Tuesday, December 6, 2011

जहाँ राग-हैं जहाँ द्वेष हैं वहां आकुलता है..या जहाँ आकुलता है वहां राग-द्वेष है...दुसरे शब्दों में राग-द्वेष ही आकुलता का कारण है.हम किसी भी वस्तु का राग करते हैं..तोह उसके बारे में सोचते हैं..और उसको पाने की चाह रखते हैं...और सोचते हैं तोह इन सब चीजों में बहुत आकुलता होती है...क्योंकि राग-द्वेष है..हम पानी को पीते हैं जीभ में ठंडा-महसूस होता है..जब पहली बार पीते हैं..लेकिन पीते जाते हैं तोह सही लगता है..और रोज पीते हैं तोह वह पानी गर्म लगने लगता है...ऐसा लगने लगता है जैसे पानी को और ठंडा होना चाहिए था...क्या पानी वाकई में ठंडा था,क्या पानी गर्म था..या क्या पानी का और कोई स्वाभाव का था..नहीं..उसमें हमारे द्वारा किया हुआ राग-द्वेष उसे ठंडा-गर्म कहने पर मजबूर कर रहा था..कोई बिना धन-पैसे वाला आदमी...किसी सोफे पे बैठे तोह उसे बहुत अच्छा लगता है..क्योंकि स्पर्शन इन्द्रिय का उसमें राग-होता है..लेकिन रोज बैठे तोह उसका उस विषय में राग-द्वेष कम होता जाता है....और अब उसी सोफे पर उसे बैठने में सुख-कारी प्रतीत नहीं होता है...क्या वह  सोफा हमें सुख-दुःख दे रहा था..वोह कैसे देगा वह तोह नॉन-लिविंग है..उसके प्रति राग-द्वेष ही सुख-दुःख की कल्पना करा रहा था..और वह सुख दुःख दोनों सिर्फ कल्पना हैं...न उस सोफे पर बैठने में सुख है..और न दुःख है..सिर्फ राग-द्वेष से उत्पन्न हुआ क्षण-भंगुर सुख और दुःख है..और उस सुख में भी दुःख भरा हुआ है आकुलता से भरी हुई..उस सोफे पर बैठने में शुरू के समय में सुख लगता है..लेकिन फिर वह सामान्य और धीरे-धीरे दुःख रूप हो-जाता है..यानी की सुख क्षण-भंगुर हैं...और है भी तोह वह भी राग-द्वेष की वजह से है..एक बच्चा है उसे अकेले सोने में भय-भीत महसूस करता है..उसे डर लगने लगता है.लेकिन जब कोई नाती-सम्बन्धी आ जाये पास में सोने तोह उसका डर गायब हो-जाता है और निशंक होकर सो जाता है...क्या उस बच्चे के डर को कारण को उस व्यक्ति ने दूर किया?..नहीं उस का राग-द्वेष ही डर का कारण था...और वह राग-द्वेष (उस व्यक्ति की तरफ) ही उसके नहीं डरने का कारण था...अगर किसी व्यक्ति को किसी व्यक्ति से द्वेष है..और वह उसके हाथ का छुआ हुआ भी खाना नहीं पसंद करता..और मान लीजिये वह किसी दुसरे के हाथ से खाना खाता है..और उसी बीच उसको पता लगे की यह खाना उसी व्यक्ति ने बनाया है तोह उसक\खाने में से स्वाद नहीं आएगा...वाकई में वह खाना स्वादिष्ट  या अस्वादिष्ट था ही नहीं..सिर्फ कल्पना थी..मन और इन्द्रियों के विषय ही थे..जिनमें  में राग   था और मन में द्वेष आते ही इन्द्रियों में भी द्वेष हो गया....और ऐसा संसारी जीवों का लक्षण है...अगर इश्वर भी इसी दुःख भरे या कल्पना के इन राग-द्वेष  वाले दुखों में या क्षण-भंगुर राग-द्वेष से उत्पन्न होने वाले सुखों में अदा है..तोह वह वाकई में इश्वर नहीं है...क्योंकि उसमें और किसी संसारी प्राणी में क्या अंतर रह-गया आखिर?जिस प्रकार संसारी प्राणी को भी भय-शोक-भूख-प्यास-ठण्ड गर्मी,बंधन,संकट,राग-द्वेष,क्रोध,मान,माया,लोभ,काम,चिंता,ग्लानी में पड़ा है तोह उसको अपने सामान जानना चाहिए...