आत्मशक्ति के स्वरूप ऋध्दि की सम्पुर्ण वृध्दि को प्राप्त अंत हीन जिनका एसी अनंत शक्तिरूप ऋध्दियो के स्वामी हो जो भव्य जन आपकी स्तुती कर मन वचन काय से नमन करने वाले तपस्वी के स्वामी बन जाते है .हे अभिनंदन स्वामी)ते(आपकी ही महिमा है,जो वीतरागी होकर भी उन भव्यो को अपने समान बनाते वृध्दिरूप है ऋध्दि जिनकी एसे गणधर आदि ऋषि अन्य किसी को नमन नही करते उनको अभिमानी नही समझना चाहिये गुणो मे अधिक वीतराग देव को नमन करते गुणो के क्षरण को प्राप्त नही होते. वे सदा आनंद व सुख स्वरूप वृध्दि को प्राप्त होते.सौधर्मेंद्र व गणधरादि जिनकी लक्ष्मी वृध्दि को प्राप्त कर रही है,क्या वे भी,पुर्ण विजय जिन्हे लब्ध है एसे जिनेंद्र!आपको नमन नही करते? बल्कि सिर भी झुकाते है अपने पुण्योदय से प्राप्त ऋध्दियो के विभव के महा हर्ष से लबालब विशेषपन वृध्दि रूप द्रव्यो से आपको विधानादि करके स्तुति वंदना क्या? नही करते? अर्थात करते ही है तथा मोह जिनका मंद हो गया एसे गणधर आदि भी अविनाशी सिध्द पद हेतु नमन करते है और उस परम आनंदमयी सिध्दपद को प्राप्त करते ही है.आल्हाद के वृध्दि कारी आपको ही सर्वज्ञ विभो जो प्राप्त कर लेता गुणो के विनाश को प्राप्त होकर संसार सागर पतित नही होता(फिर कौन?)संसार सागर मै डुबता स्वेच्छाचारी,अभिमानी,जो आपको नमन नही करता आनंद के उत्पन्न करने वाले वचन,देशना है जिनकी एसे है अभिनंदन स्वामी!आपको नमन करने के पात्र भव्य जीवो के पाप बंधो का विनाश क्या? नही होता,वरन निश्चय से होता और वे जीव परम अक्षत आनंद रूप मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त होते.(भगवन के शरण मै यानी समोशरण मे सिर्फ सम्यक दर्शन की करन लब्धी को प्राप्त भव्य जीव ही प्रवेश पाते .संगत का असर होता है,लोहे की संगत पारस से होती है तो वह स्वर्ण बन जाता है.अब तक हमे संदेह था कि सुमेरु पर्वत का अदभुत सुंदर कैसे आया?क्या है धर्म जिनेश! क्या यह आपकी संगत का असर तो नही?भगवन के जन्माभिषेख को उत्सुक सुमेरू परवत पर आपकी कृपा का ही फल है.जब एक अचेतन पर्वत भी सुंदर हो सकता तो हम चेतन जीवो को अनुपम पद क्यो नही मिल सकता?इसमे क्या विस्मय है कि आप सभी के गुरू है.रूप,गुण,बल,वीर्य आदि मै सबसे उत्तम है कि आपकी तुलना के लिये कुछ भी उपलब्ध नही.आप सभी के गुरू उपाध्याय है,आपकी चरणो के आश्रय से उत्तम वर्ण,अक्षर ज्ञान(क्षरण हीन) यानी केवल ज्ञान मिल जावे तो इसमे क्या संदेह है?गुरू की सम्मति से शिष्य को क्या नही प्राप्त हो सकता? है धर्म जिनेश आपका स्वर्णिम देह क्षीर सागर के जल से कुंदपुष्प सम श्वेत हो जाती है जो समय पश्चात इंद्र के दिव्य वस्त्र से पोंछने के बाद पुन: स्वर्णिम हो जाती है.इस लोक मे यह प्रामाणिक है कि मस्तक से जल गिरा कर स्नान किया जाता है लेकिन इसके विपरित आप मै ही नज़र आता है.अर्धवलयाकार समूह मै खडे नम्रीभूत इंद्र समूह पुजा के बाद सिर उठाकर आपकी और अवलोकन के लिये सिर उठाते है तो आपके चरण नखो से उत्सर्जित प्रभा से मुकुटो से टकरा कर धवल प्रभा उपर की और गायो के थनो से उत्सर्जित दुग्ध के समान यानी पैर से मस्तक की और जाती हुई नज़र आती है.