Sunday, August 28, 2011

TYPES OF KEVALI


केवली  के  प्रकार
1.सामान्य  केवली:- जिन्हें  केवल  ज्ञान  प्राप्त  हुआ  है वे  सामान्य केवली कहलाते  है    
2.तीर्थंकर   केवली:- इनके  5kalyanak hote hai be tithakar kevli(videh kshetr me 2 ya 3 vale bhi)
3.antrakrit   केवली:-jo keval gyan k bad turant moksh chale jate है......५ ह्र्स्व  स्वर  के  ucharan me jitna samay lage!!!! bo भी  इसे  मुनि  द्वारा  जो  १२ अंगों  का  पाठ  ४८ मिनट  क अन्दर  कर  लेते  है     
4.upsarg kevli:- jinhe u...psarg k bad kevalgyan hota hai
5.muk kevli:- jinki diwyadhwani nahi khirti!!!!!
6.samudghat kevli;-jinke aayu karm purn ho gaya hai or baki 3 aghatiya karmo ki sthiti ko aayukarm k barabar karne k liye samudghat karte hain......ye char prakar k hote hai
1.dand:-atma k radesho ka dandakar hona
2.kapat:-aatma k pradesho ka darwaje k aakar ka hona
3.pratar:-aatma k pradesho ka tinoloko me thoda2 fail jana
4.lokpuran:-aatma k pradesho ka 3noloko me prrn vyapt ho jana
samudhghat me jiv ko 8samay lagta hai 4 me failna or 4 me sikudna!!!!!! eske bad ayog kevli ho jate hai or 5 hashv swaro a,i,u,lr,rir bolne me jitna samay lage unte me moksh chale jate hain!!!
7.anubadh kevli:-kram se ek ka moksh ho jane k bad usi samay dusre ka keval gyan hona !!!!! jese mahaveer swami k moksh k bad gautam swami ko hua !!!!!!!!!!!
8.shrut kevli:-shruk kevli ko kevalgyan nahi hota ve shrut gyan k dwara sampurn 12 ango ko jante hain!!!!!!!!!

