जिन स्तुति शतक
जिन स्तुति शतक की यश गाथा:श्री 1008मन इंद्रिय जयी त्रिलोक पति जिन जो दोष रहित होकर अनंत गुणो के सागर है.केवल ज्ञान से चर अचर जगत को उनके सर्व गुणो सहित यथावत प्रत्यक्ष जान लिया .उनकी स्तुति मै प्रस्तुत जिन स्तुति शतक को नमन.वादी प्रतिवादी के मान भंजी विभिन्न कलाओ से युक्त,रत्नत्रयी धर्म ध्वजा धारी समंत भद्र के इस कल्याणकारी जिन स्तुति शतक जो स्वर्ण... सा उज्जवल होकर भव्यजीवो की हृदय कुमुदिनी को प्रफ्फुलित करने वाला है को नमन करता हू
श्रीमज्जिनपदाभ्यांश,प्रतिप ध्यागसाम जये/
कामस्थांप्रानेशम,स्तुतिविध ्याम प्रसाधये//1//जिनस्तुती शतक
श्रीमज्जिनपदाभ्यांश(केवल ज्ञान लक्ष्मी धारी के इंद्रिय मन जयी के चरणो के आश्रय)प्रतिपध्य(को ग्रहण कर)कामस्थान्म प्रदानेश(जो मुक्ति की कामनावाले को मुक्ति या मोक्ष को प्रदान करने मै उदार है)स्तुती विध्याम प्रसाधये(की स्तुती विध्या को रचता हू)..1..जिनस्तुती शतक
स्नात स्वमलगम्भीरम,जिनामितगुणार् णवम/
पूत श्रीमज्जगत्सारम,जनायात क्षणाच्छिवम//2//
सु(प्रशस्त)अमल(मल रहित)गम्भीर जिन(कर्मजयी)अमित(सीमा रहित)गुणार्णवम(गुण के सागर)पूत(पवित्र)श्रीमत(शोभ ायमान)जगत्सारम(तीनलोक के सार भूत वीतराग तीर्थ मै)जना(हे भव्य जीवो)स्नात(स्नान कर)क्षणात छिव्म यात(क्षण मै मोक्ष को देते है)..जिन स्तुति शतक ..2..
आसते सततम ये य,सति पुर्वक्षयालये/
ते पुण्यदा रतायातम,सर्वदा माभिरक्षत://3//
धिया(निर्मल मति के धारी है भव्य)ये (जैसे भाव से प्रभु को )श्रितया(आश्रय लेकर ध्याते है)इतातर्या(आर्त्त रोद्र ध्यान रहित ध्यान कर ध्येय जैसे हो जाते है)यान(जहा)उपायान(अनेक प्रयास कर)वराम(वर श्रेष्ठ पुरूष इंद्र चक्रवर्ती)नता(नमन करते है)अपापा(नही है पाप का प्रसार जिनको यानी मुनी गणधर आदि)श्रिया(आश्रय लेकर ध्याते)य यातपारा(सीमा रहित अनंत पदार्थो के गुणो के प्रतिबिम्बदायी)श्री(केवल ज्ञान लक्ष्मी)आयातात(को प्राप्त होकर)अतंवत:(तन या शरीर रहित होते या निरंजन होते या सिध्द होते है)
निर्मल मति के धारी है भव्य जैसे भाव से प्रभु को आश्रय लेकर ध्याते है आर्त्त रोद्र ध्यान रहित ध्यान कर ध्येय जैसे हो जाते है जहा अनेक प्रयास कर वर श्रेष्ठ पुरूष इंद्र चक्रवर्ती नमन करते है नही है पाप का प्रसार जिनको यानी मुनी गणधर आदि आश्रय लेकर ध्याते सीमा रहित अनंत पदार्थो के गुणो के प्रतिबिम्बदायी ज्ञान लक्ष्मी को प्राप्त होकर तन या शरीर रहित होते या निरंजन होते या सिध्द होते है
आसते सतत्म ये य,सति पुर्वक्षयालये/
ते पुण्यदा रतायातम सर्वदा माभिरक्षत//4//
आसते .(.आशाओ को लेकर भक्त)..सतत्म.(.हमेशा)..ये य.. (वीतराग प्रभु का आश्रय कर पुजते है वे प्राणी)..सति..(वैसे ही वीतराग भाव पाते है)..पुरू..(प्रधान और)..अक्षय्म..(क्षय नही है जिसका)..आलयते..(सिध्द सथान को पाते है)..ते रतायात्म....(वीतराग प्रभु की भक्ती मै लीन होने वाले को)..सर्वदा..(हमेशा)..पुण् यदा..(अनुपम सातिशय पुण्य भी देते हो)..माम..(इसलिये हे स्वामी मेरी भी दुखो से रक्षा करो.)
नतपीला सनाशोक,सुमनोवर्षभासित:/
भामण्डलासनाअशोक,सुमनोवर्षभ ासित://5//जिनस्तुती शतक
न त.. (नही है)..पीलास..(क्षुधादि पीडा जिनको हो)..असन..(भोजन आदि करना चाहिये)..च..(नही है)..पीलासन..(पीला स्वर्न आसन वाले एसे प्रभु शतेंद्रो से वंदित,नत है)..अशोक..(शोकरहित)..सु.. (अच्छे,साम्य)..मन..(मन भाव वाले वीतराग प्रभु)..ऋ..(अचिंत्य प्रभावक ऋधीयो के).. अषभ..(स्वामी)...आसीत..(जहा वीतराग प्रभु बैठते समोशरण वहा हिंसक क्रूर प्राणी साम्य भाव से रहते है).
दिव्यै ध्व्रनिसितच्छत्र,चामरैर्दु ंदुभिस्वने:/
दिव्यैविर्निर्मितस्तोत्र,श ्रमदद्रुरिभिर्जनै://6//जिन स्तुति शतक
दिव्यै ध्वनि..(अनुपम वीतराग देशना)..सित च्छत्र(धवल श्वेत छत्र )..चामरै..(64 श्वेत चामरी गाय के पुच्छ के, चंवर,ऋध्दियो के प्रतीक)..दंदुर्भिस्वनै:..( देव दुंदुर्भी आदि साढे बारह करोड देव वाध्यो का समवेत बजना)..विनिर्मित स्तोत्र..(द्वादशांग के ज्ञाता सौधर्मेंद्र की स्तोत्र वंदना से)..श्रम..(स्तुती किये गये)..जनै:..(एसे भव्य जीवो सहित समोसरण मै सुशोभित होते.(कौन?ऋषभ नाथ))
यत:श्रितोपि कांताभि,दृर्ष्टा गुरूतया स्ववान/
वीतचेताविकाराभि:,स्रष्टा चारूधियाम भवान//7//जिनस्तुति:शतक..
वीतचेताविकाराभि:..(वीतराग हे चित्त से अविकार जिनका,वीतराग बुध्दि के समान)..कांताभि:..(रमणीय सुर नर स्त्रियो से सेवित होकर भी उन्हे)..गुरूतया..(परम गुरू की भावना से)..दृर्ष्टा..(विलोकन करते है)..यत:..(क्योकि)..स्ववान ..(स्व जाग्रत आत्म ज्ञान से लब्धित हे प्रभो)..चारूधियाम..(उत्तम आत्म ज्ञान के).स्रष्टा..(रचयिता हो)..भवान..(आप ही हो).
विश्वमेको रूचामाको,व्यापो येनार्य्य!वर्त्तते/
शश्वल्लोकोपि चालोको,द्वीपो ज्ञानार्णवस्य ते //8//
विश्वम..(विश्व के समस्त पदार्थो के तीनो कालो को हाथ मे रखे आंवले के समान ज्ञाता)..एको..(एक केवलज्ञान ही है)..आको..(उन पदार्थो को प्राप्त होकर).. व्यापो..(सभी पदार्थो मै व्याप्त होता है)..येन..(इस कारण इस ज्ञान की प्रभा-किरणवत है)..आर्य!..(है आर्य वीतराग देव!आप ही उस ज्ञान रूप)..वर्तते..(रमण करते है)..शश्वल..(शाश्वत स्वरूप)..लोको च अलोकोपि..(लोक और अलोक भी)..ज्ञानार्णवस्य ..(केवल ज्ञान रूपी गहन गम्भीर सागर के)..द्वीपो ते..(द्वीप आप ही है)..
श्रित: श्रेयोप्युदासीने,यत्त्वय्य ेवाश्नुते पर:/
क्षत्म भूयो मदाहाने,तत्त्वमेवार्चितेश् वर://9//
(हे प्रभो आपके)..उदासीने..(उदासीन यानी राग हीन होने पर भी)..यत..(जो).. पर:..(जीव)..एव..(ही)..श्रि त:..(सेवा करते है,आश्रित रहते है)..श्रेयो..(वे कल्याण को)..अश्नुते..(प्राप्त होते है और)..मदाहाने..(मद को धारण कर सरागी की सेवा करने वाले)..क्षत्म..(दुख को) ..भुयो..(प्राप्त होते है) ..तत..(इसलिये)..अर्चितेश्व र:..(भव्य जीवो को आश्रय देकर रक्षा करने वाले आप ही हो)
.भासते विभुतास्तोना ना स्तोता भुवि ते सभा:/
या:श्रिया: स्तुत!गीत्या नु नुत्या गीतस्तुता: श्रिया//10//
..भासते..(सुशोभित होते है)..विभुता..(सब जीवो को तारने की विभुती से)..अस्ता:.. (अस्त या नष्ट हो हये)..ऊना..(न्यूनता या अल्पज्ञता,या असमर्थता से)..ना..(जो जीव)..स्तोता..(वीतराग भावो से वीतराग भगवान की स्तुति करते है)..ते..(वे) ..भुवि.. (धरा पर या पृथ्वी पर)..ते..(आपके समान) ..सभा..(सभावान,या समोसरण के स्वामी होते है)..या:..(इस कारण जो जीव जिन भावो का) ..श्रित:..(आश्रय लेते,भाव रखते है)..स्तुत..(स्तुती करते)..गीत्या..(गुणगान करते)..नु..(वैसे ही करवाने योग्य होते)..श्रिया..(वीतराग लक्ष्मी का)..श्रित..(आश्रय लेते वे विपुल केवल्य,समोशरण, मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त करते है
.
श्लोक 11 व 12 मै साम्यता देखिये.....
स्वय्म शमयितुम नाशम विदित्वा सन्नतस्तु ते/
चिराय भवते पीड्यमहोरूगुरवेशुचे//11//
(वीतराग देव के)..अशुचे..(सोचने से रहित,यानी सोंच नही है जिनको)..अपीड्य..(तन वेदना से रहित)..मह:..(औज़ को प्राप्त परम औधारिक देहवान)..उरू..(महा शुभ का उदय होने से सर्वोपरि है)..गुरवे..(गुणो के गरिष्ठ यानी गुणो के सारभूत,को धारण करने वाले सबके गुरू को)..विदित्वा..(जानकर जो कल्याणार्थी भव्य जीव)..सन्नत:..(भली प्रकार से श्रृध्दावान नमन करते है,धारण व आचरण करते)..तु..(अन्यथा नही)..ते.. (वे भव्य जीव आपके समान)..नाशम..(नाश करने वाले घातिया कर्मो का नाश कर)..चिराय..(चिरकाल तक अनंत अक्षत सुख के भोक्ता)..भवते..(बनते है,और उस वीतरागता के प्रभाव से) ..शमयितुम..(बाकी बचे अघातिया कर्मो का नाश कर)..स्वय्म..(वे स्वय्म आपके समान हो जाते है).
स्वय्म शमयितुम नाशम विदित्वा सन्नत:स्तुते/
चिराय भवतेपीड्य महोरूगुरवे शुचे//12//
(वीतराग)..अय:..(पुण्य से)..सु..(सुशोभित है)..शम..(पुर्ण सुख के लिये) ..अमितुम..(गमन करते है)..ना..(वे संसारी जीव जिनको सुख का अंश भी नही है,यानी महादुखी जीव).विद..(दुख के कारण राग को जान कर)..इत्वा..(इति है जहा दुखो कि जहा,यानी वीतरागी की शरण मे जाकर)..सन्न..(सन्मुख आश्रित होकर)..अत:..(अनेक प्रकार से स्तुति करते है वे जीव)..चिराय..(क्षण मै सुख)..भवते..(धारी होते है)..अपि..(अन्यथा नही निश्चय ही सुखी होते है)..ईड्य..(है पुज्यनीय)..महती..(महान)..उ र्वी..(जो आपकी सर्वश्रेष्ठ)..गौ..(वाणी या देशना है वह)..रवै..(रवि के समान स्वप्रकाशित,प्रकाश करने वाली)..शुचे..(परम पवित्र है)
.वीतराग पुण्य से सुशोभित है पुर्ण सुख के लिये गमन करते है वे संसारी जीव जिनको सुख का अंश भी नही है,यानी महादुखी जीव दुख के कारण राग को जान कर इति है जहा दुखो कि जहा,यानी वीतरागी की शरण मे जाकर आश्रित होकर अनेक प्रकार से स्तुति करते है वे जीव क्षण मै सुखधारी होते है अन्यथा नही निश्चय ही सुखी होते है पुज्यनीय महान आपकी सर्वश्रेष्ठ वाणी या देशना है वह रवि के समान स्वप्रकाशित,प्रकाश करने वाली परम पवित्र है.
