Sunday, April 8, 2012

SHRI RATNKARAND SHRAVAKACHAAR

१.मैं उन श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार करता हूँ जिन्होंने नष्ट किया है कर्मों को...जिनके ज्ञान में आलोक सहित तीनों लोक झलक रहे हैं
२.जो समीचीन है,जिसमें प्रत्यक्ष और अनुमान का कोई विरोध नहीं,जो कर्मों से मुक्त कराये,संसार के दुखों से मुक्त कराकर स्वर्ग और मोक्ष के सुखों को दे ,(जिस मोक्ष में अतीन्द्रिय,शास्वत,स्वाधीन,आत्मोत्पन्न,बाधा रहित,अखंडित सुख है.) वह धर्म है..
यह धर्म किसी के मांगने से नहीं मिलता है,त्याग,तपस्या से नहीं मिलता,माला जपने से नहीं मिलता है.,अभिषेक,पूजा,नदी,पहाड़ जाने से नहीं मिलता,खरीदने से नहीं मिलता...बल्कि धर्म तोह हमारी आत्मा का स्वभाव है...यह सब मंदिर आदि तोह धर्म में निमित्त मात्र है,जब हमारे पास रत्नत्रय,दसलक्षण धर्म आर दया प्रकट हो जाती है,तोह यह मंदिर त्याग तपस्या अदि सब धर्म रूप हो जाते हैं...
..धर्म तोह दसलक्षण से युक्त,रत्नत्रय और दया रूप है..
३.सम्यक दर्शन,सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र धर्म है,ऐसा धर्म के इश्वर वीतरागी,सर्वज्ञ और हितोपदेशी भगवन ने कहा है,यदि मिथ्या दर्शन,मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चरित्र का सेवन करते हैं तोह संसार भ्रमण ही करना पड़ता है.
४.सच्चे आप्त,सच्चे आगम और सच्चे गुरु पर श्रद्धां करना परमार्थ के लिए सम्यक दर्शन है,यह सम्यक दर्शन तीन मूढ़ता से रहित ८ मद से रहित,और अष्ट अंग से सहित है,बिना सच्चे आप्त के और सच्चे आगम को पढ़े हुए सात तत्वों,नौ पदार्थों का श्रद्धान कैसे हो सकता है.
५.आप्त के तीन लक्षण हैं-निर्दोषता,सर्वज्ञता और हितोप्देशकता,इन तीनों के बिना आप्त-पाना संभव नहीं है,
अगर कोई क्षुदा,तृषा,काम,क्रोध से सहित है तोह खुद ही महा-दुखी है,अगर हाथ में हथियार रखे हैं,तोह भय है,शत्रु हैं,तोह निराकुल कैसे हो सकता है,द्वेष-चिंता आदि के साथ कोई सुखी कैसे हो सकता है,राग और काम अगर मौजूद है तोह पराधीन है और दुखी है,इसलिए आप्त को निर्दोष होना चाहिए,अगर जन्म मरण से युक्त है तोह संसारी ही है..
अगर सर्वज्ञ नहीं है तोह राम-रावण अदि को कैसे जानेगा,परमाणु,अनु को,और दूरवर्ती स्वर्ग नरक अदि की चीजें कैसे बताएगा,इन्द्रिय ज्ञान तोह प्रत्यक्ष वस्तु भी नहीं देख सकता,मतलब सारे द्रव्यों के अनंत गुण हैं उनकी अनंत पर्याएं हैं,वह उनके ज्ञान में स्पष्ट झलकनी चाहिए,इसलिए सर्वज्ञता का होना भी जरूरी है,सिर्फ निर्दोष कहने से सारे गुण आ जायेंगे,तोह सर्वज्ञता और हितोप्देशकता को कहने की क्या जरूरत?,क्योंकि पुद्गल,नभ,धर्म,अधर्म और काल इन द्रव्यों में भी तोह राग-द्वेष नहीं फिर तोह यह भी आप्त पाने में आ जायेंगे,इसलिए तीनों गुणों का मौजूद होना जरूरी है.चार घातिया कर्मों का नाश करके अनंत चतुष्टय से ही आप्त पाना आता है.

