क्या आप जानते हैं
परम अहिंसक दिगंबर मुनिराज का संयम का उपकरण , प्रतिलेखन [पिच्ची] मयूर पिच्छी ही क्यों ? अन्य क्यों नहीं ?
सकल संयम के धारी नवकोटि {समरंभ, समारंभ, आरम्भ, मन-वचन-काय,कृत-कारित-अनुमोदना} से सकल पापों के त्यागी , करुणानिधान, ज्ञानध्यान तप में लीन आत्मध्यानी मुनिराज जब आत्मध्यान से बाहर आते हैं तो उन्हें भी २८ मूल गुण रूप शुभ भाव एवं शुभाचार होता है ! उसमे स्वाध्याय , सामायिक, आहार, विहार, निहार शयनादि रूप प्रव्रत्ति भी स्वभाविक रूप से होती ही है ! अतः यदि ये क्रियाएं विवेक और सावधानी पूर्वक संपन्न नहीं की जावेगी तो इनमे जीव हिंसा अवश्य ही होती है !संयम मुनिधर्म का प्राण है , अतः मुनिधर्म के पालन हेतु मुनिराज का अभिप्राय , परिणाम एवं प्रव्रत्ति इसी होती है कि वे एकेंद्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत सभी जीवों की द्रव्य व् भाव हिंसा में निमित्त भी नहीं बनते !
अतः जिन प्रव्रत्तियों में हिंसा संभव है उनसे स्वयं बचने के लिए आवश्यक है कि उनका संयम का उपकरण [पिच्छी ] ऐसी होनी चाहिए जिससे किसी भी प्रकार से किसी भी जीव कि हिंसा नहीं होवे !
मुनिधर्म के प्ररुपक श्री मूलाचार जी ग्रन्थ एवं आराधना आदि ग्रंथों में सर्वगुण सम्पन्न एवं सर्व दोष रहित पिच्छी के स्वरूप का वर्णन करते हुए आचार्यों ने लिखा है कि --"हे मुने तुम्हारे संयम की रक्छा करने वाला संयम का उपकरण प्रतिलेखन [पिच्छी ] है ! वह शोधनोपकरण पिच्छिका तुम्हारे पास प्रति समय रहना चाहिए " जिसमे निम्नलिखित पांच गुण पाए जाएँ वही प्रतिलेखन प्रशंसनीय माना जाता है ! १- रजो-अग्रहण , २- स्वेद [पसीना ] का अग्रहण , ३-मृदुता,
४- सुकुमारता /दर्शनीयता , ५- लघुता !
रजो-अग्रहण गुण :- मुनिराज के ज्ञान का उपकरण शास्त्र है उन्हें सुरक्छित रखने के लिए अलमारी , अछावर आदि साधन परिग्रह होने से मुनिराज उन्हें नहीं रखते अतः शास्त्र खुले स्थान में उच्च स्थान में रखे रहते हैं जिससे उनपर धूल आदि चढ़ जाती है और साथ ही सूक्छ्म जीव भी उसमे छिप जाते हैं या चिपक जाते हैं ! अतः स्वध्याय हेतु मुनिराज जब भी शास्त्र का उपयोग करते हैं तो नेत्रों से भली-भांति देखकर एवं पिच्छी से सावधानी से प्रमार्जन करते हैं !
जिस स्थान या बसतिका में निवास करते हैं तथा जिस काष्ठासन आदि पर बैठते हैं वे भी खुले स्थान में होते हैं , उन पर भी सूक्छ्म तथा स्थूल जीव चढ़ जाते हैं अतः उन पर बैठने, उठने , शयन करने में , हाथ पैर फ़ैलाने ,सुकोड़ने , करवट आदि बदलने के पहले उन स्थानों , आसनों एवं शारीर का पिच्छी से प्रमार्जन करते हैं !
विहार में गमनादि करते समय चार हाथ आगे की जमीन देखकर मध्यम गति से तो गमन करते ही हैं लेकिन जिस जमीन पर गमन करते हैं तो उस जमीन की मिटटी के कण मुनिराज के शारीर पर लग जाते हैं , साथ में एक तरह की मिटटी में जो सूक्छ्म जीव रहते हैं वे जीव दूसरी तरह की मिटटी में जीवित नहीं रह पाते हैं ! अतः जब मुनिराज विहार करते हुए एक तरह की मिटटी वाली जमीन से दूसरी तरह की मिटटी वाली जमीन में गमन के पूर्व वहीं खड़े होकर शारीर का पिच्छी से प्रमार्जन करते हैं ! इसी प्रकार छाया से धूप में तथा धूप से छाया वाले छेत्र में विहार के पूर्व ही खड़े होकर शारीर का प्रमार्जन करते हैं ! यदि एसा न करेंगे तो धूप के जंतु छाया के संसर्ग से तथा छाया के जंतु धूप के संसर्ग से मरण को प्राप्त हो जावेंगे और इस अविवेक का दोष मुनिराज को लगेगा तो ईर्या समिति निर्दोष नहीं पल पायेगी !
जिस प्रकार शास्त्र , आसन , बस्तिका की धूल का प्रमार्जन करते हैं वैसे ही शौच का उपकरण कमंडलु है उस पर भी धूल आदि चढ़ जाती है अतः उसे भी उपयोग करने के पूर्व उसका प्रमार्जन करते जिससे आदान निछछेपण समिति भली - भाति पल जाती है !