और तिर्यक रूप से सभी दिशाओ मै प्रभा मण्डप प्रकाशित हो जाता,और सभी जीवो को प्रकाशित कर देती है.मानो क्षीर जल से चरणो से प्रारम्भ कर मस्तक की तरफ स्नान कर रहे हो.उध्दार की कामना से इंद्र चरणो का बडी तल्लीनता से चरणो का अवलोकन करना चाहता,स्थितिजन्य कारणो से क्रमश: उपर की और मुख कमल का भी अवलोकन करते है.ज्ञानी पुरूषो तो सिर्फ पद कमलो का ही आश्रय चाहते है. हे धीर!हे स्थिर!हे उदार!आपके जन्म पर माता के अवलोकन के पूर्व,माता की अनुमति के बिना चोरी छिपे इंद्र इंद्राणी,अदभुत महा उत्तंग शोभा सम्पन्न(आपके कारण ही)सुमेरू पर्वत पर दुग्ध धवल क्षीर सागर के 1008,योजन प्रमाण, महाकलशो से अभिषेक हेतु पहुंच जावे यह बात देखने मै तो नही आती और सद्यजात बालक महा प्रवाह मै भी स्थिर रह जावे यह भी महा आश्चर्य है.और अभिषेख जल देवो को नेत्रो पर लगाने को भी कम पडे.यह और भी आश्चर्य है.जिसके तीर्थ मै वर्षित देशना के नीर मै संसार के समस्त भव्य जीव अभिषेख कर,आचरण कर कर्म मलो को दूर करते.आपको देव अभिषेख करवाते और आप सभी का अभिषेख करते.यह तो महा आश्चर्य ही है.इंद्र जैसे वैभवी द्वारा तुच्छ क्षीर जल से स्नान करवाना और आप द्वारा कल्याणकारी देशना से उसका उपकार करते.है भगवन आप स्वयम पर किये छोटे से कार्य का इतना बडा उपकार से चुकाते.यह लोक मै तो आश्चर्य ही है लेकिन आप जैसे उदार दानी के लिये असहज ही क्या? है महदेव,देवाधिदेव धर्म नाथ जिनेश,आप जहा जन्म लेते वह स्थान भी पूज्य हो जाता.इसमे तनिक भी आश्चर्य नही,धन्य है वह स्थान जहा पूर्वोपार्जित पुण्य से जिसके निमित्त से तीर्थंकर पद धारण करते,कुबेर,जहा गर्भ आगमन के 6 माह पूर्व से जन्म तक रत्न वृष्टि कर समस्त लोगो की दरिद्रता को दूर कर देता.इंद्र पंचाश्चर्य विधान करता.जिस स्थान पर आप अपने पद कमलो को रखते,वह पृथ्वी उत्तम हो जाती.भव्य जन तीर्थ मान कर वंदना करते,निमित्त तो आप ही हे जिससे वह धरा पूज्य हो गई, अब इसमे क्या आश्चर्य?अतम यानी अंधकार हीन,अज्ञानरूपी अंधकार के विनाशक ,आपको स्व प्रेरणा से जो,मन वचन काय से शुध्दिपुर्वक जो नमस्कार करते अतम यानी अंधकार हीन,अज्ञानरूपी अंधकार के विनाशक ,आपको स्व प्रेरणा से जो,मन वचन काय से शुध्दिपुर्वक जो नमस्कार करते है,उनका दर्शन मोह विनाश हो जाता,और जो उक्त विधी से वंदन करते वे भी आपके समान आराध्य ईश्वर हो जाते,महान सर्वोत्कृश्ट अनुपम स्व आधीन ज्ञान लक्ष्मी यानी केवल ज्ञान सहित है,जन्म रहित,मोक्षमार्ग के पथ दर्शक नायक,परम आनंद के स्वामी होकर दाता हो,मेरी भी,अपनी तरह ही मेरी संसारी दुखो से रक्षा कर सुखी करोजहा अंतिम निवास यानी सिध्दशिला है ,महत शोभा से युक्त,पुण्य और पुण्य से सुख,किंचित भी न्यून नही है,ज्ञानस्वभाव है ,जिनकी सुमति से उत्पन्न मत को पार पाना कठिन ही नही है,पार हो पाना असम्भव है जिनका एसा महान है ,महत लक्ष्मि के स्वामी,कर्म शत्रुओ को जीत कर अपनी आत्मा को स्थापित किया है,भ्रम रहित वीतराग,अंत या विनाश रहित सिध्द पद के धारी,जैसे आपमे गुण है वैसे ही,मेरे लिये भी ,विधान जिससे पुर्व मे आपने प्राप्त किया,उस विधान की देशना लब्ध करवाये.
जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा सोने मै स्वरूप बदलता है.लोह के तम को त्याग स्वर्ण के तेज को धारण करता है.यह उपादान गुण लोहे मै अनंत काल से विध्यमान है लेकिन पारस के स्पर्श का विरह मात्र ही है.उपादान शक्ति को कार्यरूप मै परिणित होने के लिये सक्षम निमित्त की अत्यंत आवश्यकता है.मै अभव्य हू यह नही मान कर धर्म नाथ जिनेश मै स्तुति को संस्तुत हू.इस आत्मा मै सिध्द होने की शक्ति अनंत काल से बिध्यमान है लेकिन योग्य उपादान,अनंत भवो के संकोच गृह संजाल को त्याग वैराग्य धारणकर संसार को त्यागना भी निमित्त ही है.है धर्म नाथ जिनेश जो भव्य आपको मन से ध्याते है वचनो सेस्तुति करते है,वे धीर गम्भीर भव्य तन दीप्ती और ज्ञान के तेज की लब्धी धारण करते है.अतिस्पष्ट से आत्म विज्ञान भेदी जगत्सार होते है,जैसे लोहा पारस की स्पर्श को लब्धकर स्वर्ण आभा को प्राप्त होता है उसी प्रकार धर्मनाथ की स्तुति का आश्रय लेकर निजात्म स्वरूप को प्राप्त करते है,इसमे क्या आश्चर्य की यह गुण तो पहले से ही विध्यमान था सिर्फ धमनाथ जिनेश की स्तुति का विलम्ब था.आपकी स्तुति से तन मै दीप्ती और मन मे उत्साह भरता.वचनो मे ओजस्विता होती है.इस गुण को सभी प्रत्यक्ष अनुभव करते है. काव्य का सार यही है कि धर्मनाथ जिनेश की सारभूत स्तुति सिध्द होने का उपादान है जिस प्रकार लोहे को पारस का स्पर्श उपादान है.
अविवेकी भी जनवाणी को भाव के बिना तोते की तरह गाते,किंचित तो पुण्य हो ही जाता कमसे कम उस समय तो अशुभ भाव नही होते,कुछ समय के लिये कर्मो की जलती आग से बच ही जाते.लेकिन जो विवेकी जन जिनवाणी का स्वरूप जानकर गुणो को मन वचन काय से उदगारित करते,महिमा को धारणकर अन्य जीवो के अज्ञान तम को दुर करते तथा इन कर्मो को यथा शक्ति आचरण मै लाते,तथा निरंतर तन्मय रहते.इन जीवो के ज्ञान की महिमा ,श्रृध्दा के अनुरूप प्रकट होती,वे सर्वज्ञ,चक्री,इंद्र,आदि पद पाते,तथा यथा योग्य काल उपरांत निरंजन तन हीन सिध्द होते.
