जीवन के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं- ज्ञान और दर्शन। ये दोनों ढंके हुए हैं, आवृत्त हैं। ज्ञान भी आवरण से मुक्त नहीं है और दर्शन भी आवरण से मुक्त नहीं है। जैसे कांच में प्रत्येक व्यक्ति अपना प्रतिबिंब देख सकता है। लेकिन उस पर पर्दा डाल दिया जाए तो प्रतिबिंब दिखाई नहीं देता। कांच अंधा हो जाए तब भी उसमें प्रतिबिंब नहीं पड़ता। कांच हिलता-डुलता रहे तब भी प्रतिबिंब स्पष्ट नहीं बनता। उस कांच की तरह ज्ञान की शक्ति भी असीम है, लेकिन वह ढंका हुआ है, हिल रहा है।
एक व्यक्ति राजा से भेंट करने सीधा भीतर जाने लगा। द्वारपाल ने उसे रोक दिया। इसी प्रकार हमारे दर्शन को भी एक द्वारपाल रोके हुए है। दर्शन की शक्ति अवरूद्ध है।
एक आदमी ने छक कर शराब पी ली। अब वह न सही निर्णय ले सकता है और न सही ढंग से देख सकता है। न सही दृष्टि है, न चरित्र सही है और न व्यवहार सही है। सारा उलटा ही उलटा है। आठ कर्मों में एक कर्म है -मोहनीय। यह कर्म मदिरा की भांति हर व्यक्ति को मूर्छित बनाए हुए है। इस दुनिया में मदिरा पीने वाले लोग हैं तो मदिरा नहीं पीने वाले लोग भी हैं, किंतु इस मोह की मदिरा को न पीने वाला मिलना दुष्कर है।
जीवन के दो अभिन्न साथी हैं- सुख और दुख। कभी सुख होता है तो कभी दुख। यह युगल है। ये दोनों कभी अलग-थलग नहीं होते। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन। यह चक्रनिरंतर चलता रहता है। कभी कहीं रुकता नहीं। सुख-दुख भी कर्म से जुड़े हुए हैं। उदाहरण की भाषा में समझाया गया, एक तीक्ष्ण धार वाली तलवार है। उस पर मधु का लेप है। आदमी उस मधु को खाना चाहता है। लेकिन मधु खाते समय तलवार से जीभ भी कट जाती है- दोनों साथ-साथ होते हैं- मिठास का अनुभव और जीभ कटने की पीड़ा। यह है वेदनीय कर्म। यह कर्म सुख और दुख- दोनों का घटक है। सुख के बहाने आदमी दुख भोग रहा है। सुख की मिठास इतनी प्रबल है कि वह उसकी आकांक्षा को रोक नहीं पाता।
आदमी मधु की जिस एक - एक बूंद के लिए तरस रहा है , उसके साथ न जाने दुखों का कितना अंबार लगा हुआ है। इसीलिए अध्यात्म के आचार्यों ने कहा - जो सुख भोगा जा रहा है , वह सुख नहीं , वस्तुत : दुख है , क्योंकि वह दुख को जन्म देता है। सारा दुख उसी सुख के द्वारा पैदा किया जा रहा है। इसलिए सुख वास्तव में सुख नहीं है , दुख ही है।
कालवादी दार्शनिक सारा बोझ काल पर लाद देता है , स्वभाववादी दार्शनिक सारा भार स्वभाव पर डाल देता है , नियतिवादी दार्शनिक सब कुछ नियति को मानकर मुक्ति पा लेता है। ठीक इसी प्रकार कर्मवादी दार्शनिक सब कुछ कर्म को मानकर पीछे खिसक जाता है। बड़ी समस्या , बड़ा आश्चर्य कि काल , स्वभाव , नियति और कर्म - ये सब प्रधान बन गए और चेतनावान मनुष्य गौण हो गया। ये सब आगे आ गए , मनुष्य पीछे चला गया। क्या इस स्थिति को यों स्वीकार कर चलें ?