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ततोतिता तु तेतीतस्तोतृतोतीतितोतृत:/
ततोतातिततोतोते ततता ते ततोतत://13//
तता..(विस्तीर्णता को प्राप्त है)..अति..(रक्षा करने के करूणा भाव है जिनके)..इति..(इसलिये आपक ततोतिता कहते है)..तु..(विशेष रूप से आप)..अति..(पुजा को प्राप्त हुए,शरण मे आये की रक्षा करते वह उसका स्वामी)..ते..(आप सर्व जीवो के रक्षाभाव के कारण शतेंद्रो से पुजित हो)..इत:..(इस कारण ज्ञानी जन ततितिता तुतेतीत कहते है)..तोतृता..(ज्ञातृता से ,जान कर)..अति:..(स्व-पर भेद ज्ञान की वृध्दि कर रक्षा करते हो)..तोतृतीति..(ज्ञान आदि आवरणी कर्मो के हंता हो)..इति..(इसलिये आपको तोतृतोतीति तोतृत: कहते है)..ताति: अताति..(बाह्य परिग्रह से से शून्य हे,फिर भी जिनको उस परिग्रह से सन्योग है जिनके फिर भी)..तता..(महानता को प्राप्त हो अथवा अथवा) ..अताति..(परिग्रह रहित गरीब जन)..उता..(दारिद्र भाव से बंधे दुखी जीव)..अति..(उस दुख से रक्षा करने वाले हो इसलिये ततोआति ततोतोते के नाम से जाने जाते)..ततता..(विशाल हे प्रभुता जिनकि)..ते..(वह प्राप्त है आपको)..तता..(महा विस्तृत जग मे इस प्रकार जो)..उत्म..(ज्ञानावरणी कर्म को)..अंत:..(नाश करने वाले हो इसलिये आपको तताताते ततोतत: कहते है)
.येयायायाययेयाय,नानानुनानन ानन/
ममाममाममामि,ताततीतिततीतित: //14//
येय:(प्राप्त हुआ है)अय:(पुण्यी, एसे पुण्यशाली जीवो को)आय:(प्राप्त होता है)अय:(तीव्र पुण्योदय से इस प्रकार सुखी हुए जीवो को)येय:(प्राप्त होता है)अय:(वीतरागी मार्ग जिसका स्वरूप)नाना(अनेक प्रकार के आत्मिक ज्ञान,ज्सके द्वारा)अनून्म(किंचित भी न्यून नही,सम्पुर्ण है)आनना(मुख कमल या मुख मण्डल प्रधान है ज्सक्य केवल ज्ञान, जो )मम(मोहादि अशुभ भावो को)अमम(बिना ममता के, दुर करने वाला है)आम:(जन्म जरा आदि रोगो को,दुखो को)अमाम:(बिना ममता के नाश करने वाला है)अमिता:(जिसकी सीमा नही,जिसकी उपमा नही,जिसका कोई प्रमाण नही)आतति:(एसी महानता को प्राप्त करते)ईतय:(उस जन्म जरा मृत्यु,आदि व्याधिक्रत वेदना को)तति:(नाश करने वाला है)इति(इस प्रकार के कल्याणकारी मार्ग मै मेरा गमन हो)त:(इसीसे भव्य जीव मोक्ष जाते है)
गायतो महिमामयते गा यतो महिमाय ते/
पद्मया स हि तायते पद्मयासहितायते//15//
अजित जिनेश की स्तुति::
वही शब्द श्लोक 16 और 17 मै है पर स्थान बदलने से अर्थ बद्ल जाता..
सदक्ष राजराजित प्रभो दयस्व वर्ध्दन:/
सताम तमो हरन जगन महो दया पराजित://16//
(है)प्रभो सत(शोभायमान हो)अक्षर(नही है क्षरण जिसका यानी केवल ज्ञान से)अजर:(नही है जन्म,नही है जीर्ण होना,)अजित:(जिस पर विजय प्राप्त ना हो,जिसे जीता नही जा सके एसा ज्ञान वान अपराजित आत्मा के धारक)प्रभो(स्वामी हो सबके)दयस्व(स्वय्म एव्म दुसरो पर दयावंत)वर्धन(जिसकी वृध्दि पुर्ण हो चुकी)सताम(भव्य जीवो के)तम: हरन(मोह अज्ञान अंधकार के हर्ता)जयन(सभी कर्मो को जीत कर)मह:(सूर्य से अधिक प्रभावान केवल ज्ञान कि प्रभा के धारक)दया पर(दया या करूणा प्रधान अहिंसा धर्म के प्रवर्तक)अजित:(काम मोह जैसे शत्रुओ पर विजयी हो)
सदक्ष राजराजित प्रभोदय स्ववर्ध्दन:/
स तांतमोह रंजयन महोदयापराजित://17//
सदक्ष(दक्षता और विचक्षणता सहित)राज राजित(शासन रूप आज्ञा के कर्ता है)प्रभाया(केवल ज्ञान प्रभा का पुर्णोदय को प्राप्त होकर पुर्ण वृध्दि को प्राप्त)स्व वर्ध्दन:(सुख के कारण भूत गुणो को पुर्ण वृध्दि को प्राप्त होकर)स(शोभायमान होकर विशिष्ट रूप से)तांत(पुर्ण नष्ट किया है)मोह(मोहनिय कर्म जिनने)रंजयन महोदय(बाह्य वैभव को विस्तार से प्राप्त कर शतेंद्रो से पुजित होकर)अपराजित(अंतरंग मोह से भी जीते नही गये यानी अपराजित हो)
असम्भव को कर दे सम्भव, एसे सम्भव जिनेश की स्तुती
नचेनो न च रागादिचेष्टा वा यस्य पापगा/
नो वामै: श्रीयतेपारा नयश्रीभुर्वि यस्य च//18//
न च(नही है)इन:(स्वामी जिनका,यानी वे ही सबके स्वामी है)न च(नही है)रागादि(राग आदि कोई दोष जिनमे)चेष्टा न च(मन वचन काय आदि चेष्टा)वा(समुच्चय रूप है)यस्य(जिसमे दोष रूप प्रवृति नही है)पापगा(पाप कर्म घातिया कर्म गमन कर गये,नष्ट होगये)अपारा(सीमा विहीन,अपार है)नय श्री(सप्तभंग,समस्त नय रूप लक्ष्मी)भुवि(धरा पर,लोक मै)यस्य(जिनके एसे)वामे(हीन बुध्दि के मिथ्यादृष्टि जीव के)श्री यते(आश्रय ,पात्र) नू(नही है)(यह हम जानते है कि मिथ्यादृष्टि जीवो का समोशरण के प्रवेश नही हो सकता,जिन्हे सम्यक दर्शन की पात्रता होती वे ही समोशरण मै प्रवेश पाते)
पुतस्वनवमाचार्म,तंवायात्म भयादरूचा/
स्वया वामेश पाया मा,नतमेकाच्र्यशम्भव//19//
च(और)पूत:(पवित्र,दोष रहित)सु(मन वचन काय के सौंदर्य से सुशोभित सर्वोत्कृष्ट)आचार:(आचरण यानी चारित्र,क्षायिक चारित्र,जिनका)तनु:(जन्म जरादि व अन्य रोगो की वेदना से रहित)भयात(सब प्रकार के भयो से मुक्त,निर्भय,अभय)रूचा(रोचन ीय अनुपम)प्रभा(ज्वाजल्य मान,दीप्तीमान,कांतिमान)स्व या(अपने आत्मोत्पन्ना तेज से)वाम(समीप समोशरण मे स्थित इंद्र गणधर आदि प्रधान पुरूष के)ईश:(की स्तुती के इष्ट,लक्ष्य, स्वामी) शम्भव(से भले प्रकार से पुजित हो)शम(कल्याणकारी)भव(जन्म है जिनका और इंद्र द्वारा नाम कृत तृतीयेश)मा(मेरी भी)पाय(चरण कमलो की शरण दो,रक्षा करो)नत्म(मन वचन काय से समर्पित होकर नत है)
धाम स्वयममेयात्मा,मतायदभ्रया श्रिया/
स्वया जिन विधेया मे यदनंतमविभ्रम//20//
धाम(जहा अंतिम निवास यानी सिध्दशिला है)सु(महत शोभा से युक्त)अय:(पुण्य और पुण्य से सुख)अमेयात्मा(किंचित भी न्यून नही है,ज्ञानस्वभाव है जिनका)मतया(जिनकी सुमति से उत्पन्न मत को पार पाना कठिन ही नही है)अद्भ्रया(पार हो पाना असम्भव है जिनका एसा महान है है)श्रिया(महत लक्ष्मि के स्वामी)स्वया(कर्म शत्रुओ को जीत कर अपनी आत्मा को स्थापित किया है)अविभ्रम(भ्रम रहित वीतराग)अनंतम(अंत या विनाश रहित सिध्द पद के धारी)यत(जैसे आपमे गुण है वैसे ही)मे(मेरे लिये भी)वी(विधान जिससे पुर्व मे आपने प्राप्त किया)धेया(उस विधान की देशना लब्ध करवाये)
भव्य जीवो के अभिनंदन के लक्ष्य अभिनंदन स्वामी की स्तुती
अतम: स्वनतारक्षी तमोहा वंदनेश्वर:/
महाश्रीमानजो नेता स्वव मामभिनंदन//21//
अतम:(अतम यानी अंधकार हीन,अज्ञानरूपी अंधकार के विनाशक महास्वप्रभ)स्व(आपको स्व प्रेरणा से जो)नता:(मन वचन काय से शुध्दिपुर्वक जो नमस्कार करते है)तमोहा(उनका दर्शन मोह विनाश हो जाता)वंदनेश्वर:(और जो उक्त विधी से वंदन करते वे भी आपके समान आराध्य ईश्वर हो जाते)महाश्रीमान(महान सर्वोत्कृश्ट अनुपम स्व आधीन ज्ञान लक्ष्मी यानी केवल ज्ञान सहित है)अजो(जन्म रहित) नेता(मोक्षमार्ग के पथ दर्शक नायक)अभिनंदन(परम आनंद के स्वामी होकर दाता हो)माम(मेरी भी)स्वव(अपनी तरह ही मेरी संसारी दुखो से रक्षा कर सुखी करो)
नंध्यनंतध्दर्यनंतेन नंतेनस्तेभिनंदन/
नंदनध्द्रर्नम्रो न नम्रो नष्टोभिनंध्य न //22//
नंदो (आत्मशक्ति के स्वरूप ऋध्दि की सम्पुर्ण वृध्दि को प्राप्त)नंतध्दर्य(अंत हीन जिनका एसी अनंत शक्तिरूप ऋध्दियो के)इन:(स्वामी हो)नंता(जो भव्य जन आपकी स्तुती कर मन वचन काय से नमन करने वाले तपस्वी)इन:(के स्वामी बन जाते है)अभिनंदन(हे अभिनंदन स्वामी)ते(आपकी ही महिमा है,जो वीतरागी होकर भी उन भव्यो को अपने समान बनाते)ननदनर्ध्दि(वृध्दिरूप है ऋध्दि जिनकी एसे गणधर आदि ऋषि)अनम्रो(अन्य किसी को नमन नही करते उनको)न(अभिमानी नही समझना चाहिये)नम्रो(गुणो मे अधिक वीतराग देव को नमन करते)नष्टो न (गुणो के क्षरण को प्राप्त नही होते)अभिनंदन(वे सदा आनंद व सुख स्वरूप वृध्दि को प्राप्त होते)
नंदनश्रीर्जिन त्वा न नत्वा नर्ध्दया स्वनंदि न/
नंदिनस्ते विनंता न नंतानंतोभिनंदन//23//
नंदन श्री(सौधर्मेंद्र व गणधरादि जिनकी लक्ष्मी वृध्दि को प्राप्त कर रही है,क्या वे भी)जिन(पुर्ण विजय जिन्हे लब्ध है एसे जिनेंद्र)त्वा(आपको)न(नमन नही करते?)नत्वा(बल्कि सिर भी झुकाते है)नर्ध्द्यास्व नंदिन(अपने पुण्योदय से प्राप्त ऋध्दियो के विभव के महा हर्ष से लबालब)नंदिन(विशेषपन वृध्दि रूप द्रव्यो से)ते(आपको)विनंता(विधानादि करके स्तुति वंदना क्या?)न(नही करते?)नंता(अर्थात करते ही है तथा मोह जिनका मंद हो गया एसे गणधर आदि भी)अनंत:(अविनाशी सिध्द पद हेतु नमन करते है)अभिनंदन(और उस परम आनंदमयी सिध्दपद को प्राप्त करते ही है)
नंदन्म त्वाप्यनष्टो न नष्टोनत्वाभिनंदन/
नंद नश्वर नत्वेन नत्वेन:स्यन्न नंदन//24//
नंदन्म(आल्हाद के वृध्दि कारी)त्वा(आपको ही सर्वज्ञ विभो)आप्य(जो प्राप्त कर लेता)नष्टो(गुणो के विनाश को प्राप्त होकर संसार सागर पतित)न(नही होता)(फिर कौन?)नष्टो(संसार सागर मै डुबता)अनत्वा(स्वेच्छाचारी, अभिमानी,जो आपको नमन नही करता)नंदन(आनंद के उत्पन्न करने वाले)स्वर(वचन,देशना है जिनकी एसे)अभिनंदन(है अभिनंदन स्वामी!आपको)नत्वा(नमन करने के)इन:(पात्र भव्य जीवो के)न तु एन(पाप बंधो का)स्यन(विनाश क्या?)न(नही होता,वरन निश्चय से होता)नंदन:(और वे जीव परम अक्षत आनंद रूप मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त होते)
भगवन के शरण मै यानी समोशरण मे सिर्फ सम्यक दर्शन की करन लब्धी को प्राप्त भव्य जीव ही प्रवेश की पात्रता रखते)
अल्पमतियो को सन्मति देकर श्री सम्पन्न स्वोत्पन्न केवल्य लक्ष्मी के दाता सुमति जिनेश की स्तुती::
देहिनो जयिन: श्रेय:सदाअत: सुमते!हित/
देहि तोजयिन: श्रेय:स दात: सुमतेहित//25//
देहिन(देह धारियो को)जयन:(कर्मो से जय करानेवाले तथा)श्रेय:(कल्याणकारी सम्य्ग्ज्ञान को)सदा(हमेशा हीप्राप्त करने वाले हो)अत:(इसलिये आपको)सुमते(सुमति धारी सुमति जिनेश कहते है)हित:(परम कल्याणकारी रूप हो)देही(हे स्वामी मुझे भी वह सुमति देवे जिससे)न:(हम भी कर्मो पर जयी हो सके)अज:(अजन्मा,यानी नवीन जिसे किसी संसारी ने धारण नही किया है)इन:(उसके स्वामी आप हो)श्रेय:(कल्याण स्वरूप हो)स(वह जो सबसे श्रेष्ठ हो)दात:(भव्यो को कल्याणकारी देशना दायी हो)सु(जिससे सुशोभित आपका शासन)हित्म(सब जीवो के हित दायी हो)
वरगौरतनुम देव,वंदे नु त्वाक्षयार्ज्जव/
वर्जयार्त्ति त्वमार्याव,अ वर्यामानोरूगौरव//26//
परा(सर्वश्रेष्ठ)गौर तनुम(स्वर्णिम आभा को धारण किये कनकसम शरीर वाले प्रभु को)देव(सभी भव्य देवी देवता)वंदे(नमन करते)नु(वास्तव मै अत्यंत हर्ष से गाते बजाते नृत्य करते महोत्सव रचाते वंदना करते)त्वा(है देव आप)अक्षय(कभी न क्षरण होने वाले यश,प्रभाव,ज्ञान,वैभव के धारी है)आर्जव(ऋजु परिणामी है)वर्जय आर्ति(तन मन की पीडा से रहित,सभी दोषो से रहित,अर्थात निर्दोष हो)त्वाम आर्य(आपको योगी गण)वर्य(सबसे श्रेष्ठ)अमान(नही है प्रमाण,जिनका एसे अनंत)उरू(महत रूपी)गौरव(गौरवधारी गुरू मानकर सहस्त्र जीव्हाओ से विनती करते)अव(हमारे दुखो को दुर कर हमारी रक्षा करिये)
संसार सागर के तट पर प्रफुल्लित पंकज जो संसार के पंक के समीप होकर पंक से रहित पद्म प्रभ की स्तुती::
अपापादमेयश्रीपादपद्म प्रभोर्दय/
पापमप्रतिमाभो मे पद्मप्रभ मतिप्रद//27//
अपापादमेयश्री(ज्ञान,दर्शन अंतराय,मोह आदि घातिया कर्मो को विजय कर,तन मन की पीडा से रहित होकर,अक्षय अनंत,अमित केवल्य लक्ष्मी के आधार,देव सेवित,चरण कमलो के धारी)प्रभो(है स्वामी!)अर्दय पापम(जिन्होने दुष्कर्मो का नाश किया है)अप्रतिमाभा(उपमा हीन आभा के धारी हो)मै(मुझे भी)पद्मप्रभ(है पद्मप्रभ नाथ)मति(आपके समान ज्ञान लक्ष्मी)प्रद(से आभूषित करिये)
वंदे चारूरूचाम देव भो वियाततया विभो/
त्वामजेय यजे मत्वा तमितांत्म ततामित//28//
त्वाम अजेय(किसी से नही जीते जाने वाले आप अजेय हो)तमितांत्म(तम यानी अज्ञान अंधकार को सीमा के अंत तक क्षय कर दिया हो एसे अविनश्वर हो)तत अमित:(समस्त पदार्थो भूत भविष्य प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष पर्यायो को हस्तांजली के समान जान कर प्रतिपादित किया है,एसे सर्व ज्ञाता हो)विभो(सबके दुखो का विभव कर सबके रक्षक हो)देव!(भव्यो को मोक्षमार्गदायी देशना के महान दानी होकर देव हो)भो!(संसार रण के परम भट्टारक होकर त्रिलोकाधिपति हो)चारूरूचाम(सभी भव्य जीवो को रोचक लगने वाली केवल्य शोभा से प्रदीप्त हो)मत्वा यजे वियाततया(शतेंद्रो से पुजित हो,इसलिये मै अज्ञानी भी घृष्टता से भावनावश आशांवित होकर पुजता हू)
क्षमा करे भावनावश मै यहा शब्दो की सीमा के परे जाकर प्रस्तुत किया हू.
