Friday, November 4, 2011

antraay karma ke bandh ke kaaran

परम पूज्य मुनि क्षमा सागर जी महाराज की जय

यह कुछ बातें..मुनि क्षमा सागर जी महाराज के द्वारा बताई हुईं..जिनके कारण अन्तराय कर्म का बंध  होता है वह यह है

हम कभी धर्म करना चाहते हैं,मंदिर जाना चाहते हैं,कुछ करना चाहते हैं,दान देना चाहते हैं लेकिन दे नहीं पाते...ऐसे कौन सी शक्ति है जो हमें ऐसा नहीं करने देती...यह कोई बाहरी शक्ति नहीं यह हमारे अन्दर बैठा अन्तराय कर्म है...यही अंतर है अरिहंत परमेष्ठी और सिद्ध परमेष्ठी  भगवंतों में..वह संसार से मुक्त है..क्योंकि उन्हें इन कर्मों का नाश किया और हम इन्ही में रचते हैं..अरिहंत परमेष्ठी  अन्तराय कर्म से रहित हैं...और हम अन्तराय कर्म से सहित....तोह क्यों न ऐसा करें की हम इस अन्तराय कर्म को ख़त्म करें...इस कर्म को ख़त्म करने का तरीका यह भी है की हम इसके बंधने के कारणों से बचें तोह इस कर्म को ख़त्म हम कर सकते हैं...कुछ तरीके हैं इस अन्तराय कर्म से बचने के... 


१.दान में बाधा नहीं डालना
-कोई दान करना चाहता है..उसको रोकना,मना करना और उसको हतोत्शाहित कर देने से अन्तराय कर्म का बांध होता है.
२.भोग और उपभोग में बाधा नहीं डालना-किसी के भोग और उपभोग में रुकावट पैदा करने से अन्तराय कर्म बंधता है...कोई कुछ कर रहा है इससे हमें क्या मतलब..क्या उसने हमसे सलाह मांगी,जो हम उसे देने बैठ गए.?...यह हमारी कुछ आदतें अन्तराय कर्म के बंध का कारण है...कोई व्यक्ति १० बजे तक सो रहा है...हम उसे जगाने लग गए...क्या उसने हमसे बोला था की तुम हमें जगा देना...अगर बोला था तोह कर्म नहीं बंधेगा...और अगर नहीं बोला था तोह जरूर बंधेगा.

३.सत्कार का निषेद नहीं करना
हमारे सामने किसी दुसरे व्यक्ति की तारीफ़ हो रही है...जिससे हमें ऐसा लगने लग गया की हमारी निंदा हो रही है..हमने उसे-से चिढ़ते हुए उससे सम्बंधित खुफिया बातें बता दी...जिससे उसकी निंदा होने लग गयी..अगर किसी गलती की भी तारीफ़ है तोह हमें क्या करना..हम अपना शांत रहे..कोई सलाह मांगे तोह बताएं.
४.सम्मान की जगह असम्मान,सम्मान की जगह असम्मान नहीं करना
कोई तारीफ़ के लायक है..उसकी निंदा करना...और कोई असम्मान के लायक है तोह उसकी पूजा करना-अन्तराय कर्म के बंध का कारण है.
५.दुसरे की वास्तु संपत्ति को देखकर अस्चर्या चकित नहीं होना
सम्यक दृष्टी जीव कभी भी दूसरी वस्तु को देखकर विस्मित नहीं होता..क्योंकि वह जानता है की यह तोह पुण्य का फल है....उसके पास जो भी भौतिक वस्तुएं है...वह तोह पुण्य की वजह से है...पुण्य के क्षीण होते ही यह भी क्षीण हो जायेंगी.."सम्यक दृष्टी जीव इन सब-चीजों को आत्मा से भिन्न जानता है"...अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तोह अन्तराय कर्म बांधते हैं.
६.किसी को कोई चीज देने के बाद उसको फिर से लेने की भावना न होना,और न दिखाना की उसको दी है
अगर हमने किसी को कोई वस्तु दी...जैसे मंदिर में द्रव्य दान किया और हमने अगर वापिस लेने की भावना मन में बनायीं या ले ली...तोह अन्तराय कर्म बंधेगा...अगर हम किसी को कुछ देते हैं...और फिर अगर हम फिर इस बात को सबके सामने दर्शाते हैं...इससे अन्तराय कर्म का बंध होता है.
७.त्याग अदि करना..भले ही करते नहीं हो..लेकिन त्याग करना
हम किसी चीज को खाते नहीं है..लेकिन उसका त्याग नहीं किया...तोह इसका मतलब हम अन्तराय कर्म का बंध निरंतर कर रहे हैं...इसलिए हमें नियम अवश्य लेना चाहिए...जैसे-अगर हम किसी कमरे को इस्तेमाल नहीं करते हैं...तोह क्या उसका किराया नहीं देना पड़ता..? )
८.दीं दुखियों की सेवा के लिए तत्पर रहना
दीं दुखियों की सेवा किए लिए तत्पर...और उनकी मदद करने के लिए..उचित काम करना...रोकना टोकना नहीं..अनुमोदन करने से अन्तराय कर्म नहीं बंधेगा...लेकिन उल्टा,विघ्न डालने से अन्तराय कर्म बंधेगा.


९.हतोत्साहित नहीं करना
किसी के अंदर कोई गुण है..तोह उसको प्रकाशित करें ...उसको हतोत्शाहित करने के अलावा..जैसे किसी ने कोई नियम लिया तोह ऐसा नहीं कहना की"क्या कर लिया,हम तोह तुझसे भी अच्छे हैं,दिखावा HAI"...इसके बजाय उसको और प्रोत्साहित करना और उसके सामने तारीफ़ करना.
१०.देव पूजा अदि में अन्तराय,रोकना नहीं..उल्टा समझाना है.

कोई नियम-व्रत अदि लिया है,किसी ने,कोई पूजा,विधान में बैठा है..उसे परेशान नहीं करना,उसके लिए अच्छी हालतें बनाना,प्रोत्साहित करना,कहना की धर्म के लिए कोई समय नहीं होता...इस का उल्टा.. उसको बार-बार समय की याद दिलाना,जल्दी-जल्दी करवाना,भाव-बिगड़ना,या यह कहना की"क्या दिन भर बैठे रहोगे पूजा में,टाइम हो-गया"..
११.चीजों का सदुपयोग करना..

हम सब जीवों को पुण्य के योग्य से यह मनुष्य तन मिला है,पैसा है..तोह इसका सदुपयोग करना...यानी की दान में लगाना,शरीर को नियम में,व्रत-उपवास में लगाना...न की व्यर्थ भोगों में पड़े रहना.

और भी कई अन्य बातें अन्तराय कर्म के बंध का कारण है...अन्तराय कर्म ऐसा कर्म है जो पता ही नहीं चलता की कब आ गया,जैसे मोहिनीय कर्म को महा-बलवान कहते हैं...ऐसे ही अन्तराय कर्म को रहस्यमयी कर्म कहते हैं...एक रहस्य सा.

अगर मैंने गलत सुनने की वजह से,अल्प बुद्धि की वजह से,कम ज्ञान की वजह से ..आलस्य के कारण अगर लिखने में कोई भी भूल चूक की हो...तोह मुझे माफ़-कीजियेगा...बोला क्षमा सागर जी महाराज की जय..

जा-वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक-सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.

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