Saturday, May 14, 2011

meri jeevan gatha-shri ganesh prasad varni ji.

Below is excerpt from 'Meri Jeevan Gatha- 1' Page 31-35 by Ganesh Prasad Varni Ji. This is about how he did Pooja to Arihant Bhagwaan. This is great inspiration to how we should Poojan:

हे प्रभो। यद्यपि आप वीतराग सर्वज्ञ हैं, सब जानते हैं, परन्तु वीतराग होने से चाहें आपका भक्त हो चाहे भक्त ना हो, उस पर आपको न राग होता है और न द्वेष। जो जीव आपके गुण में अनुरागी है उनके स्वयमेव शुभ परिणामों का संचार हो जाता है और वें परिणाम पुण्यबन्ध में कारण हो जाते हैं। तदुक्तम-

इस्ति स्तुतिं देव! विधाय दैन्याद्‌
चरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि
छाया तरूं संश्रयतः स्वतः स्यात्‌
कश्छायया याचितयात्मलाभः

यह श्लोक धनंजय सेट ने श्री आदिनाथ प्रभु के स्तवन के अन्त में कहा है। इस प्रकार आपका स्तवन कर हे देव! मैं दीनता से कुछ वर की याचना नहीं करता; क्योंकि आप उपेक्षक हैं। 'रागद्वेषयोर्प्रणिधानमुपेक्षा' यह उपेक्षा जिसके हो उसको उपेक्षक कहते हैं। श्री भगवान उपेक्षक हैं, क्योंकि उनके राग-द्वेष नहीं है। जब यह बात है तब विचारो, जिनके राग-द्वेष नहीं उनकी अपने भक्त में भलाई करने की बुद्धि ही नहीं हो सकती। वह देवेंगे ही क्या? फ़िर यह प्रश्न हो सकता है कि उनकी भक्ति करने से क्या लाभ? उसका उत्तर यह है कि जो मनुष्य छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गया, उसको इसकी अवश्यकता नहीं कि वृक्ष से याचना करे- हमें छाया दीजिये। वह तो स्वयं ही वृक्ष ने नीचे बैठने से लाभ ले रहें हैं। एवं जो रूचिपूर्वक अर्हंतदेव के गुणों का स्मरण करता है उसके मन्द कषाय होने से स्वयं ही शुभोपयोग होता है और उसके प्रभाव से स्वयं शान्ति का लाभ होने लगता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बन रहा है। परन्तु व्यवहार ऐसा होता है जो वृक्ष की छाया। वास्तव में छाया तो वृक्ष की नहीं, सूर्य की किरणो का वृक्ष के द्वारा अवरोध होने से वृक्षतल में स्वयमेव छाया हो जाती है। एवं श्री भगवान के गुणो का रूचिपूर्वक स्मरण करने से स्वयमेव जीवो के शुभ परिणामो की उत्पत्ति होती है, फ़िर भी व्यवहार में ऐसा कथन होता है कि भगवान ने शुभ परिणाम कर दिये। भगवान को पतितपावन कहते है अर्थात जो पापियों का उद्धार करे उनका नाम पतितपावन है... यह कथन भी निमित्तकारण की अपेक्षा है। निमित्त कारणो में भी उदासीन निमित्त है प्रेरक नहीं, जैसे मछली गमन करे तो जल सहकारी कारण हो जाता है। एवं जो जीव पतित है यह यदि शुभ परिणाम करे तो भगवान निमित्त है। यदि वह शुभ परिणाम ना करे तो निमित्त नहीं। वस्तु की मर्यादा यही है परन्तु उपचार से कथन-शैली नाना प्रकार की है। 'यथा कुलदीपकोऽयं बालकः, मणवकः सिंहः'। विशेष कहां तक लिखे? आत्मा की अचिन्त्य शक्ति है। वह मोहकर्म के निमित्त से विकास को प्राप्त नहीं होती। मोहकर्म के उदय में यह जीव नाना प्रकार की कल्पनायें करता है। यद्यपि वे कल्पनाएं वर्तमान पर्याय की अपेक्षा तो सत हैं परन्तु कर्मोदय के बिना उनका अस्तित्व नहीं, अतः असत हैं। पुदगल द्रव्य की भी अचिन्त्य शक्ति है। यही कारण है कि वह आत्मा के अनन्तज्ञानादि गुणो को प्रकट नहीं होने देता और इसीसे कार्तिकेय स्वामी ने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि--

