Saturday, December 17, 2011

SACHCHE-DEV -SACHCHE AAPT-ISHWAR KA SACHCHA SWAROOP

सच्चे देव-आप्त-इश्वर --या इश्वर का सच्चा स्वरुप...कौन है इश्वर है

अगर कोई हाथ में हथियार रखे हैं..यानी की उन्हें डर-लग रहा है..आखिर किसी को हथियार की क्या जरूरत उसमें मरने का,या संकट,कष्ट पड़ने का डर है,भय है तभी तोह हथियार रखे हैं,नहीं तोह हथियार क्यों रखे हैं,कमजोर ही हथियार रखता है.,जिसे लगता है की वह शारीर के माध्यम से नहीं लड़-सकता है,और भय-भीत है....,या दूसरा कोई इंसान कामी है तोह वह स्त्री के प्रेम में अँधा है,भोगों में पड़ा है..और आकुलित रहता है...क्योंकि काम आदमी को बहुत दुखी कर-देता है..सुख नहीं होता,,,कोई गुस्से में है तोह भी मतलब आकुलित है,उस समय वह आनंद-स्वरुप तोह हो ही नहीं सकता,कोई घमंड में है...मतलब गाफिल हो गया है,उसे  सिर्फ धन-पैसा ही दिखाई दे रहा है..और घमंड के चक्कर में परेशान है,माया-चारी करता है,छल कपट करता है तोह भी दुखी ही तोह हुआ..कोई छल कपट क्यों करेगा उसके पास कोई दुःख आ रहा हो,उससे छुपने के लिए और माया-चारी करने वाले को हमेशा आकुलता रहती hai ..की कहीं वह कशाल-खुल न जाए..और जैसे अगर किसी को बंधन में जकड लिया जाता है,बाँध दिया जाता है,जो डर-कर भागता है,भूख-लगती है,प्यास लगती है,साधे-साती लग-जाती है,मोह-माया,राग-द्वेष में बंधा हुआ है,या उस पर किसी प्रकार  ke  ग्रहण आ जाये,संकट आ जाए..तोह वह तोह एक संसारी जीव ही तोह हुआ..क्योंकि इश्वर तोह परम-आनंद स्वरुप होते हैं और अगर ऊपर बताये गए किसी भी अवगुण में से कोई भी अवगुण अगर उस इश्वर के स्वरुप में आ जाये तोह वह इश्वर कहाँ  रहा..वोह तोह फिर महा-दुखी कहलायेगा...वोह सुख रूप कैसे कहलायेगा,जिसको डर लगता है उसकी पूजा से कोई निर्भय कैसे हो सकता है,जो खुद-क्रोध-मान-माया-लोभ-काम-विकार-राग-द्वेष-बंधन-हर्ष-विषाद-शोक-संकटों से घिरा है वह तोह इश्वर हो ही नहीं सकता..जो खुद महा-दुखी ही...उसको पूजने से कोई परम-सुखी तोह बहुत दूर की बात सुखी भी नहीं हो sakta ...और इन में से किसी एक भी अवगुणों का इश्वर में विद्यमान बताना तोह इश्वर  शब्द के मजाक उड़ाने जैसा है....इसलिए हमें इश्वर के सच्चे स्वरुप को ही सर झुकाना चाहिए...आखिर यह सर कोई नारियल थोड़ी है जो कहीं भी किसी के आगे भी न रूप देखे,न स्वरुप देखे...और झुक जाए....तोह इश्वर का सही स्वरुप क्या जो की वीतरागी हैं..मतलब दोषों से रहित हैं...जिनसे दोष मीलों दूर हैं....मतलब जिसमें काम-क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष-बंधन-चिंता-मोह-संकट-ग्रहण-साढे-साती-भय(डर), क्रूरता,मोह अदि दूर-दूर तक मौजूद नहीं हैं....मतलब जो इन सब में से किसी भी एक अवगुणों से सहित है वह इश्वर-भगवान नहीं हो-सकता..जो भक्त से रूठ जाए,मतलब क्रोधित हो जाए,जो भक्त से अपनी भक्ति करवाए,जो अपनी शक्ति का प्रदर्शन करे,जिसमें पूज्यता का लालच है,अपनी प्रशंशा करे,विवाहित है वागल में स्त्री को लेकर बैठा है,हाथ में गदा है,क्योंकि भय है..जिस-पर संकट आ जाते हैं,जिसे कोई जीत-जाता है और उसे बंधन में बांधता है...या वह भक्त की चिंता में ही डूबा है तोह वह व्याकुल तोह हुआ ही न...दुखी तोह हुआ ,दुखी तोह कहा ही जा सकता है है उसे,क्योंकि चिंता करने वाला कभी सुखी नहीं होता,चिंता-चिता सामान्य..ऐसी कहावत  भी है अब चाहे उसे भक्त की चिंता है लेकिन आकुलता तोह हुई न,दुःख तोह मौजूद है उसमें,फिर वह परम-सुखकारी,परम-दुःख-हारी..परमात्मा कैसे हो सकता है....और अगर वह भक्त से ही क्रोधित हो जाए...जीवों को दुःख दे,परेशानी दे,आकुलता में कारण बने,नरक में जा-कर या नरक में वोह इश्वर नाम की सत्ता जीवों को सताए,परेशान करे...