आखिर उसको परमात्मा कोई कैसे कहे?...और वह परम-विशुद्ध और परम शुद्ध की संज्ञा को कैसे प्राप्त कर सकता है..इसलिए जो १८ दोषों से रहित हैं...यानी की वीतरागी हैं यह गुण उस इश्वर में तोह मौजूद होना ही चाहिए...क्योंकि अगर किसी में अगर १८ दोषों में  एक भी दोष है तोह वह खुद-आकुलता-व्याकुलता में पड़ा है या वह खुद महा-दुखी है भयभीत है वह भला किसी को कैसे सुखी करेगा...अगर कोई कहे हम राग-द्वेष से युक्त देवों की पूजा से कुछ  मिल गया..या मिलेगा..तोह ऐसा कहना एक दम गलत है क्योंकि जिसके पास जो है नहीं वह कैसे दे सकेगा..?इसलिए ऐसा कहना तोह सिर्फ एक संतुष्टि है..दूसरा वह इश्वर हमें सही मार्ग कैसे बताएगा.?..जब वह खुद सही मार्ग जानता होगा और सही आर्ग वोही बताएगा जो की संसार की बातों को अच्छी तरह से जानता है..संसार से तारने की बात वह ही  सही बता  सकता है.जिसने इस संसार को से पीछे से आगे से ऊपर से अनंत-काल पहले,अनंत-काल बाद तक की बातों  प्रत्यक्ष जानता ओ,क्योंकि अगर रुक-रुक कर जाने तोह गलती हो सकती...और गलत नतीजा हो जाएगा..जैसे की किसी को पता है की वह ऐसा है...लेकिन अगर वह यह नहीं जानता की दूसरा कैसा है तोह वह दूसरा  और पहला के बीच में बता-पायेगा..और इश्वर का हितोपदेशी होना भी  ही जरूरी है..हित का उप्देश वोह ही  दे-सकेगा जिसने अपना हित खुद कर लिया हो.
और ऐसा सब के साथ होता है.जो इन सब चीजों में सुख दुःख मानते हैं...कोई राग-द्वेष करेगा तोह दुःख होगा ही होगा...इसलिए वास्तव सुख की प्राप्ति तोह इन सब चीजों से हो ही नहीं पाती और हम अनादी काल से इसी भ्रम में पड़े हैं की यह चीज सुख रूप हैं  या दुःख रूप हैं..वाकई में यह दुःख रूप और आकुलता की कारण ही हैं...इसलिए आचार्य महाराज आत्मा-स्वरुप की साधना करने के लिए कहते हैं..क्योंकि हर जीव सुख को चाहता है..दुःख से घबराता है...लेकिन सुख के लिए दूसरी वस्तु की और भागता है.और राग द्वेष में सुख मानता है...और वास्तव में इन सब चीजों में सुख है ही नहीं सिर्फ कल्पना और वास्तविक सुख खुद में है..निज आत्मा स्वरुप में है...पर द्रव्य में नहीं है...इसलिए आचार्य महाराज जो इस आत्मा सुख की साधना करते हैं वह कहते हैं की आत्मा का हित सुख है...और वह सुख आकुलता के बिना है..और आकुलता मोक्ष में नहीं है..इसलिए मोक्ष मार्ग पे चलना चाहिए...."जहाँ राग हैं वहां द्वेष है...और राग-द्वेष ही दुःख के कारण है....इसीलिए यह बात  "तीन भुवन में सार वीतराग-विज्ञानता..शिव स्वरुप शिवकार नमहु-त्रियोग सम्हारिके" वीतराग विज्ञानता (राग-द्वेष से रहित अवस्था) ही तीन भुवन में सार-भूत हैं सर्वोत्तम है (क्योंकि राग-द्वेष तोह दुःख का कारण है)..ऐसी शिव स्वरुप (मोक्ष को प्रदान करने वाली),शिव-कार (सुख की कारण..दूसरों को भी सुख रूप...वीतरागता स्वयं ही सुख रूप है...और सुख को देने वाली है..जो इस पर चलेगा वह खुद सुख रूप हो जाएगा)..ऐसी वीतराग-विज्ञानता जो तीनों योगों को नमस्कार कर नमस्कार करता हू.
