Sunday, December 4, 2011

TATVARTH SOOTRA-ADHYAY DO

तत्वार्थ सूत्र

अध्याय दो

Quantcast

औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीलस्य स्वतत्त्वमौदयिक पारिणामिको च।। 

औपशमिक,क्षयिक,मिश्र,औदायिक,परिणामिक यह जीव के भाव है यह भाव अन्य तत्वों में नहीं पाए जाते है..(इसलिए स्वतत्व कहा गया है)..(औपशमिक मतलब कुछ समय के लिए कर्मों का रुक जाना मतलब गंध्गी का नीचे दब जाना,क्षयिक का मतलब गंदगी का निकल जाना,  क्षयोप्शामिक का अर्थ है कुछ गंदगी का निकलना और कुछ उपशम हो जाना,औदायिक मतलब कर्मों के उदय से भावों का उत्पन्न होना,द्रव्यों के स्वाभाव मात्र से होने वाले भाव को परिणामिक भाव कहते हैं

 

द्विनवाष्टादशैकविंशातित्रिभेदा यथाक्रमम्।।

औपशमिक भाव दो प्रकार के हैं,क्षयिक  ९ प्रकार के,क्षयोप्शामिक १८ प्रकार के,औदायिक २१ प्रकार के और परिणामिक तीन प्रकार के हैं

 

सम्यक्त्व चारित्रे।।  

औपशमिक भाव दो प्रकार के हैं औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चरित्र (उपशम सिर्फ  मोहिनीय कर्म का होता है)

ज्ञानदर्शन दानलाभभोगोप भोगवीर्याणि च।। 

क्षयिकभाव ९प्रकारके है क्षयिकसम्यक्त्व,क्षयिकचरित्र क्षयिक ज्ञान,दर्शन,दान(दान-अन्तराय कर्म के क्षय से),क्षयिक लाभ,क्षयिक भोग(भोग-अन्तराय  कर्म के क्षय से),क्षयिक उपभोग(उपभोग-अन्तराय कर्म के क्षय से),क्षयिक वीर्य ..यह केवली भगवन के होते हैं .(अनंत ज्ञान,अनंत दर्शन,लाभ,दान,भोग-उपभोग(यह भोग-उपभोग वह भोग-उपभोग नहीं हैं..यह samovosharan adi हैं,वीर्य दर्शन मोहिनीय karma के kshayopsham से होता है)

ज्ञानाज्ञान दर्शन लब्ध्यश्चतुस्त्रि त्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्व चारित्र संयमासंयमाश्च।। \

क्षयोप्शामिक भाव १८ प्रकार के हैं ज्ञान(४ प्रकार के),अज्ञान(तीन प्रकार के),दर्शन(३ प्रकार के),लब्धि(५ लब्धि),चरित्र,सम्यक्त्व,संयामसंयम (संयम है भी और नहीं भी)

गतिकषायलिङ्ग मिथ्यादर्शना ज्ञानासंयता सिद्ध लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः।।

कर्मों के उदय से जो भाव होते हैं वह औदायिक भाव जो की २१ प्रकार के हैं गति(मैं मनुष्य हूँ,बिल्ली को पता है की वह बिल्ली है और ऐसा भावना है-४),कषाय(४),लिंग(मैं पुरुष स्त्री ३ ),मिथ्यादर्शन(१)मिथ्या ज्ञान(१),असंयम(१),असिद्ध (८ कर्मों से बंधे होना-१),लेश्या(कषायों के उदय से परिणाम होना-६)

 

जीवभव्याभव्यत्वानि च।।

जीव दो प्रकार के हैं भव्य और अभव्य है (ऐसे भी जीव हैं जो कभी मोक्ष नहीं जायेंगे..वह अभव्य  जीव हैं )

उपयोगो लक्षणम्।।

जीव का लक्षण उपयोग हैं (चैतन्य गुण से सम्बन्ध रखने वाले जीव की परिणति को उपयोग कहते हैं)

     

स द्विविधोऽष्टचतुर्भेद।।

यह दो प्रकार का है १.ज्ञानोपयोग (८ प्रकार के),दर्शन उपयोग(४ प्रकार के)

संसारिणो मुक्ताश्च।।

जीव दो प्रकार के हैं संसारी जीव और मुक्त जीव (श्री अरिहंत और श्री सिद्ध भगवान)

समनस्कामनस्काः।

संसारी जीव दो प्रकार के हैं १.सैनी(संज्ञी या समनस्क -मन सहित जीव) २.असैनि (असंज्ञी या अमनस्क )..संकल्प विकल्प के जाल को मन कहते हैं..जो उपदेश और शिक्षा ग्रहण कर सके वह सैनी है.

