उनसे कोई द्वेष न करना , भूले हें भगवान वो
है कैसा ये कोलाहल क्यों, आज धरा शरमा रही
वीतराग के पथ में क्योंकर, द्वेष की बदबू आरही
उनसे कोई द्वेष न करना , भूले हें भगवान वो
सम्यक पथ पर आगे बढना,तो तेरा कल्याण हो
झंझाबातों से बच-बचकर , तुम इस पथ पर आये
अरे यहाँ भी इनमें उलझे तो , शरण कहाँ मिल पाए
अन्यत्र किये तेरे पापों का,बस एक यहाँ पर नाश हो
यहाँ भी जो तू पाप करेगा , उनका कहाँ विनाश हो
यूं जग की भूल भुलैया में,हितकर पथ पाना दुर्लभ है
मार्ग यदि मिल भी जाये,सब छोड़ यहाँ आना दुर्लभ है
और यहाँ आजाने पर भी जो , भटक गए भगवान
तुम्ही कहो कब कैसे उनका , अब होगा कल्याण
अहो,अहो! सौभाग्य तुम्हारा,दुर्लभतम यह मार्ग मिला
मात्र पंथ पा जाने से , खतरा भव का नहीं टला
अब तो प्रतिपल चलना होगा, बिन डिगे धूप तूफ़ान से
सीखो भैया कुछ तो सीखो , बाहुवली भगवान से
यूं तो समवशरण में जाकर , मारीचि लौट यूं आया
अपनी प्रभुता दिखलाने का , बो लोभ नहीं सह पाया
तीर्थंकर भी क्या गारंटी दें , तब ऐसों के कल्याण की
ये तुमने भी सुनी कहानी , महावीर भगवान की
सत्य झूंठ,दुखकरहितकारी,जग में सभी तरह की बात है
यदी दमकती दोपहरी है तो , मावस की काली रात है
प्रारब्ध नियंता है इसका , क्या किसके हिस्से आया
जो विरला था बो मक्खन पाया , छाछे जगत रिझाया
हित अहित हमारा कौन करेगा,यह अपने हित की बात है
स्वयं परीक्षा करनी होगी , मिथ्यात्व जगत विख्यात है
दुर्लभ ये मानव जीवन पाया , इसकी यह़ी कमाई है
अपना हित पहिचान सके तू , ऐसी बुद्धी पाई है
देखो देखो ऐसा ना हो , नर तन, जिन धर्म ये पाया
दुर्लभ से भी दुर्लभतम तूने , वीतराग मार्ग अपनाया
दंद-फंद में उलझ बीदकर, जो तू यूं ही लुटबा देगा
तू ही बता तब कितने भव में , तू मुक्ती को पा लेगा
धिक् धिक् है जो आज आपने , छेड़ा ये अभियान
गाँव - गाँव , घर ,गली - गली में , क्या दोगे पैगाम
प्रभु वीतराग के जिन शासन को, क्यों करते बदनाम
हर प्राणी को पूरा हक़ है , करने का कल्याण
मारग पा जाने पर इस पर , सब लोग नहीं टिक पाएंगे
जिनका भव लम्बा बाकी है , वे जल्दी बाहर हो जायेंगे
खुद तो भटकेंगे , तुमको भी वे , भटकायेंगे संसार में
मुक्ति पथिक के वा इनके , फर्क बड़ा व्यवहार में
दूर भव्य जो जीव यहाँ हें ,बे बाहर भी कैसे जायेंगे
बे तो अन्दर रहकर ही , औरों को विमुख कराएँगे
किसकी कैसी शीघ्र नियति है , दिखती है व्यवहार में
यदि नहीं वे ऐसा करते तो , कैसे टिक पायें संसार में
रे वीर कुंद की , अमृत वाणी ये , अपने हित की बात है
साथ बैठकर मनन करो यह , अब कितने दिन का साथ है
ओ ! राग द्वेष ये व्यर्थ परिणमन , कितना इसे बढाओगे
निर्मूल नहीं कर लोगे जो तुम ,क्या साथ इसे ले जाओगे