'कापि अपुव्वा दिस्सइ पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती।
केवलणाणसहावो विणासिदो जाइ जीवस्स॥

'अर्थात पुदगल द्रव्य में कोई अपूर्व शक्ति है जिससे कि जीवका स्वभावभूत केवलज्ञान भी तिरोहित हो जाता है।' यह बात असत्य नहीं। जब आत्मा मदिरापान करता है तप उसके ज्ञानादि गुण विकृत होते प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। मदिरा पुदगल द्रव्य ही तो है।
अस्तु,

यद्यपि जो आपके गुणो का अनुरागी है वह पुण्यबन्ध नहीं चाहता, क्योंकि पुण्यबन्ध संसार का ही तो कारण है, अतः ज्ञानी जीव, संसार का जो भाव है उसे उपादेय नहीं मानता। चारित्रमोह के उदय में ज्ञानी जीव के रागादिक भाव होते हैं, परन्तु उनमें कर्तत्व बुद्धी नहीं। तथाहि-

'कर्तव्यं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत।
अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः॥'

'जिस प्रकार कि भोक्तापन आत्मा का स्वभाव नहीं है उसी प्रकार कर्तापना भी आत्मा का स्वभाव नहीं है। अज्ञान से ही यह आत्मा कर्ता बनता है। अतः अज्ञान के अभाव में अकर्ता ही है।'

अज्ञानी जीव भक्ति को ही सर्वस्व मान तल्लीन हो जाते हैं, क्योंकि उससे आगे उन्हें कुछ सूझता ही नहीं। परन्तु ज्ञानी जीव जब श्रेणी चढने को समर्थ नहीं होता तब अन्यत्र - जो मोक्षमार्ग के पात्र नहीं उनमें, राग ना हो इस भाव से तथा तीव्र रागज्वर के अपगम की भावना से श्री अरिहन्तादि देव की भक्ति करता है। श्री अरिहन्त के गुणों में अनुराग होना यही तो भक्ति है। अरिहन्त के गुण हैं- वीतरागता, सर्वज्ञता तथा मोक्षमार्गका नेतापना। इनमें अनुराग होने से कौन सा विषय पुष्ट हुआ? यदि इन गुणों से प्रेम हुआ तो उन्ही की प्राप्ति के अर्थ तो प्रयास है। सम्यकदर्शन होने के बाद चारित्रमोह का चाहे तीव्र उदय हो चाहे मन्द उदय हो, उसकी जो प्रवृत्ति होती है उसमें कर्तत्व बुद्धि नहीं रहती। अतएव श्री दौलतराम जी ने एक भजन में लिखा है कि -

'जे भव-हेतु अबुधिके तस करत बन्ध की छटाछटी'

अभिप्राय के बिना जो क्रिया होती है वह बन्ध की जनक नहीं। यदि अभिप्राय के अभाव में भी क्रिया बन्धजनक होने लगे तब यथाख्यात चारित्र होकर भी अबन्ध नहीं हो सकता, अतः यह सिद्ध हुआ कि कषाय के सद्भाव में ही क्रिया बन्ध की उत्पादक है। इसलिये प्रथम तो हमें अनात्मीय पदार्थों में आत्मीयता का अभिप्राय है और जिसके सदभाव में हमारा ज्ञान तथा चारित्र मिथ्या हो रहा है उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिये। उस विपरीत अभिप्राय के अभाव में आत्मा की जो अवस्था होती है वह रोग जाने के बाद रोगी के जो हल्कापन आता है तत्सदृश हो जाती है। अथवा भारापगम के बाद जो दशा भारावाही की होती है वही मिथ्या अभिप्राय जाने के बाद आत्मा की हो जाती है और उस समय उसके अनुपामक प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि गुणों का विकास आत्मा में स्वयमेव हो जाता है।

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