संसारिणस्त्रसस्थावराः।।

संसारी जीव त्रस और स्थावर दो प्रकार के हैं

पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः।।

स्थावर जीव पृथ्वी-कायिक,वायु कायिक,जल कायिक,अग्नि-कायिक,वनस्पति कायिक.

द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः।।

त्रस जीव दो,तीन,चार और ५ इन्द्रिय के होते हैं.

पंचेद्रियाणि।।

इन्द्रिय पांच प्रकार की हैं

पंचेद्रियाणि।।

हर इन्द्रिय दो प्रकार की है १.द्रव्येंद्रिया और २.भावेंद्रिया

निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्।। 

बाहर  से दिखने वाली चीज द्रव्येंद्रिया है..और अन्दर जिसकी वजह से कोई सुनता है वह द्रव्य इन्द्रिय है..(आत्मा स्वरुप  में जो इन्द्रियों के प्रदेश हैं वह भावेंद्रिया)

लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्।।

भाव-इन्द्रिय दो प्रकार की हैं लब्धि और उपयोग

स्पर्शनरसन घ्राणचक्षुःश्रोत्राणि।।

स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु..और कर्ण यह पांच इन्द्रिय हैं

स्पर्शनरसन्गन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः

छूना,स्वाद,गंध,रूप और शब्द यह पांचो इन्द्रियों के विषय हैं

श्रुतमनिन्द्रियस्य।

श्रुत ज्ञान(जिनवाणी का ज्ञान)..मन से होता है

वनस्पत्यन्तानामेकम्।।

जलाकायिक,भूमि-कायिक,वायी-कायिक,अग्नि कई और वनस्पति कायिक यह एक-इन्द्रिय जीव हैं.

कृमिपिपीलिका भ्रमर मनुष्यादीनामेकैक वृद्धानि।।

worm  पिपीलिका (चींटी),भ्रमर(भौरां),मनुष्य यह २,३,४ और ५ इन्द्रिय जीवों के उदहारण हैं.

संज्ञिनः समनस्काः।।

संज्ञी जीव मन सहित होते हैं (पंचेंद्रिया जीव ही संज्ञी होते हैं)

विग्रहगतौ कर्मयोगः।। 

एक शरीर से दुसरे शरीर में जाने के लिए कार्मण शारीर जाता है (सारे परिणाम,संस्कार adi)

अनुश्रेणि गतिः।।

यह आत्मा की विग्रह  गति एक शरीर से दूसरी जगह seedh mein jaati hai.

अविग्रहा जीवस्य।।

मुक्त जीव की विग्रह गति एकदम सीढ़ी होती hai

 विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः।।

संसारी प्राणी का एक शारीर से दूसरी जगह जाना bend के  साथ  होता  hai  जो  की  ज्यादा से ज्यादा चार  समय (एक सेकंड के असंख्यात्वे भाग को समय कहते हैं)  mein  हो  जाता  hai   ४ समय  जब लगते हैं जब तीन bend  होते हैं..हर bend  को एक समय चाहिए.

एक समयाविग्रहा।।

बिना bend  के होने वाली  जीव की गति एक समय mein हो jaati hai,मुक्त जीव एक समय mein सिद्ध-शिला पहुँचते हैं.

एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः।। 

विग्रह गति के दौरान जीव निराहारक होता hai (यहाँ पे आहार से मतलब खाने पीने से नहीं hai,मतलब कर्म-वर्गना अदि से hai)

संमूच्छंनगर्भौपरादा जन्म।। 

जन्म सममूर्छन होते हैं(बिना माता पिता के संयोग से..बाह्य निमित्त से),गर्भ से जन्म होते हैं (माता पिता के संयोग से)..और उत्पाद जन्म होते हैं

सचित्तशीतसंवृताःसेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः।। 

कहाँ कहाँ पे जन्म होते हैं जीवित वास्तु में,ठंडी,ढकी हुई, या इनके उलटे (गर्म,अजीवित वास्तु में,खुली हुई जगह में) जन्म हो सकते हैं

 

जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः।।

गर्भ जन्म तीन प्रकार के हैं १.जरायुज (मनुष्यों के) २.अंडज(मुर्गियों के) ३.पोतन (शेर अदि के..पैदा होते ही बच्चे खेलने लगते हैं)

देवनारकाणामुपपादः।।

देव और नारकियों के उत्पाद जन्म होते हैं( सीधे १६ साल की उम्र के नवयुवक से सामान जन्म होता है,देवों में आभूषण के साथ जन्म होता है,और नारकियों में बिना आभूषण के)

शेषाणां संमबर्च्छनम्।। 

बचे हुए जीवों के सममूर्छन जन्म होते हैं

 औदारिकवैक्रियिका हारकदैजसकार्मणानि शरीराणि।।

अब शारीर कैसे मिलते हैं जीवों को तोह १.औदरिक २.वैक्रियायिक ३.अहारक ४.तेजस ५.कार्मण शरीर होते हैं.