Thursday, August 25, 2011

hanumaan ki janm katha ka varnan

हनुमान की जन्म कथा का वर्णन
अंजना में गर्भ के लक्षण प्रतीत हुए...तोह सारे लक्षण गर्भ के प्रतीत हो गए..अंजना को गर्भवती देखकर सासू-केतु मति..कोपित हुईं..अंजना ने पवंजय के आने का वृतांत सुनाया...अंगूठी आदि दिखाई नहीं मानी ..और क्रूर नाम के एक किन्नर के हाथों महेंद्र नगर (राजा महेंद्र-पिता अंजना के)..के पास भिजवा दिया...सखी वसंत तिलिका भी साथ में गयी..सो अंजना पिता के महल में पहुंची तोह सैनिकों ने ना पहचान कर मना कर दिया आने से (यह सब कर्मों का ही योग है)..तब पिता  महेंद्र को इसका पता चला तोह पिता ने स्वागत कर के बुलाया..पुत्री को लज्जा-वान देखकर पिता अति कुपित हुए..और कोई भी विशष नहीं करने लगा की (अंजना के गर्भ में पवन-जय का ही पुत्र है)...तब पिता ने भी नगरी से बाहर निकाल दिया..सखी वसंत तिलिका ने समझाया भी..मंत्रियों ने रानी केतुमती की क्रूरता और नास्तिकता के बारे में भी बताया...लेकिन वह नहीं माने और अंजना दुखियारी ..रोते रोते वसंत तिलिका के साथ-वन के पास पहुंची..बार-बार अशुभ कर्मों को कोसती..याद करतीं की जो पिता गोदियों में खिलाते थे..वह आज इतना दुःख दे रहे हैं...ससुराल से और पिता के यहाँ से दोनों जगह से निकाल दिया अब कहाँ जून..तब अंजना दुर्जन वन में बसंत-तिलिका के साथ पहुँचती हैं..वन इतना भयानक की मन भी न सोचे जाने की तोह मनुष्य कैसे सोच लें..अंजना वन में चलतीं तोह कांटे चुभते तोह दुःख होता..लेकिन वह आगे बढती गयीं...वसंत-तिलिका ने कहा की तेरे प्रसव का समय अब निकट है तोह आगे गुफा है उसमें चल...अंजना को एक-कदम भी नहीं चला जा रहा था..तब भी वसंत-तिलिका उन्हें चला कर ले आयीं..गुफा के पास आती हैं तोह क्या देखती हैं की मुनिराज आत्मा-ध्यान में लीं..दुर्जन वन में निज-स्वरुप का ध्यान कर रहे हैं...अंजना और वसंत तिलिका उनकी स्तुति करती हैं..अंजना उनसे पूर्व भवों के बारे में पूछती हैं...तोह मुनि-राज कहते हैं की तुने पूर्व जन्म में जिनेन्द्र भगवन की प्रतिमा को एक क्षण के लिए जिनालय से बहार निकलवाया था..जिसके कारण इतना बड़ा कर्म बंधा..की तुझसे पति और परिवार दोनों दूर हुआ...जिसके कारण तोह दुःख भोग रही है...हे भव्ये यह पाप का उदय अब पूरा होने वाला है..अब पवंजय तुझे लेने आने वाले हैं...तेरे गर्भ में अति पुण्यशाली बालक है..जिसको देवता भी नहीं जीत पायेंगे...ऐसा कहकर मुनिराज उपदेश देते हैं..अंजना और सखी बार-बार प्रणाम करते हैं..स्तुति करती हैं और पाप कर्मों की निंदा करती है..मुनि के बैठने से गुफा भी पवित्र हो जाती है..मुनिराज निर्जन स्थान पर तप करते..कुछ समय ही वहां रहते उसके बाद वहां से चले जाते...हैं ..इसी प्रकार वह मुनिराज भी चले जाते हैं...अंजना की प्रसूति का समय आता है...तब वहां जंगले में एक भयंकर सिंह दोनों के पास आता है..दोनों कम्पायमान होती है,सखी बसंत-माला ऊपर निचे कूदती हैं....घबराते हैं..उनको देखकर गुफा में रह रहे एक देव-देवी को दया आती है..और वह देव सिंह का रूप बना कर अंजना को बचाते हैं..जब कर्मों का उदय आता है तोह सब कुछ हो जाता है..फिर वह गन्धर्व देव तरह-तरह से जिनेन्द्र भगवान् की वंदना करते हैं..अंजना के गर्भ से बच्चा बहार आता है..जो अति प्रकाशमान होता हैं..उसे देखकर अंजना अति प्रसन्न होती है..तब वहां पर एक बहुत बड़ी रौशनी चमकती है..और एक विमान जंगल में उतरता है..उस विमान में अंजना के मामा जी होते हैं,अंजना उन्हें पहचानती नहीं हैं..लेकिन उके द्वारा प्रमाण देने पर मान जाती हैं..वह अंजना को हनुरूह नगर में ले जा रहे होते हैं की रास्ते में अंजना की गोद में से विमान से पुत्र गिर जाता है...विमान में हा-हकार मच जाता है..नीचे जा कर देखते हैं..तोह पुत्र सो रहा होता है..और पत्थर टूट जाता है...इसलिए उस बालक का नाम श्री शैल रखते ते हैं...हनुरूह नगर में आने के कारण बालक का नाम हनुमान रखते हैं...अब हनुमान बिना पिता के माता अंजना के साथ हनुरूह नगर में रह रहे होते हैं...पवंजय राजा वरुण से युद्ध कर वापिस राज्य में पहुँचते हैं तोह अंजना को न पाकर व्याकुल होते हैं,मित्र प्रहस्त के साथ ससुराल भी जाते हैं..वहां भी नहीं मिलती..तोह वह हर जंगल नगरी में ढूंढते हैं लेकिन अंजना नहीं मिलती हैं..पवंजय आत्मा-घात का निश्चय लेते हैं..और प्रहस्त से घर में सन्देश भिजवाते हैं...घर में खबर सुन सब व्याकुल हो कर पवंजय के पास जाते हैं और पवंजय को वन में ढूंढते  हैं (क्योंकि इतने समय में पवंजय मित्र की अनुपस्तिथि  में जंगल में जाते हैं.....पवंजय के पिता अदि सारे लोग घबराकर उन्हें जंगले में उन्हें ढूंढते हैं..एक हाथी के माध्यम से वह पवंजय तक पहुँचते हैं...पवंजय अदि संक्लेषित भावों से बैठे होते हैं..किसी से mukh  से बात भी नहीं करते..राजा हर नगर में दूत bhijwaate हैं खबर फैलाते हैं की अंजना ko doondha जाए दूध हनुरूह नगर भी जाता है..जहाँ अंजना के मामा जी रहते थे..यह बात सुनकर वह पवंजय के पास जाते हैं की विश्वास बंधाते हैं की अंजना हनुरूह नगर में पुत्र के साथ बड़े सुख से हैं...पुत्र की बात सुनकर खुश हो कर पवंजय शीग्र ही अंजना से मिलने जाते हैं..और अंजना के साथ रहते हैं...अंजना का पति से संयोग हो जाता है...

लिखने का आधार-शास्त्र श्री पदम् पुराण (अनुवाद आर्यिका श्री दक्षमती माता जी)..अल्प बुद्धि के कारण और प्रमाद के कारण कोई शब्द-अर्थ की भूल हो तोह सुधार कर पढ़ें... 