उपसर्ग विजेता सुपार्श्व प्रभु की स्तुती::
स्तुवाने कोपने चैव समानो यन्न पावक:/
भवनेकोपि नेतेव त्वमाश्रेय:सुपार्श्वक://29 //
सुपार्श्वक:(सुरूचीकर है समीपता जिनकी,क्योकि कोई भी जीव पाने की कामना से ही समीप जावेगा जिनके पास सुरक्षित हो)त्वमाश्रेय:(एसे आश्रय के प्रदाता तो आप ही हो)न(आपके समान अन्य नही) यत(इस कारण)भवान एकोपी(आप ही एक प्रधान हो)पावक:(पापो को तप के ताप से भस्म कर पवित्र करने वाले)स्तुतवाने कोपवाने च(स्तुती या ईर्षा करने वालो के कृत्य से अप्रभावित हो)एव समानो पावक: न:(निश्चय से साम्यभावधारी पवित्र कर उध्दार करने वाले आप ही हो अन्य नही है)
शारदीय चंद्र की प्रभा से आधिक्यप्रभावान चंद्र प्रभ जिनेश की स्तुति:
:चंद्र प्रभो दयो जेयो,विचित्रेभात कुमंडले/
रूंद्र शोभोक्षयोमेयो,रूचिरे भानु मंडले//30//
यहा यह कहने कि आवश्यकता नही है की काशी मै तत्काल रचित स्वयमभू स्तोत्र की स्तुती मै बेडियो मै जकडे समंतभद्र ने शिवपिंडी के समक्ष चंद्र प्रभ जिनेश की स्तुति मै प्रथम बार हाथ उठाकर वंदे कहा तो शिवपींडी फटी और चंद्र प्रभ जिनेश प्रकट हुए.(आज भी वह फटी शिवपिंडी समद्रेश्वर महादेव नामक मंदिर मै गोदोलिया मै आज भी देखी जा सकती).
..चंद्र प्रभो दयो जेयो(शारदीय चंद्र से अधिक सौम्य आल्हाद कारी,सभी जीवो को अभय देने वाले है चद्र प्रभ आप सभी की रक्षा कर किसी से नही जीते जाने वाले)विचित्रेभात(चित्र विचित्र विशिष्ट आभा से सुशोभित है)कुमंडले रुंद्र(पृथ्वी मंडल पर विशाल)शोभो अक्षय:अमेयो रूचिरे(क्षय रहित,उपमा के योग्य कोई नही,सबके रूचिवान होकर सब भव्य जीवो के मन को जीत लिया हो)भानु मंडले(सुर्य आभा मंडल को शीतल कर प्रभामंडल की तरह धारण किया हो,एसे चंद्र प्रभ मुझ अकिंचन को भी शरण दे)
प्रकाशयन खमुदभूतस्व्मुस्धांककलालय:/
विकासयन समुदाभूत: कुमुद्म कमलाप्रिय://31//
प्रकाशयन खमुदभूत(प्रकाशवान,कलंकवान चंद्रमा गगन मै हमेशा नही प्रकाशित नही होता)त्वमुदांककलालया:(लेकि न महाप्रशस्त निर्दोष कलंक हीन,सिध्द शिला की दिशा बताने वाले, दूज के चंद्र के लांछन के साथ सदैव तत्व विज्ञान की कलाओ के आधार भूत महालय होकर जगत मै फेले अज्ञान अंधकार का क्षय करते रहते है)विकासयन समुदभूत कुमुदम विकासयन समुदभूत्कुमुद कमलाप्रिया: कला प्रिय:(आप स्वप्रकाशित केवल्यप्रभा लक्ष्मी अनंत चतुष्टय के स्वामी आप भव्य जीवो को रुचीकर होकर ह्रद्य कमलो को मुदित कर उन्हे कैवल्य प्रभा से विकसित करते है और मोक्षमार्ग प्रकाशित करते है)
धाम त्विषाम तिरोधानविकलो विमलोक्षय:/
त्वमदोषाकरोस्तोन: सकलो विपुलोदय://32//
त्वम त्विषाम तिरोधान विकल:विमल:अक्षय:अदोषाकर(है चंद्र प्रभ आप आवरणो से रहित ,क्षय हीन,दोष हीन गुणो के आगार होकर आपने अपने सोम्य तेज से)अस्तोन:सकल विपुलोदय:(मिथ्या ज्ञान रूपी अंधकार को क्षय कर समस्त तत्वज्ञान की कलाओ सहित उदय पाकर समस्त पदार्थो को केवल ज्ञान गुण से उज्ज्वलित कर दिया है.मेरे भी मन मै स्थित अज्ञान तम को दुर कर प्रकाशित करे)
यत्तु खेदकरम ध्वांत सहस्त्रगुरपारयान/
भेत्तु तदंतरत्यंतम सहसे गुरू पारयान//33//
यत अंतर अत्यंत ध्वांते खेद्करम(जिसके अंदर अज्ञान अंधकार बहुत प्रगाढ,महान दुखो को)सहस्त्रेगुरू भेत्तु अपारयान(जिसे भेद पाने मै सहस्त्र सूर्य भी समर्थ नही हो)गुरू सहसे भेत्तु पारयान(उसे है परमसुर्य चंद्र प्रभ! सहज सहस ही अपनी अनक्षरी देशना के ज्ञान ज्योतिर्पुंज से भेद पाने मै निश्चय से सिर्फ आप ही समर्थ है)
खलोलूकस्य गोव्रातस्तमस्ताप्यति भास्वत:/
कालोविकलगोघात:समयोप्यस्य भास्वत://34//
भास्वत: गो ओलूकस्य व्रात तम:(दुष्ट स्वभावी उल्लू के नेत्रो पर सूर्य की किरणे टकराती तो है पर प्रकाश ना कर अंधकार ही करती है)भास्वत गो अपात: खलो ओलूकस्य अत्म:(है परम सूर्य चंद्र प्रभ!आपकी देशना विपरित मार्गी मिथ्यादृष्टि दुष्ट जीवो को आपकी देशना सहज से अज्ञान अंधकार को मिटा पाप रहित करती है)ताप्यति अताप्य काल विकलंगो काल अविकलग:(सूर्य की किरणो के लिये उदय काल का इंतज़ार करना पडता है और सुर्य किरणे ताप या जलन उत्पन्न करती है लेकिन आपकी देशना के लिये काल की प्रतिक्षा नही करनी पडती है क्योकि आप सदेव जाग्रत रहते है,और आपकी देशना जलन के बजाय क्षोभ को दुर करती है)घात:अघात:समयोपि भास्वत:(किरणो को घात करने वाले मेघो(अज्ञान) से नही रूकती.सुर्य समय पर ही प्रकाश देता पर आप सदेव ही ज्ञानावरणी अंतरायो को दुर निश्चय ही जयवंत रहते है)
लोकत्रय महामेय कमलाकर भास्वते/
एक प्रिय सहायाय नम:एक स्वभाव ते//35//
सदा एक रूप मै रहने वाले तीन लोक रूपी विशाल अपरिमित कमल वन के कमलो को प्रफुल्लित करने वाले अनुपम कैवल्य लक्ष्मी के अधिपति,आप सुर्य के लिये अगम्य स्थलो को भी प्रकाशित करते,सभी जीवो की पुजा के पात्र हे चंद्र प्रभ!,आप महा सुर्य होकर भी मृदुल है.अन्य महापुरूष जो सत कर्मो के कारण जाने जाते वे कालांतर मै भुला दिये जाते लेकिन आप सभी शुभ अशुभ कर्मो का क्षय कर सर्वोत्कृष्टता को लिये है, इसलिये आपको अनंत काल के बाद भी उन्हे भुलाया नही जावेगा.क्योकि आप ही एकमात्र शुध्द स्वभाव वाले है.
चारूश्रीशुभदौ नौमि रूचा वृध्दौ प्रभावनौ/
श्रीवृध्दौतौ शिवौ पादौ शुध्दौ तव शशीप्रभ//36//
शतेंद्रो,गणधरादि योगियो के ध्येय अनंत चतुष्टय लक्ष्मी के स्वामी होकर मनोवांछित सुख प्रदायक,अनुपम प्रदीप्ति के धारी,सर्व गुणो मै पुर्ण वृध्दि को लब्ध,लोकोत्तर शोभा से शोभित,चंद्र प्रभ! आपके पावन कल्याणकारी चंद्र मणी प्रभा से युक्त,पाद कमल युगल को मेरा भाव सहित नमन
.
मिथ्या मोहादि वज्र कर्मो का चूर्णन करने वाले पुष्पदंत जिनेंद्र की भाव स्तुति:
इस श्लोक के अक्षरो के प्रयोग मै होठ बिल्कुल नही मिलते,और काव्य 37 एव्म 38 के अक्षर तो वही है पर विच्छेद करने से अर्थ ही बदल जाता.यही चमत्कार आचार्यश्री समंत भद्र की इस स्तुती मै
शंसनाय कनिष्ठाया श्चेष्टाया यत्र देहिन:/
नयेनाशंसितम श्रेय: सध्य: सन्नज राजित://37//
है सर्वज्ञ कैवल्यश्री से सुशोभित आप स्तुति निंदा के राग द्वेष से परे जहा भव्य देह धारी जन मनवचंकायादि त्रियोग से सर्वोत्तम मान कर छोटी छोटी बातो से गुणस्मरण वंदन पुजन दर्शनादि करते है एसे प्राणी भी निजभाव से अर्जित पुण्य से कल्पना के परे उत्तम पदो से सुशोभित होते है जैसे भाव अनुसार सर्वज्ञ,इंद्र,चक्रवर्ती पदो से सुशोभित होते है
शम स नायक निष्ठायाश्चेष्टाया यत्र देहि न:/
न येनाश्म सित्म श्रेय: सध्य: सन्नज राजित://38//
बुढापा,मोह जनित दुख से रहित,वांछा रहित निराकुल,सुख को प्राप्त, आप सभी भव्य जीवो के नायक होकर मोक्षपथ के दिग्दर्शक है,आप अनुपम अजेय,है पुष्पदंत विभो!आपके शरणागत को वांछा रहित कर निराकुल मोक्ष सुख प्रदान कर उन्हे अपने समान बना कर शीघ्र ही जन्म जरा मृत्यु दुख से वंचित कर अजेय बनाते,इसलिये प्रभो मुझे भी शरण मे लेकर मेरा भी कल्याण करे. .
शोकक्षयकृदव्याधे पुष्पदंत स्ववत्पते/
लोकत्रयमिद्म बोधे गोपद्म तव वर्त्तते//39//
इष्ट वियोग के क्षोभ के क्षयकर्त्ता,व्याधिरहित,ज्ञ ानियो के वरश्रेष्ट,हे पुष्पदंत,कुंदसुमनो के समान धवल दंतावली के समान ही धवल परिणामधारी जो आपके नाम को सार्थक करते, मन इंद्रियो या पर संसर्ग के व्यवसाय के बिना, स्वोत्पन्न कैवल्यश्री के स्वामी आप तीनोलोको के सभी द्रव्यो के तीनो कालो को गोक्षुर के समान युगपत प्रत्यक्ष विलोकन करते हो, एसे सर्वज्ञ,मुझ आश्रित के आवागमन की महाव्याधि का भी निवारण करे.
