Thursday, May 24, 2012

MUNI NINDA IS VERY BAD HABIT

हमारे अन्दर एक बहुत बुरी आदत है की हमें अपने अन्दर बैठी बुराइयाँ तोह दिखाई देती नहीं हैं...लेकिन अगर हमें किसी त्यागी-तपस्वियों के अन्दर,या साधी संतों के अन्दर कमी निकालने के लिए बोल दिया जाए तोह हजारों गलती ढूंढ  लेंगे...एक व्यक्ति पूछ रहा की महाराज जी के निवास के लिए जो कमरे बनते हैं उसमें भी तोह जीवों की हिंसा होती है...उसमें एक निमित्त महाराज जी भी तोह होते हैं...यानी की उनको भी पाप लगेगा. और महाराज जी चलते हैं बोलते हैं तोह भी ,पृथ्वी कायिक,निगोदिया जीव मरते हैं,तोह भी पाप लगेगा...,अरे महाराज से भी तोह हिंसा होती है,..हमारे अन्दर ऐसे जबरदस्ती कमी निकालने की आदत है...........जरा हम अपने चरित्र को मुनिराज के चरित्र से मिलाएं तोह जमीन आसमान का अंतर भी कम लगेगा नोर्थ पोल और साउथ पोल के बीच में अंतर कम लगेगा.......कहाँ मुनिराज और कहाँ हम अष्ट-मूल गुण को भी नहीं धारण करने वाला नाम के कहे जाने वाले जैनी...जो आज यहाँ सर झुका रहे हैं,कल और कहीं...................हमें अपनी बुराइयाँ दिखाई नहीं देंगी.......वैसे देखा जाए तोह मुनिराज को इसका दोष तोह लगता ही होगा...........लेकिन हम यह भी तोह देखें की अगर पुण्य के समुद्र में दो तीन बाल्टी  पाप की गिर जाएँ.........तोह क्या समुद्र पे कोई फर्क पड़ेगा.........मुनिराज अहिंसा-महाव्रत के धारी होते हैं...किसके अहिंसा महाव्रत के...अहिंसा अनुव्रत के नहीं,महाव्रत के...यानी की ६ काय के जीवों की हिंसा के त्यागी!!!!!.........कहाँ हम अनु-व्रती  तोह बहुत दूर की बात अष्ट-मूल   गुण के भी धारी  नहीं हैं...और हो सकता है अगर पूछे जाएँ तोह शायद बता भी नहीं पाएं मुनिराज जमीन पर देखकर चलते हैं जिससे चींटी-अदिक जीवों की हिंसा न हो जाए... उनके ब्रहमचर्य महाव्रत होता है,उनके अपरिग्रह महाव्रत होता है,सत्य महाव्रत होता है,अचौर्य महाव्रत हो जाए..दिन में ४ बार सामयिक करते हैं,प्रतिक्रमण,प्रत्याख्यान करते हैं...भगवन की भक्ति,स्तुति,वंदना करते हैं...दिन में १०-२० माला तोह नमोकार मंत्र की ऐसे ही दे-देते होंगे......................इतना पुण्य का समुन्द्र...और सुनों सोलह-कारण भाते हैं,बारह-भावना भाते हैं...बोलते भी तोह हित-मिट प्रिय हैं..किसी का दिल नहीं दुखे,और इतना ही नहीं दिन में एक बार भोजन करते हैं...उसमें भी उनके १० तरीके के त्याग होते हैं,विधि लेकर आना,नवधा भक्ति-पूर्वक ही आना-...उसमें भी कभी कभी उनोदर करते हैं..............और इतना ही नहीं कभी-कभी अनशन भी करते हैं...और सुनो २२ परिशः भी सहते हैं...अरे इतना ही नहीं कभी-कभी व्रत भी रखते हैं,बहुत से मुनिराज चटाई पर भी नहीं सोते.....अरे इतने त्यागी तपस्वी षष्टम-सप्तम-गुण-स्थान  वर्ती मुनिराज.....जो प्रति समय कितनी निर्जरा कर ते होंगे कर्मों की...............और कर्मों की निर्जरा नहीं तोह पुण्यार्जन कितना करते होंगे...