद्धाओं से भयानक युद्ध में, दुर्जय शत्रु पक्ष को भी जीत लेते हैं|
44. क्षोभ को प्राप्त भयंकर मगरमच्छों के समूह और मछलियों के द्वारा भयभीत करने वाले दावानल से युक्त समुद्र में विकराल लहरों के शिखर पर स्थित है जहाज जिनका, ऐसे मनुष्य, आपके स्मरण मात्र से भय छोड़कर पार हो जाते हैं|
45. उत्पन्न हुए भीषण जलोदर रोग के भार से झुके हुए, शोभनीय अवस्था को प्राप्त और नहीं रही है जीवन की आशा जिनके, ऐसे मनुष्य आपके चरण कमलों की रज रुप अम्रत से लिप्त शरीर होते हुए कामदेव के समान रुप वाले हो जाते हैं|
46. जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाममंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते है|
47. जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढ़ता है उसका मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र जलोदर रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न भय मानो डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है|
48. हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि) गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है|
- TRANSLATED BY ANTARA RASHTREEYA UPADHYAY MUNI SHREE 108 MANOGNA SAGAR JI MAHARAAJ DISCIPLE OF AACHARYA SHREE 108 RAYANA SAGAR JI MAHARAJ
Which brighten gems in crowns of prostrating Devas,
Destroying darkness of sins helping fallen,
In mundane ocean at the first of this creation
2) Prayer I do of that Lord who has been praised by
Lord of celestials with complete knowledge of
All principles and meritorious mind wonderful
Fantastic hymns which attract hearts of the three words.
3) Thy throne has been adored by angles Almighty
Myself without knowledge shameless try to do this
Expect the boy who else tries to catch the moon in water
Only because he doesn’t know the sky as the Moon place.
4) Bright like the Moon Thy features can’t be explained there
Even by angle preceptor with wide good knowledge
How can a man swim off sea vomiting the crocodiles
At the time of world destruction really impossible
5) Still I do the hymn of Thou Lord of saints ! Really
Shameless incapable just like that of deer which
Faces the Loin to protect child only of love there
This is the gift of Mature for Thy devotees
6) Though ignorant I am Lord Laughed at by scholars
But by devotion only Thy hymn is spoken off
Just like the Nightingale sounds very sweet in spring there
Seeing the bunches of buds of that fine mango
7) As the darkness of the night is destroyed by Sunrays
Sins acquired in the many births vanish by prayer
Immediately of Thou Oh! Lord completely
So I compose this Thy hymn for freedom early.
8) Drop of water on lotus leaf looks like the pearl there
People enjoy the beauty in the absence of the pearl
So this Thy hymn because of Thy greatness only
Cherishes the hearts of devotees even though I am small
9) Thou are devoid of all those eighteen defects Lord !
Only Thy name is enough for destroying sins Lord !
Just Like the Sun who very far away from the lotii
Blossoms them in the lakes by only the bright rays
10) Thou ornaments of universe ! Lord of all Living ones,
What wonder is there Oh ! Lord if you make like thou
What sis the use of that rich who can’t make sheltered one
Equal to him in wealth soon this is Thy greatness Lord.
11) One who sees once Thy beauty never goes to another
No satisfaction for eyes elsewhere expect Thou
Drinking the sweet water of Milk Ocean who likes
Sipping of the salt water of Atlantic Ocean
12) Atoms by which Thou were made quite beautiful ones
Only so much not more there in the world exist then
So parallel no man was there for Thou Oh ! Lord !
Thou art the Beauty of the three universe in total
13) Where Thy face which attract men heaven beings angles
Where that of Moon with many spots Which fades in the day Light
Thou art the Lord un parallel in the all three universe
He who compares Thy self with any one is not right
14) Thy fine and beautiful attributes even cross the three worlds
Who comes and shelter Thou Lord becomes free completely
None restrict him form going any where in universe
Just like the Moon rays move free in the Sky and else where
15) Thy heart is so strong even Heavenly Beauties couldn’t
Shake off at all no Wonder Does Great Mountain shake
Even by strong wind at the worlds destruction time there
Where small hillocks are powered Really Thou art Great !
16) Thou art the Great Light with no fume filament oil
Still Thou lighten the Three Worlds completely Oh Lord !