लोकस्य धीर ते वाढ्म रूचयेपि जुषे मतम/
नो कस्मै धीमते लीढ्म रोचतेपि द्विषेमृतम//40//
ते(आप)मत्म(बोलने का अभिप्राय)वाढ्म(परोपकार के लिये)जुषे(प्रीतीधारी)लीढ्म (शांतरूपरस)द्विशेपिमृत्म(द ्वेषीजन भी अमृतपान के समान रूची से सुनते),
है धीर गम्भीर पुष्पदंत जिनेश!लोक के प्रीति वान बुध्दिरूपी वैभव के धारी भव्य,एव्म द्वेष रखने वालो के मन के उपकार के उद्देश्य से आपकी अनक्षरी शांत रसवान देशना को समानरूप से रूचि से सुनकर अमृतपान कर कल्याण पाते है.
कर्माग्नि से दग्ध क्षुब्ध जीवो को अमृतपायी देशना के दाता शीतलनाथ जिनेश की स्तुती:
एतच्चित्र्म क्षितरेव घातकोपि प्रसादक:/
भूतनेत्र पतेस्यैव शीतलोपि च पावक://41//
एतत(प्रत्यक्ष)चित्र(विचित् र आश्चर्य)क्षिते:(धरा पर)घातकोपि(स्वभाव ही घात करने का है एसा सिम्ह)प्रसादक:(वही मृगादि जीवो का पालक भी हो)शीतलोपि च पावक:(शीतल स्वभाव का होते हुए भी अग्नी का कार्य करता है)
विशिष्ट विचित्रताओ का समंवयन समंतभद्राचार्य ने इस काव्य मै किया है.क्या सिम्ह मृग का पालन करता है?जी हा भगवान के समोशरण मै सिम्ह मृग गाय के वत्स अपने विरोधी पशु माताओ का स्तनपान करते है.इसमे क्या विचित्र है?इस धरा पर अनेक नेत्रवान अंधे है जो सारी धरा की बुराईया देख लेते पर स्वय्म(आत्मा) की बुराई नही देखते?संसार मोहभ्रमित नेत्रवान अंधो से भरा है किसी को मोक्षमार्ग नज़र नही आता पर एक नेत्रवान(शीतल नाथ)सभी अंधो को राह बताता.आप शीतल है पर कर्मो को भस्म करने के लिये पावक का कार्य करते है.घी जो खाने से बल और शीतलता देता वही अग्नी को तेज़ करने का कार्य भी करता.आप दुर्जनो के कुटिल कार्यो को देख कर भी,क्षमा नही त्याग उन्हे भी शीतल कर देते.जो दुसरो को क्रोधवश भस्मीभूत कर देता लेकिन आप उसके क्रोध को भस्मीभूत कर शीतल बना देते.भय से राजा महाराजा(नेताओ)से सभी घबरा कर स्तुती करते,पर आपसे मोक्ष की अपेक्षा से चक्रवर्ती,शतेंद्र गणधर आदि ऋषी के ध्यान के ध्येय हो.तिनलोक मे सभी भव्य आपको नमन करते है.
काममेत्य जगत्सारम्जना:स्नात महोनिधिम/
विमलात्यंतगम्भीरम जिनामृत्म महोदधिम//42//
यह काव्य क्षीर (दुग्ध)समुद्र और आपकी तुलना योग्य न होने पर भी तुलना की है.क्षीरसागर श्रेष्ठ दुग्ध युक्त सभी सागरो से सारभूत है.देवकृत उत्स्वो का आगार है,शेवालिक आदि मलो से रहित है.अत्यंत विशाल है.गहन गहरा है.स्नान करना अगम्य होने से सम्भव नही.और शीतल जिनेश तो क्षीर समुद्र तुलना की ही नही जा सकती.शीतल जिनेश का ज्ञान तीनोलोक का सारभूत है.देव आपके कारण उत्सव रचाते है.ज्ञान मल रहित निर्मल है.क्षीर समुद्र की कुछ सीमा है लेकिन आपका ज्ञान तो लोक अलोक,सभी द्रव्यो के तिनो कालो.हस्तांजुली समान युगपत जानते.रागद्वेशरहित होने से अपेक्षा रहित होकर भव्य जीवो के गम्य होने से ज्ञान सागर मे स्नान कराकर कर्म मल रहित करते है.इसलिये भगवन के ज्ञान सागर मे स्नान कर कर्म मल रहित होकर स्वम ज्ञान के सागर बने.
हुंडावसर्पिणि के काल दोष से प्रथम धर्म व्युच्छति को निशेष कर पुन: स्थापक श्रेयांस जिन की स्तुती:
इस श्लोक के उच्चारण मै औष्ट नही मिलते:
हरतीज्याहिता तांति रक्षार्यायस्य नेदिता/
तीर्थादे श्रेयसे नेताज्याय: श्रेयस्ययस्य हि//43//
शीतलजिनेश के बाद धर्म व्युच्छति को आपने कैवल्यसुर्य को प्रकट कर धर्म तीर्थ पुनरस्थापित के श्रेयधारी है श्रेयांस जिनेश!आप चरमशरीरी होने से सदैव युवा, वृध्दतारहित, रह कर अजर अमर हो.कोई भी भव्य जीव मन वचन काय के त्रियोग की शुध्दि से स्तुती करते है वे भव भाव के दुखो को क्षयकर प्रंसशायोग्य स्वाभाविक रूप से सर्वज्ञ,इंद्र,चक्रवर्ती पद को प्राप्त होते है.है स्वामी आप मोक्षमार्ग के (नेत=बताना) नेता हो.
अविवेको न वा जातु विभूषापन्मनोरूजा/
वेषा मायाज वेनौ वा कोपयागश्च जन्म न//44//
है भगवन आप विवेकहीन ना तो रहे ना है और नाही रहेंगे. मन को रोचने वाली स्वाभाविक नग्न दिगम्बर मुद्रा को शोभा बढाने के लिये अलंकारोकी जरूरत है?सभी क्लेश,विपत्ति से रहित है.मन का स्पंदन ना होने से मन को रूचि अरूचि कर मानसिक सुख पीडा व चिंतो से रहित है.नाही दुसरो से छल करने के लिये मायाचारी होने की जरूरत है.सबसे बली होने व भय हीन होने से स्वयम और अन्य की रक्षा के लिये अस्त्र शस्त्र की जरूरत नही है.रति अरति से शून्य होने से कामिनी की तृष्णा नही है.हिंसादि पापो से निवृत होने से हिंसा प्रवृति की जरूरत नही है.पच्चीस कषाय नोकषाय से निवृत होने से कर्मबंध के हेतू मिथ्यादर्शन,अविरतादि योग से रहित है.मोह राग द्वेष न होने से संसार संसरण हेतु जन्म या अवतार की जरूरत नही है
आलोक्य चारू लावण्यम पदाल्लातुमिवोर्जितम/
त्रिलोकी चाखिला पुन्यम मुदा दातु ध्रुवोदितम//45//
है प्रभो !साहर्ष ध्रुव स्थायी पुण्यप्रदायक प्रदीप्त अति सुंदर पाद पद्म युगलो का आश्रय पाने की आकांक्षा से सुर नर त्रियंच आतुर होकर नमित मस्तक से अर्पित होते है यानी भव्य जीव जिन चरणो का अलौकिक सौंदर्य विलोकन के लिये नमस्कार करते है.इसमे क्या अनुठा है?
आचार्य समंत भद्र की विलक्षण शब्द शक्ति देखिये अक्षर वही है शब्द विन्यास बदल देने से काव्य 46,47 अर्थ बदल जाता.
अपराग समाश्रेयन्ननाम यमितोभियम/
विदार्य सहितावार्य समुत्सन्नज वाजित://46//
है अप रागी वीतराग देव,सर्व भय की विदारणा करने वाले,महाहर्षोत्साह से रोमांचित, प्रणाम कर आपकी भक्ति वंदना करते तथा अनक्षरी सरस्वती देशना को आज्ञा मान प्रवर्तते है.मुक्तिदाता की आश्रय की छाह मै स्वकल्याण की प्रेरणा से शरण मै जाते. और आप भी उनका का भव भय दूर कर अपने समान बनाते.
अपराग स मा श्रेयन्ननामयमितोभियम/
विदार्यसहितावार्य समुत्सन्नजवाजित://47//
है श्रेयांस नाथ,आप अ पराग यानि कषायो से हीन हो,समस्त भव व्याधिया आपका त्याग कर चुकी.ज्ञानवान श्रेष्ठ पुरुष यानी गणधरादि आपके सानिध्य मे है.आप पुर्णवृध्दिलब्ध केवल ज्ञान धारी हो.राग द्वेष आपसे संग्राम पराजित हो चुके दर्शन मात्र मन की आरोग्यता को प्राप्त कर निर्भय हुआ हू.है स्वामी पाद कमलो की विलक्षण आभा मै करने हेतु मुझ अकिंचन की भव बाधा से रक्षा करो.
प्रथम बालयति,वासुपूज्य की स्तुती:
पांचो कल्याणक क्षेत्र चम्पापुर(नाथ नगर,भागलपुर और मंदार गिरि):
अभिषिक्त: सुरेर्लोकैस्त्रिर्भक्त:परै र्न क:/
वासुपूज्य मयीशेशस्त्व्म सुपूज्य: क ईदृश://48//
तीनलोक के श्रेष्टता को लिये मेरु पर्वत पर ,हर्ष उत्साह से से देवो ने क्षीर सागर के धवल वर्ण के दुग्ध से अभिषेक किया तो दुग्ध भी मूंगे जैसा रक्त वर्णी दर्शित होने लगा,मानो दुग्ध भी भगवान के रंग मे रम गया.तीन लोक के अधिपति बालयति की भक्तिभाव से धरा पर शीश लगा कर सभी नमन करते है.कौन एसा शेष रहा जो नमन नही करता?(अभव्य)जिनके चरण इंद्र द्वारा पुजे जाते एसे द्वादश तीर्थेश वासुपूज्य,आप सुआचरण वान भक्तो मे श्रेष्ट मंदारादि गणधरो के ईष्ट,आपकी सादृश्यता कौन प्राप्त कर सकता?(कोई नही)इसलिये आप ही मेरे इष्ट होकर मेरे लक्ष्य हो.
आचार्यश्री समंतभद्र के इंद्रजाल जैसे शब्दो के जाल को देखिये जहा हर जगह आपस मै विरोध नज़र आता है:
चार्वस्यैव क्रमेजस्य तुंग सायो नमन्नभात/
सर्वतो वक्त्रमेकास्यमंग्म छायोनमप्यभात//49//
भगवन आपके एक मुख होते हुए भी सभी जीवो अपनी और
एक और अनेकमुख कर प्रत्यक्ष बोलते दिखाई देते?सभी पदार्थो की छाया पडती आप छाया विहीन हो?आप किसी को नमन नही करते पर सभी आपको नमन करते?है छाया विहीन एक और अनेक मुख धारी,स्वप्रभ शोभावंत,सर्वज्ञ,जिनके शरीर का दर्शन सभी का पूज्य,जिन वासुपूज्य,आपके पद पंकजो को जो श्रृध्दा से नमन करते वे निश्चय से,सातिशय पुण्य को प्राप्त कर आप जैसी महानता को प्राप्त होते है.इसमे क्या शंका?
विमलजिनेश की स्तुती:
क्रमतामक्रम्म क्षेम्म धीमतामच्र्यमश्रमम/
श्रीमद्विमलमेच्रेमम वामकाम्म नम क्षमम//50//
विमल प्रभु जिन्हे स्वच्छत्व शक्तिवान होकर संसार के समस्त पदार्थो के भूत भविष्य वर्तमान को युगपत के जानकार,खेद आकुलता से शून्य अनंतशक्तिअवान,सुर-नर श्रेष्ठ इंद्र चक्रवर्ती भी जिनकी सेवा करते, एसे अंतरंग बाह्य लक्ष्मी से सुशोभित विमलनाथ जिनेश की पूजा नमन करो जिसके फल स्वरूप,तपादि श्रम के बिना तत्काल कुशल और सुख बिनबाधा के प्राप्त होते.योगीश्रेष्ठ गणधरादि ऋषियो के पूज्य है.महापुरूष भी इनकी निरंतर चाह करते है.
ततोमृतिमतामीम तमितामतिमुत्तम:/
मतोमातातिता तोत्तुम तमितामतिमुत्तमा://51//
.है सर्वश्रेष्ट प्रत्यक्ष मे आप बिना भेद भाव के केवलादित्य से अज्ञान तम को उलट मत(ज्ञान)देते है,बिना हिंसा के देह जन्म मरण के भय से वंचित कर अनेक भव्य उपासको को उनकी ग्राह्य योग्यता के अनुसार मोक्ष,इंद्र,चक्रवर्ती पद प्रदाता हो.है विभो अक्षयपद धारी तमसो मा ज्योर्तिगमय मुझे भी भी सुमति क्षायिक लक्ष्मी प्रदानकर विमल(मल रहित)नाथ पद प्रदान कर आपके समान बनावे.
नेतानतनुते ननोनितांतम नाततो नुतात/
नेता न तनुते नेनो नितांतम ना ततो नुतात//52//
तम पाप शून्य हे विमल जिनेश जो भव्य भक्ति सहित समर्पण कर साष्टांग करने वाले शरणानुगतो को आश्रय देकर उन्हे अपने गुण सहर्ष प्रदान कर भय क्लेश से मुक्त कर अशरीरी मोक्ष प्रदान करते.अत: भव्यो आप भी विमल प्रभो को नमस्कार कर लाभांवित होवो.आचार्य समंत भद्र की प्रेरणा से प्रेरित हो प्रभो आपके चरणाम्बुजो को नमन करता हू.
नयमानक्षमामान न मामार्यार्तिअनाशन/
नशनादस्य नो येन नये नोरोरिमान्य न//53//
प्रशंसा के लिये जिव्हा समर्थ ही नही, जिनके गुणो को अनुभव ही कर सकते,क्षमाभूषण,विमल प्रभ मान कषाय को किंचित अंश ही नही है.आप सद जनो के मन की पीडा का हरण करते,लेकिन चोर नही,आप मेरी जन्म मरण की भव पीडा का क्षय कर मुझे भी उत्तम निर्वाण पद प्रदान करे.आपकी दोषहीन कल्याणकारी सरस्वती आप को सर्व ज्ञाता बताती.आपके शुभ गुणो(अशुभ को तो स्थान ही नही)का स्मरण मात्र मोक्ष के निकट ले जाता.इसमे क्या शंका की उत्तम गुणवान होने से सबके पुज्य हो.