मुनिराज जिस स्थान पर मल-मूत्र-थूंक-खकार आदि छेपणकरते हैं वह स्थान प्रासुक,शुष्क एवं जीव जंतुओं से रहित होना चाहिए , फिर भी नेत्रों से भली -भांति देखने पर भी धूल आदि में सूछ्म जीवों की सम्भावना हो सकती है अतः उक्त कार्य करने के पूर्व उस स्थान का पिच्छी से प्रमार्जन करते हैं अतः प्रतिष्ठापन समिति निर्दोष पल जाती है
एषणा समिति के पालन के समय आहार हेतु श्रावक के घर में प्रवेश के पूर्व ही मुनिराज शारीर का प्रमार्जन करते हैं तथा जिस स्थान पर बैठते हैं तथा खड़े होकर आहार लेते हैं उस स्थान का भी प्रमार्जन करते हैं ! आहार के उपरांत शारीर का प्रमार्जन पिच्छी से करके वहां से गमन करते हैं !
उपरोक्त क्रिया के कल में धूल आदि का जिस पिच्छी से प्रमार्जन किया जा रहा है उसमे एसा गुण होना चाहिए कि वह धूल से मेली न हो ! यदि धूल से मेली हो गयी तो उसमे जीवों कि उत्पत्ति होने लगेगी और वह हिंसा का आयतन बन जाएगी ! एसा होने पर अहिंसा महाव्रत खंडित हो जाने से मुनि धर्म ही नष्ट हो जायेगा , लेकिन मयूर पिच्छी एसी होती है कि उससे कितनी भी धूल का प्रमार्जन किया जाये वह किंचित मात्र भी मैली नहीं होती अतः रजो अग्रहण गुण कीधारक मयूर पिच्छिका ही होती है !
स्वेद अग्रहण गुण :- विहार के काल में मुनिराज के शारीर से पसीना आना तथा उस पर धूल आदि लग जाना स्वाभाविक ही है , अतः मुनिराज जब धूप से छाय में और छाय से धूप में गमन करते हैं तो पिच्छी से शारीर का प्रमार्जन करते हैं , ताकि धूप तथा छाया के सूक्छ्म जीव जो शारीर पर लग गए वे अन्यत्त्र वातावरण में पहुंचकर मरण को प्राप्त न हों , अतः पसीना के प्रमार्जन से पिच्छी गीली न हो , एसा गुण पिच्छी में होना चाहिए , यदि पसीने से पिच्छी गीली हो जावे तो उसमे धूल आदि के संयोग होने पर त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जावेगी तब फिर वही पिच्छी हिंसा का आयतन बन जाने से अहिंसा महाव्रत के पालन के सर्वथा अयोग्य हो जावेगी ! तब फिर पुनः -पुनः नवीन पिच्छी की आवश्यकता पड़ेगी , और एसी व्यवस्था होना असंभव है , अतः महाव्रत खंडित होने से मुनि धर्म नष्ट हो जावेगा !
लेकिन मयूर पिच्छी में एसा गुण है कि पसीने से वह बिलकुल गीली नहीं होती तथा धूल आदि को भी ग्रहण नहीं करती ! अतः पुनः -पुनः धूल एवं पसीने का प्रमार्जन करने पर भी उसमे जीवों कि उत्पत्ति नहीं होती , अतः अहिंसा महाव्रत सहज ही पल जाता है ! अतः स्वेद -अग्रहण स्वभाव वाली होने से मयूर पिच्छी ही मुनि धर्म पालन में सहायक है !
यहाँ इतना विशेष है कि गमनादी के काल में आये पसीने का ही प्रमार्जन मुनिराज करते हैं , इसके अतिरिक्त अन्य काल या स्थान में आये पसीने का प्रमार्जन नहीं करते और न ही कपड़े या हाथ से कभी पसीना को पोंछते हैं !
मृदुता गुण :- एक -दो इन्द्रिय आदि जीवों का शारीर इतना सुकोमल होता है कि यदि किसी कठोर पिच्छी से प्रमार्जन किया जायेगा तो उनका मरण हो जाने से अहिंसा महाव्रत नष्ट हो जायेगा , अतः पिच्छी एसी होनी चाहिए कि सुकोमल तथा सूक्छ्म अवगाहना वाले जीवों को भी प्रमार्जन के काल में कोई कष्ट न हो और न ही उनकी द्रव्य या भाव प्राणों कि हिंसा हो !
मयूर पिच्छी इतनी कोमल होती है कि कि उसका अग्र भाग आँख में चले जाने पर भी आँख को कोई कष्ट नहीं होता , अतः मृदुता अर्थात कोमलता गुण कि धारी मयूर पिच्छी ही सर्व प्रकार के सर्व जीवों को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुँचाने में समर्थ होने से अहिंसा महाव्रत के पालन के लिए सर्वदा एवं सर्वत्र उपयुक्त है तथा उपादेय है !
प्रियदर्शनीयता गुण :-उपरोक्त गुणों के साथ पिच्छी में नेत्रों को मनोहर लगने वाला प्रियदर्शनीय गुण भी आवश्यक है ! क्योंकि जो श्रावक भक्त आदि उनके निकट आते हैं उन्हें यह संयम का उपकरण प्रिय लगे और भोले जीव भी उससे आकर्षित होकर मुनिराज के निकट आवे यह गुण मयूर पिच्छी स्वभावतः ही है !
लघुता गुण :- अधिकांशतः मुनिराज को अपनी प्रत्येक क्रिया के काल में पिच्छी कि आवश्यकता होती है अतः मुनि दीक्छा अंगीकार करते से ही पिच्छी को जीवन पर्यंत साथ रखना अनिवार्य ही है ! इसके लिए आवश्यक है कि पिच्छी इतनी हल्की होनी चाहिए कि उसे बाल ,वृद्ध , रोगी ,क्लांत ,समाधि साधक , त्रस से त्रस शारीर एवं बल वाले सभी मुनिराज आसानी से उसे उठाकर अपना प्रमार्जन कार्य कर सकें ! साथ ही यदि पिच्छी के नीचे कोई जीव दब जावे तो उसके वजन से उसको कोई कष्ट न होवे , इस द्रष्टि से भी देखा जाय तो मयूर पिच्छी ही इतनी हल्की होती है कि जिससे सूक्छ्म जंतु के शारीर को भी किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुंचती , तथा अत्यंत वृद्ध एवं अशक्त मुनिराज को भी उसे उठाने में कष्ट नहीं होता तथा उनके शारीर का प्रमार्जन करने पर भी उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता !
इस प्रकार प्रतिलेखन अर्थात पिच्छी के सम्पूर्ण गुण जैसे रजोअग्रहण , स्वेदअग्रहण, मृदुता [कोमलता ] , प्रियदर्शनीयता और लघुता गुण की धारी मात्र मयूर पिच्छी ही होती है , जिसके द्वारा जीव हिंसा किसी भी प्रकार नहीं होती अतः महाव्रतों के धारी मुनिराज के संयम धर्म के पालन में यही मयूर पिच्छी ही उचित है !
मयूर पंख से निर्मित पिच्छी के स्थान पर अन्य पशु के बाल से बनी पिच्ची का प्रयोग क्यों नहीं ?
यदि मयूर पिच्छी के स्थान पर भेड़ या नील गाय की पूंछ के बाल की या महीन धागे की पिच्छी से प्रमार्जन किया जायेगा तो उसमे रजोअग्रहण तथा स्वेदअग्रहरण के गुण का आभाव होने से धुल व पसीना लगने से मैली हो जाएगी जिससे उसमे त्रस जीवों की उत्पत्ति होने लगेगी तथा दुर्गन्ध आने लगेगी , यदि मैल , दुर्गन्ध और जीव हिंसा से बचने के लिए पिच्छी बार -बार बदलने की प्रक्रिया अपनाई जाये तो यह संभव नहीं है , यदि मैली पिच्छी को धोने की प्रक्रिया अपनाई जाये तो प्रश्न उठता है कि कौन धोये मुनिराज तो जीव हिंसा न हो , अतः शारीर पर लगे मैल को भी जल आदि से नहीं धोते तथा जीवन पर्यंत के लिए अस्नान कि प्रतिज्ञा लेते हैं तो वे पिच्छी को कैसे धोवेंगे ? यदि यह कहा जाय कि धोने का कार्य श्रावक क्र देंगे तो फिर मुनिराज को श्रावक से बार -बार याचना करनी पड़ेगी जिससे उनके अयाचक व्रत्ति का नाश हो जायेगा तथा श्रावक से धुलवाने कि भावना रखना तथा कहना आरम्भ हेतु क्रत-कारित-अनुमोदना रूप पाप बांध का कारण होने होने से मूल गुण का नाश होता है , अब यदि यह कहा जाये कि मुनिराज कुछ नहीं कहेंगे श्रावक ही धोकर दे देगे तो समस्या यह है कि जब श्रावक धोने ले जायेगा और सुखाकर लायेगा तब तक मुनिराज कि साड़ी प्रव्रत्तियां अवरुद्ध हो जावेंगी और बिना पिच्छी के प्रमार्जन किये ही प्रव्रत्तियां होगी तो संयम का घात होगा !
साथ ही ऊन ,बाल और धागे कि पिच्छी कि अपेक्छा बहुत कठोर होती है जिससे प्रमार्जन करने पर जीवों को कष्ट तो होगा ही साथ ही प्राण घात भी हो सकता है ! कोमलता का अभाव होने से बाल , वृद्ध ,रोगी तथा समाधि साधक के कृष शारीर पर प्रमार्जन करने पर उन्हें कष्ट होगा ! लघुता गुण का अभाव होने से उन्हें उठाने रखने में भी कष्ट होगा ! प्रियदर्शिता गुण के अभाव होने से नेत्रों को कष्ट का हेतु हो सकती है , नील गाय के बाल सरलता से नहीं मिलते तथा बहुत महंगे भी मिलते हैं जिसे चोर भी चुराकर ले जा सकता है अतः चोरी जाने के भय से निर्विघ्न स्वाध्याय तथा सामायिक नहीं हो सकेगी !
यदि कोई तर्क करे कि जिस प्रकार नील गाय के पूछ के बाल मुश्किल से मिलते हैं क्योंकि उसे अपने बाल बहुत प्रिय होते हैं और बालों कि प्राप्ति के लिए शिकारियों को नील गाय को फ़साना पड़ता है जिससे उसे बहुत कष्ट होता है एवं मयूर के पंख भी आसानी से नहीं मिलते और उसके पंख खींचने पर उसे भी कष्ट तो होता ही होगा !
उक्त तर्क का उत्तर यह है कि मयूर अपने पंखों को वर्ष में एक बार कार्तिक मास में अवश्य ही छोड़ता है अर्थात पुराने पंख स्वतः ही गिर जाते हैं और नए पंख स्वतः ही आ जाते हैं ऐसी प्राकृतिक व्यवस्था है , उन गिरे हुए पंखों से पिच्छी बनाई जाती है ! अतः मयूर को कोई भी पीड़ा नहीं होती अपितु पुराने पंख छोडकर वह निर्भार हो जाता है और आनंद का अनुभव करता है , प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह में यह प्रक्रिया प्राकृतिक रूप से सम्पन्न होने से स्वतः ही एसा नियोग बनता है कि चातुर्मास समाप्ति पर पिच्छी परिवर्तन के लिए मयूर पंख सहज ही प्राप्त हो जाते हैं इसकी प्राप्ति में हिंसा भी नहीं होती अतः पिच्छी ग्रहण करने में मुनिराज को हिंसा का दोष भी नहीं लगता !
