Sunday, May 8, 2011

UNSE KOI DWESH NA KARNA---BHOOLE HAIN BHAGWAN VO-BY PARMATM PRAKASH BHARIL JI

उनसे कोई द्वेष न करना , भूले हें भगवान वो

है कैसा ये कोलाहल क्यों, आज धरा शरमा रही
वीतराग के पथ में क्योंकर, द्वेष की बदबू आरही
उनसे कोई द्वेष न करना , भूले हें भगवान वो
सम्यक पथ पर आगे बढना,तो तेरा कल्याण हो

झंझाबातों से बच-बचकर , तुम इस पथ पर आये
अरे यहाँ भी इनमें उलझे तो , शरण कहाँ मिल पाए
अन्यत्र किये तेरे पापों का,बस एक यहाँ पर नाश हो
यहाँ भी जो तू पाप करेगा , उनका कहाँ विनाश हो

यूं जग की भूल भुलैया में,हितकर पथ पाना दुर्लभ है
मार्ग यदि मिल भी जाये,सब छोड़ यहाँ आना दुर्लभ है
और यहाँ आजाने पर भी जो , भटक गए भगवान
तुम्ही कहो कब कैसे उनका , अब होगा कल्याण

अहो,अहो! सौभाग्य तुम्हारा,दुर्लभतम यह मार्ग मिला
मात्र पंथ पा जाने से , खतरा भव का नहीं टला
अब तो प्रतिपल चलना होगा, बिन डिगे धूप तूफ़ान से
सीखो भैया कुछ तो सीखो , बाहुवली भगवान से

यूं तो समवशरण में जाकर , मारीचि लौट यूं आया
अपनी प्रभुता दिखलाने का , बो लोभ नहीं सह पाया
तीर्थंकर भी क्या गारंटी दें , तब ऐसों के कल्याण की
ये तुमने भी सुनी कहानी , महावीर भगवान की

सत्य झूंठ,दुखकरहितकारी,जग में सभी तरह की बात है
यदी दमकती दोपहरी है तो , मावस की काली रात है
प्रारब्ध नियंता है इसका , क्या किसके हिस्से आया
जो विरला था बो मक्खन पाया , छाछे जगत रिझाया

हित अहित हमारा कौन करेगा,यह अपने हित की बात है
स्वयं परीक्षा करनी होगी , मिथ्यात्व जगत विख्यात है
दुर्लभ ये मानव जीवन पाया , इसकी यह़ी कमाई है
अपना हित पहिचान सके तू , ऐसी बुद्धी पाई है

देखो देखो ऐसा ना हो , नर तन, जिन धर्म ये पाया
दुर्लभ से भी दुर्लभतम तूने , वीतराग मार्ग अपनाया
दंद-फंद में उलझ बीदकर, जो तू यूं ही लुटबा देगा
तू ही बता तब कितने भव में , तू मुक्ती को पा लेगा

धिक् धिक् है जो आज आपने , छेड़ा ये अभियान
गाँव - गाँव , घर ,गली - गली में , क्या दोगे पैगाम
प्रभु वीतराग के जिन शासन को, क्यों करते बदनाम
हर प्राणी को पूरा हक़ है , करने का कल्याण

मारग पा जाने पर इस पर , सब लोग नहीं टिक पाएंगे
जिनका भव लम्बा बाकी है , वे जल्दी बाहर हो जायेंगे
खुद तो भटकेंगे , तुमको भी वे , भटकायेंगे संसार में
मुक्ति पथिक के वा इनके , फर्क बड़ा व्यवहार में

दूर भव्य जो जीव यहाँ हें ,बे बाहर भी कैसे जायेंगे
बे तो अन्दर रहकर ही , औरों को विमुख कराएँगे
किसकी कैसी शीघ्र नियति है , दिखती है व्यवहार में
यदि नहीं वे ऐसा करते तो , कैसे टिक पायें संसार में

रे वीर कुंद की , अमृत वाणी ये , अपने हित की बात है
साथ बैठकर मनन करो यह , अब कितने दिन का साथ है
ओ ! राग द्वेष ये व्यर्थ परिणमन , कितना इसे बढाओगे
निर्मूल नहीं कर लोगे जो तुम ,क्या साथ इसे ले जाओगे

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