जिनके सद गुणो की सीमा का अंत नही,अनंत जिनेश की स्तुती:
वर्णभार्यातिनंध्याव वंध्यानंत सदारव/
वरदातिनतार्य्याव वर्य्यातांतसभार्णव//54//
अनुपम दिव्य देह शोभा लक्ष्मी से सुशोभित,अष्ट प्रतिहार्यो की विभूती से सम्पन्न,भव्य सुर नर त्रियंचो से वंदनीय,है अनंत जिनेश आपकी दिव्य देशना से अचिंतनीय पदार्थो के उत्कृष्ट दाता,नमित साधुओ के संरक्षक,विक्षोभ रहित समोशरण( कर्मो की रणभूमि)जीवो के सागर,के शुभचिंतक मार्ग दर्शक है अनंत जिनेश विभो!मेरी और भी ध्यान देकर मेरी भव पीडाओ से रक्षा करो
क्षमा करे मै भावना के प्रवाह मै बह कर शब्दो की सीमा का लंघन कर जाता हू.समंत भद्र के प्रति धृटता कर रहा हू.
आत्म धर्म के संरक्षक धर्म जिनेश की स्तुती:
त्वमवाध दमेनर्ध्द मत धर्मप्र गोधन/
वाधस्वाशमनागो मे धर्म शर्मतमप्रद//56//
एकांत मिथ्यात्व के गुढ अंधकार को केवलादित्य प्रभा से अत्यंत क्षय करने वाले धर्म जिनेश आपके अनंत गुणो की तुलना सुमेरू से भी तुलना योग्य नही.तीर्थंकर सभी से अधिक गुणवान होने से किसी को नमन नही करते,पर आप इस गुण का उल्लंघन कर सिध्द प्रभु को नमस्कार करते?यह अनुचित लग कर भी उचित है,क्योकि आपका अगला लक्ष सिध्दपद सुनिश्चित है.आपके स्वप्रभावान चरणाम्बुजो की उत्सर्जित प्रभा से,क्षोभ क्लेश रहित नमित देवेंद्रो के मुकुटो की मणिया जगमगाती बहुत शोभा देती है.संसार के उत्तम पुरूष इंद्र,चक्री,गणधर आदि आपके सद मार्ग दर्शन से सहजता से मोक्षलब्धि को पाते.इसलिये है भव्य जनो अमित आत्मिक मोक्ष सुख हेतु धर्म जिनेश के चरणो की वंदना करो
जिनके सद गुणो की सीमा का अंत नही,अनंत जिनेश की स्तुती:
वर्णभार्यातिनंध्याव वंध्यानंत सदारव/
वरदातिनतार्य्याव वर्य्यातांतसभार्णव//54//
अनुपम दिव्य देह शोभा लक्ष्मी से सुशोभित,अष्ट प्रतिहार्यो की विभूती से सम्पन्न,भव्य सुर नर त्रियंचो से वंदनीय,है अनंत जिनेश आपकी दिव्य देशना से अचिंतनीय पदार्थो के उत्कृष्ट दाता,नमित साधुओ के सनरक्षक,विक्षोभ रहित समोशरण(जहा कर्मो से रण चल रहा हो)जीवो के सागर,के शुभचिंतक मार्ग दर्शक है अनंत जिनेश विभो!मेरी और भी ध्यान देकर मेरी भव पीडाओ से रक्षा करो
क्षमा करे मै भावना के प्रवाह मै बह कर शब्दो की सीमा का लंघन कर जाता हू.समंत भद्र के प्रति धृटता कर रहा हू.
श्रीमज्जिनपदाभ्यांश,प्रतिप
कामस्थांप्रानेशम,स्तुतिविध
श्रीमज्जिनपदाभ्यांश(केवल ज्ञान लक्ष्मी धारी के इंद्रिय मन जयी के चरणो के आश्रय)प्रतिपध्य(को ग्रहण कर)कामस्थान्म प्रदानेश(जो मुक्ति की कामनावाले को मुक्ति या मोक्ष को प्रदान करने मै उदार है)स्तुती विध्याम प्रसाधये(की स्तुती विध्या को रचता हू)..1..जिनस्तुती शतक
स्नात स्वमलगम्भीरम,जिनामितगुणार्
पूत श्रीमज्जगत्सारम,जनायात क्षणाच्छिवम//2//
सु(प्रशस्त)अमल(मल रहित)गम्भीर जिन(कर्मजयी)अमित(सीमा रहित)गुणार्णवम(गुण के सागर)पूत(पवित्र)श्रीमत(शोभ
आसते सततम ये य,सति पुर्वक्षयालये/
ते पुण्यदा रतायातम,सर्वदा माभिरक्षत://3//
धिया(निर्मल मति के धारी है भव्य)ये (जैसे भाव से प्रभु को )श्रितया(आश्रय लेकर ध्याते है)इतातर्या(आर्त्त रोद्र ध्यान रहित ध्यान कर ध्येय जैसे हो जाते है)यान(जहा)उपायान(अनेक प्रयास कर)वराम(वर श्रेष्ठ पुरूष इंद्र चक्रवर्ती)नता(नमन करते है)अपापा(नही है पाप का प्रसार जिनको यानी मुनी गणधर आदि)श्रिया(आश्रय लेकर ध्याते)य यातपारा(सीमा रहित अनंत पदार्थो के गुणो के प्रतिबिम्बदायी)श्री(केवल ज्ञान लक्ष्मी)आयातात(को प्राप्त होकर)अतंवत:(तन या शरीर रहित होते या निरंजन होते या सिध्द होते है)
निर्मल मति के धारी है भव्य जैसे भाव से प्रभु को आश्रय लेकर ध्याते है आर्त्त रोद्र ध्यान रहित ध्यान कर ध्येय जैसे हो जाते है जहा अनेक प्रयास कर वर श्रेष्ठ पुरूष इंद्र चक्रवर्ती नमन करते है नही है पाप का प्रसार जिनको यानी मुनी गणधर आदि आश्रय लेकर ध्याते सीमा रहित अनंत पदार्थो के गुणो के प्रतिबिम्बदायी ज्ञान लक्ष्मी को प्राप्त होकर तन या शरीर रहित होते या निरंजन होते या सिध्द होते है
आसते सतत्म ये य,सति पुर्वक्षयालये/
ते पुण्यदा रतायातम सर्वदा माभिरक्षत//4//
आसते .(.आशाओ को लेकर भक्त)..सतत्म.(.हमेशा)..ये य.. (वीतराग प्रभु का आश्रय कर पुजते है वे प्राणी)..सति..(वैसे ही वीतराग भाव पाते है)..पुरू..(प्रधान और)..अक्षय्म..(क्षय नही है जिसका)..आलयते..(सिध्द सथान को पाते है)..ते रतायात्म....(वीतराग प्रभु की भक्ती मै लीन होने वाले को)..सर्वदा..(हमेशा)..पुण्
नतपीला सनाशोक,सुमनोवर्षभासित:/
भामण्डलासनाअशोक,सुमनोवर्षभ
न त.. (नही है)..पीलास..(क्षुधादि पीडा जिनको हो)..असन..(भोजन आदि करना चाहिये)..च..(नही है)..पीलासन..(पीला स्वर्न आसन वाले एसे प्रभु शतेंद्रो से वंदित,नत है)..अशोक..(शोकरहित)..सु..
दिव्यै ध्व्रनिसितच्छत्र,चामरैर्दु
दिव्यैविर्निर्मितस्तोत्र,श
दिव्यै ध्वनि..(अनुपम वीतराग देशना)..सित च्छत्र(धवल श्वेत छत्र )..चामरै..(64 श्वेत चामरी गाय के पुच्छ के, चंवर,ऋध्दियो के प्रतीक)..दंदुर्भिस्वनै:..(
यत:श्रितोपि कांताभि,दृर्ष्टा गुरूतया स्ववान/
वीतचेताविकाराभि:,स्रष्टा चारूधियाम भवान//7//जिनस्तुति:शतक..
वीतचेताविकाराभि:..(वीतराग हे चित्त से अविकार जिनका,वीतराग बुध्दि के समान)..कांताभि:..(रमणीय सुर नर स्त्रियो से सेवित होकर भी उन्हे)..गुरूतया..(परम गुरू की भावना से)..दृर्ष्टा..(विलोकन करते है)..यत:..(क्योकि)..स्ववान
विश्वमेको रूचामाको,व्यापो येनार्य्य!वर्त्तते/
शश्वल्लोकोपि चालोको,द्वीपो ज्ञानार्णवस्य ते //8//
विश्वम..(विश्व के समस्त पदार्थो के तीनो कालो को हाथ मे रखे आंवले के समान ज्ञाता)..एको..(एक केवलज्ञान ही है)..आको..(उन पदार्थो को प्राप्त होकर).. व्यापो..(सभी पदार्थो मै व्याप्त होता है)..येन..(इस कारण इस ज्ञान की प्रभा-किरणवत है)..आर्य!..(है आर्य वीतराग देव!आप ही उस ज्ञान रूप)..वर्तते..(रमण करते है)..शश्वल..(शाश्वत स्वरूप)..लोको च अलोकोपि..(लोक और अलोक भी)..ज्ञानार्णवस्य ..(केवल ज्ञान रूपी गहन गम्भीर सागर के)..द्वीपो ते..(द्वीप आप ही है)..
श्रित: श्रेयोप्युदासीने,यत्त्वय्य
क्षत्म भूयो मदाहाने,तत्त्वमेवार्चितेश्
(हे प्रभो आपके)..उदासीने..(उदासीन यानी राग हीन होने पर भी)..यत..(जो).. पर:..(जीव)..एव..(ही)..श्रि
.भासते विभुतास्तोना ना स्तोता भुवि ते सभा:/
या:श्रिया: स्तुत!गीत्या नु नुत्या गीतस्तुता: श्रिया//10//
..भासते..(सुशोभित होते है)..विभुता..(सब जीवो को तारने की विभुती से)..अस्ता:.. (अस्त या नष्ट हो हये)..ऊना..(न्यूनता या अल्पज्ञता,या असमर्थता से)..ना..(जो जीव)..स्तोता..(वीतराग भावो से वीतराग भगवान की स्तुति करते है)..ते..(वे) ..भुवि.. (धरा पर या पृथ्वी पर)..ते..(आपके समान) ..सभा..(सभावान,या समोसरण के स्वामी होते है)..या:..(इस कारण जो जीव जिन भावो का) ..श्रित:..(आश्रय लेते,भाव रखते है)..स्तुत..(स्तुती करते)..गीत्या..(गुणगान करते)..नु..(वैसे ही करवाने योग्य होते)..श्रिया..(वीतराग लक्ष्मी का)..श्रित..(आश्रय लेते वे विपुल केवल्य,समोशरण, मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त करते है
.
श्लोक 11 व 12 मै साम्यता देखिये.....
स्वय्म शमयितुम नाशम विदित्वा सन्नतस्तु ते/
चिराय भवते पीड्यमहोरूगुरवेशुचे//11//
(वीतराग देव के)..अशुचे..(सोचने से रहित,यानी सोंच नही है जिनको)..अपीड्य..(तन वेदना से रहित)..मह:..(औज़ को प्राप्त परम औधारिक देहवान)..उरू..(महा शुभ का उदय होने से सर्वोपरि है)..गुरवे..(गुणो के गरिष्ठ यानी गुणो के सारभूत,को धारण करने वाले सबके गुरू को)..विदित्वा..(जानकर जो कल्याणार्थी भव्य जीव)..सन्नत:..(भली प्रकार से श्रृध्दावान नमन करते है,धारण व आचरण करते)..तु..(अन्यथा नही)..ते.. (वे भव्य जीव आपके समान)..नाशम..(नाश करने वाले घातिया कर्मो का नाश कर)..चिराय..(चिरकाल तक अनंत अक्षत सुख के भोक्ता)..भवते..(बनते है,और उस वीतरागता के प्रभाव से) ..शमयितुम..(बाकी बचे अघातिया कर्मो का नाश कर)..स्वय्म..(वे स्वय्म आपके समान हो जाते है).
स्वय्म शमयितुम नाशम विदित्वा सन्नत:स्तुते/
चिराय भवतेपीड्य महोरूगुरवे शुचे//12//
(वीतराग)..अय:..(पुण्य से)..सु..(सुशोभित है)..शम..(पुर्ण सुख के लिये) ..अमितुम..(गमन करते है)..ना..(वे संसारी जीव जिनको सुख का अंश भी नही है,यानी महादुखी जीव).विद..(दुख के कारण राग को जान कर)..इत्वा..(इति है जहा दुखो कि जहा,यानी वीतरागी की शरण मे जाकर)..सन्न..(सन्मुख आश्रित होकर)..अत:..(अनेक प्रकार से स्तुति करते है वे जीव)..चिराय..(क्षण मै सुख)..भवते..(धारी होते है)..अपि..(अन्यथा नही निश्चय ही सुखी होते है)..ईड्य..(है पुज्यनीय)..महती..(महान)..उ
.वीतराग पुण्य से सुशोभित है पुर्ण सुख के लिये गमन करते है वे संसारी जीव जिनको सुख का अंश भी नही है,यानी महादुखी जीव दुख के कारण राग को जान कर इति है जहा दुखो कि जहा,यानी वीतरागी की शरण मे जाकर आश्रित होकर अनेक प्रकार से स्तुति करते है वे जीव क्षण मै सुखधारी होते है अन्यथा नही निश्चय ही सुखी होते है पुज्यनीय महान आपकी सर्वश्रेष्ठ वाणी या देशना है वह रवि के समान स्वप्रकाशित,प्रकाश करने वाली परम पवित्र है.
.