इस पर भी कोई तर्क कर सकता है कि मयूर पिच्छी प्राप्ति में हिंसा न सही लेकिन पंख लाने वाले को तो कष्ट करना ही पड़ता है अतः यदि किसी भी प्रकार कि पिच्छी ही नहीं रखी जाये और नेत्रों से देख कर ही जीव हिंसा से बचा जाये और संयम धर्म की रक्छा हो जाये तो यह सर्वोत्तम है !उसका उत्तर यह है कि मुनिराज शटकाय के जीवों कि हिंसा के त्यागी होते हैं , नेत्र इन्द्रिय के द्वारा तो मात्र चलते फिरते स्थूल जीवों कि हिंसा से तो बच सकते हैं किन्तु सूक्छ्म अवगाहना वाले दो इन्द्रिय आदि जीव नेत्र इन्द्रिय से दिखाई नहीं देते अतः उनकी हिंसा से बचने के लिए मयूर पिच्छी का प्रतिलेखन ही अत्यंत आवश्यक है!
इस प्रकार आगम , युक्ति और तर्क से यह सिद्ध होता है कि उक्त सर्व दोषों से मुक्त और पांच गुणों से युक्त प्रतिलेखन मयूर पिच्छी के अलावा अन्य कोई नहीं है !isliye करुणानिधान , परम दया सिन्धु , संयम निष्ठ , निर्ग्रन्थ आचार्यों ने सर्व गुण सम्पन्न मयूर पिच्छी को ही सर्व श्रेष्ठ संयम का रक्छक प्रतिलेखन स्वीकार किया है !
-: मयूर पिच्छी से प्रमार्जन के निषिद्ध स्थान :-
मयूर पिच्छी से मुनिराज ऐसे स्थान या उपकरण का प्रमार्जन नहीं करते ----
१- जहाँ चलते फिरते त्रस जीव स्पष्ट दिखाई दे रहे हों ! २- त्रस जीव की मृत काय पड़ी हो ! 3- जो सचित्त हो !
४- जो जीवोत्पत्ति का हेतु योनि स्थान हो ऐसे उपकरण या स्थान में मुनिराज सामायिक , स्वाध्याय ,आहार ,विहार ,गमन ,शयन ,आसन तथा मल-मूत्र , खकारादी का विसर्जन नहीं करते ऐसे स्थान मुनिराज को सर्वथा निषिद्ध है , क्योंकि ऐसे स्थानों पर किया गया प्रमार्जन भी वहाँ के जीवों के द्रव्य एवं भाव हिंसा में कारण हैं जो मुनिराज के संयम का घातक है !
-:मयूर पिच्ची के उपयोग हेतु निषिद्ध कार्य :-
मयूर पिच्छी मुनिराज के मात्र संयम धर्म की रक्छा हेतु उपकरण है यदि संयम की रक्षा के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में प्रयुक्त की गयी तो वह परिग्रह बन जाएगी , जो मुनि धर्म के विपरीत है जैसे -- --
०१-शयन के काल में सिरहाने रखना , ०२-शयन स्थान के पथरीले , कंकड़ - पत्थर तथा काँटें हटाना , ०३-शरीर की खुजली खुजाना , ०४-गर्मी में पसीना पोंछना , ०५- गर्मी में पंखा के स्थान पर प्रयोग करना , ०६-शरीर पर चड़े जीव जंतु को हटाना , ०७- कोमल स्पर्श का लाभ लेना , ०८-शरीर को सहलाना , ०९- नेत्र विषय की तृप्ति हेतु उसकी सुन्दरता देखना , १०- मंत्र-तंत्र विद्या साधन हेतु प्रयोग करना , ११- झाड़ने फूंकने में प्रयोग करना , १२- आशीर्वाद देने हेतु प्रयोग करना , १३ - मयूर पंख को दवाई हेतु श्रावक को देना , १४- चेतन-अचेतन कृत उपसर्ग को हटाने के लिए शस्त्र के रूप में प्रयोग करना , १५- विहार काल में गमन में बाधक जीव-जंतु को हटाकर मार्ग निर्विघ्न करने के लिए प्रयोग करना , १६- पांच इन्द्रियों के किसी भी विषय का साधन बनाना तथा उत्पन्न कषाय की पूर्ति का साधन बनाना !
विवेक बिंदु :- मुनिराज की समस्त क्रियाएं विवेक एवं सावधानी पूर्वक होने से वे सकल हिंसा के त्यागी होते हैं , अतः जीवों की रक्षा तो स्वयं ही हो जाती है , वे जीवों की रक्षा के कर्ता अपने को नहीं मानते , अपितु प्रमाद और असावधानी रूप भाव हिंसा से अपनी आत्मा को सदा बचाते हैं , अर्थात वे तो मात्र अपने चैतन्य प्राण की ही रक्षा करते हैं !
मयूर पिच्छी से ही प्रमार्जन करना सिद्ध कर्ता है की जब मुनिराज एकेंद्रिय जीवों की हिंसा से स्वयं विरत हैं तो उन्हें पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा के भाव कहाँ से आ सकते हैं , अतः उनकी प्रशम, शांत मुद्रा को देखकर दुष्ट , पापी , अन्यायी जीव भी निर्भय होकर उनकी शरण में आ जाते हैं , कहा भी है ---
निशंक हैं जो वायु सम निर्लेप हैं आकाश से , निजात्म में ही विहरते जीवन न पर की आश से !
जिनके निकट सिंहादी पशु भी भूल जाते क्रूरता , उन दिव्य पुरुषों की अहो कैसी अलौकिक शूरता !!