५.क्षुदा,तृषा,भय,आतंक,जन्म,मरण,राग,द्वेष,मोह,विस्मय,खेद,स्वेद,मद,उद्वेग,नींद,रोग,रोष,रति....भगवन इन १८ दोषों से रहित होते हैं.
6.parmeshthi यानी की परम इष्ट,जो इन्द्र अदिक देवों द्वारा वन्दनीय हैं,अनंत दर्शन,ज्ञान,सुख,बल रुपी अन्तरग विभूति से सहित है,समवशरण अदि बहिरंग विभूति से स्तिथ है,चार अंगुल ऊपर सिंहासन पर अधर विराजमान है,चौसठ चंबर से युक्त हैं...वह parmeshthi हैं,क्षणभंगुर राज सम्पदा से युक्त,काम क्रोध स्त्री आदि से युक्त parmeshthi नहीं होता है.
 परं-ज्योति-पर यानी की अवारण रहित,ज्योति यानी जिनके अतीन्द्रिय ज्ञान में समस्त लोकालोक में सारे द्रव्यों की अनंत गुण पर्याय युगपत प्रतिबिंबित हो रही है,
जो अपने ज्ञान में क्रम से वस्तुओं को जानता है,काम क्रोध के साथ है वह पर ज्योति नहीं हो सकता है

जिसने मोहिनीय कर्म का नाश किया,राग-द्वेष का अभाव किया है,संसार के स्वाभाव को जान-लिया है,अब उसमें न राग-रहा-न द्वेष,वह विराग हैं.
जिसने काम-क्रोध,मान माया लोभ अदि भाव कर्म,शारीर में मल मूत्र अदि से रहित हो,निगोदिया जीवों से रहित हैं इसलिए विमल हैं
जिनको अब कुछ भी करने को बाकी नहीं रहा,अ,वह सवा स्वाभाव में बहुत अच्छी तरह स्थिता हैं..इसलिए कृति हैं
जिनके ज्ञान में लोकालोक की समस्त द्रव्य अनत गुण पर्याय एक साथ प्रतिबिंबित हो रही हैं इसलिए सर्वज्ञ हैं
जो जीव द्रव्य के अपेक्षा से और अनंत दर्शन,ज्ञान,सुख,बल स्वभाव की अपेक्षा से  न अदि है,न मध्य है न अंत,जिनका न अदि न अंत हैं इसलिए अनादी मध्यांत हैं
जो वचन और काय योग के माध्यम से सभी जीवों को मोक्ष मार्ग बताते हैं हैं इसलिए सार्व हैं
जो भव्य जीवों को हितकारी मोक्ष सुख की शिक्षा देते हैं इसलिए शास्ता हैं
७.जो आप्त होते हैं,वह बिना किसी अभिमान,लोभ,ख्याति,प्रशंशा के लिए भव्य जीवों को उपदेश देते हैं,जसी प्रकार शिल्पकार द्वारा मृदंग बजाये जाने पर मृदंग उसके बदले कुछ नहीं चाहता है,समुद्र में रत्न परोपकार के लिए होता है,नदियों में पानी परोपकार के लिए होता है,बादल दूसरों के हित के लिए बरसते हैं,उसी प्रकार सत्पुरुष बिना किसी अभिमान,लोभ,ख्याति,प्रशंशा अदि को चाहे कल्याण का उपदेश देते हैं,बिलकुल इसी तरह आप्त भी बिना चाहे जीवों के कल्याण का उपदेश देते हैं.
८.जो वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा कहे गए हों,जिसमें  प्रत्यक्ष और  अनुमान का विरोध न हो,इन्द्र अदि देवों के द्वारा ग्रहण करने योग्य हो अथवा अन्य वादियों के द्वारा अखंडनीय हो,तत्वों का उपदेश करने वाला हो,सबका हितकारी हो और मिथ्या मार्ग का निराकरण करने वाला हो.वह ही सच्चे शास्त्र हैं.

सर्वज्ञ के द्वारा कहा होना चाहिए क्योंकि अगर सर्वज्ञ नहीं है तोह स्वर्ग-नरक के बारे में कैसे बताएगा,राम-लक्ष्मण के बारे में,सूक्ष्म पदार्थों के बारे में कैसे बताएगा,अगर वीतरागी के द्वारा न कहा गया हो तोह भी ठीक नहीं है,हेय उपादेय,त्यागने योग्य ग्रहण करने योग्य मार्ग को बताने वाला हो...