अब यह वीतराग-विज्ञान क्या है..वीतराग यानी की (सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र-यानी की समीचीन या सही दर्शन..सही दृष्टी..और समीचीन चरित्र यानी की सही चरित्र..और विज्ञान यानी की समीचीन ज्ञान...सही ज्ञान...इनका ऐसा अर्थ इसलिए है क्योंकि यह राग-द्वेष से रहित हैं...या इनमें राग-द्वेष नहीं है,इनमें धर्मं है..धर्म इसलिए क्योंकि यह वस्तु स्वाभाव है..और वस्तु स्वभाव कि और ले जाता है...यानी कि ऐसी सुख अवस्था कि और ले जाता जहाँ अनंत-सुख है..सुख इसलिए क्योंकि इसमें राग-द्वेष नहीं है या इनमें मोह-नहीं है...अब ऐसा हमें किसने बताया है...या हम किसके बताये हुए इस समीचीन दर्शन,ज्ञान चरित्र को माने....अब सही दर्शन,सही ज्ञान और सही चरित्र तोह वह ही बता सकता है जिसने ऐसी राग-द्वेष से रहित,या वीतराग अवस्था को प्राप्त कर लिया हो...क्योंकि जो खुद राग-द्वेष में है,या दुःख में है,आकुलता में है,कष्ट संकट भोग-रहा है,क्रोधित होता हो,..तोह उसकी दृष्टी तोह खुद ही सही नहीं है..तोह वह किसी दुसरे को सही दृष्टी या सही मार्ग नहीं बता सकता..या उसकी कही हुई बातें उस अविनाशी सुख को लेकर कभी भी सही नहीं हो सकती...और न ही वह अविनाशी सुख को दे सकता है..अगर दे सकता है तोह वह ही दे सकेगा..जिसने ऐसी अवस्था को प्राप्त किया हो,उस अविनाशी सुख को प्राप्त किया हो,उस वीतराग-अवस्था को प्राप्त किया हो..क्योंकि राग-द्वेष तोह दुःख मय हैं..तोह सुखमय कौन जिसमें राग-द्वेष नहीं हैं..

तीनों लोकों में अनंत-जीव हैं अनंत यानी की जिसका अंत नहीं है..अनंत का अर्थ ही यह है...और इस संसार में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जो सुख नहीं चाहता हो,चाहे वह चींटी हो,चाहे बन्दर हों,चाहे बिच्छु,या कंदमूल, अवक्ष पदार्थों में मौजूद अनंतानंत निगोदिया जीव हों ..लेकिन वह सुख चाहते हैं ..क्या हम दुःख चाहते हैं ??..नहीं,क्या कोई हमें शरीर पे मारे तोह पीड़ित नहीं होते..तोह वह जीव क्यों नहीं होते होंगे..?बिलकुल होते होंगे क्या हम किसी जीव को दुःख देते हैं तोह हम उसे दुखी दे सकते हैं...लेकिन छोटे-जीव भी दुखी होते हैं यह बात मानने योग्य है..अंतर इतना है की वह शारीर में छोटे हैं...लेकिन चेतना शक्ति तोह उनमें भी हमारे जैसे है...इसलिए हर जीव सुख चाहता है दुःख नहीं चाहता..और दुःख से घबराता भी है...लेकिन दुखी क्यों है राग-बाह्य सुखों में सुख मानता है...पर द्रव्यों में सुख की खोज करता है...लेकिन पर-द्रव्य तोह अचेतन हैं वह सुख कैसे दे-सकते हैं..इसलिए सुख तोह आत्मा में है..सुख चाहते तोह हैं..लेकिन राग-द्वेष करने  में सुख मानते हैं,जो की दुःख रूप हैं...इसलिए दुःख को हरने वाली,सुख को देने वाली (सच्चे सुख) श्री गुरु महाराज,जो उस आनंद स्वरुप आत्म --स्वरुप की साधना कर रहे हैं वह राग-द्वेष में फसे जीवों को सीख देते हैं...और क्यों देते हैं क्योंकि वह करुना से द्रवीभूत हो गए. इसलिए "जे त्रिभुवन में जीव अनंत,सुख चाहें दुखते भय्वंत,तातें दुःख हारी सुख-कार कहैं सीख गुरु करुना धार".

