आप
सभी से निवेदन है की स्वाद्ध्याय का मेल पड़ते समय जूते आदि उतार कर मुँह साफ़ करके पड़ें
| विनय का विशेष ध्यान देवें |
मंगलाचरण : कर्मों के अभाव से जिनको अपने शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति हो गई है, उन सिद्ध परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ
|
पिछले श्लोक में हमने पड़ा था कि संसार विपत्तियों से भरा हुआ है
और प्रश्न था कि जो संपन्न हैं वे तो सुखी हैं |
आगे आचार्य धन से स्वयं को सुखी मानने वाले मनुष्य की स्थिति बताते हुए कहते हैं कि :
कठिनाई से अर्जित, असुरक्षित और नश्वर धन में सुख मानने वाले की स्थिति
शीत ज्वर से पीड़ित उस मनुष्य की तरह है जो बुखार में भी घी खाने से पुष्टि मानता है |
सर्वप्रथम हम धन का स्वरुप समझते हैं -
धन का अर्जन बहुत कठिनाई से होता है | सुबह से शाम तक व्यक्ति भागा दोडी करता है
, मायाचारी करता है, अपने बहुमूल्य समय को उसके उपार्जन में लगाता है
कोई सपने में आकर आशीर्वाद नहीं देता कि - जा , तेरे तकिये के नीचे से सुबह १ करोड़ रुपये निकलेंगे |
और उसके बाद यह असुरक्षित है - कभी आयकर का छापा, तो कभी कभी भूकंप, बाड़, सुनामी आदि
प्राकृतिक आपदायों में बड़े बड़े संपन्न घर धूल में मिल जाते हैं | कभी चोर, लुटेरे लूट लेते हैं |
यदि वह धन बच भी जाए तो उसे भोगने के लिए हम बचे रहेंगे इसकी भी कोई गारंटी नहीं है |
ऐसे धन के द्वारा जो स्वयं को सुखी समझ रहा है वह उस शीत ज्वर से पीड़ित मनुष्य के सामान है
जो घी के सेवन से स्वयं को सुखी समझ रहा है |
घी की प्रकृति शीतल होती है और जिसको सर्दी का बुखार है वह यदि घी से बने पकवान खाए,
घी की मालिश करवाए और सोचे कि अब ताकत आ जायेगी , क्यूंकि सुना है कि घी खाने से ताकत आती है |
ऐसा बीमार व्यक्ति जिसकी जठराग्नि मंद पड़ चुकी है , उसका ऐसा मानना उसकी नादानी है |
धन आदि में सुख नहीं मात्र आकुलता है |
जितना भी परिग्रह हमने एकत्रित किया है उसमे बहुत समय आकुलता हुई है और उसको भोगने में छण भर के लिए सुख
मिलता है
इसलिए धन आदि से स्वयं को सुखी समझना भ्रम है |
आगे प्रश्न उठता है कि धन आदि जिनके पास है उनको संकट कहाँ है |
पैसे से सब कुछ संभव है , विपत्ति कहाँ है
इस प्रश्न का उत्तर हम कल पड़ेंगे
आप लोगों के पास भी यदि किसी साधू की कोई अच्छी रचना हो तो भेजें ताकि सभी को लाभ मिल सकें
|
आपका सहयोग हमेशा प्रार्थनीय है
|
जिनवाणी स्तुति
:
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोका लोक सो वाणी मस्तक नमू सदा देत हूँ धोक
हे जिनवानी भारती तोहे जपूं दिन रेन जो तेरी शरणा गहे सो पावे सुख चेन
सभी से निवेदन है की स्वाद्ध्याय का मेल पड़ते समय जूते आदि उतार कर मुँह साफ़ करके पड़ें
| विनय का विशेष ध्यान देवें |
मंगलाचरण : कर्मों के अभाव से जिनको अपने शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति हो गई है, उन सिद्ध परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ
|
पिछले श्लोक में हमने पड़ा था कि संसार विपत्तियों से भरा हुआ है
और प्रश्न था कि जो संपन्न हैं वे तो सुखी हैं |
आगे आचार्य धन से स्वयं को सुखी मानने वाले मनुष्य की स्थिति बताते हुए कहते हैं कि :
कठिनाई से अर्जित, असुरक्षित और नश्वर धन में सुख मानने वाले की स्थिति
शीत ज्वर से पीड़ित उस मनुष्य की तरह है जो बुखार में भी घी खाने से पुष्टि मानता है |
सर्वप्रथम हम धन का स्वरुप समझते हैं -
धन का अर्जन बहुत कठिनाई से होता है | सुबह से शाम तक व्यक्ति भागा दोडी करता है
, मायाचारी करता है, अपने बहुमूल्य समय को उसके उपार्जन में लगाता है
कोई सपने में आकर आशीर्वाद नहीं देता कि - जा , तेरे तकिये के नीचे से सुबह १ करोड़ रुपये निकलेंगे |
और उसके बाद यह असुरक्षित है - कभी आयकर का छापा, तो कभी कभी भूकंप, बाड़, सुनामी आदि
प्राकृतिक आपदायों में बड़े बड़े संपन्न घर धूल में मिल जाते हैं | कभी चोर, लुटेरे लूट लेते हैं |
यदि वह धन बच भी जाए तो उसे भोगने के लिए हम बचे रहेंगे इसकी भी कोई गारंटी नहीं है |
ऐसे धन के द्वारा जो स्वयं को सुखी समझ रहा है वह उस शीत ज्वर से पीड़ित मनुष्य के सामान है
जो घी के सेवन से स्वयं को सुखी समझ रहा है |
घी की प्रकृति शीतल होती है और जिसको सर्दी का बुखार है वह यदि घी से बने पकवान खाए,
घी की मालिश करवाए और सोचे कि अब ताकत आ जायेगी , क्यूंकि सुना है कि घी खाने से ताकत आती है |
ऐसा बीमार व्यक्ति जिसकी जठराग्नि मंद पड़ चुकी है , उसका ऐसा मानना उसकी नादानी है |
धन आदि में सुख नहीं मात्र आकुलता है |
जितना भी परिग्रह हमने एकत्रित किया है उसमे बहुत समय आकुलता हुई है और उसको भोगने में छण भर के लिए सुख
मिलता है
इसलिए धन आदि से स्वयं को सुखी समझना भ्रम है |
आगे प्रश्न उठता है कि धन आदि जिनके पास है उनको संकट कहाँ है |
पैसे से सब कुछ संभव है , विपत्ति कहाँ है
इस प्रश्न का उत्तर हम कल पड़ेंगे
आप लोगों के पास भी यदि किसी साधू की कोई अच्छी रचना हो तो भेजें ताकि सभी को लाभ मिल सकें
|
आपका सहयोग हमेशा प्रार्थनीय है
|
जिनवाणी स्तुति
:
जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोका लोक सो वाणी मस्तक नमू सदा देत हूँ धोक
हे जिनवानी भारती तोहे जपूं दिन रेन जो तेरी शरणा गहे सो पावे सुख चेन
बहुत ही बढ़िया
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