जैन धर्म के १६ वे तीर्थंकर भगवन श्री १००८ शांतिनाथ जी का जन्म , तप , और निर्वाण (मोक्ष) दिवस ( भगवन श्री शांतिनाथ तीन पद के धरी तीर्थंकर हुए है १ तीर्थंकर ,२ चक्रवर्ती ,३ कामदेव )
जन्म कल्याणक
भगवान होने वाली आत्मा का जब सांसारिक जन्म होता है तो देवभवनों व स्वर्गों आदि में स्वयं घंटे बजने लगते हैं और इंद्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं। यह सूचना होती है इस घटना की कि भगवान का सांसारिक अवतरण हो गया है। सभी इंद्र व देव भगवान का जन्मोत्सव मनाने पृथ्वी पर आते हैं।
बालक का जन्म और जन्मोत्सव आज भी घर-घर में प्रचलित है, किन्तु सुमेरु पर्वत पर भगवान का अभिषेक एक अलग प्रकार की घटना बताई जाती है। तीर्थंकर के मामले में ऐसा गौरवशाली अभिषेक उनके पूर्व जन्मों के अर्जित पुण्यों का परिणाम होता है किन्तु प्रत्येक जन्म लेने वाले मानव का अभिषेक होता ही है। देवता न आते हों किन्तु घर या अस्पताल में जन्म लिए बालक के स्वास्थ्य के लिए व गर्भावास की गंदगियों को दूर करने के लिए स्नान (अभिषेक) आवश्यक होता है। तीर्थंकर चूँकि विशेष शक्ति संपन्न होते हैं, अतः पांडुक वन में सुमेरु पर्वत पर क्षीरसागर से लाए 1008 कलशों से उनका जन्माभिषेक शायद कभी अवास्तविक लगे। हो सकता है इसमें भावना का उद्वेग व अपने पूज्य को महिमामंडित करने का भाव हो लेकिन संस्कारों की सीमा से परे नहीं है। एक तुरंत प्रसव पाए बालक की अस्पताल में दिनचर्या को देखने पर यह काल्पनिक नहीं लगेगा।देवों द्वारा प्रसन्नता व्यक्त करना स्वाभाविक प्रक्रिया है। पुत्र जन्म पर खुशियाँ मनाते, मिठाई बाँटते हम सभी लोगों को देखते हैं। फिर तीर्थंकर तो पुरुषार्थी आत्मा होती है।
जिन आचार्यों ने पंच कल्याणक के इस लौकिक रूप की रचना की, उसको समझने में कोई त्रुटि न हो जाए, इसके लिए 2000 वर्ष पूर्व हुए आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति की गाथा क्र. 8/595 में स्पष्ट किया है कि ‘गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवों के उत्तर शरीर जाते हैं। उनके मूल शरीर जन्म स्थानों में सुखपूर्वक स्थित रहते हैं।’
यह गाथा अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि सांसारिक कार्यों में देवादि भाग नहीं लेते किन्तु तीर्थंकरत्व की आत्मा को सम्मान देने व अपना हर्ष प्रकट करने के लिए वे अपने उत्तर शरीर से उपस्थित होते हैं। इतना प्रतिभाशाली व्यक्ति जन्म ले तो सब तरफ खुशियाँ मनाना वास्तविक और तर्कसंगत है। यह आवश्यक नहीं कि तीर्थंकरों के जन्म लेते समय आम नागरिकों ने देवों को देखा हो। देवत्व एक पद है जिसका भावना से सीधा संबंध है।
तप कल्याणक
अब तक के समस्त कार्य तो मनुष्य मात्र में कम-ज्यादा रूप में समान होते रहते हैं किन्तु संसार की विरक्ति का कोई कारण बने बिना मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। यह भी तभी संभव है जब मनुष्य के संस्कार चिंतन को सही दिशा में ले जाने की क्षमता रखते हों। भगवान के कर्मयोगी जीवन, जिनमें सांसारिक कार्य, राज्य संचालन, परिवार संचालन आदि सम्मिलित होते हैं, के बीच एक दिन उन्हें ध्यान आता है ‘आयु का इतना लंबा काल मैंने केवल सांसारिकता में ही खो दिया। अब तक मैंने संसार की संपदा का भोग किया किन्तु अब मुझे आत्मिक संपदा का भोग करना है। संसार का यह रूप, सम्पदा क्षणिक है, अस्थिर है, किन्तु आत्मा का रूप आलौकिक है, आत्मा की संपदा अनंत अक्षय है। मैं अब इसी का पुरुषार्थ जगाऊँगा।’
इस प्रकार जब प्रभु अपनी आत्मा को जागृत कर रहे थे, तभी लोकान्तिक देव आए और भगवान की स्तुति करके उनके विचारों की सराहना की। जरा देखें कि यहाँ आत्मोन्नति के विचार को कोई है जो ठीक कह रहा है। उसे आचार्यों ने लोकान्तिक देव कहा और उसे हम ऐसा भी कह सकते हैं किसी गुणवान- विद्वान ने प्रभु महाराज को प्रेरक उद्बोधन दिया। यह तो बिलकुल संभव है- इसे काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। आज भी प्रेरणा देने वालों और मैनेजमेंट गुरुओं की मान्यता है और बनी रहेगी।त्याग की यह प्रक्रिया स्वभाविक है। आज भी सब कुछ त्याग कर समाजसेवी लोगों की लंबी परंपरा है।