ततोतिता तु तेतीतस्तोतृतोतीतितोतृत:/
ततोतातिततोतोते ततता ते ततोतत://13//
तता..(विस्तीर्णता को प्राप्त है)..अति..(रक्षा करने के करूणा भाव है जिनके)..इति..(इसलिये आपक ततोतिता कहते है)..तु..(विशेष रूप से आप)..अति..(पुजा को प्राप्त हुए,शरण मे आये की रक्षा करते वह उसका स्वामी)..ते..(आप सर्व जीवो के रक्षाभाव के कारण शतेंद्रो से पुजित हो)..इत:..(इस कारण ज्ञानी जन ततितिता तुतेतीत कहते है)..तोतृता..(ज्ञातृता से ,जान कर)..अति:..(स्व-पर भेद ज्ञान की वृध्दि कर रक्षा करते हो)..तोतृतीति..(ज्ञान आदि आवरणी कर्मो के हंता हो)..इति..(इसलिये आपको तोतृतोतीति तोतृत: कहते है)..ताति: अताति..(बाह्य परिग्रह से से शून्य हे,फिर भी जिनको उस परिग्रह से सन्योग है जिनके फिर भी)..तता..(महानता को प्राप्त हो अथवा अथवा) ..अताति..(परिग्रह रहित गरीब जन)..उता..(दारिद्र भाव से बंधे दुखी जीव)..अति..(उस दुख से रक्षा करने वाले हो इसलिये ततोआति ततोतोते के नाम से जाने जाते)..ततता..(विशाल हे प्रभुता जिनकि)..ते..(वह प्राप्त है आपको)..तता..(महा विस्तृत जग मे इस प्रकार जो)..उत्म..(ज्ञानावरणी कर्म को)..अंत:..(नाश करने वाले हो इसलिये आपको तताताते ततोतत: कहते है)
.येयायायाययेयाय,नानानुनानन
ममाममाममामि,ताततीतिततीतित:
येय:(प्राप्त हुआ है)अय:(पुण्यी, एसे पुण्यशाली जीवो को)आय:(प्राप्त होता है)अय:(तीव्र पुण्योदय से इस प्रकार सुखी हुए जीवो को)येय:(प्राप्त होता है)अय:(वीतरागी मार्ग जिसका स्वरूप)नाना(अनेक प्रकार के आत्मिक ज्ञान,ज्सके द्वारा)अनून्म(किंचित भी न्यून नही,सम्पुर्ण है)आनना(मुख कमल या मुख मण्डल प्रधान है ज्सक्य केवल ज्ञान, जो )मम(मोहादि अशुभ भावो को)अमम(बिना ममता के, दुर करने वाला है)आम:(जन्म जरा आदि रोगो को,दुखो को)अमाम:(बिना ममता के नाश करने वाला है)अमिता:(जिसकी सीमा नही,जिसकी उपमा नही,जिसका कोई प्रमाण नही)आतति:(एसी महानता को प्राप्त करते)ईतय:(उस जन्म जरा मृत्यु,आदि व्याधिक्रत वेदना को)तति:(नाश करने वाला है)इति(इस प्रकार के कल्याणकारी मार्ग मै मेरा गमन हो)त:(इसीसे भव्य जीव मोक्ष जाते है)
गायतो महिमामयते गा यतो महिमाय ते/
पद्मया स हि तायते पद्मयासहितायते//15//
अजित जिनेश की स्तुति::
वही शब्द श्लोक 16 और 17 मै है पर स्थान बदलने से अर्थ बद्ल जाता..
सदक्ष राजराजित प्रभो दयस्व वर्ध्दन:/
सताम तमो हरन जगन महो दया पराजित://16//
(है)प्रभो सत(शोभायमान हो)अक्षर(नही है क्षरण जिसका यानी केवल ज्ञान से)अजर:(नही है जन्म,नही है जीर्ण होना,)अजित:(जिस पर विजय प्राप्त ना हो,जिसे जीता नही जा सके एसा ज्ञान वान अपराजित आत्मा के धारक)प्रभो(स्वामी हो सबके)दयस्व(स्वय्म एव्म दुसरो पर दयावंत)वर्धन(जिसकी वृध्दि पुर्ण हो चुकी)सताम(भव्य जीवो के)तम: हरन(मोह अज्ञान अंधकार के हर्ता)जयन(सभी कर्मो को जीत कर)मह:(सूर्य से अधिक प्रभावान केवल ज्ञान कि प्रभा के धारक)दया पर(दया या करूणा प्रधान अहिंसा धर्म के प्रवर्तक)अजित:(काम मोह जैसे शत्रुओ पर विजयी हो)
सदक्ष राजराजित प्रभोदय स्ववर्ध्दन:/
स तांतमोह रंजयन महोदयापराजित://17//
सदक्ष(दक्षता और विचक्षणता सहित)राज राजित(शासन रूप आज्ञा के कर्ता है)प्रभाया(केवल ज्ञान प्रभा का पुर्णोदय को प्राप्त होकर पुर्ण वृध्दि को प्राप्त)स्व वर्ध्दन:(सुख के कारण भूत गुणो को पुर्ण वृध्दि को प्राप्त होकर)स(शोभायमान होकर विशिष्ट रूप से)तांत(पुर्ण नष्ट किया है)मोह(मोहनिय कर्म जिनने)रंजयन महोदय(बाह्य वैभव को विस्तार से प्राप्त कर शतेंद्रो से पुजित होकर)अपराजित(अंतरंग मोह से भी जीते नही गये यानी अपराजित हो)
असम्भव को कर दे सम्भव, एसे सम्भव जिनेश की स्तुती
नचेनो न च रागादिचेष्टा वा यस्य पापगा/
नो वामै: श्रीयतेपारा नयश्रीभुर्वि यस्य च//18//
न च(नही है)इन:(स्वामी जिनका,यानी वे ही सबके स्वामी है)न च(नही है)रागादि(राग आदि कोई दोष जिनमे)चेष्टा न च(मन वचन काय आदि चेष्टा)वा(समुच्चय रूप है)यस्य(जिसमे दोष रूप प्रवृति नही है)पापगा(पाप कर्म घातिया कर्म गमन कर गये,नष्ट होगये)अपारा(सीमा विहीन,अपार है)नय श्री(सप्तभंग,समस्त नय रूप लक्ष्मी)भुवि(धरा पर,लोक मै)यस्य(जिनके एसे)वामे(हीन बुध्दि के मिथ्यादृष्टि जीव के)श्री यते(आश्रय ,पात्र) नू(नही है)(यह हम जानते है कि मिथ्यादृष्टि जीवो का समोशरण के प्रवेश नही हो सकता,जिन्हे सम्यक दर्शन की पात्रता होती वे ही समोशरण मै प्रवेश पाते)
पुतस्वनवमाचार्म,तंवायात्म भयादरूचा/
स्वया वामेश पाया मा,नतमेकाच्र्यशम्भव//19//
च(और)पूत:(पवित्र,दोष रहित)सु(मन वचन काय के सौंदर्य से सुशोभित सर्वोत्कृष्ट)आचार:(आचरण यानी चारित्र,क्षायिक चारित्र,जिनका)तनु:(जन्म जरादि व अन्य रोगो की वेदना से रहित)भयात(सब प्रकार के भयो से मुक्त,निर्भय,अभय)रूचा(रोचन
धाम स्वयममेयात्मा,मतायदभ्रया श्रिया/
स्वया जिन विधेया मे यदनंतमविभ्रम//20//
धाम(जहा अंतिम निवास यानी सिध्दशिला है)सु(महत शोभा से युक्त)अय:(पुण्य और पुण्य से सुख)अमेयात्मा(किंचित भी न्यून नही है,ज्ञानस्वभाव है जिनका)मतया(जिनकी सुमति से उत्पन्न मत को पार पाना कठिन ही नही है)अद्भ्रया(पार हो पाना असम्भव है जिनका एसा महान है है)श्रिया(महत लक्ष्मि के स्वामी)स्वया(कर्म शत्रुओ को जीत कर अपनी आत्मा को स्थापित किया है)अविभ्रम(भ्रम रहित वीतराग)अनंतम(अंत या विनाश रहित सिध्द पद के धारी)यत(जैसे आपमे गुण है वैसे ही)मे(मेरे लिये भी)वी(विधान जिससे पुर्व मे आपने प्राप्त किया)धेया(उस विधान की देशना लब्ध करवाये)
भव्य जीवो के अभिनंदन के लक्ष्य अभिनंदन स्वामी की स्तुती
अतम: स्वनतारक्षी तमोहा वंदनेश्वर:/
महाश्रीमानजो नेता स्वव मामभिनंदन//21//
अतम:(अतम यानी अंधकार हीन,अज्ञानरूपी अंधकार के विनाशक महास्वप्रभ)स्व(आपको स्व प्रेरणा से जो)नता:(मन वचन काय से शुध्दिपुर्वक जो नमस्कार करते है)तमोहा(उनका दर्शन मोह विनाश हो जाता)वंदनेश्वर:(और जो उक्त विधी से वंदन करते वे भी आपके समान आराध्य ईश्वर हो जाते)महाश्रीमान(महान सर्वोत्कृश्ट अनुपम स्व आधीन ज्ञान लक्ष्मी यानी केवल ज्ञान सहित है)अजो(जन्म रहित) नेता(मोक्षमार्ग के पथ दर्शक नायक)अभिनंदन(परम आनंद के स्वामी होकर दाता हो)माम(मेरी भी)स्वव(अपनी तरह ही मेरी संसारी दुखो से रक्षा कर सुखी करो)
नंध्यनंतध्दर्यनंतेन नंतेनस्तेभिनंदन/
नंदनध्द्रर्नम्रो न नम्रो नष्टोभिनंध्य न //22//
नंदो (आत्मशक्ति के स्वरूप ऋध्दि की सम्पुर्ण वृध्दि को प्राप्त)नंतध्दर्य(अंत हीन जिनका एसी अनंत शक्तिरूप ऋध्दियो के)इन:(स्वामी हो)नंता(जो भव्य जन आपकी स्तुती कर मन वचन काय से नमन करने वाले तपस्वी)इन:(के स्वामी बन जाते है)अभिनंदन(हे अभिनंदन स्वामी)ते(आपकी ही महिमा है,जो वीतरागी होकर भी उन भव्यो को अपने समान बनाते)ननदनर्ध्दि(वृध्दिरूप
नंदनश्रीर्जिन त्वा न नत्वा नर्ध्दया स्वनंदि न/
नंदिनस्ते विनंता न नंतानंतोभिनंदन//23//
नंदन श्री(सौधर्मेंद्र व गणधरादि जिनकी लक्ष्मी वृध्दि को प्राप्त कर रही है,क्या वे भी)जिन(पुर्ण विजय जिन्हे लब्ध है एसे जिनेंद्र)त्वा(आपको)न(नमन नही करते?)नत्वा(बल्कि सिर भी झुकाते है)नर्ध्द्यास्व नंदिन(अपने पुण्योदय से प्राप्त ऋध्दियो के विभव के महा हर्ष से लबालब)नंदिन(विशेषपन वृध्दि रूप द्रव्यो से)ते(आपको)विनंता(विधानादि
नंदन्म त्वाप्यनष्टो न नष्टोनत्वाभिनंदन/
नंद नश्वर नत्वेन नत्वेन:स्यन्न नंदन//24//
नंदन्म(आल्हाद के वृध्दि कारी)त्वा(आपको ही सर्वज्ञ विभो)आप्य(जो प्राप्त कर लेता)नष्टो(गुणो के विनाश को प्राप्त होकर संसार सागर पतित)न(नही होता)(फिर कौन?)नष्टो(संसार सागर मै डुबता)अनत्वा(स्वेच्छाचारी,
भगवन के शरण मै यानी समोशरण मे सिर्फ सम्यक दर्शन की करन लब्धी को प्राप्त भव्य जीव ही प्रवेश की पात्रता रखते)
अल्पमतियो को सन्मति देकर श्री सम्पन्न स्वोत्पन्न केवल्य लक्ष्मी के दाता सुमति जिनेश की स्तुती::
देहिनो जयिन: श्रेय:सदाअत: सुमते!हित/
देहि तोजयिन: श्रेय:स दात: सुमतेहित//25//
देहिन(देह धारियो को)जयन:(कर्मो से जय करानेवाले तथा)श्रेय:(कल्याणकारी सम्य्ग्ज्ञान को)सदा(हमेशा हीप्राप्त करने वाले हो)अत:(इसलिये आपको)सुमते(सुमति धारी सुमति जिनेश कहते है)हित:(परम कल्याणकारी रूप हो)देही(हे स्वामी मुझे भी वह सुमति देवे जिससे)न:(हम भी कर्मो पर जयी हो सके)अज:(अजन्मा,यानी नवीन जिसे किसी संसारी ने धारण नही किया है)इन:(उसके स्वामी आप हो)श्रेय:(कल्याण स्वरूप हो)स(वह जो सबसे श्रेष्ठ हो)दात:(भव्यो को कल्याणकारी देशना दायी हो)सु(जिससे सुशोभित आपका शासन)हित्म(सब जीवो के हित दायी हो)
वरगौरतनुम देव,वंदे नु त्वाक्षयार्ज्जव/
वर्जयार्त्ति त्वमार्याव,अ वर्यामानोरूगौरव//26//
परा(सर्वश्रेष्ठ)गौर तनुम(स्वर्णिम आभा को धारण किये कनकसम शरीर वाले प्रभु को)देव(सभी भव्य देवी देवता)वंदे(नमन करते)नु(वास्तव मै अत्यंत हर्ष से गाते बजाते नृत्य करते महोत्सव रचाते वंदना करते)त्वा(है देव आप)अक्षय(कभी न क्षरण होने वाले यश,प्रभाव,ज्ञान,वैभव के धारी है)आर्जव(ऋजु परिणामी है)वर्जय आर्ति(तन मन की पीडा से रहित,सभी दोषो से रहित,अर्थात निर्दोष हो)त्वाम आर्य(आपको योगी गण)वर्य(सबसे श्रेष्ठ)अमान(नही है प्रमाण,जिनका एसे अनंत)उरू(महत रूपी)गौरव(गौरवधारी गुरू मानकर सहस्त्र जीव्हाओ से विनती करते)अव(हमारे दुखो को दुर कर हमारी रक्षा करिये)
संसार सागर के तट पर प्रफुल्लित पंकज जो संसार के पंक के समीप होकर पंक से रहित पद्म प्रभ की स्तुती::
अपापादमेयश्रीपादपद्म प्रभोर्दय/
पापमप्रतिमाभो मे पद्मप्रभ मतिप्रद//27//
अपापादमेयश्री(ज्ञान,दर्शन अंतराय,मोह आदि घातिया कर्मो को विजय कर,तन मन की पीडा से रहित होकर,अक्षय अनंत,अमित केवल्य लक्ष्मी के आधार,देव सेवित,चरण कमलो के धारी)प्रभो(है स्वामी!)अर्दय पापम(जिन्होने दुष्कर्मो का नाश किया है)अप्रतिमाभा(उपमा हीन आभा के धारी हो)मै(मुझे भी)पद्मप्रभ(है पद्मप्रभ नाथ)मति(आपके समान ज्ञान लक्ष्मी)प्रद(से आभूषित करिये)
वंदे चारूरूचाम देव भो वियाततया विभो/
त्वामजेय यजे मत्वा तमितांत्म ततामित//28//
त्वाम अजेय(किसी से नही जीते जाने वाले आप अजेय हो)तमितांत्म(तम यानी अज्ञान अंधकार को सीमा के अंत तक क्षय कर दिया हो एसे अविनश्वर हो)तत अमित:(समस्त पदार्थो भूत भविष्य प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष पर्यायो को हस्तांजली के समान जान कर प्रतिपादित किया है,एसे सर्व ज्ञाता हो)विभो(सबके दुखो का विभव कर सबके रक्षक हो)देव!(भव्यो को मोक्षमार्गदायी देशना के महान दानी होकर देव हो)भो!(संसार रण के परम भट्टारक होकर त्रिलोकाधिपति हो)चारूरूचाम(सभी भव्य जीवो को रोचक लगने वाली केवल्य शोभा से प्रदीप्त हो)मत्वा यजे वियाततया(शतेंद्रो से पुजित हो,इसलिये मै अज्ञानी भी घृष्टता से भावनावश आशांवित होकर पुजता हू)
क्षमा करे भावनावश मै यहा शब्दो की सीमा के परे जाकर प्रस्तुत किया हू.