साभार ........ संजीव नायक
परम अहिंसक दिगंबर मुनिराज का संयम का उपकरण , प्रतिलेखन [पिच्ची] मयूर पिच्छी ही क्यों ? अन्य क्यों नहीं ?
सकल संयम के धारी नवकोटि {समरंभ, समारंभ, आरम्भ, मन-वचन-काय,कृत-कारित-अनुमोदना} से सकल पापों के त्यागी , करुणानिधान, ज्ञानध्यान तप में लीन आत्मध्यानी मुनिराज जब आत्मध्यान से बाहर आते हैं तो उन्हें भी २८ मूल गुण रूप शुभ भाव एवं शुभाचार होता है ! उसमे स्वाध्याय , सामायिक, आहार, विहार, निहार शयनादि रूप प्रव्रत्ति भी स्वभाविक रूप से होती ही है ! अतः यदि ये क्रियाएं विवेक और सावधानी पूर्वक संपन्न नहीं की जावेगी तो इनमे जीव हिंसा अवश्य ही होती है !संयम मुनिधर्म का प्राण है , अतः मुनिधर्म के पालन हेतु मुनिराज का अभिप्राय , परिणाम एवं प्रव्रत्ति इसी होती है कि वे एकेंद्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत सभी जीवों की द्रव्य व् भाव हिंसा में निमित्त भी नहीं बनते !
अतः जिन प्रव्रत्तियों में हिंसा संभव है उनसे स्वयं बचने के लिए आवश्यक है कि उनका संयम का उपकरण [पिच्छी ] ऐसी होनी चाहिए जिससे किसी भी प्रकार से किसी भी जीव कि हिंसा नहीं होवे !
मुनिधर्म के प्ररुपक श्री मूलाचार जी ग्रन्थ एवं आराधना आदि ग्रंथों में सर्वगुण सम्पन्न एवं सर्व दोष रहित पिच्छी के स्वरूप का वर्णन करते हुए आचार्यों ने लिखा है कि --"हे मुने तुम्हारे संयम की रक्छा करने वाला संयम का उपकरण प्रतिलेखन [पिच्छी ] है ! वह शोधनोपकरण पिच्छिका तुम्हारे पास प्रति समय रहना चाहिए " जिसमे निम्नलिखित पांच गुण पाए जाएँ वही प्रतिलेखन प्रशंसनीय माना जाता है ! १- रजो-अग्रहण , २- स्वेद [पसीना ] का अग्रहण , ३-मृदुता,
४- सुकुमारता /दर्शनीयता , ५- लघुता !
रजो-अग्रहण गुण :- मुनिराज के ज्ञान का उपकरण शास्त्र है उन्हें सुरक्छित रखने के लिए अलमारी , अछावर आदि साधन परिग्रह होने से मुनिराज उन्हें नहीं रखते अतः शास्त्र खुले स्थान में उच्च स्थान में रखे रहते हैं जिससे उनपर धूल आदि चढ़ जाती है और साथ ही सूक्छ्म जीव भी उसमे छिप जाते हैं या चिपक जाते हैं ! अतः स्वध्याय हेतु मुनिराज जब भी शास्त्र का उपयोग करते हैं तो नेत्रों से भली-भांति देखकर एवं पिच्छी से सावधानी से प्रमार्जन करते हैं !
जिस स्थान या बसतिका में निवास करते हैं तथा जिस काष्ठासन आदि पर बैठते हैं वे भी खुले स्थान में होते हैं , उन पर भी सूक्छ्म तथा स्थूल जीव चढ़ जाते हैं अतः उन पर बैठने, उठने , शयन करने में , हाथ पैर फ़ैलाने ,सुकोड़ने , करवट आदि बदलने के पहले उन स्थानों , आसनों एवं शारीर का पिच्छी से प्रमार्जन करते हैं !
विहार में गमनादि करते समय चार हाथ आगे की जमीन देखकर मध्यम गति से तो गमन करते ही हैं लेकिन जिस जमीन पर गमन करते हैं तो उस जमीन की मिटटी के कण मुनिराज के शारीर पर लग जाते हैं , साथ में एक तरह की मिटटी में जो सूक्छ्म जीव रहते हैं वे जीव दूसरी तरह की मिटटी में जीवित नहीं रह पाते हैं ! अतः जब मुनिराज विहार करते हुए एक तरह की मिटटी वाली जमीन से दूसरी तरह की मिटटी वाली जमीन में गमन के पूर्व वहीं खड़े होकर शारीर का पिच्छी से प्रमार्जन करते हैं ! इसी प्रकार छाया से धूप में तथा धूप से छाया वाले छेत्र में विहार के पूर्व ही खड़े होकर शारीर का प्रमार्जन करते हैं ! यदि एसा न करेंगे तो धूप के जंतु छाया के संसर्ग से तथा छाया के जंतु धूप के संसर्ग से मरण को प्राप्त हो जावेंगे और इस अविवेक का दोष मुनिराज को लगेगा तो ईर्या समिति निर्दोष नहीं पल पायेगी !
जिस प्रकार शास्त्र , आसन , बस्तिका की धूल का प्रमार्जन करते हैं वैसे ही शौच का उपकरण कमंडलु है उस पर भी धूल आदि चढ़ जाती है अतः उसे भी उपयोग करने के पूर्व उसका प्रमार्जन करते जिससे आदान निछछेपण समिति भली - भाति पल जाती है !