Even the wind which shaken Mountains also there
Can’t harm Thy light meritorious universal
17) Thou art The Great Sun never set Not caught by Rahu
Brightness the Three Worlds at a time rightly completely
Neither Clouds can come in Thy path nor can disturb you
Thou Excellent Sun ever shine blossom all of us Lord !
18) Thou art the Moon destroying delusion darkness
Neither disturbed by Clouds nor by Rahu any time
Thy Face louts is glittering with Great Light Oh ! Lord !
plendid Moon in The universe ever rising shining.
19) Why Moon in night ? Why Sun in day? When Thou art there?
Thy feet distruct the sins Lord! When grains are ripen
What is the use of Clouds filled with water in the field
No need of anything is there where Almighty is.
20) As knowledge exist in Thou Infinite Oh! Lord !
So not in Brahma Hari Har exist there Oh! Lord !
Greatness of luster of Gems is not there in Glass
Though fine it looks with many rays attractive only
21) People get satisfied only after getting Thou
But not with other Gods who have attachment aversion
When once one sees Thou Oh Lord ! in this existence
Will not be attached by any else in future
22) Hundreds of Ladies give birth for hundred Sons there
But no other Mother has , given birth for great Son ,
Equal to Thou only East gives birth for Bright Sun
Other directions give birth for many Stars and Planets
23) Thou Extreme Masculine Bright Spotless and Darkless
Saints offer Salutation Victor over death
After attaining Thy self this only is the Path
For Salvation from mundane worries. Lord of all the Saints
24) Thou In destructible ! Might ! In conceives Lord !
Un- countable the first, One , Supreme the Able
External ! Cupid-victor Thou ! Ascetic Master One !
Also many Knowledge-nature stainless Saints say
25) As Thou profess the Heavenly Thou are the Buddha
As Thou make all the three worlds Happy Thou Shankar !
Thou art the Bramha creating Path of Salvation
Thou art Jinendra Purushottama in this Universe.
26) Blowing for Thou who wash off worries of the Three Worlds
Blowing for Ornaments of this Beautiful Earth
Blowing for Lord of all these Three Universe now
Blowing for Great Lord who dries-off Mundane Ocean
27) What wonder is there when All Attributes have taken
Shelter in Thou only Lord ! Else where they are not
Even-in dream defects don’t appear near Thou
Ass all other give place and welcome errors Lord !
28) Just like the Sun who looks Fine in the midst of blue clouds
Expanding rays of bright Light Thy body Beautiful
In the midst of tree Ashoka shines there ever Lord !
Granduer of Samavasarana is Pratiharya
29) Thy Golden body oh ! Lord ! glitters in the Throne there
This Pratiharya Simhasana wonderful there
With beautiful gem rays bright just like the Sun Great
Rising over the of Udayachal Mountain.
30) White and beautiful Chamaras on the both side of Thy
Golden body which move up and down charmingly
Look like the water falls on both sides of Golden
Summit of the Meru Mountain with Moon Bright water.
31) Just like the Moon trio Thy parasoltrio with
Charming pearl group there brighter than Great Sun show that
Thou art the Lord ! of all these lower and higher
Also the middle Three Universe Bowings we do now
32) Wonder sounds of different Trumpets and Drums there
Produce in sky which indicate cheer for the Three words
Those Victors Sounds which Wringle Narrate Thy Great Fame there
This Pratiharya Dundubhi of Thou Almighty
33) Rose Lotus Jasmine Coral many kinds of flowers were
Showered there in Samavasarana reverse facing up Lord !
Perfumed drops of water with Fine Breeze Heavenly
Just like the Shower of Thy Words Fine and Diving there
34) Winning over the all Bright things in the Universe Thy
Bhamandal with the Light of the Suns Many shining Splendour
But cold also like Moon there exist behind Thou
So neither nights nor darkness Ever Light Delight there
35) Thou art the only Expert in the Three Worlds Oh ! Lord !
For explaining the Principles of the exact real Path
Thy voice Divine which emerges show us the path of
Heaven and Salvation for all in their all Languages
36) Where ever Thou keep Thy Feet Lord ! there those Celestials
Form the Golden lotii charming with bright rays
Still Thou art not attached with this Grandeur Oh ! Lord !