परं परं सूक्ष्मम्।।

यह शरीर एक दुसरे से सूक्ष्म होते जाते हैं १.औदारिक से सूक्ष्म वैक्रियायिक,विक्रयिक से अहारक,अहारक से तेजस,तेजस से कार्मण शारीर

प्रदेशतोऽसंख्येयगुणंप्राक् तैजसात्।। 

यह सूक्ष्म होते जाते हैं..और इनके प्रदेश भी बढ़ते जाते हैं (औदरिक से कहीं ज्यादा प्रदेश वैक्रियायिक में..वक्रायिक से कहीं ज्यादा अहारक)

अनन्तगुणे परे।।
तैजस और वैक्रियायिक शरीर में अन्य शरीरों से अनंत गुने प्रदेश होते हैं (प्रदेश क्या होता है -१ परमाणु एक समय में जीतना आगे बढेगा..वह एक प्रदेश है,काल का सबसे छोटा हिस्सा समय,द्रव्य का सबसे छोटा हिस्सा परमाणु)
अप्रतीघाते
 
यह तैजस और वैक्रियायिक शारीर किसी से भी नहीं रुक सकते (व्रज से भी नहीं रुक सकते)
अनादिसंबन्धे च।।

यह जीव अनादी काल से इस तेजस और कार्मण शरीर से बंधा हुआ है
सर्वस्य।
संसार के सारे जीव इन तेजस और कार्मण शारीर से बंधे हैं
तदादीनि भाज्यानियुगपदेकस्मिन्ना चतुर्भ्यः।।
तेजस और कार्मण शरीर के अलावा जीव के साथ  ४ शरीर भी एक साथ हो सकते हैं..किसी भी जीव के या तोह वैक्रियायिक या औदरिक शरीर होता है.
निरूपभोगमन्त्यम्।
कार्मण शरीर भोगों के लिए नहीं है.
गर्भसमबर्च्छनजमाद्यम्।।
औदारिक शरीर जरायुज गर्भ जन्म और सममूर्छन जन्म वालों के होते हैं 
औपपादिकं वैग्रियिकम्।। 
वैक्रियायिक शरीर उत्पाद जन्म लेने वालों के होते हैं (नारकी या देवों के)
लब्धिप्रत्ययं च।।
तपस्या करने के कारण भी वैक्रियायिक शरीर होता है (मुनि महाराज अदि तपस्या करते हैं या चक्रवती अदि जिन्होंने पूर्व जन्मों में तप किये होते hain उन्हें वैक्रियायिक शरीर प्राप्त हो-जाते हैं)
तैजसमपि।
शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव।।
अहारक शरीर जो की  परम शुद्ध होता है..ऐसा शरीर परम तपस्वी मुनिराजों के हो-जाता है..यह जब प्रकट होता है जब मुनिराज को शंका अदि का निवारण करना हो तोह अहारक शरीर निकल-जाता है.और केवली भगवन से समाधान पूछकर आ-जाता है
नारक-संमूर्च्छिनो नपुंसकानि।।
नारकी जीव और सममूर्छन जीव नपुंसक वेद के होते हैं
न देवाः।।
देव नपुंसक लिंग के नहीं होते हैं
शेषस्त्रवेदाः।।
 नारकी देव और सममूर्छन जीव जीवों को छोड़ कर बाकी के जीवों के कोई भी लिंग हो सकता है.
औपपादिक चरमोत्तमदेहाऽसंख्येय वर्षायुषोनवर्त्यायुषः।।
जो जीव उत्पाद से जन्म लेते हैं,चर्मोत्तम शरीर(अरिहंत भगवन),असंख्यात वर्ष वाले जीवों का (भोगभूमियों के जीवों का) अकाल मरण नहीं होता है..(अकाल मरण से तात्पर्य है बाह्य निमित्त से मृत्यु का होना टक्कर से,बिमारी से,दुर्घटना से,हार्ट-अटैक से मरण अदि अकाल मरण है...अपने आप सोते समय मृत्यु को प्राप्त हो जाना यह मरण है...अकाल मरण को रोका जा सकता है,दवाई से,ऑपरेशन अदि से..)

 

 

 लिखने का आधार-मुनि श्री क्षमा सागर जी महाराज के द्वारा दिए हुए तत्वार्थ सूत्र पे प्रवचन को सुनने के बाद.

 

 

 

 

 

 

  

 

No comments:

Post a Comment