मुनिराज जिस स्थान पर मल-मूत्र-थूंक-खकार आदि छेपणकरते हैं वह स्थान प्रासुक,शुष्क एवं जीव जंतुओं से रहित होना चाहिए , फिर भी नेत्रों से भली -भांति देखने पर भी धूल आदि में सूछ्म जीवों की सम्भावना हो सकती है अतः उक्त कार्य करने के पूर्व उस स्थान का पिच्छी से प्रमार्जन करते हैं अतः प्रतिष्ठापन समिति निर्दोष पल जाती है
एषणा समिति के पालन के समय आहार हेतु श्रावक के घर में प्रवेश के पूर्व ही मुनिराज शारीर का प्रमार्जन करते हैं तथा जिस स्थान पर बैठते हैं तथा खड़े होकर आहार लेते हैं उस स्थान का भी प्रमार्जन करते हैं ! आहार के उपरांत शारीर का प्रमार्जन पिच्छी से करके वहां से गमन करते हैं !
उपरोक्त क्रिया के कल में धूल आदि का जिस पिच्छी से प्रमार्जन किया जा रहा है उसमे एसा गुण होना चाहिए कि वह धूल से मेली न हो ! यदि धूल से मेली हो गयी तो उसमे जीवों कि उत्पत्ति होने लगेगी और वह हिंसा का आयतन बन जाएगी ! एसा होने पर अहिंसा महाव्रत खंडित हो जाने से मुनि धर्म ही नष्ट हो जायेगा , लेकिन मयूर पिच्छी एसी होती है कि उससे कितनी भी धूल का प्रमार्जन किया जाये वह किंचित मात्र भी मैली नहीं होती अतः रजो अग्रहण गुण कीधारक मयूर पिच्छिका ही होती है !
स्वेद अग्रहण गुण :- विहार के काल में मुनिराज के शारीर से पसीना आना तथा उस पर धूल आदि लग जाना स्वाभाविक ही है , अतः मुनिराज जब धूप से छाय में और छाय से धूप में गमन करते हैं तो पिच्छी से शारीर का प्रमार्जन करते हैं , ताकि धूप तथा छाया के सूक्छ्म जीव जो शारीर पर लग गए वे अन्यत्त्र वातावरण में पहुंचकर मरण को प्राप्त न हों , अतः पसीना के प्रमार्जन से पिच्छी गीली न हो , एसा गुण पिच्छी में होना चाहिए , यदि पसीने से पिच्छी गीली हो जावे तो उसमे धूल आदि के संयोग होने पर त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जावेगी तब फिर वही पिच्छी हिंसा का आयतन बन जाने से अहिंसा महाव्रत के पालन के सर्वथा अयोग्य हो जावेगी ! तब फिर पुनः -पुनः नवीन पिच्छी की आवश्यकता पड़ेगी , और एसी व्यवस्था होना असंभव है , अतः महाव्रत खंडित होने से मुनि धर्म नष्ट हो जावेगा !
लेकिन मयूर पिच्छी में एसा गुण है कि पसीने से वह बिलकुल गीली नहीं होती तथा धूल आदि को भी ग्रहण नहीं करती ! अतः पुनः -पुनः धूल एवं पसीने का प्रमार्जन करने पर भी उसमे जीवों कि उत्पत्ति नहीं होती , अतः अहिंसा महाव्रत सहज ही पल जाता है ! अतः स्वेद -अग्रहण स्वभाव वाली होने से मयूर पिच्छी ही मुनि धर्म पालन में सहायक है !
यहाँ इतना विशेष है कि गमनादी के काल में आये पसीने का ही प्रमार्जन मुनिराज करते हैं , इसके अतिरिक्त अन्य काल या स्थान में आये पसीने का प्रमार्जन नहीं करते और न ही कपड़े या हाथ से कभी पसीना को पोंछते हैं !
मृदुता गुण :- एक -दो इन्द्रिय आदि जीवों का शारीर इतना सुकोमल होता है कि यदि किसी कठोर पिच्छी से प्रमार्जन किया जायेगा तो उनका मरण हो जाने से अहिंसा महाव्रत नष्ट हो जायेगा , अतः पिच्छी एसी होनी चाहिए कि सुकोमल तथा सूक्छ्म अवगाहना वाले जीवों को भी प्रमार्जन के काल में कोई कष्ट न हो और न ही उनकी द्रव्य या भाव प्राणों कि हिंसा हो !
मयूर पिच्छी इतनी कोमल होती है कि कि उसका अग्र भाग आँख में चले जाने पर भी आँख को कोई कष्ट नहीं होता , अतः मृदुता अर्थात कोमलता गुण कि धारी मयूर पिच्छी ही सर्व प्रकार के सर्व जीवों को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुँचाने में समर्थ होने से अहिंसा महाव्रत के पालन के लिए सर्वदा एवं सर्वत्र उपयुक्त है तथा उपादेय है !
प्रियदर्शनीयता गुण :-उपरोक्त गुणों के साथ पिच्छी में नेत्रों को मनोहर लगने वाला प्रियदर्शनीय गुण भी आवश्यक है ! क्योंकि जो श्रावक भक्त आदि उनके निकट आते हैं उन्हें यह संयम का उपकरण प्रिय लगे और भोले जीव भी उससे आकर्षित होकर मुनिराज के निकट आवे यह गुण मयूर पिच्छी स्वभावतः ही है !
लघुता गुण :- अधिकांशतः मुनिराज को अपनी प्रत्येक क्रिया के काल में पिच्छी कि आवश्यकता होती है अतः मुनि दीक्छा अंगीकार करते से ही पिच्छी को जीवन पर्यंत साथ रखना अनिवार्य ही है ! इसके लिए आवश्यक है कि पिच्छी इतनी हल्की होनी चाहिए कि उसे बाल ,वृद्ध , रोगी ,क्लांत ,समाधि साधक , त्रस से त्रस शारीर एवं बल वाले सभी मुनिराज आसानी से उसे उठाकर अपना प्रमार्जन कार्य कर सकें ! साथ ही यदि पिच्छी के नीचे कोई जीव दब जावे तो उसके वजन से उसको कोई कष्ट न होवे , इस द्रष्टि से भी देखा जाय तो मयूर पिच्छी ही इतनी हल्की होती है कि जिससे सूक्छ्म जंतु के शारीर को भी किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुंचती , तथा अत्यंत वृद्ध एवं अशक्त मुनिराज को भी उसे उठाने में कष्ट नहीं होता तथा उनके शारीर का प्रमार्जन करने पर भी उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता !
इस प्रकार प्रतिलेखन अर्थात पिच्छी के सम्पूर्ण गुण जैसे रजोअग्रहण , स्वेदअग्रहण, मृदुता [कोमलता ] , प्रियदर्शनीयता और लघुता गुण की धारी मात्र मयूर पिच्छी ही होती है , जिसके द्वारा जीव हिंसा किसी भी प्रकार नहीं होती अतः महाव्रतों के धारी मुनिराज के संयम धर्म के पालन में यही मयूर पिच्छी ही उचित है !
मयूर पंख से निर्मित पिच्छी के स्थान पर अन्य पशु के बाल से बनी पिच्ची का प्रयोग क्यों नहीं ?
यदि मयूर पिच्छी के स्थान पर भेड़ या नील गाय की पूंछ के बाल की या महीन धागे की पिच्छी से प्रमार्जन किया जायेगा तो उसमे रजोअग्रहण तथा स्वेदअग्रहरण के गुण का आभाव होने से धुल व पसीना लगने से मैली हो जाएगी जिससे उसमे त्रस जीवों की उत्पत्ति होने लगेगी तथा दुर्गन्ध आने लगेगी , यदि मैल , दुर्गन्ध और जीव हिंसा से बचने के लिए पिच्छी बार -बार बदलने की प्रक्रिया अपनाई जाये तो यह संभव नहीं है , यदि मैली पिच्छी को धोने की प्रक्रिया अपनाई जाये तो प्रश्न उठता है कि कौन धोये मुनिराज तो जीव हिंसा न हो , अतः शारीर पर लगे मैल को भी जल आदि से नहीं धोते तथा जीवन पर्यंत के लिए अस्नान कि प्रतिज्ञा लेते हैं तो वे पिच्छी को कैसे धोवेंगे ? यदि यह कहा जाय कि धोने का कार्य श्रावक क्र देंगे तो फिर मुनिराज को श्रावक से बार -बार याचना करनी पड़ेगी जिससे उनके अयाचक व्रत्ति का नाश हो जायेगा तथा श्रावक से धुलवाने कि भावना रखना तथा कहना आरम्भ हेतु क्रत-कारित-अनुमोदना रूप पाप बांध का कारण होने होने से मूल गुण का नाश होता है , अब यदि यह कहा जाये कि मुनिराज कुछ नहीं कहेंगे श्रावक ही धोकर दे देगे तो समस्या यह है कि जब श्रावक धोने ले जायेगा और सुखाकर लायेगा तब तक मुनिराज कि साड़ी प्रव्रत्तियां अवरुद्ध हो जावेंगी और बिना पिच्छी के प्रमार्जन किये ही प्रव्रत्तियां होगी तो संयम का घात होगा !
साथ ही ऊन ,बाल और धागे कि पिच्छी कि अपेक्छा बहुत कठोर होती है जिससे प्रमार्जन करने पर जीवों को कष्ट तो होगा ही साथ ही प्राण घात भी हो सकता है ! कोमलता का अभाव होने से बाल , वृद्ध ,रोगी तथा समाधि साधक के कृष शारीर पर प्रमार्जन करने पर उन्हें कष्ट होगा ! लघुता गुण का अभाव होने से उन्हें उठाने रखने में भी कष्ट होगा ! प्रियदर्शिता गुण के अभाव होने से नेत्रों को कष्ट का हेतु हो सकती है , नील गाय के बाल सरलता से नहीं मिलते तथा बहुत महंगे भी मिलते हैं जिसे चोर भी चुराकर ले जा सकता है अतः चोरी जाने के भय से निर्विघ्न स्वाध्याय तथा सामायिक नहीं हो सकेगी !
यदि कोई तर्क करे कि जिस प्रकार नील गाय के पूछ के बाल मुश्किल से मिलते हैं क्योंकि उसे अपने बाल बहुत प्रिय होते हैं और बालों कि प्राप्ति के लिए शिकारियों को नील गाय को फ़साना पड़ता है जिससे उसे बहुत कष्ट होता है एवं मयूर के पंख भी आसानी से नहीं मिलते और उसके पंख खींचने पर उसे भी कष्ट तो होता ही होगा !
उक्त तर्क का उत्तर यह है कि मयूर अपने पंखों को वर्ष में एक बार कार्तिक मास में अवश्य ही छोड़ता है अर्थात पुराने पंख स्वतः ही गिर जाते हैं और नए पंख स्वतः ही आ जाते हैं ऐसी प्राकृतिक व्यवस्था है , उन गिरे हुए पंखों से पिच्छी बनाई जाती है ! अतः मयूर को कोई भी पीड़ा नहीं होती अपितु पुराने पंख छोडकर वह निर्भार हो जाता है और आनंद का अनुभव करता है , प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह में यह प्रक्रिया प्राकृतिक रूप से सम्पन्न होने से स्वतः ही एसा नियोग बनता है कि चातुर्मास समाप्ति पर पिच्छी परिवर्तन के लिए मयूर पंख सहज ही प्राप्त हो जाते हैं इसकी प्राप्ति में हिंसा भी नहीं होती अतः पिच्छी ग्रहण करने में मुनिराज को हिंसा का दोष भी नहीं लगता !