है कैसा ये कोलाहल क्यों, आज धरा शरमा रही
वीतराग के पथ में क्योंकर, द्वेष की बदबू आरही
उनसे कोई द्वेष न करना , भूले हें भगवान वो
सम्यक पथ पर आगे बढना,तो तेरा कल्याण हो
झंझाबातों से बच-बचकर , तुम इस पथ पर आये
अरे यहाँ भी इनमें उलझे तो , शरण कहाँ मिल पाए
अन्यत्र किये तेरे पापों का,बस एक यहाँ पर नाश हो
यहाँ भी जो तू पाप करेगा , उनका कहाँ विनाश हो
यूं जग की भूल भुलैया में,हितकर पथ पाना दुर्लभ है
मार्ग यदि मिल भी जाये,सब छोड़ यहाँ आना दुर्लभ है
और यहाँ आजाने पर भी जो , भटक गए भगवान
तुम्ही कहो कब कैसे उनका , अब होगा कल्याण
अहो,अहो! सौभाग्य तुम्हारा,दुर्लभतम यह मार्ग मिला
मात्र पंथ पा जाने से , खतरा भव का नहीं टला
अब तो प्रतिपल चलना होगा, बिन डिगे धूप तूफ़ान से
सीखो भैया कुछ तो सीखो , बाहुवली भगवान से
यूं तो समवशरण में जाकर , मारीचि लौट यूं आया
अपनी प्रभुता दिखलाने का , बो लोभ नहीं सह पाया
तीर्थंकर भी क्या गारंटी दें , तब ऐसों के कल्याण की
ये तुमने भी सुनी कहानी , महावीर भगवान की
सत्य झूंठ,दुखकरहितकारी,जग में सभी तरह की बात है
यदी दमकती दोपहरी है तो , मावस की काली रात है
प्रारब्ध नियंता है इसका , क्या किसके हिस्से आया
जो विरला था बो मक्खन पाया , छाछे जगत रिझाया
हित अहित हमारा कौन करेगा,यह अपने हित की बात है
स्वयं परीक्षा करनी होगी , मिथ्यात्व जगत विख्यात है
दुर्लभ ये मानव जीवन पाया , इसकी यह़ी कमाई है
अपना हित पहिचान सके तू , ऐसी बुद्धी पाई है
देखो देखो ऐसा ना हो , नर तन, जिन धर्म ये पाया
दुर्लभ से भी दुर्लभतम तूने , वीतराग मार्ग अपनाया
दंद-फंद में उलझ बीदकर, जो तू यूं ही लुटबा देगा
तू ही बता तब कितने भव में , तू मुक्ती को पा लेगा
धिक् धिक् है जो आज आपने , छेड़ा ये अभियान
गाँव - गाँव , घर ,गली - गली में , क्या दोगे पैगाम
प्रभु वीतराग के जिन शासन को, क्यों करते बदनाम
हर प्राणी को पूरा हक़ है , करने का कल्याण
मारग पा जाने पर इस पर , सब लोग नहीं टिक पाएंगे
जिनका भव लम्बा बाकी है , वे जल्दी बाहर हो जायेंगे
खुद तो भटकेंगे , तुमको भी वे , भटकायेंगे संसार में
मुक्ति पथिक के वा इनके , फर्क बड़ा व्यवहार में
दूर भव्य जो जीव यहाँ हें ,बे बाहर भी कैसे जायेंगे
बे तो अन्दर रहकर ही , औरों को विमुख कराएँगे
किसकी कैसी शीघ्र नियति है , दिखती है व्यवहार में
यदि नहीं वे ऐसा करते तो , कैसे टिक पायें संसार में
रे वीर कुंद की , अमृत वाणी ये , अपने हित की बात है
साथ बैठकर मनन करो यह , अब कितने दिन का साथ है
ओ ! राग द्वेष ये व्यर्थ परिणमन , कितना इसे बढाओगे
निर्मूल नहीं कर लोगे जो तुम ,क्या साथ इसे ले जाओगे
No comments:
Post a Comment