Wednesday, August 24, 2011

ANJANA KA PAVANJAY SE VIYOG PHIR MILAN

पवंजय और अंजना का वियोग और फिर संयोग

पवंजय अंजना से विवाह कर के तोह आ गए..लेकिन उन को लाते ही दुःख दिए...उनकी तरफ देखा ही नहीं..न बात करते न उधर की तरफ आते यहाँ तक की चेहरा भी नहीं सुहाता था..इतना द्वेष भाव आ गए थे..अंजना भी दिन भर रोती रहती थीं..पति को ही सब कुछ मानती थीं....कभी पत्र के माध्यम से अपनी बात कहती थीं..लेकिन पवंजय मानने को तैयार नहीं..अपने अशुभ कर्मों को कोसती थीं अंजना...खोयी-खोयी रहती..बैठती तोह खड़ी नहीं हो पातीं..खड़ी होतीं तोह बैठ नहीं पाती ..और दुखी ही रहती..शोक-मग्न ही रहती थीं...उधर राजा वरुण नाम के राजा थे जो रावण की आगया नहीं मानते थे जिस कारण रावण ने दूत भेजा और संदेशा भिजबाया कि आप या तोह युद्ध करो..या प्रणाम करो..वरुण राजा मान के कारण युद्ध करने को तैयार हुआ..तोह रावण कि सेना युद्ध करने आई ...राजा वरुण के पुत्रो ने रावण के बहनोई ( चन्द्र नखा-जो बहन थीं..उनके पति)..को पकड़ लिया..रावण नहीं चाहते थे कि खर-दूषण मारा जाए..इसलिए उन्होंने राजा प्रहलाद को पत्र लिखा पूरा वृतांत कहते हुए..राजा प्रह्लाद पत्र सुनते ही युद्ध के लिए उघमी हुए..पुत्र पवंजय ने रोका कि मेरे होते हुए आप कैसे जा रहे हैं..मेरे होते हुए..पिता के मन करने पर भी पवंजय नहीं मानते हैं..अतः मानना पड़ता है..अंजना उन्हें रोकती हैं..तोह पवंजय कहते हैं कि युद्ध के समय तुझे देख लिया यह अशुभ है..अंजना पैरों में पड़ गयी लेकिन नहीं माने पवंजय...पवंजय ने युद्ध क्षेत्र के पास विद्या से एक महल बना दिया..जिसके पास सरोवर था..जिसमें तरह-तरह के पशु-पक्षी थे...उसमें एक हंस-और हंसिनी का जोड़ा था..जिसमें वह एक दुसरे का वियोग सह रहे थे..हंस-हंसिनी को देखता तोह तड़पता..और दुखी होता..एक रात बिताना भी भारी पड़ रहा था..तभी पवंजय सोचने लगे कि यह एक रात नहीं बिता पा रहे हैं अंजना मेरे बिना २२ साल कैसे बिताएगी..ऐसा जानकार भावों में बदलाब आया.पश्चाताप हुआ...प्रिय मित्र प्रहस्त को बुलाया और अपनी बात कही-पछतावे वाली...मित्र की बात सुनकर प्रहस्त बोले की इस तरह युद्ध से वापिस जाना तोह ठीक नहीं..और अंजना को यहाँ बुलाना सही नहीं..लज्जा का कारण है..हम यहाँ से गुप्त रूप से वापिस आदित्यपुर नगर में जायेंगे वहां तुम अंजना से मिल-लेना..ऐसा सुनकर वह दोनों अंजना से मिलने चले गए...पहले प्रहस्त ने पवंजय के आने के बारे में अंजना को बताया तोह अंजना अति हर्षित हुईं..ऐसा मानने लगीं की दुःख के दिन गए..आज प्राण-वल्लभ आ गए..तब पवंजय उनसे मिले..वह उनके चरणों में गिरी...पवंजय ने उनसे माफ़ी-मांगी अंजना से शीघ्र ही क्षमा कर दिया..पवंजय ने अंजना को व्यतीत किया और उन्होंने महल में ही रात्री व्यतीत की..सुबह प्रहस्त उन्हें जगाने के लिए और युद्ध में वापिस चलने के बारे में याद दिलाया..तोह वह अंजना को छोड़ कर जाने लगे..तब अंजनाने रोक कर कहा की उनके पेट में पवंजय का गर्भ आ चूका है....और अगर लोक में यह बात फैली तोह लोग मुझे गलत ही मानेंगे...क्योंकि उनकी जानकारी में तोह आप मुझसे अभी भी द्वेष रखे हुए हैं..तब पवंजय कहते हैं की तुम यह अंगूठी,हार अदि जो मेरे द्वारा तुम्हे अभी दिया हुआ है..वह सब दिखा देना लोग मान जायेंगे..ऐसा कहकर पवंजय चले जाते हैं युद्ध के लिए...
पुण्य के योग से कभी कोई सुख मिल भी जाता है तोह वह क्षण-भंगुर हैं...पाप-तिमिर ,मोह तिमिर का नाश करने वाला जिन देव द्वारा बताया हुआ जिन धर्म ही सच्चे सुख..यानी की निराकुल आनंद सुख को प्राप्त करता है.

लिखने का आधार श्री रविसेन आचार्य द्वारा रचित पदम्-पुराण है...बहुत विस्तार से दिए हुए वर्णन को बहुत कम शब्दों में सीमित करके लिखा है..लिखने से सम्भंदित कोई भूल हो,कोई गलती हो(शब्द-या उसके अर्थ की)..अल्प बुद्धि के कारण..तोह  क्षमा करें और गलती बताएं.

जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.

अभी और भी है.