तोह उसके अन्दर दयालुपन   कहाँ रहा?...फिर उसे कोई कैसे परम-दयालु,क्षमा-वां परमात्मा कैसे हुआ...और अगर वह किसी को दुःख दे रहा तो मतलब वह स्वयं भी दुखी ही है,और दुखी ही होगा..क्योंकि किसी को दुःख-देकर कोई भी सुखी नहीं रह सकता..माना जीवों ने गलत कर्म किये इसलिए नरक में दुःख भोग रहे हैं लेकिन उन जीवों पे वह दया क्यों नहीं करता..वह उन्हें परेशान क्यों कर रहा है..वोह जीव अगर कर्म-फल भोग रहे हैं तोह उस परमात्मा को बीच में आने की क्या जरूरत..वोह क्यों दुःख दे रहा है...और क्यों दुखी हो रहा है..वह क्यों अपने परम-आनंद स्वरुप से क्यों परेशान हो रहा है..या व्यथित हो रहा है..तोह इतना तोह पक्का है की इश्वर इन सब दोषों से परे है..और उसे संसार में रह-रहे -दुखी जीवों के दुःख में वह कारण नहीं है,नहीं तोह वह परमात्मा नहीं है..और अगर सुखी जीव हैं तोह उस परमात्मा ने उसे सुखी नहीं किया है,उनकी पूजा से ही सुख को प्राप्त हुआ है...क्योंक सुखी को देखकर सुख-बढ़ता है..और उसकी पूजा ही सुखकारी है....अब यह तोह हो गया की इश्वर वीतरागी होना चाहिए,मतलब दोषों से रहित होना चाहिए...और वीतरागी होना इसलिए भी  जरूरी है क्योंकि राग या द्वेष के वश में चीजों को अच्छे से नहीं जान-पाते...क्योंकि राग-द्वेष है तोह पक्ष-पात होगा..और paksh -पात होगा और राग  की  बातों को सही कहा जाएगा,और द्वेष  में द्वेष की  बात है... सही  होकर  गलत  aur dwesh mein dwesh ki baatein sahi hokar galat kahega...jaise maa-putra ko rag ke kaaran galat hote hue bhi sahi batati hai..usko galtiyan najar nahi aatin ...is kaaran vah bachche ko sahi batati hai...maan ko sahi lagta hai..lekin vaastav mein bachcha hota toh galat hai..isliye raag-dweshi cheejon ko sahi tareeke se nahi bata-paayega..isliye nir-pakshpaati hona matlab veetragi hona isliye bhi jaroori hai...aur jo veetragi hoga uski baat hamesha sahi hogi...kahi bhi galat nahi ho sakti..jaise paise ke raag mein fasa hua aadmi nirdosh ko bhi doshi keh deta hai..lekin vaastav mein fansta toh nirdhosh hi hai...isliye raag-dwesh mein kahi hui baat sahi हो भी सकती है  और नहीं भी  हो-sakti हैं ...लेकिन  वीतरागी  की  बात  कभी  भी  गलत  नहीं  हो  सकती  है ..इसलिए वीतरागी की बातों का यकीन करना चाहिए..रागी की बात गलत कही जा सकती है..लेकिन वीतरागी  बात नहीं..इसलिए रागी की बात और वीतरागी की बात में से वीतरागी की बात सही कहलाई जायेगी..      ...लेकिन क्या सिर्फ वीतरागता के होने से कोई इश्वर कहलाया जा सकता है...अचेतन वास्तु में भी तोह क्रोध नहीं,मान नहीं,लोभ नहीं,काम नहीं,विकार नहीं,राग नहीं,द्वेष नहीं,डर नहीं,ग्रहण नहीं,संकट नहीं..वह भी तोह दोष-रहित हैं..तोह उने भगवान क्यों नहीं मान लिया ..इसीलिए इश्वर में एक और गुण होना होना जरूरी है जिसका नाम सर्वज्ञता है....उस इश्वर को jagat की साड़ी चीजें,भूत-भविष्य-वर्तमान सहित एक ही समय में दिखाई देनी चाहिए...तभी उसे सर्वज्ञ कहलाया जा सकेगा..अगर कोई सब कुछ देख तोह सकता है...लेकिन सब एक साथ-एक समय में नहीं जानता..तोह उसकी प्रतिपादित बातों में गलती हो सकती है..और वह सही से वस्तु का स्वरुप नहीं समझा-सकता क्योंकि जब वोह सारी-चीजों को  समय में  नहीं  जाने  तोह  उसे  न  जानी  हुई  चीजों  को  जान्ने  के  लिए  ध्यान  लगाना   पड़ेगा ..चाहे  वह  बहुत  कम  समय  का  हो ..लेकिन  इससे  आकुलता  तोह  आएगी मतलब दुःख आएगा,अगर  ध्यान  लगाएगा  तोह  उस  वस्तु  की  और  जाना  भी  पड़ेगा ,राग  भी  होगा  उस   वस्तू   को   लेकर ...फिर  उसमे in वीतरागता  नहीं   रहेगी ...