समवशरण में दिव्य ध्वनि का गुंजन हो किंतु एक नज्ज़ारा और होना चाहिए- वह है धर्मचक्र प्रवर्तन का। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण व महापुराण में इसका बड़ा सुन्दर वर्णन है। उसका सारांश इस प्रकार है- ‘भगवान का विहार बड़ी धूमधाम से होता है। याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है। भगवान के चरणों के नीचे देवलोग सहस्रदल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं। और भगवान इनको स्पर्श न कर अधर आकाश में ही चलते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे-नगाड़े बजते हैं। पृथ्वी इति-भीति रहित हो जाती है। इंद्र राजाओं के साथ आगे-आगे जयकार करते चलते हैं। आगे धर्मचक्र चलता है। मार्ग में सुंदर क्रीड़ा स्थान बनाए जाते हैं। मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से शोभित रहता है। भामंडल, छत्र, चंवर स्वतः साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं। इंद्र प्रतिहार बनता है। अनेक निधियाँ साथ-साथ चलती हैं। विरोधी जीव वैर-विरोध भूल जाते हैं। अंधे, बहरों को भी दिखने-सुनने लग जाता है।’जनसमूह यह दृश्य देखकर भाव-विह्वल हो सकता है। यह भगवान के जननायक होने का संदेश देता है।
मोक्ष कल्याणक
हम अक्सर एक त्रुटि करते हैं कि मोक्ष कल्याणक को अंतिम कल्याणक कहते हैं। एक तरह से प्रभु की आत्मा के लिए मोक्षगमन के साथ यह अंतिम पड़ाव हो, किन्तु तीर्थंकरत्व की यात्रा जो एक दर्शन को समग्र रूप देती है, अंतिम कहना विचारणीय है। वास्तव में मोक्षगमन जैन दर्शन के चिंतन की चरमोत्कृष्ट आस्था है जो प्रत्येक हृदय में फलित होना चाहिए। समस्त कल्याणक महोत्सव का यह सरताज है। मोक्षगमन को देखना इस निश्चय को दोहराना है कि जीवन के सभी कार्य तब तक सफल नहीं कहे जा सकते जब तक उसका अंतिम लक्ष्य मोक्षगमन न हो।
जन्म कल्याणक
भगवान होने वाली आत्मा का जब सांसारिक जन्म होता है तो देवभवनों व स्वर्गों आदि में स्वयं घंटे बजने लगते हैं और इंद्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं। यह सूचना होती है इस घटना की कि भगवान का सांसारिक अवतरण हो गया है। सभी इंद्र व देव भगवान का जन्मोत्सव मनाने पृथ्वी पर आते हैं।
बालक का जन्म और जन्मोत्सव आज भी घर-घर में प्रचलित है, किन्तु सुमेरु पर्वत पर भगवान का अभिषेक एक अलग प्रकार की घटना बताई जाती है। तीर्थंकर के मामले में ऐसा गौरवशाली अभिषेक उनके पूर्व जन्मों के अर्जित पुण्यों का परिणाम होता है किन्तु प्रत्येक जन्म लेने वाले मानव का अभिषेक होता ही है। देवता न आते हों किन्तु घर या अस्पताल में जन्म लिए बालक के स्वास्थ्य के लिए व गर्भावास की गंदगियों को दूर करने के लिए स्नान (अभिषेक) आवश्यक होता है। तीर्थंकर चूँकि विशेष शक्ति संपन्न होते हैं, अतः पांडुक वन में सुमेरु पर्वत पर क्षीरसागर से लाए 1008 कलशों से उनका जन्माभिषेक शायद कभी अवास्तविक लगे। हो सकता है इसमें भावना का उद्वेग व अपने पूज्य को महिमामंडित करने का भाव हो लेकिन संस्कारों की सीमा से परे नहीं है। एक तुरंत प्रसव पाए बालक की अस्पताल में दिनचर्या को देखने पर यह काल्पनिक नहीं लगेगा।देवों द्वारा प्रसन्नता व्यक्त करना स्वाभाविक प्रक्रिया है। पुत्र जन्म पर खुशियाँ मनाते, मिठाई बाँटते हम सभी लोगों को देखते हैं। फिर तीर्थंकर तो पुरुषार्थी आत्मा होती है।
जिन आचार्यों ने पंच कल्याणक के इस लौकिक रूप की रचना की, उसको समझने में कोई त्रुटि न हो जाए, इसके लिए 2000 वर्ष पूर्व हुए आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति की गाथा क्र. 8/595 में स्पष्ट किया है कि ‘गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवों के उत्तर शरीर जाते हैं। उनके मूल शरीर जन्म स्थानों में सुखपूर्वक स्थित रहते हैं।’
