भगवान महावीर के निर्वाण से 683 वर्ष व्यतीत होने पर आचार्य धरसेन हुए| सभी अंगों ओर पूर्वों का एक देश का ज्ञान आचार्य परम्परा से धरसेनाचार्य को प्राप्त था|
आचार्य धरसेन कठियावाड में स्थित गिरनार पर्वत की चान्द्र गुफा में रहते थे| जब वह बहुत वृद्ध हो गए ओर अपना जीवन अत्यल्प अवशिष्ट देखा, तब उन्हें यह चिन्ता हुई कि अवसर्पिणी काल के प्रभाव से श्रुतज्ञान का दिन पर दिन ह्रास होता जा रहा है| इस समय मुझे जो कुछ श्रुत प्राप्त है, उतना भी यदि मैं अपना श्रुत दुसरे को नहीं संभलवा सका, तो यह भी मेरे ही साथ समाप्त हो जाएगा| इस प्रकार की चिन्ता से ओर श्रुत-रक्षण के वात्सल्य से प्रेरित होकर उन्होंने उस समय दक्षिणापथ में हो रहे साधु सम्मेलन के पास एक पत्र भेज कर अपना अभिप्राय व्यक्त किया| सम्मेलन में सभागत प्रधान आचार्यं ने आचार्य धरसेन के पत्र को बहुत गम्भीरता से पढ़ा ओर श्रुत के ग्रहण और धारण में समर्थ, नाना प्रकार की उज्जवल, निर्मल विनय से विभूषित, शील-रूप माला के धारक, देश, कुल और जाती से शुद्ध, सकल कलाओं में पारंगत ऐसे दो साधुओं को धरसेनाचार्य के पास भेजा|
जिस दिन वह दोनों साधु गिरिनगर पहुँचने वाले थे, उसकी पूर्व रात्री में आचार्य धरसेन ने स्वप्न में देखा कि धवल एवं विनम्र दो बैल आकर उनके चरणों में प्रणाम कर रहे है| स्वप्न देखने के साथ ही आचार्य श्री की निद्रा भंग हो गई और ‘श्रुत-देवता जयवंत रहे’ ऐसा कहते हुए उठ कर बैठ गए| उसी दिन दक्षिणापथ से भेजे गए वह दोनों साधु आचार्य धरसेन के पास पहुंचे और अति हर्षित हो उनकी चरण वन्दनादिक कृति कर्म करके और दो दिन विश्राम करके तीसरे दिन उन्होंने आचार्य श्री से अपने आने का प्रयोजन कहा| आचार्य श्री भी उनके वचन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और ‘तुम्हारा कल्याण हो’ ऐसा आशीर्वाद दिया|
नवागत साधुओं की परीक्षा
आचार्य श्री के मन में विचार आया कि पहले इन दोनों नवागत साधुओं की परीक्षा करनी चाहिए कि यह श्रुत ग्रहण और धारण आदि के योग्य भी है अथवा नहीं? क्योंकि स्वच्छंद विहारी व्यक्तियों को विद्या पढाना संसार और भय का ही बढ़ाने वाला होता है| ऐसा विचार करके उन्होंने इन नवागत साधुओं की परीक्षा लेने का विचार किया| तदनुसार धरसेनाचार्य ने उन दोनों साधुओं को दो मंत्र-विद्याएँ साधन करने के लिए दीं| उनमें से एक मंत्र-विद्या हीन अक्षर वाली थी और दूसरी अधिक अक्षर वाली| दोनों को एक एक मंत्र विद्या देकर कहा कि इन्हें तुम लोग दो दिन के उपवास से सिद्ध करो| दोनों साधु गुरु से मंत्र-विद्या लेकर भगवान नेमिनाथ के निर्वाण होने की शिला पर बैठकर मंत्र की साधना करने लगे|
मंत्र साधना करते हुए जब उनको यह विद्याएँ सिद्ध हुई, तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देवताओं को देखा कि एक देवी के दांत बहार निकले हुए हैं और दूसरी कानी है| देवियों के ऐसे विकृत अंगों को देखकर उन दोनों साधुओं ने विचार किया कि देवताओं के तो विकृत अंग होते ही नहीं हैं, अतः अवश्य ही मंत्र में कहीं कुछ अशुद्धि है| इस प्रकार उन दोनों साधुओं ने विचार कर मंत्र सम्बन्धी व्याकरण में कुशल अपने अपने मंत्रों को शुद्ध किया और जिसके मंत्र में अधिक अक्षर था, उसे निकाल कर, तथा जिसके मंत्र में अक्षर कम था, उसे मिलाकर उन्होंने पुनः अपने-अपने मंत्रों को सिद्ध करना प्रारंभ किया| तब दोनों विद्या-देवता अपने स्वाभाविक सुन्दर रूप में प्रकट हुए और बोलीं - ‘स्वामिन आज्ञा दीजिये, हम क्या करें|’ तब उन दोनों साधुओं ने कहा - ‘आप लोगो से हमें कोई ऐहिक या पारलौकिक प्रयोजन नहीं है| हमने तो गुरु की आज्ञा से यह मंत्र-साधना की है|’ यह सुनकर वे देवियाँ अपने स्थान को चली गईं|
