Manish Jain
सुख और दुख का संबंध मन में उठने वाले भावों और कल्पना से अधिक होता है। उसमें किसी पदार्थ और परिस्थिति की उतनी भूमिका नहीं होती। अगर सुख-दुख का पदार्थों से कोई लेना-देना होता तो एक ही पदार्थ से कभी सुख और कभी दुख का अनुभव नहीं होता। परिस्थितियों के संबंध में भी यही बात सत्य प्रतीत होती है। आखिर क्यों एक ही परिस्थिति किसी को सुखी और किसी को दुखी बनाती है?
एक किसान की दो पुत्रियों की शादी उसके गांव में ही हुई थी। एक की ससुराल में खेती-बाड़ी होती थी, दूसरी की ससुराल में मिट्टी के बर्तन बनाए जाते थे। एक दिन किसान ने दोनों से मिलने का विचार किया। वह पहले खेतवाली लड़की के घर पहुंचा। उसने उससे कुशलक्षेम पूछा। पुत्री ने कहा- 'पिताजी! इन दिनों एक चिंता सता रही है। खेत में अधपकी हुई फसल खड़ी है, वर्षा की आवश्यकता है। कई दिनों से आकाश में बादल मंडरा रहे हैं पर वर्षा नहीं हो रही। मैं रात-दिन आजकल वर्षा की ही माला फेरती हूं।'
इसके बाद किसान दूसरी लड़की की ससुराल पहुंचा और उसकी स्थिति की भी जानकारी ली। उस लड़की ने कहा- 'इन दिनों हमने मिट्टी के हजारों बर्तन बनाएं हैं, उन्हें धूप में सुखाने की जरूरत है। आजकल रोजाना बादल छाए रहते हैं। यदि दस-पांच दिनों में बर्तनों को तेज धूप नहीं मिली तो हमारी मेहनत बेकार चली जाएगी।'
दोनों पुत्रियों की समस्या सुनकर पिता हंसने लगा। उसने दोनों बेटियों को घर बुलाकर कहा- 'परिस्थिति पर ही निर्भर मत रहो, अपने मन को उदार बनाकर समाधान खोजो।' उसने कहा- यदि वर्षा हो जाए तो खेती में जितनी कमाई हो उसका आधा-आधा तुम दोनों ले लेना। यदि वर्षा नहीं हो तो बर्तनों से जितना धन प्राप्त हो उसका भी बराबर बंटवारा कर लेना। पिता के मार्गदर्शन से दोनों की समस्या का समाधान हो गया।
यह स्पष्ट है कि सुख-दुख कहीं बाहर से नहीं आते और हमारे मन की अवस्था से उनका निर्धारण होता है, इसलिए हमें मनोभावों के सुधार और बदलाव पर विशेष ध्यान देना चाहिए। खास तौर से हमारे दुख और निराशा का कोई समाधान केवल बाहरी साधनों से होना संभव नहीं है। वैसे तो आज सुविधाओं का बहुत विस्तार हो रहा है। फिर भी व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तनाव, टकराव और बिखराव बढ़ रहे हैं। इसका मुख्य कारण मानसिक शांति और संतुलन का अभाव है।
जीवन में ऐसे अनेक लोगों से संपर्क होता रहा है जिन्होंने बौद्धिक और आर्थिक क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अपने पूर्वजों की अपेक्षा उन्होंने बहुत उन्नति की है, पर उनका मिजाज जल्दी बिगड़ जाता है। इससे वे स्वयं भी अशांत रहते हैं और उनका पारिवारिक जीवन भी अशांत और अव्यवस्थित रहता है। असल में मनुष्य अपने मन की भावनाओं और कल्पनाओं से ही सम्राट और भिखारी होता है। जिसका मन प्रसन्न और स्वस्थ है, वह अकिंचन होकर भी सम्राट है। जो अशांति और व्याकुलता के दवानल में जलता रहता है, वह संपन्न और समृद्ध होकर भी भिखारी के समान है।
मानसिक स्वास्थ्य के अभाव में थोड़ी-सी प्रतिकूलता भी व्यक्ति को भीतर से तोड़ देती है। उस स्थिति में जीना भी मुश्किल लगने लगता है। ऐसे लोगों पर 'मन के जीते जीत है, मन के हारे हार'- यह कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है। जब विचारों में श्रद्धा और उत्साह का भाव प्रबल होता है, तब कठिन से कठिन काम करने में कोई मुश्किल प्रतीत नहीं होती। किंतु जब मन में किसी तरह का उत्साह नहीं होता, तो छोटा-सा काम भी दुष्कर प्रतीत होने लगता है।