सुशोभित होते है सब जीवो को तारने की विभुती से अस्त या नष्ट हो हये न्यूनता या अल्पज्ञता,या असमर्थता से जो जीव वीतराग भावो से वीतराग भगवान की स्तुति करते है वे धरा पर या पृथ्वी पर आपके समान सभावान,या समोसरण के स्वामी होते है इस कारण जो जीव जिन भावो का आश्रय लेते,भाव रखते है स्तुती करते,गुणगान करते,वैसे ही करवाने योग्य होते वीतराग लक्ष्मी का आश्रय लेते वे विपुल केवल्य,समोशरण, मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त करते है
हे प्रभो आपके उदासीन यानी राग हीन होने पर भी जो जीव की ही सेवा करते है,जो आश्रित रहते है वे कल्याण को प्राप्त होते है और मद को धारण कर सरागी की सेवा करने वाले दुख को प्राप्त होते है इसलिये भव्य जीवो को आश्रय देकर रक्षा करने वाले आप ही हो
है भगवन आप विवेकहीन ना तो रहे ना है और नाही रहेंगे. मन को रोचने वाली स्वाभाविक नग्न दिगम्बर मुद्रा को शोभा बढाने के लिये अलंकारोकी जरूरत है?सभी क्लेश,विपत्ति से रहित है.मन का स्पंदन ना होने से मन को रूचि अरूचि कर मानसिक सुख पीडा व चिंतो से रहित है.नाही दुसरो से छल करने के लिये मायाचारी होने की जरूरत है.सबसे बली होने व भय हीन होने से स्वयम और अन्य की रक्षा के लिये अस्त्र शस्त्र की जरूरत नही है.रति अरति से शून्य होने से कामिनी की तृष्णा नही है.हिंसादि पापो से निवृत होने से हिंसा प्रवृति की जरूरत नही है.पच्चीस कषाय नोकषाय से निवृत होने से कर्मबंध के हेतू मिथ्यादर्शन,अविरतादि योग से रहित है.मोह राग द्वेष न होने से संसार संसरण हेतु जन्म या अवतार की जरूरत नही
है प्रभो !साहर्ष ध्रुव स्थायी पुण्यप्रदायक प्रदीप्त अति सुंदर पाद पद्म युगलो का आश्रय पाने की आकांक्षा से सुर नर त्रियंच आतुर होकर नमित मस्तक से अर्पित होते है यानी भव्य जीव जिन चरणो का अलौकिक सौंदर्य विलोकन के लिये नमस्कार करते है.
है अप रागी वीतराग देव,सर्व भय की विदारणा करने वाले,महाहर्षोत्साह से रोमांचित, प्रणाम कर आपकी भक्ति वंदना करते तथा अनक्षरी सरस्वती देशना को आज्ञा मान प्रवर्तते है.मुक्तिदाता की आश्रय की छाह मै स्वकल्याण की प्रेरणा से शरण मै जाते. और आप भी उनका का भव भय दूर कर अपने समान बनाते
है श्रेयांस नाथ,आप अ पराग यानि कषायो से हीन हो,समस्त भव व्याधिया आपका त्याग कर चुकी.ज्ञानवान श्रेष्ठ पुरुष यानी गणधरादि आपके सानिध्य मे है.आप पुर्णवृध्दिलब्ध केवल ज्ञान धारी हो.राग द्वेष आपसे संग्राम पराजित हो चुके दर्शन मात्र मन की आरोग्यता को प्राप्त कर निर्भय हुआ हू.है स्वामी पाद कमलो की विलक्षण आभा मै करने हेतु मुझ अकिंचन की भव बाधा से रक्षा करो.
अनुपम वीतराग देशना धवल श्वेत छत्र 64 श्वेत चामरी गाय के पुच्छ के, चंवर,ऋध्दियो के प्रतीक देव दुंदुर्भी आदि साढे बारह करोड देव वाध्यो का समवेत बजना द्वादशांग के ज्ञाता सौधर्मेंद्र की स्तोत्र वंदना से स्तुती किये गये एसे भव्य जीवो सहित समोसरण मै सुशोभित होते.(कौन?ऋषभ )
