६ ढाला
दूसरी ढाला
बंध और संवर तत्व का विपरीत श्रद्धान
शुभ अशुभ बंध के फल-मंझार,रति-अरति करे निजपद विसार,
आतम हित हेतु विराग ज्ञान,ते लखै आपको कष्टदान
शब्दार्थ
१.बंध-कर्मों का आत्मा के प्रदेशों में एकमेव होकर मिल जाना.
२.मंझार-में
३.रति-हर्ष,ख़ुशी
४.अरति-दुःख,विलाप,शोक
५.निजपद-दर्शन और ज्ञान स्वाभाव
६.विसार-भूल कर
७.विराग-वैराग्य धर्म की बातें
८.लखै-लगता है
९.कष्टदान-दुःख दाई,परेशान करने वाला
भावार्थ
कवि कहते हैं की यह मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्या दर्शन के प्रभाव से शुभ कर्मों के बंधन में और शुभ कर्मों के फल में रति करता है,और अशुभ कर्मों के फलों में अरति करता है,यानि की दुखी होता है,ऐसा लक्षण अज्ञानियों का ही होता है,बल्कि जो ज्ञानी होते हैं,वह यह अच्छे से जानते हैं की पुण्य और पाप दोनों संसार को बढ़ने में कारण हैं,लेकिन यह जीव शुभ कर्मों का बंधन ही चाहता है,कर्मों का नाश नहीं चाहता है,हम मंदिर जाएँ तोह यह भाव कभी न रखें की शुभ कर्मों का बांध होगा,लेकिन यह भाव रखें की कर्मों का नाश हो,और परिणामों में सरलता आये,लेकिन यह जीव शुभ कर्मों के फल में ही रति करता है,शुभ को ही हितकारी मानता है,यही बंध तत्व का विपरीत श्रद्धान है,संवर तत्व का विपरीत श्रद्धान यह है की यह जीव कर्मों के द्वार को बंद करना नहीं चाहता है,कर्मों का बंध हो ,ऐसे ही भाव रखते हैं,लेकिन कर्मों को बंध से रोकना ही संवर है,और इस संवर तत्व के विपरीत श्रद्धान में यह जीव कर्मों के बंध को रोकना दुःख दाई मानता है,और इसलिए यह वैराग्य-धर्म-वीतरागता,जो आत्मा के लिए हितकारी हैं,उन्हें कष्ट दाई मानता है..इन धर्म की बातों को तत्व चर्चा को दुःख दाई गिनता है,यानि के जीव कर्मों के बंध को रोकना यानि की संवर नहीं करना चाहता है.यही संवर तत्व का विपरीत श्रद्धान है.
रचयिता-श्री दौलत राम जी
लिखने का आधार-६ ढाला क्लास्सेस-पुष्पा बैनाडा जी
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.
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