एक किसान की दो पुत्रियों की शादी उसके गांव में ही हुई थी। एक की ससुराल में खेती-बाड़ी होती थी, दूसरी की ससुराल में मिट्टी के बर्तन बनाए जाते थे। एक दिन किसान ने दोनों से मिलने का विचार किया। वह पहले खेतवाली लड़की के घर पहुंचा। उसने उससे कुशलक्षेम पूछा। पुत्री ने कहा- 'पिताजी! इन दिनों एक चिंता सता रही है। खेत में अधपकी हुई फसल खड़ी है, वर्षा की आवश्यकता है। कई दिनों से आकाश में बादल मंडरा रहे हैं पर वर्षा नहीं हो रही। मैं रात-दिन आजकल वर्षा की ही माला फेरती हूं।'
इसके बाद किसान दूसरी लड़की की ससुराल पहुंचा और उसकी स्थिति की भी जानकारी ली। उस लड़की ने कहा- 'इन दिनों हमने मिट्टी के हजारों बर्तन बनाएं हैं, उन्हें धूप में सुखाने की जरूरत है। आजकल रोजाना बादल छाए रहते हैं। यदि दस-पांच दिनों में बर्तनों को तेज धूप नहीं मिली तो हमारी मेहनत बेकार चली जाएगी।'
दोनों पुत्रियों की समस्या सुनकर पिता हंसने लगा। उसने दोनों बेटियों को घर बुलाकर कहा- 'परिस्थिति पर ही निर्भर मत रहो, अपने मन को उदार बनाकर समाधान खोजो।' उसने कहा- यदि वर्षा हो जाए तो खेती में जितनी कमाई हो उसका आधा-आधा तुम दोनों ले लेना। यदि वर्षा नहीं हो तो बर्तनों से जितना धन प्राप्त हो उसका भी बराबर बंटवारा कर लेना। पिता के मार्गदर्शन से दोनों की समस्या का समाधान हो गया।
यह स्पष्ट है कि सुख-दुख कहीं बाहर से नहीं आते और हमारे मन की अवस्था से उनका निर्धारण होता है, इसलिए हमें मनोभावों के सुधार और बदलाव पर विशेष ध्यान देना चाहिए। खास तौर से हमारे दुख और निराशा का कोई समाधान केवल बाहरी साधनों से होना संभव नहीं है। वैसे तो आज सुविधाओं का बहुत विस्तार हो रहा है। फिर भी व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तनाव, टकराव और बिखराव बढ़ रहे हैं। इसका मुख्य कारण मानसिक शांति और संतुलन का अभाव है।
जीवन में ऐसे अनेक लोगों से संपर्क होता रहा है जिन्होंने बौद्धिक और आर्थिक क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अपने पूर्वजों की अपेक्षा उन्होंने बहुत उन्नति की है, पर उनका मिजाज जल्दी बिगड़ जाता है। इससे वे स्वयं भी अशांत रहते हैं और उनका पारिवारिक जीवन भी अशांत और अव्यवस्थित रहता है। असल में मनुष्य अपने मन की भावनाओं और कल्पनाओं से ही सम्राट और भिखारी होता है। जिसका मन प्रसन्न और स्वस्थ है, वह अकिंचन होकर भी सम्राट है। जो अशांति और व्याकुलता के दवानल में जलता रहता है, वह संपन्न और समृद्ध होकर भी भिखारी के समान है।
मानसिक स्वास्थ्य के अभाव में थोड़ी-सी प्रतिकूलता भी व्यक्ति को भीतर से तोड़ देती है। उस स्थिति में जीना भी मुश्किल लगने लगता है। ऐसे लोगों पर 'मन के जीते जीत है, मन के हारे हार'- यह कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है। जब विचारों में श्रद्धा और उत्साह का भाव प्रबल होता है, तब कठिन से कठिन काम करने में कोई मुश्किल प्रतीत नहीं होती। किंतु जब मन में किसी तरह का उत्साह नहीं होता, तो छोटा-सा काम भी दुष्कर प्रतीत होने लगता है।
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