वीतराग हे चित्त से अविकार जिनका,वीतराग बुध्दि के समान रमणीय सुर नर स्त्रियो से सेवित होकर भी उन्हे परम गुरू की भावना से विलोकन करते है क्योकि स्व जाग्रत आत्म ज्ञान से लब्धित हे प्रभो उत्तम आत्म ज्ञान के रचयिता हो आप ही हो
जिसके अंदर अज्ञान अंधकार बहुत प्रगाढ,महान दुखो को जिसे भेद पाने मै सहस्त्र सूर्य भी समर्थ नही हो उसे है परमसुर्य चंद्र प्रभ! सहज सहस ही अपनी अनक्षरी देशना के ज्ञान ज्योतिर्पुंज से भेद पाने मै निश्चय से सिर्फ आप ही समर्थ है
विश्व के समस्त पदार्थो के तीनो कालो को हाथ मे रखे आंवले के समान ज्ञाता एक केवलज्ञान ही है उन पदार्थो को प्राप्त होकर सभी पदार्थो मै व्याप्त होता है इस कारण इस ज्ञान की प्रभा-किरणवत है है आर्य वीतराग देव!आप ही उस ज्ञान रूप रमण करते है शाश्वत स्वरूप लोक और अलोक भी केवल ज्ञान रूपी गहन गम्भीर सागर के द्वीप आप ही है
जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा सोने मै स्वरूप बदलता है.लोह के तम को त्याग स्वर्ण के तेज को धारण करता है.यह उपादान गुण लोहे मै अनंत काल से विध्यमान है लेकिन पारस के स्पर्श का विरह मात्र ही है.उपादान शक्ति को कार्यरूप मै परिणित होने के लिये सक्षम निमित्त की अत्यंत आवश्यकता है.मै अभव्य हू यह नही मान कर धर्म नाथ जिनेश मै स्तुति को संस्तुत हू.इस आत्मा मै सिध्द होने की शक्ति अनंत काल से बिध्यमान है लेकिन योग्य उपादान,अनंत भवो के संकोच गृह संजाल को त्याग वैराग्य धारणकर संसार को त्यागना भी निमित्त ही है.है धर्म नाथ जिनेश जो भव्य आपको मन से ध्याते है वचनो सेस्तुति करते है,वे धीर गम्भीर भव्य तन दीप्ती और ज्ञान के तेज की लब्धी धारण करते है.अतिस्पष्ट से आत्म विज्ञान भेदी जगत्सार होते है,जैसे लोहा पारस की स्पर्श को लब्धकर स्वर्ण आभा को प्राप्त होता है उसी प्रकार धर्मनाथ की स्तुति का आश्रय लेकर निजात्म स्वरूप को प्राप्त करते है,इसमे क्या आश्चर्य की यह गुण तो पहले से ही विध्यमान था सिर्फ धमनाथ जिनेश की स्तुति का विलम्ब था.आपकी स्तुति से तन मै दीप्ती और मन मे उत्साह भरता.वचनो मे ओजस्विता होती है.इस गुण को सभी प्रत्यक्ष अनुभव करते है. काव्य का सार यही है कि धर्मनाथ जिनेश की सारभूत स्तुति सिध्द होने का उपादान है जिस प्रकार लोहे को पारस का स्पर्श उपादान है.
अविवेकी भी जनवाणी को भाव के बिना तोते की तरह गाते,किंचित तो पुण्य हो ही जाता कमसे कम उस समय तो अशुभ भाव नही होते,कुछ समय के लिये कर्मो की जलती आग से बच ही जाते.लेकिन जो विवेकी जन जिनवाणी का स्वरूप जानकर गुणो को मन वचन काय से उदगारित करते,महिमा को धारणकर अन्य जीवो के अज्ञान तम को दुर करते तथा इन कर्मो को यथा शक्ति आचरण मै लाते,तथा निरंतर तन्मय रहते.इन जीवो के ज्ञान की महिमा ,श्रृध्दा के अनुरूप प्रकट होती,वे सर्वज्ञ,चक्री,इंद्र,आदि पद पाते,तथा यथा योग्य काल उपरांत निरंजन तन हीन सिध्द होते.