यदि इस स्थिति को स्वीकार करें तो फिर ध्यान , साधना करने की जरूरत ही क्या है ? धर्म - कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है ? जैसा कर्म और नियति है , वैसा अपने आप घटित हो जाएगा। क्या मनुष्य इतना असहाय है कि वह बाहर के बंधनों से बंधा हुआ चले और अपने अस्तित्व का अनुभव ही न करे। यह बहुत दयनीय स्थिति बन गई है। यह स्थिति इसलिए बनी है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण और चिंतन एकांगी हो गया। उसने सचाई को पकड़ा पर एकांगी रूप में पकड़ा। जब तक समग्रता की दृष्टि से सत्य नहीं पकड़ा जाता , तब तक वह पकड़ में नहीं आ सकता।`
एक व्यक्ति राजा से भेंट करने सीधा भीतर जाने लगा। द्वारपाल ने उसे रोक दिया। इसी प्रकार हमारे दर्शन को भी एक द्वारपाल रोके हुए है। दर्शन की शक्ति अवरूद्ध है।
एक आदमी ने छक कर शराब पी ली। अब वह न सही निर्णय ले सकता है और न सही ढंग से देख सकता है। न सही दृष्टि है, न चरित्र सही है और न व्यवहार सही है। सारा उलटा ही उलटा है। आठ कर्मों में एक कर्म है -मोहनीय। यह कर्म मदिरा की भांति हर व्यक्ति को मूर्छित बनाए हुए है। इस दुनिया में मदिरा पीने वाले लोग हैं तो मदिरा नहीं पीने वाले लोग भी हैं, किंतु इस मोह की मदिरा को न पीने वाला मिलना दुष्कर है।
जीवन के दो अभिन्न साथी हैं- सुख और दुख। कभी सुख होता है तो कभी दुख। यह युगल है। ये दोनों कभी अलग-थलग नहीं होते। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन। यह चक्रनिरंतर चलता रहता है। कभी कहीं रुकता नहीं। सुख-दुख भी कर्म से जुड़े हुए हैं। उदाहरण की भाषा में समझाया गया, एक तीक्ष्ण धार वाली तलवार है। उस पर मधु का लेप है। आदमी उस मधु को खाना चाहता है। लेकिन मधु खाते समय तलवार से जीभ भी कट जाती है- दोनों साथ-साथ होते हैं- मिठास का अनुभव और जीभ कटने की पीड़ा। यह है वेदनीय कर्म। यह कर्म सुख और दुख- दोनों का घटक है। सुख के बहाने आदमी दुख भोग रहा है। सुख की मिठास इतनी प्रबल है कि वह उसकी आकांक्षा को रोक नहीं पाता।
आदमी मधु की जिस एक - एक बूंद के लिए तरस रहा है , उसके साथ न जाने दुखों का कितना अंबार लगा हुआ है। इसीलिए अध्यात्म के आचार्यों ने कहा - जो सुख भोगा जा रहा है , वह सुख नहीं , वस्तुत : दुख है , क्योंकि वह दुख को जन्म देता है। सारा दुख उसी सुख के द्वारा पैदा किया जा रहा है। इसलिए सुख वास्तव में सुख नहीं है , दुख ही है।
कालवादी दार्शनिक सारा बोझ काल पर लाद देता है , स्वभाववादी दार्शनिक सारा भार स्वभाव पर डाल देता है , नियतिवादी दार्शनिक सब कुछ नियति को मानकर मुक्ति पा लेता है। ठीक इसी प्रकार कर्मवादी दार्शनिक सब कुछ कर्म को मानकर पीछे खिसक जाता है। बड़ी समस्या , बड़ा आश्चर्य कि काल , स्वभाव , नियति और कर्म - ये सब प्रधान बन गए और चेतनावान मनुष्य गौण हो गया। ये सब आगे आ गए , मनुष्य पीछे चला गया। क्या इस स्थिति को यों स्वीकार कर चलें ?
यदि इस स्थिति को स्वीकार करें तो फिर ध्यान , साधना करने की जरूरत ही क्या है ? धर्म - कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है ? जैसा कर्म और नियति है , वैसा अपने आप घटित हो जाएगा। क्या मनुष्य इतना असहाय है कि वह बाहर के बंधनों से बंधा हुआ चले और अपने अस्तित्व का अनुभव ही न करे। यह बहुत दयनीय स्थिति बन गई है। यह स्थिति इसलिए बनी है कि व्यक्ति का दृष्टिकोण और चिंतन एकांगी हो गया। उसने सचाई को पकड़ा पर एकांगी रूप में पकड़ा। जब तक समग्रता की दृष्टि से सत्य नहीं पकड़ा जाता , तब तक वह पकड़ में नहीं आ सकता।`
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