Sunday, August 21, 2011

ANJANA AUR PAVANJAY KA VIVAAH

भगवान अनंत-वीर्य केवली के समोवोशरण से हनुमान और विभीषण ने भी श्रावक के व्रत धारण किये..तब गौतम स्वामी हनुमान के गुणों का वर्णन करते हैं तब राजा श्रेणिक पूछते हैं की हे भगवान कौन है यह हनुमान,कहाँ से आये,किसके पुत्र हैं..तब गौतम स्वामी कहते हैं की १० योजन ऊँचे विज्यार्ध पर्वत में आदित्यपुर नगर में वायुकुमार नाम का राज पुत्र यौवन देखकर पिता को चिंता हुई..उधर भरत-क्षेत्र में समुद्र के दक्षिण में राजा महेंद्र द्वारा बसाया हुआ महेंद्र नगर ,रानी ह्रदय वेगा को पुत्री अंजना के लिए चिंता हुई..यह पुत्री पिता के लिए अत्यंत दुःख का कारण हो जाती है,राजा-महाराजा अत्यंत चिंतित रहते हैं तब राजा महेंद्र मंत्रियों से पूछते हैं तोह एक मंत्री कहते हैं की रावण से विवाह कर दो...तोह दुसरे मंत्री कहते हैं की रावण की कई रानियाँ है..और वह घमंडी हैं..उनसे विवाह करवाना सही नहीं है...तब प्रस्ताव आता है की इन्द्रजीत  से विवाह कर दो..तब एक मंत्री कहते हैं की इन्द्रजीत और मेघनाथ में विवाद चलता रहता है..इसलिए इसमें सुख नहीं रहेगा..इस प्रकार तरह-तरह के प्रस्ताव आते हैं..कई मंत्री स्वयंवर का प्रस्ताव रखते हैं..वह भी नहीं भाता है....फिर एक प्रस्ताव आता है की राजकुमार विद्युत्-प्रभ से विवाह कराएं..लेकिन अन्य मंत्री कहते हैं की वह १८ वर्ष की उम्र में मुनि-दीक्षा लेकर केवल-ज्ञान को प्राप्त करेंगे..तब राजा प्रहलाद के पुत्र पवंजय का प्रस्ताव आता है..वह राजा को पसनद आता है..शीग्र ही वसंत ऋतू आ जाती है...इन्द्र अदि नन्दीश्वर द्वीप की वंदना जाते हैं..विद्याधर अदि कैलाश पर्वत की वंदना करने के लिए जाते हैं...ऐसा जानकार राजा महेंद्र भी कैलाश पर्वत की वंदना करने जाते हैं....उधर राजा प्रहलाद भी भरत-चक्रवती द्वारा बनवाये गए जिन मंदिर के दर्शन करने गए होते हैं..तोह वह पर्वत पर एक दुसरे से मिलते हैं..एक दुसरे से कुशल-मंगल पूछते हैं और राजा प्रहलाद पुत्र के विषय में चिंता व्यक्त करते हैं..तोह उधर राजा महेंद्र पुत्री अंजना के विषय में चिंता व्यक्त करते हैं...अतः पवंजय का विवाह अंजना के साथ तय हो जाता है.तब पवंजय को इस बारे में पता चलता है तोह वह काम आसक्त हो जाते हैं..पहले दिन देखने की चा दुसरे दिन भोगों की अभिलाषा ..तीसरे दिन पागल-पांति...चौथे दिन भोजन में स्वाद नहीं आ रहा छठे दिन सब व्यर्थ लगने लगा...लज्जा नहीं रही ..इस प्रकार काम की आग में जलते रहे...धिक्कार है ऐसे काम को..जो मोक्ष मार्ग से हमें दूर करता है..इस प्रकार पवंजय ने मित्र प्रहस्त को याद  किया..तोह प्रहस्त भी आ गए..उनसे पूरा वृतांत कह कर..व्यथित होने लगे..तब मित्र प्रहस्त उन्हें विमान में बैठाकर अंजना  के महल में ले आये..तोह रूप देखकर शांत हुए..और छुपकर देखने लगे..तब ही अंजना के पास एक सखी  आती है और कहती है की धन्य हो तुम जो तुम्हे पवंजय जैसे पति मिले..पवंजय कहिये या वायुकुमार कहिये ..यह सुनकर प्रसान हुए..तभी दूसरी  सखी मिश्रकेसी कहती है की तुम कितनी महा- मूर्ख हो जो विद्युत्-प्रभ को छोड़ कर पवंजय से विवाह कर रही हो..वह महा रूप वां ..महा सौम्यवान-उत्तम आचरण वाला है..और मुनि-दीक्षा लेके भौतिक सुखों  से विरक्त  होंगे ..इसलिए ऐसे उत्तम लोगों के साथ कुछ  समय का  आचरण  ही अच्छा है..क्षुद्र लोगों के साथ हजार वर्ष का जीवन भी बेकार है..यह बात पवंजय सुनते हैं और तलवार निकालते हैं..तब मित्र प्रहस्त उन्हें रोक लेते हैं..पवंजय के मन में अंजना और  दासी दोनों के लिए द्वेष भाव  उत्पन्न हो जाते हैं..वह अंजना  को भी दोष देते  हैं क्योंकि वह उनकी निंदा सुन रही थी...तब वह राज्य से वापिस लौटते हैं क्रोधित होकर तब प्रजा अति अस्चर्या में पद  की जाती है की ऐसी क्या  गलती हो गयी जो कुमार वापिस लौट रहे हैं..कोई कुछ कहते हैं कोई कहते हैं की यह अभी स्त्री-सुख नहीं जाने हैं..ऐसे ही वचन कहते हैं..राजा प्रहलाद भी आश्चर्य-चकित होते हैं...राजा महेंद्र भी देखकर आते हैं..दोनों पवंजय को बुलाते हैं और आज्ञा देकर विवाह करवा देते हैं..पवंजय मन ही मन सोचते हैं की इसे विवाह के बाद दुःख-दूंगा..तब इसे पता-चलेगा...फिर यह और  किसी से विवाह नहीं कर पाएगी....  . का  और इस प्रकार पवंजय और अंजना का विवाह संपन्न होता है.
  
     वस्तु के स्वाभाव को जाने बिना जो दूसरों की निंदा करते हैं..वह मूर्ख हैं क्योंकि वह वास्तविकता को नहीं जानते..और निंदा करने से ऐसे अवगुण उनके अन्दर भी आ जाते हैं 

..         लिखने का आधार-श्री रविसेन आचार्य द्वारा विरचित शास्त्र श्री पदम् पुराण है..लिखने का आधार शास्त्र है..शब्द मेरे हैं ..शास्त्र में दिए गए विस्तार के वर्णन को कम शब्दों में लिखा है..कोई मिसप्रिंट हो तोह बताएं..

जय जिनेन्द्र.