सुशोभित होते है सब जीवो को तारने की विभुती से अस्त या नष्ट हो हये न्यूनता या अल्पज्ञता,या असमर्थता से जो जीव वीतराग भावो से वीतराग भगवान की स्तुति करते है वे धरा पर या पृथ्वी पर आपके समान सभावान,या समोसरण के स्वामी होते है इस कारण जो जीव जिन भावो का आश्रय लेते,भाव रखते है स्तुती करते,गुणगान करते,वैसे ही करवाने योग्य होते वीतराग लक्ष्मी का आश्रय लेते वे विपुल केवल्य,समोशरण, मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त करते है
हे प्रभो आपके उदासीन यानी राग हीन होने पर भी जो जीव की ही सेवा करते है,जो आश्रित रहते है वे कल्याण को प्राप्त होते है और मद को धारण कर सरागी की सेवा करने वाले दुख को प्राप्त होते है इसलिये भव्य जीवो को आश्रय देकर रक्षा करने वाले आप ही हो
है भगवन आप विवेकहीन ना तो रहे ना है और नाही रहेंगे. मन को रोचने वाली स्वाभाविक नग्न दिगम्बर मुद्रा को शोभा बढाने के लिये अलंकारोकी जरूरत है?सभी क्लेश,विपत्ति से रहित है.मन का स्पंदन ना होने से मन को रूचि अरूचि कर मानसिक सुख पीडा व चिंतो से रहित है.नाही दुसरो से छल करने के लिये मायाचारी होने की जरूरत है.सबसे बली होने व भय हीन होने से स्वयम और अन्य की रक्षा के लिये अस्त्र शस्त्र की जरूरत नही है.रति अरति से शून्य होने से कामिनी की तृष्णा नही है.हिंसादि पापो से निवृत होने से हिंसा प्रवृति की जरूरत नही है.पच्चीस कषाय नोकषाय से निवृत होने से कर्मबंध के हेतू मिथ्यादर्शन,अविरतादि योग से रहित है.मोह राग द्वेष न होने से संसार संसरण हेतु जन्म या अवतार की जरूरत नही
है प्रभो !साहर्ष ध्रुव स्थायी पुण्यप्रदायक प्रदीप्त अति सुंदर पाद पद्म युगलो का आश्रय पाने की आकांक्षा से सुर नर त्रियंच आतुर होकर नमित मस्तक से अर्पित होते है यानी भव्य जीव जिन चरणो का अलौकिक सौंदर्य विलोकन के लिये नमस्कार करते है.
है अप रागी वीतराग देव,सर्व भय की विदारणा करने वाले,महाहर्षोत्साह से रोमांचित, प्रणाम कर आपकी भक्ति वंदना करते तथा अनक्षरी सरस्वती देशना को आज्ञा मान प्रवर्तते है.मुक्तिदाता की आश्रय की छाह मै स्वकल्याण की प्रेरणा से शरण मै जाते. और आप भी उनका का भव भय दूर कर अपने समान बनाते
है श्रेयांस नाथ,आप अ पराग यानि कषायो से हीन हो,समस्त भव व्याधिया आपका त्याग कर चुकी.ज्ञानवान श्रेष्ठ पुरुष यानी गणधरादि आपके सानिध्य मे है.आप पुर्णवृध्दिलब्ध केवल ज्ञान धारी हो.राग द्वेष आपसे संग्राम पराजित हो चुके दर्शन मात्र मन की आरोग्यता को प्राप्त कर निर्भय हुआ हू.है स्वामी पाद कमलो की विलक्षण आभा मै करने हेतु मुझ अकिंचन की भव बाधा से रक्षा करो.
अनुपम वीतराग देशना धवल श्वेत छत्र 64 श्वेत चामरी गाय के पुच्छ के, चंवर,ऋध्दियो के प्रतीक देव दुंदुर्भी आदि साढे बारह करोड देव वाध्यो का समवेत बजना द्वादशांग के ज्ञाता सौधर्मेंद्र की स्तोत्र वंदना से स्तुती किये गये एसे भव्य जीवो सहित समोसरण मै सुशोभित होते.(कौन?ऋषभ )
वीतराग हे चित्त से अविकार जिनका,वीतराग बुध्दि के समान रमणीय सुर नर स्त्रियो से सेवित होकर भी उन्हे परम गुरू की भावना से विलोकन करते है क्योकि स्व जाग्रत आत्म ज्ञान से लब्धित हे प्रभो उत्तम आत्म ज्ञान के रचयिता हो आप ही हो
जिसके अंदर अज्ञान अंधकार बहुत प्रगाढ,महान दुखो को जिसे भेद पाने मै सहस्त्र सूर्य भी समर्थ नही हो उसे है परमसुर्य चंद्र प्रभ! सहज सहस ही अपनी अनक्षरी देशना के ज्ञान ज्योतिर्पुंज से भेद पाने मै निश्चय से सिर्फ आप ही समर्थ है
विश्व के समस्त पदार्थो के तीनो कालो को हाथ मे रखे आंवले के समान ज्ञाता एक केवलज्ञान ही है उन पदार्थो को प्राप्त होकर सभी पदार्थो मै व्याप्त होता है इस कारण इस ज्ञान की प्रभा-किरणवत है है आर्य वीतराग देव!आप ही उस ज्ञान रूप रमण करते है शाश्वत स्वरूप लोक और अलोक भी केवल ज्ञान रूपी गहन गम्भीर सागर के द्वीप आप ही है
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