Thursday, March 1, 2012

संसार में एक मात्र जिनेन्द्र देव के द्वारा प्रतिपादित धर्मं ही मुक्ति का कारण है...अन्य कोई मत मुक्ति का कारण नहीं है,न हो सकता ...किसी मत में हम देखेंगे की इच्छाओं को,राग-द्वेष को दुखदायी बताया है और वह सब चीए परमात्मा में मौजूद बतायीं हैं,उन मतों में कहते हैं की आत्मा को कभी-डर नहीं लगता...लेकिन उन मतों में परमात्मा को हथियार रखे दिखाया...अब खुद सोचा जाए की हम कह रहे हैं की आत्मा को डर नहीं लगता...लेकिन परमात्मा भय्बीत है,तभी तोह हथियार रखे हैं...उन मतों में कहते हैं की काम क्रोध,मोह और लोभ त्यागो..लेकिन बड़ी हास्यप्रद बात यह है की उनके द्वारा बताये गए परमात्मा में यह काम (बगल में स्त्री),क्रोध(किसी भक्त से नाराज,गुस्सा,श्रंप देना),मोह(क्रोध,काम है तोह मोह तोह है ही),लोभ(लालच,पूजा का लालच,न पूजने वाले से लालच,सपने में गुस्सा होना,प्रसन्न होना..यह लोभ नहीं तोह क्या है)..,उन मतों में कहते हैं की आत्मा न कभी मरती है न डरती है..लेकिन उनके अनुसार जो परमात्मा है उसे साधे-साती लग-जाती है और ७.५ महीने तक पेड़ की कोटर में छिपा रहता है...या राक्षसों से डर-डर कर भागता है....जब आत्मा मरती नहीं.लेकिन परमात्मा मृत्यु के डर तोह बहुत दूर की बात,शत्रु से घबराकर भाग रहा है,संकटों से घबरा-रहा है  ऐसा कैसे संभव है..इच्छाएं दुःख का कारण हैं...बिलकुल हैं...इससे हम समझ सकते है की जो इश्वर है,वह सुख स्वरुप है..और  उसमें  इच्छाएं और राग-द्वेष नहीं होना चाहिए..बिलकुल ठीक है....लेकिन उन मतों में कहा है की इश्वर ने संसार बनाया है...जब इश्वर में इच्छा ही नहीं तोह उसने संसार को कैसे बना लिया,उसके मन में विचार कैसे आया,और क्या वह बिना इच्छा के संसार का परिपालन कैसे कर सकता है.. ..जब आत्मा में इच्छाएं नहीं है...तोह परमात्मा में इच्छाएं कैसे आ गयीं? ..सही मायने में देखा जाए तोह इश्वर कभी भी इस प्रकार का जैसा इन मिथ्या मतों में कहा है वैसा हो ही नहीं सकता..क्योंकि अगर इच्छाएं,राग-द्वेष,क्रोध,मान,माया,लोभ,काम,दर अदि हैं तोह वह तोह हमारे सामान है उसमें और हमारे में अंतर क्या है और देखा जाए तोह आत्मा में इच्छाएं नहीं हैं तोह वह तोह इच्छा वाला है...तोह वह तोह आत्मा से भी निचे गिरा हुआ है...परमात्मा तोह हो ही नहीं सकता.. .किसी मत में कहते हैं की इश्वर का कोई स्वरुप ही नहीं है...न शारीर है न क्रोध है...न कुछ है..ठीक है बहुत अच्छी बात है......लेकिन फिर यह कहते हैं की इश्वर ने संसार को बना दिया...जब उसमें शारीर हाथ,पैर,कुछ है ही नहीं तोह उसमें संसार को कैसे बना लिया..जब कोई स्वरुप ही नहीं है तोह हाथ पैर से बनाएगा..कैसे बनाएगा..बिना इच्छा के,बिना राग-द्वेष के संसार कैसे बन गया..???...इसलिए वोह मत भी मुक्ति का कारण नहीं हो सकता...संसार में इसलिए सिर्फ जिन-धर्मं ही मुक्ति का कारण है..अन्य कोई मत हो ही नहीं सकता...
कोई कहता है की इश्वर हमें चला रहा है वोह जो चाहे वोह होगा..जो करवाए वह होगा...अगर ऐसा है तोह मेरी खुद की स्वतंत्रता कहाँ गयी...एक तरफ कहेंगे आत्मा स्वतंत्र है...दूसरी तरफ इश्वर के कब्जे में है..और अगर ऐसा ही है तोह हमें कुछ करने की कुछ जरूरत ही नहीं है...ऐसे ही बैठे रहो...फिर उसके पास जाके प्रार्थना करने की क्या जरूरत पड़ गयी???....और सब कुछ उसी की मर्जी से हो रहा है तोह संसार में जितने भी बोम्ब-ब्लास्ट,धमाके,आतंकवादी हुए है सब उसी की स्वीकृति से हो रहा है..वोह ही इतना हिंसक और क्रूर है और तानाशाही चला रहा है..की जब चाहे कुछ कर दे....इसलिए यह मत भी गलत है..मिथ्या है...

इसलिए संसार में सिर्फ और सिर्फ जिन-धर्मं ही संसार से छूटने में एक मात्र कारण है.......अन्य कोई मत मुक्ति का कारण हो ही नहीं सकता...और धर्म वह ही होता है जो उत्तम सुख को दे...इसलिए सिर्फ जिन धर्म ही धर्म है...

'खुद के विचार हैं"...

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