 

Tuesday, August 16, 2011

anant-veerya kevali ka dharmopdesh

एक बार रावण सुमेरु पर्वत के दर्शन कर आ रहे थे..आकाश मार्ग से पुष्पक विमान से ६ कुलाचल और सात-क्षेत्रों को निहारते...तब ही एक उद्यत-शब्द की आवाज सुनाई दी...तब वह मारीच मंत्री से  आवाज के बारे में पूछते हैं..तब वह बताते हैं की यहाँ स्वर्ण पर्वत के नीचे श्री अनंत-वीर्य केवली bhagwan की गन्धकुटी आई हुई है..इसलिए देवों के मुकुट से आसमान लाल हो गया है और आवाज भी देवों की ही आ रही है...ऐसा जानकार रावण वहां गन्धकुटी में गए और विद्याधरों के स्थान पर बैठ गए..तब वहां एक व्यक्ति ने भगवन से कहा की हे भगवन यहाँ सब धर्मं,अधर्म का स्वरुप जानना चाहते हैं..इसलिए   कहें...फिर केवल ज्ञानी अनंत-गुण और अनंत पर्याय को जानने वाले भगवन कहते हैं की यह जीव अनादी काल से अष्ट कर्म रुपी बंधन में फंसा हुआ है..और इन्द्रिय भोग रुपी वेदना इसे अनादी काल से सता रही है..संसार में इन्द्रिय सुखों में तल्लीन रहता है..मनुष्य हो कर भी आयु को व्यथा बिगाड़ता है..जो जीव शराब अदि पीते हैं वह नरक जाते हैं..कैसा है नरक महा दुखों से भरा..वहां उसे कांच गला-गला कर पिलाया जाता है..जो जीव मांस-भक्षण करते हैं उन्हें नरक में उन्ही का मांस खिलाया जाता है...जो जीव KUSHEEL रते,पर STRI SEVAN करते,व्यसनों में लीं रहते..पंचेंद्रिया के भोगों में तल्लीन होकर दुश कृत्य करते,माता-पिता परिवारियों की हत्या करते,पर को दुःख देते,पशु काटते,जीवों को मारते,शिकार जाते,कंदमूल खाते वह जीव नरक में जाते हैं घोर दुखों को सहन करते हैं..जो जीव मायाचारी-माया कषय में लीं रहते..वह तिर्यंच योनी में जाते,क्षेदन,भेदन,भूख-प्यास के दुःख सहते हैं....जो जीव खोटी क्रियाओं में धर्म मानते,हिंसा में धर्म,खोटी क्रियाओं में,बलि चढाने में स्वर्ग के सपने दिखाते,ऐसा कथन करते ,शास्त्रों में लिखते वह दुष्ट है..और वह भी कुयोनी में जाते..और संसार भ्रमण करते ..SHUDDH परिणामों से मनुष्य योनी मिलती है...देवों के भी सुख नहीं होता..DEV अज्ञान  TAP  SE  BHI  बन     जाते हैं..उसमें भी  अल्प -ऋद्धि धारी और ज्यादा ऋद्धियों वाले देव..उनमें जलन..इद्न्रिया भोगों के बाद भी तृप्ति नहीं होती..
दान तीन प्रकार से दिए जाते हैं १.उत्तम पात्र जो मुनिराज है वह २.माध्यम पात्र -श्रावक-श्राविका को..और ३.जघन्य पात्र-सम्यक-दृष्टी श्रावक को..उत्तम पात्र को दान-देने से उत्तम-भोगभूमि,माध्यम पात्र को दान देने से माध्यम-भोग भूमि और जघन्य पात्र को दान-देने से जघन्य भोग भूमि...लंगड़े,दीं-दुखियों पर दया करुना दान है..करुणा दान पात्र दान के बारबार नहीं है..मिथ्यादृष्टि,मिथ्या धारणाओं को अपनाने वालों का दान देना महा-पाप है,हिंसक,क्रोधी,मानी,मायावी..और स्त्री अदि रखने वाले लोगों को दान-देना श्रद्धा-वश दान देना महा-पाप है..दुःख का कारण है..जिसके पास सब है उसको दान-देने का क्या प्रयोजन?..जो वस्त्रादि रखते हैं,स्त्री रखते हैं..राग-द्वेष युक्त हैं..वह कुदेव है..जहाँ राग-द्वेष है वहां मोह है..और जप मोहि है वह संसारी है..वह भगवान् नहीं हो सकता ...इच्छाओं क पूर्ती पूर्व जन्म के या पूर्व कर्मों के कारण होती है..इन कुदेवों से नहीं..इनको दान-देना,पूजा अदि करना गृहीत मिथ्यात्व है..जो हिंसा-दान में,अस्त्र-शस्त्र दान में धर्म-बताते..हिंसा में त्रस-जीव,विकल त्रय जीवों की हिंसा में धर्म बताते ऐसे धर्मों में भी दान-देना पाप का कारण है..भूमि दान देना पाप का कारण है..लेकिन जिन मंदिर के लिए भूमि देना पुण्य का कारण है..