भूतबली-पुष्पदन्त नामकरण
मंत्र-साधना की सफलता से प्रसन्न होकर वे आचार्य धरसेन के पास पहुंचे और उनके पाद-वंदना करके विद्या-सिद्धि सम्बन्धी समस्त वृतांत निवेदन किया| आचार्य धरसेन अपने अभिप्राय की सिद्धि और समागत साधुओं की योग्यता को देखकर बहुत प्रसन्न हुए और ‘बहुत अच्छा’ कहकर उन्होंने शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रन्थ का पढाना प्रारंभ किया| इस प्रकार क्रम से व्याख्यान करते हुए आचार्य धरसेन ने आषाढ़ शुक्ला एकादशी को पूर्वान्ह काल में ग्रन्थ समाप्त किया| विनय-पूर्वक इन दोनों साधुओं ने गुरु से ग्रन्थ का अध्ययन संपन्न किया है, यह जानकर भूत जाती के व्यन्तर देवों ने इन दोनों साधुओं में से एक की पुष्पावली से शंख, तूर्य आदि वादित्रों को बजाते हुए पूजा की| उसे देखकर आचार्य धरसेन ने उसका नाम ‘भूतबली’ रखा|
तथा दूसरे साधु की अस्त-व्यस्त स्थित दन्त पंक्ति को उखाड़कर समीकृत करके उनकी भी भूतों ने बड़े समारोह से पूजा की| यह देखकर धरसेनाचार्य ने उनका नाम ‘पुष्पदन्त’ रखा| अपनी मृत्यु को अति सन्निकट जानकर, इन्हें मेरे वियोग से संक्लेश न हो यह सोचकर और वर्षा काल समीप देखकर धरसेनाचार्य ने उन्हें उसी दिन अपने स्थान को वापिस जाने का आदेश दिया|
यद्यपि वह दोनों ही साधु गुरु के चरणों के सान्निध्य में कुछ अधिक समय तक रहना चाहते थे, तथापि ‘गुरु वचनों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए’ ऐसा विचार कर वे उसी दिन वहां से चल दिए और अंकलेश्वर (गुजरात) में आकर उन्होंने वर्षाकाल बिताया| वर्षाकाल व्यतीत कर पुष्पदन्त आचार्य तो अपने भान्जे जिनपालित के साथ वनवास देश को चल दिए और भूतबली भट्टारक भी द्रमिल देश को चले गए|
महापर्व का उदय
तदनंतर पुष्पदन्त आचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर, गुणस्थानादि बीस-प्ररूपणा-गर्भित सत्प्ररूपंणा के सूत्रों की रचना की और जिनपालित को पढाकर उन्हें भूतबली आचार्य के पास भेजा| उन्होंने जिनपालित के पास बीस-प्ररूपणा-गर्भित सत्प्ररूपंणा के सूत्र देखे और उन्ही से यह जानकर की पुष्पदन्त आचार्य अल्पायु हैं, अतएव महाकर्म प्रकृति प्राभृत का विच्छेद न हो जाए, यह विचार कर भूतबली ने द्रव्य प्रमाणनुगम को आदि लेकर आगे के ग्रंथों की रचना की|
जब ग्रन्थ रचना पुस्तकारुड़ हो चुकी तब जयेष्ट शुक्ला पंचमी के दिन भूतबली आचार्य ने चतुर्विध संघ के साथ बड़े समारोह से उस ग्रन्थ की पूजा की| तभी से यह तिथि श्रुत पंचमी के नाम से प्रसिद्ध हुई| और इस दिन आज तक जैन लोग बराबर श्रुत-पूजन करते हुए चले आ रहे है| इसके पश्चात् भूतबली ने अपने द्वारा रचे हुए इस पुस्तकारुड़ षट्खण्डरूप आगम को जिनपालित के हाथ आचार्य पुष्पदन्त के पास भेजा| वे इस षट्खंडागम को देखकर और अपने द्वारा प्रारंभ किये कार्य को भली भाँती संपन्न हुआ जानकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने भी इस सिद्धांत ग्रन्थ की चतुर्विध संघ के साथ पूजा की|
संकलन – ऐलाचार्य श्री 108 अतिवीर जी महाराज
(फेसबुक के एलाचार्य अतिवीर जी महाराज के ग्रुप में से समीर जैन जी के द्वारा बनायीं हुई रिपोर्ट से कॉपी किया है।)
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