But this devotion is of those Heavenly beings
37) As Thy splender Glory Lord in the Samavasarana
At the time of Discourse Divine no other have this Grandeur
As Sun can destroy darkness with powerful rays there
Even the group of many Stars Planets can’t do this deed
38) He who has taken shelter in Thy feet Oh ! My Lord !
Will not be terrored with Elephant intoxicated
With temples swelling run out on which bees are roaming there
Coming up in front with anger paused by the bees there
39) He who has strong faith in Thy Feet firm like the mountain
Will not be attacked by even Cruel King Lion there
Which is breaking temples of that Elephant with blood swell?
With the pearl on earth sprayed there will
40) Even The Terrible Fire with increasing flame Lord!
By the air blowing highly in destruction time there
Burning and swallowing all things in the Universe
Will be put out by Thy Name Water completely
41) One who has Thy name in heart can cross the Serpent
Neck of which is blue like that of Nightingale there
Even with Hood standing eyes red with anger Lord!
Lust of the Snake gets destroyed by Thy Name Medicine
42) Just like the Darkness is destroyed by the Sun rays
Thy Hymn destroys the Strongest Army in which there
Horses are jumping Elephant are roaring with terroring
Noise of Soldier shouting weapons sounding harshly.
43) One who attains Thy scared feet-duels Oh! My Lord !
Will Victor over the battle however Greater be
With blood flowing like water by goad piercing
Soldiers on Elephant fighting on Horses speedily
44) One who always remembers Thinks of Thou only
Sitting in the boats to cross the Sea where in crocodiles are
Coming up in anger along with Whales wavering waves
Will reach the bank with very ease even through the water fire
45) Pearson who applies Dust of Thy Feet Lotii Lord !
If at all he is attacked by severs Disease which
Liking to make man die will soon become there
Pain Free and Beautiful Lord! Thy Miracle Great this
46) He who remember s always Thy Name Divine Lord !
Will get freedom by strong chain Bondage over him
Starting from feet to neck which crush the complete body
As Manatungasooree was freed in Dhara there
47) That man or women who reads this Divine Hymn of Great Lord !
Will be away from Fears of Elephant Line Fire
Serpent Battle Sea Illness Bondage all these Eight
With purity of heart and full Concentration
48)
This Garland of Thy attributes Oh ! Lord ! Jinendra
Made of Flowers of Different colours Scented Beautiful
Has been composed by “MANOGNA” for sin destruction
Which makes the man who reads Rich Wise Gay Divine Fine?
- --- Air by :Nipun jain
- www.wuistudio.com | www.jinvaani.org [Downlaod Jainism's Precious Preachings n Devotional Psalm E-Resource Storehouses - Already downloaded 42,234 Times
Yaha par kalidaas kaha se aa gaya bhanu ji?...uska to koi jikar hi nahi hain...doosri baat...hindus ki boht si dant kathain hain jo historians ko jhoothi lagti hai ...us par kia kahenge?
ReplyDeleteपुनितजी आपने बहुत ही सुंदर प्रयास किया है इसके लिये आपको साधुवाद.
ReplyDeleteअपने कार्य को और आगे बढाने के लिये आप श्री नीरज दिगम्बर की पुस्तक भक्तामर रहस्य का संदर्भ अवश्य ले.
प्राकृताचार्य अध्यात्म केसरी पुज्य श्री १०८ सुनिल सागरजी गुरुदेव से भी चर्चा अवश्य करे.
पुन: आपका प्रयास बहुत ही अच्छा है.
शुद्ध भक्तामर mp3 download करने का लिंक हो सके तो अपने ब्लॉग पर ही उपलब्ध करवाये.
जय जिनेन्द्र...
Alok
v.v great work, appreciating! well done!
ReplyDeleteJAI JINENDRA!
so sos os nice .....jai jinendra
ReplyDeleteThe link given for downloafing bhaktamar is some other website.
ReplyDeleteCan you please update that link or if u can share link for downloading bhaktamar
Very useful. I appreciate...
ReplyDeleteIndeed good work
ReplyDeleteJai Jinendra. Highly appreciable. Many Thanks
ReplyDeleteBhai ji . Jai jinendar. Me aap se vinti Karta Hu Ki aap meri samsaya ka nivaran kare .aisa kon Sa mantar jise meri kuchh sankat Katjaye
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