इस पंचम काल में बड़ी मिथ्या मत चल गयी हैं,जो की मिथ्या शास्त्रों से आई हैं,जैसे की गणेश को लड्डू खाना,चूहे की सवारी करना,सूअर अदि जीवों का अवतार लेना नारायण को कहा है,ब्रह्मा को सृष्टि का निर्माता बनाकर पुत्री से ही भोग करने वाला कहा है,किसी अप्सरा पर आसक्त होना कहा है,४००० वर्ष की तपस्या के फल स्वरुप ४ मुख बनाना कहा है,ग्वाले की स्त्रियों को हरण करने वाला कहा है,शिव को आधा नारी का अकार कहा है..तथा बड़ी उलटी सीधी कल्पनाएं कहीं हैं,इन मिथ्या मार्गों ने जीवों को सच्चे धर्म से विमुख कर दिया है.

इसलिए सच्चे शास्त्र का निर्णय करने के लिए कहा है.

८.जो पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्त है..निरारम्भ हैं और परिग्रह नहीं है..जो ज्ञान-ध्यान और तप में रत रहते हैं वह तपस्वी कहलाते हैं

जो विषयों के लम्पति,रसना इन्द्रिय के स्पर्शन इन्द्रिय के,घ्राण इन्द्रिय,चक्षु और कर्ण इन्द्रिय के वह तोह राग से युक्त है,वह तोह सराग के मार्ग में ले जाएगा,उल्टा वीतराग मार्ग से दूर करेगा..
और विषयों का लम्पति तोह बहिरात्मा है...इसलिए गुरु को विषयों से विरक्त होना चाहिए...
यह परिग्रह संसार का कारण है..मिथ्यात्व,क्रोध,मान,माया,लोभ,हास्य,रति,अरति,शोक,भय,जुगुप्सा,स्त्री-वेड,नपुंसक-वेद ..और १० प्रकार के बहिरंग परिग्रह..यह तोह संसार बढाने में कारण हैं..और यह ही कारण हैं जिनके कारण जीव संसार में भटक रहा है ...जो इन सब से युक्त है वह तोह खुद ही संसार में दुःख पायेगा...उसमें गुरुपना कैसे संभव है.....ज्ञान-ध्यान-तप ही जिनके रत्न है..जो की भोजन  करते समय भी ज्ञान-ध्यान-तप में लीं रहे..वह ही प्रशंशनीय हैं....
९.जैसा यहाँ सच्चे आप्त,सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु का स्वरुप बताया है...वह ही सच्चा है अन्यथा नहीं है...इस प्रकार की अकंप श्रद्धा..सन्मार्ग में संशय रहित श्रद्धा को निशंकित गुण कहा है.

संसार में तरह -तरह के अस्त्र-वस्त्र,शास्त्र धारी देव हैं..हिंसा में धर्म बताने वाले शास्त्र हैं....और विषयों के लम्पति गुरु हैं...लेकिन सम्यक दृष्टी जानता है की यह देव सच्चे नहीं है,शास्त्र और गुरु सच्चे नहीं ...और वह मिथ्यामार्गियों की चाल में आकर,किसी भी तरह बातों में न आकर सच्चे मार्ग में अकम्प श्रद्धा  ,संशय रहित  रूचि रखता है
जब सम्यक दृष्टी सात तत्वों का सच्चा श्रद्धां जैसा जिनेन्द्र देव ने कहा है...तोह उसके सात प्रकार के भय नहीं होते हैं.१.इह-लोक भय,२.पर-लोक-भय,३.वेदना-भय,४.मरण-भय,५.अनरक्षा,६.अगुप्ती भय और आकस्मित भय इस प्रकार सात भय नहीं होते हैं.
१०.संसार के विषय भोग कैसे हैं कर्मों के अधीन हैं, अंत से सहित हैं,दुःख से मिश्रित और बाधित हैं,पाप के कारण हैं सुख नहीं है,ऐसी विषय सुख में अरुचिपूर्ण श्रद्धा को निकांक्षित अंग माना गया है.
संसार के विषय भोग कैसे हैं स्त्री के,धन के,कर्मोदय के,पर के आधीन हैं,अंत से सहित हैं,तथा दुःख सुख से मिश्रित हैं...और पाप के कारण भी हैं.जब सम्यक दृष्टी को इन विषय सुखों में सुख की आस्था ही नहीं होती है वह उनकी चाह कैसे करेगा,सम्यक दृष्टी तोह चक्रवती और स्वर्ग के वैभव में भी सुख को नहीं देखता है तोह वह उनकी चाह कैसे करेगा..इस प्रकार यह निकांक्षित अंग कहा गया है
११.काया तोह स्वाभाव से ही अशुचि है,लेकिन रत्नत्रय के होने से पवित्र हो जाती है,ऐसे बिना घ्रणा के भावों का होना,तथा मुनिराज के गुणों से प्रीती होना निर्वचिकित्सा अंग कहा है.

