Tuesday, May 10, 2011

6 dhala-pehli dhaal-sorrows of dev gati

६ ढाला

पहली ढाल

देव गति/सुर गति के दुःख

कभी अकाम निर्जरा करै,भवनात्रिक में सुर तन धरै
विषय चाह दावानल दह्यो,मरत विलाप कर अति दुःख सहयो.

जो विमानवासी हूँ थाय ,सम्यकदर्शन बिन दुःख पाय,
तहते चय थावर तन धरै,यों परिवर्तन पूरा करै.

भावार्थ
1.अकाम -समता भाव से दुखों को सेः
२. निर्जरा-कर्मों का एक देश झर जाना.
३.भवनात्रिक-व्यंतर,ज्योतिषी और भवन वासी देव.
४.धरै-धारण किया
५.दावानल-भयंकर अग्नि
६.विषय-चाह-पांचो इन्द्रियों की विषय की चाहत
७.विलाप-दुखी होकर
८.सहयो-सेहन किया
९.विमान वासी - जो देव विमानों में निवास करते हैं
१०.हूँ-भी
११.थाय-हुआ
१२.सम्यक दर्शन-आत्मा के सच्चे श्रद्धान
१३.तहते-उस सुर गति से
१४.चय-आयु पूरी करके
१५.थावर-स्थावर योनियाँ.
१६.परिवर्तन-पांच(द्रव्य,क्षेत्र,भाव,काल और भाव) के परिवर्तन


भावार्थ

यह जीव कभी मनुष्य गति में समता भाव से दुखों को सहते हुए अकाम निर्जरा करता है...तोह देव योनियों को प्राप्त करता है,भवन वासी,व्यंतर और ज्योतिषी देवों की योनियों में पुरे जवान शरीर के साथ(देव हम मनुष्यों की तरह बाल रूप में जन नहीं लेते,सीधा जवान होते हैं,और बूढ़े भी नहीं होते हैं)..वहां पहुंचा,वहां उसकी प्रजाति के अन्य देवों ने उसका स्वागत किया और जिनालय जाने को कहा,लेकिन अज्ञान के कारण यह देव योनी का जीव सुन्दर देवियों को देखकर मोहित हो गया और जिनालय बड़ा दुखी हो कर गया..विषय कषायों में ही पड़ा रहा..व्यंतर अदि देवों ने ही तोह सबसे ज्यादा अंध विश्वास फैला रखा है,,यह चमत्कार कर देते हैं..और विविध प्रकार से अज्ञानी मनुष्यों को पोषण करवाते हैं,आज कल जितने भी भूत-प्रेतात्माएं लोगों के सर पे आती हैं...यह सब व्यंतर देव ही हैं...भवन वासी देव भी कभी कभी भरत क्षेत्र में आते हैं,,तोह इस प्रकार जब इन देवों की आयु पूरी होने को आई (उनके गले में पड़ी हुई माला सूखने लगी)तोह यह सुर गति का जीव मरने का विलाप करने लगा और घोर दुखों को सेहन किया........कभी विमानवासी अदि देव भी हुआ ( जो अपनी मर्जी से जिनालय में वंदना करते हैं,ऐसा समझें की भवनात्रिक के देव तोह आनाकानी करते हैं,लेकिन यह देव नहीं करते)..तोह सम्यक दर्शन के बिन दुखी रहा..अपनों से बड़े देवों की आज्ञा माननी पड़ी,जैसे की सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से सारे देव पांचो कल्याणक में जाते हैं,इन देवों को अपनों से बड़े देवों को द्वेष नहीं होता है,लेकिन इनके मनन में हीन पने की भावना रहती हैं..जिस कारण अत्यंत दुःख सुर गति  में भी दुखों को पाया,जब यह सुर गति की आयु पूरी करने को आई,तोह इस देव गति के जीव ने अवधि ज्ञान के माध्यम से मनुष्य गति में प्रसव जन्य और गर्भ के दुखों को जान लिया और आयु पूरी होने से पहले ही दुखी रहा...यह सुरगति का जीव जब देव पर्याय की आयु पूरी करता है,तोह मनुष्य गति के दुखों से तोह बच जाता है,लेकिन स्थावर योनियों में वापिस घूम फिर जन्म ले-लेता है,और फूल,अदि बन जाता है...जितने भी सुन्दर-सुन्दर फूल जो नए नए बाजार में मिल रहे हैं..वेह सब पिछले जन्म में देव थे...और इस प्रकार यह जीव पांच परिवर्तनों (द्रव्य,क्षेत्र,भाव,काल और भाव) को पूरा करता है..और जन्म मरण के दुखों को अनादी काल तक सहता रहता.....जिसका कारण हम अगली ढाल में समझेंगे..

हमें मनुष्य योनी मिली है,वाकई में दुर्लभ है,हम इस योनी को यों ही व्यर्थ कर रहे हैं..सच्चे देव शास्त्र और गुरु की शरण है..आप ही बताइए क्या किसी अन्य धर्मों में इस प्रकार से संसार के दुखों का वर्णन है...हम इस मनुष्य योनी का सदुपयोग करें और इस ग्रन्थ के उद्देश्य को समझें.

                               पहली ढाल पूरी हुई.

रचयिता-श्री दौलत राम जी
लिखने का अधार- ६ ढाला शिक्षण शिविर-श्रीमती पुष्प बैनाडा जी.

जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.

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