अब अगर हम अपना कुछ भला करना चाहते हैं,राग-द्वेष के प्रपंच से खुद को बचाना चाहते हैं,जिसकी वजह से हमने आज-तक दुःख ही दुःख पाया...और हमने ही नहीं संसार के किसी भी जीव ने दुःख ही पाया,राग-द्वेष है ही दुखदायी...इसलिए ऐसे भौतिक,इन्द्रिय भोगों से खुद को बचाना चाहते हो...अगर हम इनसे बचना चाहते हैं और अपना कल्याण,कुछ भला करना चाहते हो तोह हमें उन गुरु की शिक्षा को सुनना पड़ेगा..कैसे गुरु...राग-द्वेष कम करने वाले,आत्म-सुख को प्राप्त करने वाले,आत्म सुख की साधना करने वाले,तोह जब हम ऐसे गुरु की शिक्षा   को सुनेंगे..तब ही हमारा कल्याण है और हम जब-तक गुरु की,जगत गुरु उन वीतराग-सर्वज्ञ हितोपदेशी देव की बात नहीं मानेंगे...जब तक हमारा कल्याण संभव ही नहीं है...और गुरु हमें बताते हैं की हे ! जीवो तुम-अनादी काल से मोह में पड़े हो,पर द्रव्यों,दूसरी वस्तुओं को अपना मान-रहे हो,यह प्रकट दुःख-दाई हैं,आकुलता का कारण है,क्षण-भंगुर हैं,छूट-जाती हैं,साथ में हमेशा नहीं रहती..जब यह शरीर  भी मेरा नहीं है तोह और क्या मेरा होगा? ..नहीं लेकिन हम इसी में अनादी काल से पड़े हैं...जानते हैं की यह चीज छूट-जायेगी,यह मेरी नहीं है..लेकिन तब भी उसी में सुख मानते हैं..ठीक-उसी तरह जिस-प्रकार शराबी  शराब के मद में होकर-सब भूल जाता है, नाले में गिर जाएगा,गंध-हो-जाएगा,दर्द हो रहा है परेशानी है,तब भी उन्ही में डूबा-रहता है...और दुःख ही पाता है सुख नहीं पाता..यह नशा तोह तीन-चार दिन में ज्यादा-से ज्यादा छूट जाएगा..लेकिन यह मोह तोह महा-मद है की इसका नशा ऐसा चढ़ा है की अनादी काल से उतर ही नहीं रहा..और हम बेफाल्तू में,स्वयं सुख रूप होकर भी,पर-द्रव्यों मेंसुख को मानकर भटक रहे हैं....कब उतरेगा यह नशा  जब सच्चे गुरु की उन वीतरागी भगवन की और उनके बताये हुए धर्म की शरण मिलेगी..जब ही यह नशा उतर-सकेगा.....

ताहि-सुनो भाव मन थिर आन जो चाहो,अपना कल्याण,मोह-महा मद पियो अनादी भूल आपको भरमत वादी.

यह जवानी यह गृह,यह गाय भैंस,यह हाथी घोड़े,यह आज्ञाकारी,यह पांचो इन्द्रियों के भोग कितने क्षण भंगुर हैं,देखते-देखते ही छूट जाते हैं...आज कोई गरीब है तोह अगले दिन लौटरी लग गयी आमिर हो गया..पैसा हो गया..पैसा आ गया तोह धर्म को भूल गया..जबकि यह धन जो मिला है यह भी क्षण-भंगुर है-लेकिन वोह आदमी उन भोगों में इतना रम-जाता है की खुद को,तत्त्व को,वास्तु-स्वाभाव को ही भूल जाता है...यह धन-पैसा यह सब पुण्य और पाप के फल है,अगर मेहनत से मिलते तोह मजदुर सबसे ज्यादा अमीर होते ..अगर दिमाग से मिलते तोह सारे बुद्धिमान,कॉलेज के प्रोफेस्सर अमीर होते...इसीलिए यह पुण्य की वजह से हैं..लेकिन हम इस पुण्य के फल में इतना रम-जाते हैं की यह जानते हुए भी यह पुद्गल-पर्याय है...एक न एक दिन इसे विनाशना है,ऐसा निश्चित है...एक दिन मृत्यु जरूर आएगी,लेकिन इसके वाबजूद भी उसी में पड़े रहते हैं,पड़े रहते हैं...और इसी में राग-द्वेष में,इन्ही में गाफिल,इन्ही में इतना गाफिल हो जाते हैं...की हम धर्म को भूल-जाते हैं..और होता क्या है चोर-आ जाते हैं..सारा माल हड़प कर ले जाते हैं फिर पछताते हैं रोते हैं तब कोई समझाता है की पैसा तोह आणि जानी माया है,क्षण-भंगुर है...जवानी गृह क्षण-भंगुर है...