उपसर्ग विजेता सुपार्श्व प्रभु की स्तुती::
स्तुवाने कोपने चैव समानो यन्न पावक:/
भवनेकोपि नेतेव त्वमाश्रेय:सुपार्श्वक://29
सुपार्श्वक:(सुरूचीकर है समीपता जिनकी,क्योकि कोई भी जीव पाने की कामना से ही समीप जावेगा जिनके पास सुरक्षित हो)त्वमाश्रेय:(एसे आश्रय के प्रदाता तो आप ही हो)न(आपके समान अन्य नही) यत(इस कारण)भवान एकोपी(आप ही एक प्रधान हो)पावक:(पापो को तप के ताप से भस्म कर पवित्र करने वाले)स्तुतवाने कोपवाने च(स्तुती या ईर्षा करने वालो के कृत्य से अप्रभावित हो)एव समानो पावक: न:(निश्चय से साम्यभावधारी पवित्र कर उध्दार करने वाले आप ही हो अन्य नही है)
शारदीय चंद्र की प्रभा से आधिक्यप्रभावान चंद्र प्रभ जिनेश की स्तुति:
:चंद्र प्रभो दयो जेयो,विचित्रेभात कुमंडले/
रूंद्र शोभोक्षयोमेयो,रूचिरे भानु मंडले//30//
यहा यह कहने कि आवश्यकता नही है की काशी मै तत्काल रचित स्वयमभू स्तोत्र की स्तुती मै बेडियो मै जकडे समंतभद्र ने शिवपिंडी के समक्ष चंद्र प्रभ जिनेश की स्तुति मै प्रथम बार हाथ उठाकर वंदे कहा तो शिवपींडी फटी और चंद्र प्रभ जिनेश प्रकट हुए.(आज भी वह फटी शिवपिंडी समद्रेश्वर महादेव नामक मंदिर मै गोदोलिया मै आज भी देखी जा सकती).
..चंद्र प्रभो दयो जेयो(शारदीय चंद्र से अधिक सौम्य आल्हाद कारी,सभी जीवो को अभय देने वाले है चद्र प्रभ आप सभी की रक्षा कर किसी से नही जीते जाने वाले)विचित्रेभात(चित्र विचित्र विशिष्ट आभा से सुशोभित है)कुमंडले रुंद्र(पृथ्वी मंडल पर विशाल)शोभो अक्षय:अमेयो रूचिरे(क्षय रहित,उपमा के योग्य कोई नही,सबके रूचिवान होकर सब भव्य जीवो के मन को जीत लिया हो)भानु मंडले(सुर्य आभा मंडल को शीतल कर प्रभामंडल की तरह धारण किया हो,एसे चंद्र प्रभ मुझ अकिंचन को भी शरण दे)
प्रकाशयन खमुदभूतस्व्मुस्धांककलालय:/
विकासयन समुदाभूत: कुमुद्म कमलाप्रिय://31//
प्रकाशयन खमुदभूत(प्रकाशवान,कलंकवान चंद्रमा गगन मै हमेशा नही प्रकाशित नही होता)त्वमुदांककलालया:(लेकि
धाम त्विषाम तिरोधानविकलो विमलोक्षय:/
त्वमदोषाकरोस्तोन: सकलो विपुलोदय://32//
त्वम त्विषाम तिरोधान विकल:विमल:अक्षय:अदोषाकर(है
यत्तु खेदकरम ध्वांत सहस्त्रगुरपारयान/
भेत्तु तदंतरत्यंतम सहसे गुरू पारयान//33//
यत अंतर अत्यंत ध्वांते खेद्करम(जिसके अंदर अज्ञान अंधकार बहुत प्रगाढ,महान दुखो को)सहस्त्रेगुरू भेत्तु अपारयान(जिसे भेद पाने मै सहस्त्र सूर्य भी समर्थ नही हो)गुरू सहसे भेत्तु पारयान(उसे है परमसुर्य चंद्र प्रभ! सहज सहस ही अपनी अनक्षरी देशना के ज्ञान ज्योतिर्पुंज से भेद पाने मै निश्चय से सिर्फ आप ही समर्थ है)
खलोलूकस्य गोव्रातस्तमस्ताप्यति भास्वत:/
कालोविकलगोघात:समयोप्यस्य भास्वत://34//
भास्वत: गो ओलूकस्य व्रात तम:(दुष्ट स्वभावी उल्लू के नेत्रो पर सूर्य की किरणे टकराती तो है पर प्रकाश ना कर अंधकार ही करती है)भास्वत गो अपात: खलो ओलूकस्य अत्म:(है परम सूर्य चंद्र प्रभ!आपकी देशना विपरित मार्गी मिथ्यादृष्टि दुष्ट जीवो को आपकी देशना सहज से अज्ञान अंधकार को मिटा पाप रहित करती है)ताप्यति अताप्य काल विकलंगो काल अविकलग:(सूर्य की किरणो के लिये उदय काल का इंतज़ार करना पडता है और सुर्य किरणे ताप या जलन उत्पन्न करती है लेकिन आपकी देशना के लिये काल की प्रतिक्षा नही करनी पडती है क्योकि आप सदेव जाग्रत रहते है,और आपकी देशना जलन के बजाय क्षोभ को दुर करती है)घात:अघात:समयोपि भास्वत:(किरणो को घात करने वाले मेघो(अज्ञान) से नही रूकती.सुर्य समय पर ही प्रकाश देता पर आप सदेव ही ज्ञानावरणी अंतरायो को दुर निश्चय ही जयवंत रहते है)
लोकत्रय महामेय कमलाकर भास्वते/
एक प्रिय सहायाय नम:एक स्वभाव ते//35//
सदा एक रूप मै रहने वाले तीन लोक रूपी विशाल अपरिमित कमल वन के कमलो को प्रफुल्लित करने वाले अनुपम कैवल्य लक्ष्मी के अधिपति,आप सुर्य के लिये अगम्य स्थलो को भी प्रकाशित करते,सभी जीवो की पुजा के पात्र हे चंद्र प्रभ!,आप महा सुर्य होकर भी मृदुल है.अन्य महापुरूष जो सत कर्मो के कारण जाने जाते वे कालांतर मै भुला दिये जाते लेकिन आप सभी शुभ अशुभ कर्मो का क्षय कर सर्वोत्कृष्टता को लिये है, इसलिये आपको अनंत काल के बाद भी उन्हे भुलाया नही जावेगा.क्योकि आप ही एकमात्र शुध्द स्वभाव वाले है.
चारूश्रीशुभदौ नौमि रूचा वृध्दौ प्रभावनौ/
श्रीवृध्दौतौ शिवौ पादौ शुध्दौ तव शशीप्रभ//36//
शतेंद्रो,गणधरादि योगियो के ध्येय अनंत चतुष्टय लक्ष्मी के स्वामी होकर मनोवांछित सुख प्रदायक,अनुपम प्रदीप्ति के धारी,सर्व गुणो मै पुर्ण वृध्दि को लब्ध,लोकोत्तर शोभा से शोभित,चंद्र प्रभ! आपके पावन कल्याणकारी चंद्र मणी प्रभा से युक्त,पाद कमल युगल को मेरा भाव सहित नमन
.
मिथ्या मोहादि वज्र कर्मो का चूर्णन करने वाले पुष्पदंत जिनेंद्र की भाव स्तुति:
इस श्लोक के अक्षरो के प्रयोग मै होठ बिल्कुल नही मिलते,और काव्य 37 एव्म 38 के अक्षर तो वही है पर विच्छेद करने से अर्थ ही बदल जाता.यही चमत्कार आचार्यश्री समंत भद्र की इस स्तुती मै
शंसनाय कनिष्ठाया श्चेष्टाया यत्र देहिन:/
नयेनाशंसितम श्रेय: सध्य: सन्नज राजित://37//
है सर्वज्ञ कैवल्यश्री से सुशोभित आप स्तुति निंदा के राग द्वेष से परे जहा भव्य देह धारी जन मनवचंकायादि त्रियोग से सर्वोत्तम मान कर छोटी छोटी बातो से गुणस्मरण वंदन पुजन दर्शनादि करते है एसे प्राणी भी निजभाव से अर्जित पुण्य से कल्पना के परे उत्तम पदो से सुशोभित होते है जैसे भाव अनुसार सर्वज्ञ,इंद्र,चक्रवर्ती पदो से सुशोभित होते है
शम स नायक निष्ठायाश्चेष्टाया यत्र देहि न:/
न येनाश्म सित्म श्रेय: सध्य: सन्नज राजित://38//
बुढापा,मोह जनित दुख से रहित,वांछा रहित निराकुल,सुख को प्राप्त, आप सभी भव्य जीवो के नायक होकर मोक्षपथ के दिग्दर्शक है,आप अनुपम अजेय,है पुष्पदंत विभो!आपके शरणागत को वांछा रहित कर निराकुल मोक्ष सुख प्रदान कर उन्हे अपने समान बना कर शीघ्र ही जन्म जरा मृत्यु दुख से वंचित कर अजेय बनाते,इसलिये प्रभो मुझे भी शरण मे लेकर मेरा भी कल्याण करे. .
शोकक्षयकृदव्याधे पुष्पदंत स्ववत्पते/
लोकत्रयमिद्म बोधे गोपद्म तव वर्त्तते//39//
इष्ट वियोग के क्षोभ के क्षयकर्त्ता,व्याधिरहित,ज्ञ
लोकस्य धीर ते वाढ्म रूचयेपि जुषे मतम/
नो कस्मै धीमते लीढ्म रोचतेपि द्विषेमृतम//40//
ते(आप)मत्म(बोलने का अभिप्राय)वाढ्म(परोपकार के लिये)जुषे(प्रीतीधारी)लीढ्म
है धीर गम्भीर पुष्पदंत जिनेश!लोक के प्रीति वान बुध्दिरूपी वैभव के धारी भव्य,एव्म द्वेष रखने वालो के मन के उपकार के उद्देश्य से आपकी अनक्षरी शांत रसवान देशना को समानरूप से रूचि से सुनकर अमृतपान कर कल्याण पाते है.
कर्माग्नि से दग्ध क्षुब्ध जीवो को अमृतपायी देशना के दाता शीतलनाथ जिनेश की स्तुती:
एतच्चित्र्म क्षितरेव घातकोपि प्रसादक:/
भूतनेत्र पतेस्यैव शीतलोपि च पावक://41//
एतत(प्रत्यक्ष)चित्र(विचित्
विशिष्ट विचित्रताओ का समंवयन समंतभद्राचार्य ने इस काव्य मै किया है.क्या सिम्ह मृग का पालन करता है?जी हा भगवान के समोशरण मै सिम्ह मृग गाय के वत्स अपने विरोधी पशु माताओ का स्तनपान करते है.इसमे क्या विचित्र है?इस धरा पर अनेक नेत्रवान अंधे है जो सारी धरा की बुराईया देख लेते पर स्वय्म(आत्मा) की बुराई नही देखते?संसार मोहभ्रमित नेत्रवान अंधो से भरा है किसी को मोक्षमार्ग नज़र नही आता पर एक नेत्रवान(शीतल नाथ)सभी अंधो को राह बताता.आप शीतल है पर कर्मो को भस्म करने के लिये पावक का कार्य करते है.घी जो खाने से बल और शीतलता देता वही अग्नी को तेज़ करने का कार्य भी करता.आप दुर्जनो के कुटिल कार्यो को देख कर भी,क्षमा नही त्याग उन्हे भी शीतल कर देते.जो दुसरो को क्रोधवश भस्मीभूत कर देता लेकिन आप उसके क्रोध को भस्मीभूत कर शीतल बना देते.भय से राजा महाराजा(नेताओ)से सभी घबरा कर स्तुती करते,पर आपसे मोक्ष की अपेक्षा से चक्रवर्ती,शतेंद्र गणधर आदि ऋषी के ध्यान के ध्येय हो.तिनलोक मे सभी भव्य आपको नमन करते है.
काममेत्य जगत्सारम्जना:स्नात महोनिधिम/
विमलात्यंतगम्भीरम जिनामृत्म महोदधिम//42//
यह काव्य क्षीर (दुग्ध)समुद्र और आपकी तुलना योग्य न होने पर भी तुलना की है.क्षीरसागर श्रेष्ठ दुग्ध युक्त सभी सागरो से सारभूत है.देवकृत उत्स्वो का आगार है,शेवालिक आदि मलो से रहित है.अत्यंत विशाल है.गहन गहरा है.स्नान करना अगम्य होने से सम्भव नही.और शीतल जिनेश तो क्षीर समुद्र तुलना की ही नही जा सकती.शीतल जिनेश का ज्ञान तीनोलोक का सारभूत है.देव आपके कारण उत्सव रचाते है.ज्ञान मल रहित निर्मल है.क्षीर समुद्र की कुछ सीमा है लेकिन आपका ज्ञान तो लोक अलोक,सभी द्रव्यो के तिनो कालो.हस्तांजुली समान युगपत जानते.रागद्वेशरहित होने से अपेक्षा रहित होकर भव्य जीवो के गम्य होने से ज्ञान सागर मे स्नान कराकर कर्म मल रहित करते है.इसलिये भगवन के ज्ञान सागर मे स्नान कर कर्म मल रहित होकर स्वम ज्ञान के सागर बने.