इस पर भी कोई तर्क कर सकता है कि मयूर पिच्छी प्राप्ति में हिंसा न सही लेकिन पंख लाने वाले को तो कष्ट करना ही पड़ता है अतः यदि किसी भी प्रकार कि पिच्छी ही नहीं रखी जाये और नेत्रों से देख कर ही जीव हिंसा से बचा जाये और संयम धर्म की रक्छा हो जाये तो यह सर्वोत्तम है !उसका उत्तर यह है कि मुनिराज शटकाय के जीवों कि हिंसा के त्यागी होते हैं , नेत्र इन्द्रिय के द्वारा तो मात्र चलते फिरते स्थूल जीवों कि हिंसा से तो बच सकते हैं किन्तु सूक्छ्म अवगाहना वाले दो इन्द्रिय आदि जीव नेत्र इन्द्रिय से दिखाई नहीं देते अतः उनकी हिंसा से बचने के लिए मयूर पिच्छी का प्रतिलेखन ही अत्यंत आवश्यक है!
इस प्रकार आगम , युक्ति और तर्क से यह सिद्ध होता है कि उक्त सर्व दोषों से मुक्त और पांच गुणों से युक्त प्रतिलेखन मयूर पिच्छी के अलावा अन्य कोई नहीं है !isliye करुणानिधान , परम दया सिन्धु , संयम निष्ठ , निर्ग्रन्थ आचार्यों ने सर्व गुण सम्पन्न मयूर पिच्छी को ही सर्व श्रेष्ठ संयम का रक्छक प्रतिलेखन स्वीकार किया है !
-: मयूर पिच्छी से प्रमार्जन के निषिद्ध स्थान :-
मयूर पिच्छी से मुनिराज ऐसे स्थान या उपकरण का प्रमार्जन नहीं करते ----
१- जहाँ चलते फिरते त्रस जीव स्पष्ट दिखाई दे रहे हों ! २- त्रस जीव की मृत काय पड़ी हो ! 3- जो सचित्त हो !
४- जो जीवोत्पत्ति का हेतु योनि स्थान हो ऐसे उपकरण या स्थान में मुनिराज सामायिक , स्वाध्याय ,आहार ,विहार ,गमन ,शयन ,आसन तथा मल-मूत्र , खकारादी का विसर्जन नहीं करते ऐसे स्थान मुनिराज को सर्वथा निषिद्ध है , क्योंकि ऐसे स्थानों पर किया गया प्रमार्जन भी वहाँ के जीवों के द्रव्य एवं भाव हिंसा में कारण हैं जो मुनिराज के संयम का घातक है !
-:मयूर पिच्ची के उपयोग हेतु निषिद्ध कार्य :-
मयूर पिच्छी मुनिराज के मात्र संयम धर्म की रक्छा हेतु उपकरण है यदि संयम की रक्षा के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में प्रयुक्त की गयी तो वह परिग्रह बन जाएगी , जो मुनि धर्म के विपरीत है जैसे -- --
०१-शयन के काल में सिरहाने रखना , ०२-शयन स्थान के पथरीले , कंकड़ - पत्थर तथा काँटें हटाना , ०३-शरीर की खुजली खुजाना , ०४-गर्मी में पसीना पोंछना , ०५- गर्मी में पंखा के स्थान पर प्रयोग करना , ०६-शरीर पर चड़े जीव जंतु को हटाना , ०७- कोमल स्पर्श का लाभ लेना , ०८-शरीर को सहलाना , ०९- नेत्र विषय की तृप्ति हेतु उसकी सुन्दरता देखना , १०- मंत्र-तंत्र विद्या साधन हेतु प्रयोग करना , ११- झाड़ने फूंकने में प्रयोग करना , १२- आशीर्वाद देने हेतु प्रयोग करना , १३ - मयूर पंख को दवाई हेतु श्रावक को देना , १४- चेतन-अचेतन कृत उपसर्ग को हटाने के लिए शस्त्र के रूप में प्रयोग करना , १५- विहार काल में गमन में बाधक जीव-जंतु को हटाकर मार्ग निर्विघ्न करने के लिए प्रयोग करना , १६- पांच इन्द्रियों के किसी भी विषय का साधन बनाना तथा उत्पन्न कषाय की पूर्ति का साधन बनाना !
विवेक बिंदु :- मुनिराज की समस्त क्रियाएं विवेक एवं सावधानी पूर्वक होने से वे सकल हिंसा के त्यागी होते हैं , अतः जीवों की रक्षा तो स्वयं ही हो जाती है , वे जीवों की रक्षा के कर्ता अपने को नहीं मानते , अपितु प्रमाद और असावधानी रूप भाव हिंसा से अपनी आत्मा को सदा बचाते हैं , अर्थात वे तो मात्र अपने चैतन्य प्राण की ही रक्षा करते हैं !
मयूर पिच्छी से ही प्रमार्जन करना सिद्ध कर्ता है की जब मुनिराज एकेंद्रिय जीवों की हिंसा से स्वयं विरत हैं तो उन्हें पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा के भाव कहाँ से आ सकते हैं , अतः उनकी प्रशम, शांत मुद्रा को देखकर दुष्ट , पापी , अन्यायी जीव भी निर्भय होकर उनकी शरण में आ जाते हैं , कहा भी है ---
निशंक हैं जो वायु सम निर्लेप हैं आकाश से , निजात्म में ही विहरते जीवन न पर की आश से !
जिनके निकट सिंहादी पशु भी भूल जाते क्रूरता , उन दिव्य पुरुषों की अहो कैसी अलौकिक शूरता !!
साभार ........ संजीव नायक
बहुत ही बढ़िया।
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