सम्यक दृष्टी को मुनिराज के गुण से प्रीती होती है,वह अशुचि काय को देखकर घ्रणा नहीं करता है,और उन मुनिराज के गुण से प्रीती रखता है,सम्यक दृष्टी वास्तु के स्वभाव को तोह जानता ही है,वह देह की अपवित्रता,मलिन,गंधे स्थान को ,मकान को,शारीर की,अपवित्रता को देखकर,सुनकर घ्रणा नहीं करता है...क्योंकि वह जानता है की यह वास्तु का स्वाभाव है,वह किसी कषाय के उदय से किसी व्यक्ति को नींद आचरण करते हुए देखकर भी अपने भाव नहीं बिगाड़ता है,इष्ट के वियोग अदि में,गंधे मल अदि को देखकर भी घ्रणा नहीं करता है,इस तरह से निर्वचिकित्सा अंग कहा है,जिसके निर्वचिकित्सा होती है उसके ही दया होती है,उसी के वैयावृत्त होती है.
१२.मिथ्या मार्गों की,तथा उन मिथ्या मार्ग पर चलने वाले लोगों की मन,वचन काय से,चुटकी अदि बजाकर सराहना हाथ पे हाथ रखकर सराहना भी नहीं करता है,वचन से भी संस्तावन नहीं करता,मानसिक सम्मति से रहित होता है,इस गुण को अमूढ-दृष्टी कहते हैं
संसार में अनेक मार्ग हैं जिनमें जीवों को मारने में,कुआँ-खुदवाने-में,तालाव खुदवाने में,कुदान करने में धर्म माना है,भस्म रखने वाले,हाथ ऊपर करके रहने वालों को,कंदमूल अदि अभक्ष्य खाने वालों को प्रशंशनीय माना है,अथवा रागी-द्वेषी-अस्त्र-वस्त्र-शास्त्र-धारी-देवी-देवताओं-जो-वक्र-परिणामी-हैं उनसे-मनोकामना-अदि की पूर्ती करवाने में-रिश्वत अदि देने में-की अगर काम पूरा हो गया तोह छत्र चढाऊंगा,सवामनी करूँगा,जीव को मारूंगा अदि और पद्मावती,क्षेत्रपाल,चक्रेश्वरी आदियों को रक्षक देव मानकर पूजना अदि..इन सब क्रियाओं की सम्यक-दृष्टी मन -वचन काय से प्रशंसा भी नहीं करता है.

पुण्य के उदय से ही संपत्ति मिलती है,अगर लक्ष्मी ही सब देती है तोह दान,पूजा,शील,संयम,तप की क्या आवश्यकता,व्यंतर ही सब काम कर दें,तोह धर्म की क्या आवश्यकता..और अगर इन देवों से प्रीती है तोह स्वर्ग के देवों को क्यों न पूजे जाएँ,इन व्यंतर क्षेत्रपाल आदि को क्यों पूजें,जो दयावान होता है उसकी देव भी रक्षा करता है,उसकी देव भी विराधना नहीं करते हैं,ऐसे मिथ्या मार्गियों के तप,संयम,त्याग अदि की भी प्रशंशा नहीं करता है....
तथा त्यागने योग्य,न त्यागने योग्य,सेव्य-असेव्य,पूज्य-अपूज्य-भक्ष्य-अभक्ष्य,हेय-उपादेय को परमागम se  पढकर  व्यवहार -निश्चय(परमार्थ) मार्ग में विरोध रहित चलना..अमूढदृष्टी अंग कहा है.

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