आप सभी से निवेदन है की स्वाद्ध्याय का मेल पड़ते समय जूते आदि उतार कर मुँह साफ़ करके पड़ें
| विनय का विशेष ध्यान देवें |
मंगलाचरण : कर्मों के अभाव से जिनको अपने शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति हो गई है, उन सिद्ध परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ
|
पिछली
बार प्रश्न था कि स्वर्ग का सुख कैसा होता है ? तो आचार्य उत्तर देते हैं कि
गाथा
5 :
स्वर्ग में रहने वाले देवों को दीर्घ काल तक इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला सुख देवों की तरह ही है अर्थात उसकी कोई उपमा नहीं है |
भावार्थ
:
स्वर्ग
में रहने वाले देवों का सुख कैसा होता है तो देवों को स्वर्ग में जो इन्द्रियजनित सुख मिलता है वो देवों के जैसा ही होता है उसकी कोई उपमा नहीं |
स्वर्ग का सुख दीर्घ काल तक होता है, सागरों कि आयु तक जीव पंचिन्द्रिय वे अच्छे अच्छे भोग भोगता रहता है |
जिस प्रकार थाली में एक लड्डू रखा होता है उसे व्यक्ति सारा भोजन ख़त्म करके फिर आराम से खाता है क्योंकि उसे खाने में उसे अत्यंत आनंद की अनुभूति होती है, जिसे दीर्घकाल उपलालित सुख कहते हैं | वैसा ही सुख स्वर्ग में लम्बे समय तक मिलता है |
जैसे सूर्य का तेज़ किसके जैसा है ? तो वह तेज़ सूर्य के ही जैसा है, किसी अन्य से उसकी तुलना नहीं की जा सकती |
उसी
प्रकार देवों को स्वर्ग में इतना सुख मिलता है जिसकी तुलना धरती में किसी के सुख से नहीं की जा सकती | उसकी उपमा देवों के सुख से ही दी जा सकती है |
परन्तु
ये बात हम हमेशा याद रखें की स्वर्ग का सुख इन्द्रियजन्य सुख है | और शाश्वत नहीं है उसका भी अंत आता है | अतः मोक्ष के सुख के सामने यह सागर में बूँद के जैसा भी नहीं |
उसके
बाद शिष्य प्रश्न करता है की क्या सुख इन्द्रिय जन्य ही होता है और क्या ये ही सच्चा सुख है ?
तो
आचार्य उत्तर में गाथा ६ कहते हैं जो हम कल पढेंगे |
एक
बार चर्चा के दौरान मुनि श्री १०८ अभिनन्दन सागर जी ने बताया था कि गुरु जी कहते हैं कि जो कुछ भी कभी सीखो तो उसको सबको बताओ | अपने ज्ञान को कभी मत छुपाओ | आपने एक चीज़ सीखी आप १० लोगों को सिखाओ वे १० लोग भी अगर १० - १० लोगों को सिखायेंगे तो १०० लोग सीख जायेंगे इंसा करते हुए १००० लोग और आगे सीखते ही जायेंगे |
अब
स्वयं सोचें कि जिस व्यक्ति ने प्रारंभ में ही सिखाया था अगर वो ही सभी को सिखाता तो लाख लोगों को शायद वो कभी न सिखा पाता या फिर बहुत लम्बा समय लग जाता | लेकिन सब आगे आगे एक दूसरे को सिखाते जायेंगे तो यही कार्य आसानी से हो जाता है |
आचार्य
गुरुवर स्वयं भी एन्सा ही करते हैं वे स्वयं धर्म प्रभावना करते हैं और उनके शिष्य मुनि और आर्यिकाएं देश में विभिन्न स्थानों पर धर्म प्रभावना करते हैं | जहां भी उनके शिष्य जाते हैं वहां लोग व्रती बनते जाते हैं और यह धर्म का वटवृक्ष बढता ही जाता है |
एक
बात और जो मुनि श्री १०८ अक्षय सागर जी से चर्चा के दोरान जानने को मिली |
संसार
में गुरु के दर्शन दुर्लभ हैं और गुरु के दर्शन के बाद गुरु का आशीर्वाद और सानिध्य और भी दुर्लभ है और सानिध्य के बाद गुरु का संकेत संसार में विरले को ही मिलता है |
और
जी जीव इन दुर्लभतम रत्नों को प्राप्त करके उनको यू ही खो देता है उससे दरिद्र की कोई उपमा नहीं है |
सड़क
में खड़े हुए दरिद्र को फिर भी कोई संपन्न बना सकता है लेकिन गुरु कि शरण पाकर खोने वाले जीव को पता नहीं कितने भव लगेंगे पुनः ये रत्न पाने में |
धन्यवाद
आपका सहयोग हमेशा प्रार्थनीय है
|
जिनवाणी स्तुति :
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोका लोक सो वाणी मस्तक नमू सदा देत हूँ धोक
हे जिनवानी भारती तोहे जपूं दिन रेन जो तेरी शरणा गहे सो पावे सुख चेन