तब थोड़ी शांति मिलती है..यानी की जिस भावना को दुःख में भाकर अत्यंत पीड़ा में भी शान्ति मिल सकती है..तोह हम खुद सोचें की  वैराग्य भावना-बारह भावनाएं कितनी सुख-दाई हैं  की इनका चिंतन करने के बाद अत्यंत पीड़ा भी शांति में बदल गयी...इतनी शांति मिल-जाती है..इसीलिए ऐसी भावनाएं बारह-भावनाएं जरूर भानी चाहिए..क्योंकि समता-जैसा सुख कहीं पर भी नहीं है,समता भाव जिसके पास है वोह महल में सिंहासन पे बैठे राजा से भी ज्यादा सुखी रहता है...अगर इसी भावना को अगर वह आदमी महल में ही भाता तोह शायद वह उस-धन के लुट-जाने के बाद भी दुखी नहीं रहता और सुखी ही रहता.क्योंकि उस भावना को भाता रहता तोह गफ्लियत नहीं आती,वोह यह ही विचारता की यह पैसा आणि जानी माया है,धर्म तोह मेरा स्वाभाव है,मैं दर्शन ज्ञान-स्वाभावि हूँ,मैं शारीर अदि पर-द्रव्यों से भिन्न हूँ,यह अब तोह पुण्य-पाप के फल हैं..कितने लोगों के पास पैसा..तब भी सुख नहीं है..असली सुख तोह धर्म में है..कोई क्षण-भंगुर इन्द्रिय भोगों के लिए धर्म को कैसे छोड़ सकता है...धर्म को धारण करता हो सकता है  कोई दुःख आता ही नहीं..अगर लुटेरे लूट के ले जाएँ तोह वह संसार के स्वरुप का चिंतवन करता मुनि-व्रत धारण करता और अगले भावों में मोक्ष को प्राप्त करके-अविनाशी सुख को प्राप्त करता

अनित्य भावना हमें सिखाती हैं की संसार में सारे रिश्ते-नाते सब मतलब के हैं..कोई भी अपना नहीं है.मतलब अनित्य भावना को बहाने वाला जीव अपने आप को शारीर अदि पर-द्रव्यों से भिन्न मानता है..वह कहता है की यह भोगों के साधन इन्द्रियों इ भोग तोह छूट-जायेंगे..मैं इन-से भिन्न हूँ,रही बात माता-पिता के रिश्तेदारों  के प्यार की,यह प्यार भी सच्चा नहीं है...अगर मैं इस शारीर को छोड़ कर निकल-जाऊं तोह यह गहर-वाले
 कितना रोयेंगे एक दिन दो दिन...एक दिन भी पूरा नहीं होयेगा की इसे सम्शान घाट में ले जाकर जला दिया जाएगा..न यह धन-होगी न संपत्ति काम आएगी...अनित्य भावना को भाने वाला जीव चेतना की कदर करता है..की मैं शारीर से भिन्न हूँ,और यह सब पुण्य के फल हैं..जो इक न एक दिन छूटेंगी ही.. वोह ममत्व नहीं करता है इन सब से जैसे विवेकी जीव झूठे भोजन को खाने में ममत्व नहीं करते..ऐसी ही परम-विवेकी अनित्य भावना  भाने वाला,ऊँचा-पद,प्रतिष्ट,राज्य-सम्पदा,तारीफ,मान-सम्मान,और नीच पद,बुरे,अपमान,निंदा पाने पर भी ममत्व नहीं करता क्योंकि वह इस बात ka चिंतन करता  है की यह राज्य तोह झूठन है..कितने राजा-हुए इस राज्य के,कितने लोग बैठे हैं इस इंजिनियर की पोस्ट पे,कितने लोगों ने इस जमीन को ख़रीदा है,कितने लोग परीक्षा में प्रथम आये हैं,आयेंगे,और आ रहे हैं..इस में कोई ख़ास-बात नहीं है,यह आज तारीफ़ कर-रहे हैं कल बुरे करेंगे,यह ही लोग कल कष्ट का दुःख में निमित्त बनेंगे..इसलिए ऐसी प्रशंसा से क्या ममत्व करना,ऐसी ऊँची कुर्सी से कैसा ममत्व..जो हाल बड़े मंत्री की आज्ञा से नीची हो जाए..यह तोह कुछ भी नहीं मैंने तोह स्वर्ग के भोगों से भी तृप्त नहीं इन से क्या मन-भरेगा,यह इन्द्रिय भोग इनके भोगने से पहले,भोगते समय,भोगने के बाद आकुलता,इनमें कैसा ममत्व करना...इस प्रकार का चिंतन अनित्य भावना करना सिखाती है.
        

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