अगर हम अपने पाप से अगर मिलाकर देखें तोह शायद हमें रोना आ jaye.......अरे उनके निमित्त से अगर थोड़े-बहुत ..प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से...अगर थोड़े बहुत ..पाप हो भी जाएँ तोह हम उनके इन थोड़े बहुत पाप को ही गिनेंगे य पुण्य और कर्म निर्जरा रुपी समुंद्र को..यानी की समुन्द्र में दो-दिन बाल्टी विष रूप दाल-दी जाएँ..तोह भी वह समुन्द्र का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएंगी......ऐसे ही मुनिराज जो महा तपस्वी हैं..........उनके द्वारा किये हुए पाप भी पुण्य रूप हो जाते हैं..............लेकिन यह हमारी कितनी गलत सोच है की....हम साधुओं में कमी निकालते हैं...........कोई किसी ढोंगी साधू में कमी निकाले तोह बनता है...लेकिन हम साधुओ की निंदा करते बाज नहीं आते..............अब जरा हम देखें हम कितने पाप करते है...एक आदमी को यहाँ रखकर देखा जाए तोह......न ही उसके पास अष्ट-मूल गुण हैं............भले ही वह मांस नहीं खाता है...लेकिन नियम नहीं है...तोह कितना पाप लगता होगा.....रात्री भोजन का त्याग नहीं--महा पाप...शायद रोज मंदिर भी नहीं जाता--और पाप.....व्यापार हिंसा का है...और बड़ा पाप...जमीन पर देखकर नहीं चलता...और बड़ा पाप...टीवी-देखेगा..उलटे-सीधे नाटक-और बड़ा पाप....खाने में कंदमूल अदि का त्याग नहीं है...और पाप...विचारों में धार्मिकता नहीं और बड़ा पाप......दिन में १०० रूपये भी किसी को दान में नहीं दिए.......और बड़ा पाप...मुनिराज आये दर्शन करने नहीं गया...पाप लगा.......और दस-बार गाली दी-बहुत पाप...कुदेव-कुशास्त्र-कुगुरू को पूजा-बहुत बड़ा पाप....उसमें भी पूरे महीने में कोई उपवास भी नहीं करता,न ही कोई सामयिक,न प्रतिक्रमण,न प्रत्याख्यान....और न ही कोई आजीवन का नियम है................अब जरा आम आदमी का पुण्य देखें............रोज सुबह मंदिर में आधा घंटे-दो घंटे बैठ आया,शाम को चला गया तोह एक माला-जप ली..........अष्टमी चौदस को कंदमूल,हरी,रात्री भोज अदि नहीं खाया,महीने में एक दिन मुनिराज को आहार करा दिया....पूरे दिन में मुश्किल से ५०-रूपये दान में गए.................अब हम जरा अपना पुण्य देखें और एक त्यागी-व्रती का पुण्य देखें तोह कितना अंतर है...............बहुत सारा और पाप हम अपने देखें और त्यागी व्रती के द्वारा अनजाने में हुए पाप देखें तोह.........देखें तोह अंतर बहुत सारा....इतना सब कुछ होने के बाद भी हमारे अन्दर इतनी बुरी आदत है.............की हम बेमतलब की साधू-संतों के आचरण में,नियम में कमियां,ढूंढते  हैं.और अगर इतना सब कुछ नहीं भी बताएं,तब भी हम तोह बहुत दूर की बात,एक त्यागी-व्रती श्रावक भी मुनिराज से अपनी तुलना नहीं कर सकता..अरे वह अपने २८ मूलगुण  पालते  हैं...सही में हमें इतना जानने के बाद कम-से कम इन सब चीजों का तोह त्याग करना ही चाहिए.

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