क्योंकि जिस प्रकार सरोवर पे एक दो बूँद विष की गिर जाने से सरोवर विषैला नहीं हो जाता..इसलिए जिन-मंदिर बनवाने की हिंसा में पाप नहीं होता..क्योंकि जितना हिंसा का पाप लगता है...उससे कई गुना पुण्य होता है.या सिर्फ पुण्य ही मिलता है.संसार में जिनेन्द्र देव ही मुक्ति का कारण है..मिथ्या-देव नहीं..जो खुद लंगड़ा है क्या वह किसी दुसरे को देशांतर ले जा सकता है?..इसी प्रकार जिनेन्द्र देव ही भव-सागर से मुक्ति का कारण है...जो अस्त्र-वस्त्र धारण करें,परिग्रह करें और अपने आप को पूजनीय मानें..वह पापी है..संसार में डुबाते हैं..इनको श्रद्धा-वश दान-देने में पाप-अर्जन है....जिनेन्द्र  dev के द्वारा बताये हुए धर्म का लक्षण सुनो..एक मुनि धर्मं है..जो मुनिराज पालन करते हैं..वह ३ गुप्ती,पांच समितियां पालन करते हैं..५ महाव्रत,७ शेष गुण..६ आवश्यक पालन करते हैं..तरह-तरह की निधिओं के स्वामी होते हैं..चाहे तोह धरती हिला दे,बारिश करवा दें..सब सामर्थ्यवान होते हैं..लेकिन चरित्र से डिग नहीं होते..धर्म रक्षा के लिए ऐसा भी करते हैं..वह मुनि उसी भाव में सिद्ध पद प्राप्त करते हैं..इसी भव में नहीं तोह तीसरे भव में प्राप्त करते हैं..बीच में इन्द्रों की नरेन्द्रों की...स्वर्ग के देवों के सुख भोगते हैं..स्वर्ग के सुख अनुपम हैं..देवों में सुन्दर जिनालय होते हैं..पदम्-राग मणि के,इन्द्र नील मणि के तथा तरह-तरह की मणियों से सुशोबित ऊँचे-ऊँचे,शिखरों से सुशोभित जिन मंदिर होते हैं..उन देवों के शारीर सप्त-धातु रहित होते हैं..वह शारीर वीर्य-रज का नहीं होता है...पसीने नहीं आते,भूख लगे-प्यास लगे तोह अमृत झर आये..टाँगे चांदी सामान सुन्दर....उत्पाद शैया से जनम लेते हैं..एक की आयु पूरी होती है..दुसरे देव आ जाते हैं...बहुत समय तक देव गति में रहते हैं...जो की सिर्फ धर्म की वजह से है..जिनेन्द्र देव के द्वारा बताया हुआ धर्म ही इसका कारण है..तरह-तरह की चक्रवती  आदियों की आयु पाते हैं..लाखों सेवक सर झुकाते हैं..सिर्फ धर्म के माध्यम से ही यह संभव है..यह तोह मुनि धर्म का वर्णन हुआ..अब स्नेह आग में पड़े हुए श्रावक धर्म का वर्णन सुनो..श्रावक व्रत या मुनि धर्म मनुष्य पर्याय में ही पाले जाते हैं इसलिए मनुष्य पर्याय ही श्रेष्ठ है..जिस प्रकार पशुओं में सिंह,पक्षिओं में गरुण,वृक्षों में चन्दन का वृक्ष..पाषण में रत्ना,देवों में इन्द्र श्रेष्ठ है..उसी प्रकार योनिओं में मनुष्य योनी श्रेष्ठ है..मनुष्य योनी मिलने का बाबजूद भी जो जीव श्रावक या मुनिओं के व्रत धारण नहीं करे..वह कुगतियों में भ्रमण करता है...फिर केवली भगवान श्रावक के वर्तों का वर्णन करते हैं....तभी कमल-नयनी कुम्भकरण भगवान से कहते हैं हे भगवान अब भी तृप्ति नहीं हुई...इसलिए एक बार और धर्म का स्वरुप कहें..तब भगवान कहते हैं अब विशेष रूप से धर्म का वर्णन सुनो..पहले मोक्ष-मार्ग के कारण-आठों कर्मों के नाश में कारण मुनि धर्म का स्वरुप कहते हैं...केवली भगवान मुनियों का धर्म कहने के बाद पुनः श्रावक का धर्म कहते हैं...श्रावक के धर्म में दशो-दिशाओं के प्रमाण,देश व्रत,अप्ध्याँ अदि व्रतों का पूरा संक्षेप में वर्णन करते हैं..कहते हैं की इन श्रावक के व्रतों को पालकर जीवों को १६ स्वर्गों तक की विभूतियाँ मिलती हैं..जो की सिर्फ धर्म का प्रभाव है..यह धर्म ही संसार रुपी वन से तारने में समर्थ है..कैसा है संसार सागर?..यह संसार सागर से मोह-रुपी अन्धकार से भरा हुआ.कषाय रुपी सांप जीव को डस रहे हैं..विषय चाह रुपी आग जलाती रहती है..