| विनय का विशेष ध्यान देवें |
मंगलाचरण : कर्मों के अभाव से जिनको अपने शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति हो गई है, उन सिद्ध परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ
|
पिछली
बार प्रश्न था कि स्वर्ग का सुख कैसा होता है ? तो आचार्य उत्तर देते हैं कि
गाथा
5 :
स्वर्ग में रहने वाले देवों को दीर्घ काल तक इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला सुख देवों की तरह ही है अर्थात उसकी कोई उपमा नहीं है |
भावार्थ
:
स्वर्ग
में रहने वाले देवों का सुख कैसा होता है तो देवों को स्वर्ग में जो इन्द्रियजनित सुख मिलता है वो देवों के जैसा ही होता है उसकी कोई उपमा नहीं |
स्वर्ग का सुख दीर्घ काल तक होता है, सागरों कि आयु तक जीव पंचिन्द्रिय वे अच्छे अच्छे भोग भोगता रहता है |
जिस प्रकार थाली में एक लड्डू रखा होता है उसे व्यक्ति सारा भोजन ख़त्म करके फिर आराम से खाता है क्योंकि उसे खाने में उसे अत्यंत आनंद की अनुभूति होती है, जिसे दीर्घकाल उपलालित सुख कहते हैं | वैसा ही सुख स्वर्ग में लम्बे समय तक मिलता है |
जैसे सूर्य का तेज़ किसके जैसा है ? तो वह तेज़ सूर्य के ही जैसा है, किसी अन्य से उसकी तुलना नहीं की जा सकती |
उसी
प्रकार देवों को स्वर्ग में इतना सुख मिलता है जिसकी तुलना धरती में किसी के सुख से नहीं की जा सकती | उसकी उपमा देवों के सुख से ही दी जा सकती है |
परन्तु
ये बात हम हमेशा याद रखें की स्वर्ग का सुख इन्द्रियजन्य सुख है | और शाश्वत नहीं है उसका भी अंत आता है | अतः मोक्ष के सुख के सामने यह सागर में बूँद के जैसा भी नहीं |
उसके
बाद शिष्य प्रश्न करता है की क्या सुख इन्द्रिय जन्य ही होता है और क्या ये ही सच्चा सुख है ?
तो
आचार्य उत्तर में गाथा ६ कहते हैं जो हम कल पढेंगे |
एक
बार चर्चा के दौरान मुनि श्री १०८ अभिनन्दन सागर जी ने बताया था कि गुरु जी कहते हैं कि जो कुछ भी कभी सीखो तो उसको सबको बताओ | अपने ज्ञान को कभी मत छुपाओ | आपने एक चीज़ सीखी आप १० लोगों को सिखाओ वे १० लोग भी अगर १० - १० लोगों को सिखायेंगे तो १०० लोग सीख जायेंगे इंसा करते हुए १००० लोग और आगे सीखते ही जायेंगे |
अब
स्वयं सोचें कि जिस व्यक्ति ने प्रारंभ में ही सिखाया था अगर वो ही सभी को सिखाता तो लाख लोगों को शायद वो कभी न सिखा पाता या फिर बहुत लम्बा समय लग जाता | लेकिन सब आगे आगे एक दूसरे को सिखाते जायेंगे तो यही कार्य आसानी से हो जाता है |
आचार्य
गुरुवर स्वयं भी एन्सा ही करते हैं वे स्वयं धर्म प्रभावना करते हैं और उनके शिष्य मुनि और आर्यिकाएं देश में विभिन्न स्थानों पर धर्म प्रभावना करते हैं | जहां भी उनके शिष्य जाते हैं वहां लोग व्रती बनते जाते हैं और यह धर्म का वटवृक्ष बढता ही जाता है |
एक
बात और जो मुनि श्री १०८ अक्षय सागर जी से चर्चा के दोरान जानने को मिली |
संसार
में गुरु के दर्शन दुर्लभ हैं और गुरु के दर्शन के बाद गुरु का आशीर्वाद और सानिध्य और भी दुर्लभ है और सानिध्य के बाद गुरु का संकेत संसार में विरले को ही मिलता है |
और
जी जीव इन दुर्लभतम रत्नों को प्राप्त करके उनको यू ही खो देता है उससे दरिद्र की कोई उपमा नहीं है |
सड़क
में खड़े हुए दरिद्र को फिर भी कोई संपन्न बना सकता है लेकिन गुरु कि शरण पाकर खोने वाले जीव को पता नहीं कितने भव लगेंगे पुनः ये रत्न पाने में |
धन्यवाद
आपका सहयोग हमेशा प्रार्थनीय है
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जिनवाणी स्तुति :
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोका लोक सो वाणी मस्तक नमू सदा देत हूँ धोक
हे जिनवानी भारती तोहे जपूं दिन रेन जो तेरी शरणा गहे सो पावे सुख चेन
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