Wednesday, March 7, 2012

मैं शुद्ध दर्शन ज्ञान स्वाभावि आत्मा हूँ..मैं शरीर नहीं हूँ..क्योंकि शरीर अचेतन है...मैं चेतन हूँ,क्योंकि मैं अचेतन नहीं हूँ,अचेतन वह जो वर्ण,स्पर्श,रस,अदि से युक्त है..शरीर इन लक्षणों से युक्त है...इसलिए शरीर पुद्गल है,अचेतन  है...लेकिन मैं चेतन हूँ इसका मतलब मैं शरीर से भिन्न  हूँ,क्योंकि शरीर अचेतन है...अब जब मैं शरीर से भिन्न हूँ तोह मैं शरीर की चिंता क्यों करू...मैं शरीर के बारे में क्यों सोचूं,मैं शरीर की सेवा में मनुष्य जीवन को क्यों व्यतीत करूँ..इस शरीर से राग रखने का कोई मतलब नहीं क्योंकि यह बीमारी का घर है,इसको सागर के जल से नहला दिया जाए तोह भी शुद्ध नहीं होगा...तोह मैं इससे कैसा राग रखना कैसा राग-रखना...और इस शरीर के प्रति राग होना मेरे कर्म बंध का कारण हैं...अब जब मैं शरीर से सर्वथा भिन्न हूँ...तोह फिर यह प्रकट दूर दिखने वाले कपडे,माता-पिता,कम्बल,पैंट,भाई-बहन,पत्नी वगरह यह मेरे कैसे हो सकते हैं...जो कुछ भी मुझे दिखाई देता है वह अचेतन है..लेकिन मैं चेतन हूँ,तोह फिर मैं सबसे भिन्न ही तोह हुआ...मेरा स्वाभाव शरीर के स्वाभाव से सर्वथा भिन्न है...तोह मैं शरीर को अपने रूप मानकर क्यों दुखी हो रहा हूँ..यह  बीमारियों   का  घर ..मैं अनंत सुख स्वाभावि आत्मा..तोह मैं अपना कल्याण क्यों न चहुँ मुझे बिलकुल अपना कल्याण चाहना चाहिए और उसी मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए..   

No comments:

Post a Comment