जिससे यह जीव सिर्फ मनुष्य योनी मिलने के बाद ही मुक्त हो पाटा है..मनुष्य योनी के मिलने के बाद भी नियमों का,चरित्र कोan धारण नहीं किया..तोह वह जीव महा-मूर्ख है..जिस प्रकार कोई मूर्ख धागे के लिए रत्नमयी हार को चूर-चूर कर देते हैं..उसी प्रकार यह जीव क्षणिक विषय सुखों के लिए धर्म-रुपी हार को  चूर-चूर कर देता है...जिस प्रकार पत्थर की नाव खुद भी डूबती और आश्रितों को भी डुबोती है..उसी प्रकार यह कुतीर्थ का श्रद्धां..मिथ्या गुरुओं का श्रद्धान जीव को संसार रुपी सागर में डुबोता है..जो परिग्रह के धारी है..वह मिथ्यगुरु हैं..वह संसार रुपी सागर से नहीं टार सकते.क्योंकि वह विषय कषायों में पड़े हुए..आत्मा सुख का अनुभव ही नहीं करते हैं..न आत्मा को जानते हैं..उनके पूजने से तोह मोह-मिथ्यात्व ही पुष्ट हो सकता है..जिसके कारण यह जीव अशुभ गतियों में ही गिर सकता है..कभी संसार से नहीं टर-सकता....धर्म ही सुख का कारण है..धर्म के बिना सुख नहीं है..यह जीव अनंत काल से विषय कषायों को पुष्ट कर रहा है..तब भी इससे विरक्त नहीं होता...यह बड़ा आश्चर्य है...धर्म को धारण करने वाले को स्वर्ग के भोग क्या अह्मिन्द्र के पद भी मिल जाते हैं...और अगले भव से मोक्ष को प्राप्त करते हैं..और सदा सुख को पाते हैं..लेकिन यह बड़ी मूर्खता है की यह जीव धर्म को धारण नहीं करता है..और अधर्म को हितकारी मानता है..केवली भगवन यम और नियम का स्वरुप बताते हुए..रात्री भोज के पापों का वर्णन करते हैं.रात्री भोज करने वाला राक्षस के सामान है..सबसे असुद्ध खाना रात्री भोज ही है..अनेक इस जन्म की और अनंत जन्मों में होने वाली बीमारियों का कारण है..रात्री भोज करने वाले को छोटा कद,असम्मान,बुराइयां,दरिद्रता ..और यहाँ तक की तरस-स्थावर-निगोड की पर्यायों में भी भटकना पड़ता है..यह बड़ी जड़ता है की मिथ्यमातों में इसी में धर्म बता दिया है..पूरे दिन भूखे रहो..और रात्री भोज करके पाप कमाओ..धर्म अहिंसा में ही हैं..हिंसा अधर्म है..और दुःख का कारण है..ऐसे धर्म को जान्ने के लिए बड़े बिरले लोग श्री गुरु के पास धर्म का स्वरुप जानने ले लिए जाते हैं....तरह-तरह के व्रतों को धारण करते हैं..और मोक्षमार्ग प्रशस्त करते हैं...जो जीव ऐसा नियम लेते हैं की मुनि को आहार कराये बिना आहार नहीं करूँगा.वह धन्य है..महा-स्वर्ग की विभूतियाँ पाते हैं..और वहां से मनुष्य हो-कर मोक्ष जाते है ...इस प्रकार अनंत-वीर्य केवली भगवान ने  धर्म का स्वरुप कहा..जिससे सब जीव हर्षित हुए..१.बहुतों ने श्रावक व्रत धारण किये..बहुतों ने मुनि-व्रत धारण किये..बहुतों ने नियम लिए..इन्द्र अदि सम्यक्त्व को प्राप्त हुए...तब एक मुनिराज ने रावण से भी कहा की "हे भव्य तुम भी कुछ नियम लो"...तोह रावण ने सोचते हैं की मैं आहार तोह शुद्ध ही करता हूँ,अभक्ष्य पधार्थ रहित भोजन करता हूँ..रात्री भोजन करता नहीं..श्रावक व्रत धारने में असमर्थ हूँ...और मुनि-व्रत तोह अत्यंत दुर्लभ है..मैं पहाड़ को उठाने वाला,पवन के वेग से चलने वाला..एक नियम लेने में घबरा रहा हूँ..धन्य हैं मुनिराज..ऐसा जानकार अपने मन में विचारते हैं की जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी..उसके साथ मैं बलात्कार नहीं करूँगा...तब वह अपना नियम मुनिराज से सबके सामने कहते हैं..कुम्भकरण भी नियम लेते हैं की वह रोज जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करूँगा,नित-पूजा प्रक्षाल करेंगे..और मुनि को भोजन दे-कर ही आहार करेंगे..इस प्रकार तरह-तरह के जीवों ने व्रत-नियम-सम्यक्त्व-महा-व्रतों को धारण किया..और सब ही अपनी जगह चले गए.