इसलिए  सब  कुछ   एक  काल   एक  समय   में  जानना  ही  जरूरी  है ...अगर ऐसा नहीं है तोह वह परमात्मा नहीं है क्योंकि वह सर्वज्ञ नहीं है...और वीतरागी नहीं है...क्योंकि अगर उसे वस्तू की और जाना-पद रहा है...या सोचना पद रहा है तोह उसमें आकुलता है..और आकुलता है तोह वह परम-सुख रूप आनंद कारी इश्वर परम-ब्रहम कैसे कहलायेगा...............लेकिन सिर्फ इश्वर होने के लिए सिर्फ वीतरागता और सर्वज्ञता का होने से काम नहीं चलेगा...वह इश्वर हितोपदेशी भी होना चाहिए..क्योंकि अगर वह वीतरागी है,सर्वज्ञ है लेकिन हमें ऐसा होने का मार्ग नहीं बता रहा है..तोह उससे-हमें क्या फायदा होने वाला है,उसके पूजने से क्या फायदा..उससे क्या मिलेगा..इसलिए इश्वर हित का मार्ग बताने वाला भी होना चाहिए...अब हित का मार्ग कौन बताएगा जिसने अपना हित कर लिया हो,जो खुद किसी रोग से ग्रस्त है तोह वह किसी दुसरे को उस रोग से मुक्त नहीं  सकता...क्योंकि अगर करा सकता तोह खुद को पहले क्यों नहीं कराया..जिसने अपना हित नहीं किया उसको पूजने से कभी किसी का हित नहीं होने वाला,जो खुद मोह-माया में और राग-द्वेष में पड़ा है और कोई कहे की उसको पूजने से मोह-नष्ट हो जाएगा,राग-द्वेष नष्ट हो आएगा  तोह ऐसा असंभव है....क्योंकि एक कहावत भी है की"पर उपदेश कुशल बहुतेरे"..पर को उपदेश देना आसान है..खुद-पालना बहुत कठिन है...अब कोई इश्वर नाम की सत्ता मोह-माया-शोक-ग्रहण-साढ़े-साती-संकट-कष्ट-पीड़ा-चिंता-आकुलता,तृष्णा,क्रोध,मान,माया,लोभ.. अदि रोगों से ग्रसित है ...तोह पहली बात तोह वह इश्वर है ही नहीं..और वोह कहे की मेरे को मानने से तुम्हारे रोग-शोक काटेंगे तोह ऐसा कैसे संभव है??????? अगर कोई कहे गुस्सा त्यागो और हुड गुस्सा करता है तोह उसकी इस बात का कोई महत्व रहेगा...बिलकुल नहीं रहेगा...या अगर उसको पूजने से किसी का गुस्सा कम हो या तोह सिर्फ एक संयोग मात्र है..उस गुस्से के कम होने में वह कारण हो ही नहीं सकता..किसी बीमार की दी हुई दवाई किसी दुसरे आदमी को उसी बीमारी से बचा सकती है...अगर दूसरा आदमी ठीक हो जाता  है..तोह उसका कारण वोह दवाई नहीं हो सकती..निश्चित है की उसके द्वारा पहले खायी हुई सही दावा खाने  का या पहले किया हुआ कोई उपचार अब असर दिखा रहा हो...लेकिन वोह दवाई उसको उस बिमारी को र होने में कारण नहीं हो सकती.क्योंकि अगर हो सकती तोह पहला बीमार आदमी उसको खा-कर क्यों ठीक नहीं हो जाता..इसलिए जो खुद राग-द्वेष से रहित हैं..क्रोध-मान माया-लोभ से रहित हैं उनके द्वारा दिए हुए उपदेश ही सबको कल्याणकारी हो सकते हैं और वह ही हितोपदेशी हैं........(अचेतन चीजें हित का उपदेश तोह नहीं देती..इसलिए वह इश्वर नहीं  हैं..और न ही हो सकती हैं)...............

इसलिए सच्चे देव कैसे "जो वीतरागी हैं सर्वज्ञ हैं और हितोपदेशी हैं वह ही सच्चे देव हैं"...और वह ही संसार में शरण हैं वह ही पूजनीय हैं जिनमें यह तीन में से एक गुण विद्यमान नहीं है वह देव-सच्चे नहीं हैं और वह संसार सागर में पत्थर की नाव के सामान हैं........

जय जिनेन्द्र.......भगवान की ...वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी भगवान आदिनाथ की,भगवान शांति नाथ की,भगवान महावीर की..,चौबीसों तीर्थंकर भगवान की...भगवान राम की,भगवान हनुमान की,भगवान कुम्भकरण की,भगवान मेघनाथ की,भगवान बाली की,भगवान मय की..भगवान सुग्रीव की,भगवान नल की,भगवान नल की.....जो वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी हैं उनको मेरा नमस्कार है.........

लिखने का आधार- अपने विचार हैं..अगर आपको कोई बात अनुचित लगे तोह जरूर कमेन्ट दें... 

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