हुंडावसर्पिणि के काल दोष से प्रथम धर्म व्युच्छति को निशेष कर पुन: स्थापक श्रेयांस जिन की स्तुती:
इस श्लोक के उच्चारण मै औष्ट नही मिलते:
हरतीज्याहिता तांति रक्षार्यायस्य नेदिता/
तीर्थादे श्रेयसे नेताज्याय: श्रेयस्ययस्य हि//43//
शीतलजिनेश के बाद धर्म व्युच्छति को आपने कैवल्यसुर्य को प्रकट कर धर्म तीर्थ पुनरस्थापित के श्रेयधारी है श्रेयांस जिनेश!आप चरमशरीरी होने से सदैव युवा, वृध्दतारहित, रह कर अजर अमर हो.कोई भी भव्य जीव मन वचन काय के त्रियोग की शुध्दि से स्तुती करते है वे भव भाव के दुखो को क्षयकर प्रंसशायोग्य स्वाभाविक रूप से सर्वज्ञ,इंद्र,चक्रवर्ती पद को प्राप्त होते है.है स्वामी आप मोक्षमार्ग के (नेत=बताना) नेता हो.
अविवेको न वा जातु विभूषापन्मनोरूजा/
वेषा मायाज वेनौ वा कोपयागश्च जन्म न//44//
है भगवन आप विवेकहीन ना तो रहे ना है और नाही रहेंगे. मन को रोचने वाली स्वाभाविक नग्न दिगम्बर मुद्रा को शोभा बढाने के लिये अलंकारोकी जरूरत है?सभी क्लेश,विपत्ति से रहित है.मन का स्पंदन ना होने से मन को रूचि अरूचि कर मानसिक सुख पीडा व चिंतो से रहित है.नाही दुसरो से छल करने के लिये मायाचारी होने की जरूरत है.सबसे बली होने व भय हीन होने से स्वयम और अन्य की रक्षा के लिये अस्त्र शस्त्र की जरूरत नही है.रति अरति से शून्य होने से कामिनी की तृष्णा नही है.हिंसादि पापो से निवृत होने से हिंसा प्रवृति की जरूरत नही है.पच्चीस कषाय नोकषाय से निवृत होने से कर्मबंध के हेतू मिथ्यादर्शन,अविरतादि योग से रहित है.मोह राग द्वेष न होने से संसार संसरण हेतु जन्म या अवतार की जरूरत नही है
आलोक्य चारू लावण्यम पदाल्लातुमिवोर्जितम/
त्रिलोकी चाखिला पुन्यम मुदा दातु ध्रुवोदितम//45//
है प्रभो !साहर्ष ध्रुव स्थायी पुण्यप्रदायक प्रदीप्त अति सुंदर पाद पद्म युगलो का आश्रय पाने की आकांक्षा से सुर नर त्रियंच आतुर होकर नमित मस्तक से अर्पित होते है यानी भव्य जीव जिन चरणो का अलौकिक सौंदर्य विलोकन के लिये नमस्कार करते है.इसमे क्या अनुठा है?
आचार्य समंत भद्र की विलक्षण शब्द शक्ति देखिये अक्षर वही है शब्द विन्यास बदल देने से काव्य 46,47 अर्थ बदल जाता.
अपराग समाश्रेयन्ननाम यमितोभियम/
विदार्य सहितावार्य समुत्सन्नज वाजित://46//
है अप रागी वीतराग देव,सर्व भय की विदारणा करने वाले,महाहर्षोत्साह से रोमांचित, प्रणाम कर आपकी भक्ति वंदना करते तथा अनक्षरी सरस्वती देशना को आज्ञा मान प्रवर्तते है.मुक्तिदाता की आश्रय की छाह मै स्वकल्याण की प्रेरणा से शरण मै जाते. और आप भी उनका का भव भय दूर कर अपने समान बनाते.
अपराग स मा श्रेयन्ननामयमितोभियम/
विदार्यसहितावार्य समुत्सन्नजवाजित://47//
है श्रेयांस नाथ,आप अ पराग यानि कषायो से हीन हो,समस्त भव व्याधिया आपका त्याग कर चुकी.ज्ञानवान श्रेष्ठ पुरुष यानी गणधरादि आपके सानिध्य मे है.आप पुर्णवृध्दिलब्ध केवल ज्ञान धारी हो.राग द्वेष आपसे संग्राम पराजित हो चुके दर्शन मात्र मन की आरोग्यता को प्राप्त कर निर्भय हुआ हू.है स्वामी पाद कमलो की विलक्षण आभा मै करने हेतु मुझ अकिंचन की भव बाधा से रक्षा करो.
प्रथम बालयति,वासुपूज्य की स्तुती:
पांचो कल्याणक क्षेत्र चम्पापुर(नाथ नगर,भागलपुर और मंदार गिरि):
अभिषिक्त: सुरेर्लोकैस्त्रिर्भक्त:परै
वासुपूज्य मयीशेशस्त्व्म सुपूज्य: क ईदृश://48//
तीनलोक के श्रेष्टता को लिये मेरु पर्वत पर ,हर्ष उत्साह से से देवो ने क्षीर सागर के धवल वर्ण के दुग्ध से अभिषेक किया तो दुग्ध भी मूंगे जैसा रक्त वर्णी दर्शित होने लगा,मानो दुग्ध भी भगवान के रंग मे रम गया.तीन लोक के अधिपति बालयति की भक्तिभाव से धरा पर शीश लगा कर सभी नमन करते है.कौन एसा शेष रहा जो नमन नही करता?(अभव्य)जिनके चरण इंद्र द्वारा पुजे जाते एसे द्वादश तीर्थेश वासुपूज्य,आप सुआचरण वान भक्तो मे श्रेष्ट मंदारादि गणधरो के ईष्ट,आपकी सादृश्यता कौन प्राप्त कर सकता?(कोई नही)इसलिये आप ही मेरे इष्ट होकर मेरे लक्ष्य हो.
आचार्यश्री समंतभद्र के इंद्रजाल जैसे शब्दो के जाल को देखिये जहा हर जगह आपस मै विरोध नज़र आता है:
चार्वस्यैव क्रमेजस्य तुंग सायो नमन्नभात/
सर्वतो वक्त्रमेकास्यमंग्म छायोनमप्यभात//49//
भगवन आपके एक मुख होते हुए भी सभी जीवो अपनी और
एक और अनेकमुख कर प्रत्यक्ष बोलते दिखाई देते?सभी पदार्थो की छाया पडती आप छाया विहीन हो?आप किसी को नमन नही करते पर सभी आपको नमन करते?है छाया विहीन एक और अनेक मुख धारी,स्वप्रभ शोभावंत,सर्वज्ञ,जिनके शरीर का दर्शन सभी का पूज्य,जिन वासुपूज्य,आपके पद पंकजो को जो श्रृध्दा से नमन करते वे निश्चय से,सातिशय पुण्य को प्राप्त कर आप जैसी महानता को प्राप्त होते है.इसमे क्या शंका?
विमलजिनेश की स्तुती:
क्रमतामक्रम्म क्षेम्म धीमतामच्र्यमश्रमम/
श्रीमद्विमलमेच्रेमम वामकाम्म नम क्षमम//50//
विमल प्रभु जिन्हे स्वच्छत्व शक्तिवान होकर संसार के समस्त पदार्थो के भूत भविष्य वर्तमान को युगपत के जानकार,खेद आकुलता से शून्य अनंतशक्तिअवान,सुर-नर श्रेष्ठ इंद्र चक्रवर्ती भी जिनकी सेवा करते, एसे अंतरंग बाह्य लक्ष्मी से सुशोभित विमलनाथ जिनेश की पूजा नमन करो जिसके फल स्वरूप,तपादि श्रम के बिना तत्काल कुशल और सुख बिनबाधा के प्राप्त होते.योगीश्रेष्ठ गणधरादि ऋषियो के पूज्य है.महापुरूष भी इनकी निरंतर चाह करते है.
ततोमृतिमतामीम तमितामतिमुत्तम:/
मतोमातातिता तोत्तुम तमितामतिमुत्तमा://51//
.है सर्वश्रेष्ट प्रत्यक्ष मे आप बिना भेद भाव के केवलादित्य से अज्ञान तम को उलट मत(ज्ञान)देते है,बिना हिंसा के देह जन्म मरण के भय से वंचित कर अनेक भव्य उपासको को उनकी ग्राह्य योग्यता के अनुसार मोक्ष,इंद्र,चक्रवर्ती पद प्रदाता हो.है विभो अक्षयपद धारी तमसो मा ज्योर्तिगमय मुझे भी भी सुमति क्षायिक लक्ष्मी प्रदानकर विमल(मल रहित)नाथ पद प्रदान कर आपके समान बनावे.
नेतानतनुते ननोनितांतम नाततो नुतात/
नेता न तनुते नेनो नितांतम ना ततो नुतात//52//
तम पाप शून्य हे विमल जिनेश जो भव्य भक्ति सहित समर्पण कर साष्टांग करने वाले शरणानुगतो को आश्रय देकर उन्हे अपने गुण सहर्ष प्रदान कर भय क्लेश से मुक्त कर अशरीरी मोक्ष प्रदान करते.अत: भव्यो आप भी विमल प्रभो को नमस्कार कर लाभांवित होवो.आचार्य समंत भद्र की प्रेरणा से प्रेरित हो प्रभो आपके चरणाम्बुजो को नमन करता हू.
नयमानक्षमामान न मामार्यार्तिअनाशन/
नशनादस्य नो येन नये नोरोरिमान्य न//53//
प्रशंसा के लिये जिव्हा समर्थ ही नही, जिनके गुणो को अनुभव ही कर सकते,क्षमाभूषण,विमल प्रभ मान कषाय को किंचित अंश ही नही है.आप सद जनो के मन की पीडा का हरण करते,लेकिन चोर नही,आप मेरी जन्म मरण की भव पीडा का क्षय कर मुझे भी उत्तम निर्वाण पद प्रदान करे.आपकी दोषहीन कल्याणकारी सरस्वती आप को सर्व ज्ञाता बताती.आपके शुभ गुणो(अशुभ को तो स्थान ही नही)का स्मरण मात्र मोक्ष के निकट ले जाता.इसमे क्या शंका की उत्तम गुणवान होने से सबके पुज्य हो.
जिनके सद गुणो की सीमा का अंत नही,अनंत जिनेश की स्तुती:
वर्णभार्यातिनंध्याव वंध्यानंत सदारव/
वरदातिनतार्य्याव वर्य्यातांतसभार्णव//54//
अनुपम दिव्य देह शोभा लक्ष्मी से सुशोभित,अष्ट प्रतिहार्यो की विभूती से सम्पन्न,भव्य सुर नर त्रियंचो से वंदनीय,है अनंत जिनेश आपकी दिव्य देशना से अचिंतनीय पदार्थो के उत्कृष्ट दाता,नमित साधुओ के संरक्षक,विक्षोभ रहित समोशरण( कर्मो की रणभूमि)जीवो के सागर,के शुभचिंतक मार्ग दर्शक है अनंत जिनेश विभो!मेरी और भी ध्यान देकर मेरी भव पीडाओ से रक्षा करो
क्षमा करे मै भावना के प्रवाह मै बह कर शब्दो की सीमा का लंघन कर जाता हू.समंत भद्र के प्रति धृटता कर रहा हू.
आत्म धर्म के संरक्षक धर्म जिनेश की स्तुती:
त्वमवाध दमेनर्ध्द मत धर्मप्र गोधन/
वाधस्वाशमनागो मे धर्म शर्मतमप्रद//56//
एकांत मिथ्यात्व के गुढ अंधकार को केवलादित्य प्रभा से अत्यंत क्षय करने वाले धर्म जिनेश आपके अनंत गुणो की तुलना सुमेरू से भी तुलना योग्य नही.तीर्थंकर सभी से अधिक गुणवान होने से किसी को नमन नही करते,पर आप इस गुण का उल्लंघन कर सिध्द प्रभु को नमस्कार करते?यह अनुचित लग कर भी उचित है,क्योकि आपका अगला लक्ष सिध्दपद सुनिश्चित है.आपके स्वप्रभावान चरणाम्बुजो की उत्सर्जित प्रभा से,क्षोभ क्लेश रहित नमित देवेंद्रो के मुकुटो की मणिया जगमगाती बहुत शोभा देती है.संसार के उत्तम पुरूष इंद्र,चक्री,गणधर आदि आपके सद मार्ग दर्शन से सहजता से मोक्षलब्धि को पाते.इसलिये है भव्य जनो अमित आत्मिक मोक्ष सुख हेतु धर्म जिनेश के चरणो की वंदना करो
जिनके सद गुणो की सीमा का अंत नही,अनंत जिनेश की स्तुती:
वर्णभार्यातिनंध्याव वंध्यानंत सदारव/
वरदातिनतार्य्याव वर्य्यातांतसभार्णव//54//
अनुपम दिव्य देह शोभा लक्ष्मी से सुशोभित,अष्ट प्रतिहार्यो की विभूती से सम्पन्न,भव्य सुर नर त्रियंचो से वंदनीय,है अनंत जिनेश आपकी दिव्य देशना से अचिंतनीय पदार्थो के उत्कृष्ट दाता,नमित साधुओ के सनरक्षक,विक्षोभ रहित समोशरण(जहा कर्मो से रण चल रहा हो)जीवो के सागर,के शुभचिंतक मार्ग दर्शक है अनंत जिनेश विभो!मेरी और भी ध्यान देकर मेरी भव पीडाओ से रक्षा करो
क्षमा करे मै भावना के प्रवाह मै बह कर शब्दो की सीमा का लंघन कर जाता हू.समंत भद्र के प्रति धृटता कर रहा हू.
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