यह गाथा अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि सांसारिक कार्यों में देवादि भाग नहीं लेते किन्तु तीर्थंकरत्व की आत्मा को सम्मान देने व अपना हर्ष प्रकट करने के लिए वे अपने उत्तर शरीर से उपस्थित होते हैं। इतना प्रतिभाशाली व्यक्ति जन्म ले तो सब तरफ खुशियाँ मनाना वास्तविक और तर्कसंगत है। यह आवश्यक नहीं कि तीर्थंकरों के जन्म लेते समय आम नागरिकों ने देवों को देखा हो। देवत्व एक पद है जिसका भावना से सीधा संबंध है।
तप कल्याणक
अब तक के समस्त कार्य तो मनुष्य मात्र में कम-ज्यादा रूप में समान होते रहते हैं किन्तु संसार की विरक्ति का कोई कारण बने बिना मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं होता। यह भी तभी संभव है जब मनुष्य के संस्कार चिंतन को सही दिशा में ले जाने की क्षमता रखते हों। भगवान के कर्मयोगी जीवन, जिनमें सांसारिक कार्य, राज्य संचालन, परिवार संचालन आदि सम्मिलित होते हैं, के बीच एक दिन उन्हें ध्यान आता है ‘आयु का इतना लंबा काल मैंने केवल सांसारिकता में ही खो दिया। अब तक मैंने संसार की संपदा का भोग किया किन्तु अब मुझे आत्मिक संपदा का भोग करना है। संसार का यह रूप, सम्पदा क्षणिक है, अस्थिर है, किन्तु आत्मा का रूप आलौकिक है, आत्मा की संपदा अनंत अक्षय है। मैं अब इसी का पुरुषार्थ जगाऊँगा।’
इस प्रकार जब प्रभु अपनी आत्मा को जागृत कर रहे थे, तभी लोकान्तिक देव आए और भगवान की स्तुति करके उनके विचारों की सराहना की। जरा देखें कि यहाँ आत्मोन्नति के विचार को कोई है जो ठीक कह रहा है। उसे आचार्यों ने लोकान्तिक देव कहा और उसे हम ऐसा भी कह सकते हैं किसी गुणवान- विद्वान ने प्रभु महाराज को प्रेरक उद्बोधन दिया। यह तो बिलकुल संभव है- इसे काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। आज भी प्रेरणा देने वालों और मैनेजमेंट गुरुओं की मान्यता है और बनी रहेगी।त्याग की यह प्रक्रिया स्वभाविक है। आज भी सब कुछ त्याग कर समाजसेवी लोगों की लंबी परंपरा है।
समवशरण में दिव्य ध्वनि का गुंजन हो किंतु एक नज्ज़ारा और होना चाहिए- वह है धर्मचक्र प्रवर्तन का। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण व महापुराण में इसका बड़ा सुन्दर वर्णन है। उसका सारांश इस प्रकार है- ‘भगवान का विहार बड़ी धूमधाम से होता है। याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है। भगवान के चरणों के नीचे देवलोग सहस्रदल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं। और भगवान इनको स्पर्श न कर अधर आकाश में ही चलते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे-नगाड़े बजते हैं। पृथ्वी इति-भीति रहित हो जाती है। इंद्र राजाओं के साथ आगे-आगे जयकार करते चलते हैं। आगे धर्मचक्र चलता है। मार्ग में सुंदर क्रीड़ा स्थान बनाए जाते हैं। मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से शोभित रहता है। भामंडल, छत्र, चंवर स्वतः साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं। इंद्र प्रतिहार बनता है। अनेक निधियाँ साथ-साथ चलती हैं। विरोधी जीव वैर-विरोध भूल जाते हैं। अंधे, बहरों को भी दिखने-सुनने लग जाता है।’जनसमूह यह दृश्य देखकर भाव-विह्वल हो सकता है। यह भगवान के जननायक होने का संदेश देता है।
मोक्ष कल्याणक
हम अक्सर एक त्रुटि करते हैं कि मोक्ष कल्याणक को अंतिम कल्याणक कहते हैं। एक तरह से प्रभु की आत्मा के लिए मोक्षगमन के साथ यह अंतिम पड़ाव हो, किन्तु तीर्थंकरत्व की यात्रा जो एक दर्शन को समग्र रूप देती है, अंतिम कहना विचारणीय है। वास्तव में मोक्षगमन जैन दर्शन के चिंतन की चरमोत्कृष्ट आस्था है जो प्रत्येक हृदय में फलित होना चाहिए। समस्त कल्याणक महोत्सव का यह सरताज है। मोक्षगमन को देखना इस निश्चय को दोहराना है कि जीवन के सभी कार्य तब तक सफल नहीं कहे जा सकते जब तक उसका अंतिम लक्ष्य मोक्षगमन न हो।
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