लिखने का आधार श्री रविसेनाचार्य द्वारा विरचित शास्त्र श्री पदम् पुराण है..शास्त्र में दिए गए विस्तार के वर्णन को बहुत ही कम शब्दों में समेट कर लिखा है...
कोई गलती हो,मिसप्रिंट हो तोह बताएं....

जा वाणी के ज्ञान से सूझे लोकालोक,सो वाणी मस्तक नमो सदा देत हूँ ढोक.
जय जिनेन्द्र.

अभी  और  भी  है . 

Monday, August 15, 2011

raaja indra ka muni-pad dhaar nirmaan gaman




राजा इन्द्र का मुनि पद-धारण कर निर्माण gaman की कथा


विशेष-मुनि निंदा का फल..या मुनि महाराज के अपमान का फल.




राजा इन्द्र के पिता सहस्त्रार जो उदासीन श्रावक थे..इन्द्र को कैद में जान...रावण के पास आये...और उनसे कहा तुमने बड़े-बड़ों के मान भंग किये..सबको जीता.भुजाओं में अति-बल था..लेकिन तुमने सबको छोड़ दिया..सम्मान के साथ..सो अब इन्द्र को भी छोड़ दो..रावण ने उन्हें उदासीन श्रावक जान सम्मान किया और उच्च पद पर बैठाया और खुद सिंहासन से निचे उतरे..और उन्होंने कहा..की आपकी बात सही है...उन्होंने इन्द्र और लोकपालों से नगरी में फुलवारी करने को कहा..जिससे लोकपाल लज्जित हुए..और तब उदासीन श्रावक सहस्त्रार ने कहा   कि आप sabse आगया palan karwa सकते हो..आप shreshta हो..ऐसा jaankar रावण harshit हुए..और कहा कि इन्द्र तोह hamara भाई के सामान है..यह इन्द्र waapis rathnupur  में राज्य karein और यह लोकपाल जहाँ है wahin रहे..रावण ने सहस्त्रार से कहा आप हमारे गुरु सामान है..आपकी आगया शिरोधार्य है..आप जहाँ रहना चाहें रह सकते हैं..यह rathnupur और लंका नगरी आप जहाँ चाहें वहां रहे..ऐसा जान सहस्त्रार ने मात्र भूमि के पास रहने का ही निर्णय लिया और कहा कि आप ऐसे ही राज्य चलते रहे..इन्द्र को लोकपालों को राज्य waapis मिल गया..लेकिन पहले जैसी बात नहीं थी..लोकपाल भी मान-भंग के कारण आकुलित हुए..इन्द्र का भोगों में विषयों में..मंत्रियों के द्वारा समझाने में कहीं भी मन नहीं लगा..वह इक चैत्यालय में बैठकर चिंतन करने लगे धिक्कार है ऐसे विद्याधर के ऐश्वर्या को जो क्षण-भर में हो छूट गया यह सब कर्मों का ही फल था..जब फल पूरा हुआ..तोह सब छूट गया..रावण शत्रु बन कर mere मित्र सामान निकले अब मैं ऐसा करूँ जो अनंत सुख पाऊं..तभी वहां से निर्वाण संगम नाम के मुनिराज वहां आये इन्द्र ने उन्हें नमस्कार कहा फिर मुनिराज ने कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि संसार कि माया क्षण-भंगुर है..तब इन्द्र ने उनसे पूर्व भाव पूछे तोह उन्होंने कहा कि :तू पूर्व भावों में कुलवंती नाम कि दरिद्र स्त्री था..झूठा भोजन खाती  जहाँ जाता सम्मान नहीं मिलता..अंत समय में ४८ मिनट तक नवकार मंत्र पढ़कर देह त्यागी तोह किंपुरुष देव के यहाँ शील-धरा नाम कि देवी हुआ..फिर वहां से चाय कर रत्नपुर नगर में गोमुख ब्राह्मन के यहाँ सहस्त्रभाग नाम का पुत्र हुआ.फिर वहां से श्रावक व्रत धारण करके नवमें स्वर्ग में देव हुआ..फिर वहां से चय कर मनुष्य जन्म पाकर मुनि-दीक्षा ली और एह्मिन्द्र के पद को पाया..अब तू वहां से चय-कर राजा सहस्त्रार के यहाँ इन्द्र हुआ है...तुझे रावण द्वारा अपमान तेरे पूर्वोपाजित कर्मों के द्वारा ही मिला है...अब तू इसको सुन..और यह कर्म तुने इसी योनी में किया है...राजा arinjaay कि putri ahilya का स्वयंवर था तब उसने सबको छोड़ आनंद माल राजा  को माला पह्नाई..जिससे तुझे उसके प्रति-द्वेष हुआ...वह विवाह के बाबजूद भी भोग-सम्पदा से विरक्त हो गया और मुनि हो गया...एक बार आनंद्माल मुनिराज सरोवर के किनारे तप कर रहे थे..तोह तुने मान-वश उनका अपमान करते हुए कहा..त्याग दिया भोगों को और मुनि हो गया..और अहिल्या को तुने मेरा नहीं होने दिया...तब उन मुनि के भाई कल्याण मुनि ने उन्हें समझाया कि इनका आपसे-कोई द्वेष नहीं है..तब तेरी रानी ने उन्हें शांत कराया..अब यह उसी कर्मों का फल है..यानी कि मुनि निंदा का फल है..हमें कभी भी किसी हाल में मुनियों कि निंदा-अवज्ञा..अपमान नहीं करना चाहिए..ऐसा कहकर निर्वाण-संगम मुनि वहां से चले गया..और इन्द्र श्रावकआश्रम में उदासीन हो..लोकपालों के साथ jaineshwari दीक्षा को धारण कर निर्वाण पद को prapt किया...
हमें isse यह seekh milti है..हमें कभी भी,किसी भी हाल में,chahe मोह-वश raag-द्वेष वश,hasi-hasi  कभी भी मुनि-निंदा नहीं karni चाहिए..kyonki karm  तोह हंसी-hansi  में करते हैं फल ro-rokar maha dukhi hokar bhogna padta है.

is prakaar  राजा इन्द्र का मुनि-पद  धार  निर्माण को प्राप्त करने का वर्णन हुआ


लिखने का  आधार-शास्त्र श्री पदम्-पुराण है....आचार्य श्री रविसेन स्वामी  द्वारा लिखा है..और अनुवाद आर्यिका श्री दक्षमती माता जी ने किया है...शास्त्र के विस्तार से दिए हुए वर्णन को कम शब्दों में लिखा है..मोह-मिथ्यात्व के कारण कोई गलती हो..लिखने आदि कि..तोह जरूर बताएं

Saturday, August 13, 2011

indra raaja ke paraabhav ka kathan

indra  raaja ke parabhav ka  kathan


रावण मंत्रियों के साथ कृतचित्रा  पुत्री के विषय में चिंतन करते हैं..मंत्रिओं से विचार विमर्श करते हैं तोह राजा हरिवाहन रावण के सामने पुत्र मधु को लाते हैं..और गुणों को जानते हैं..रावण उसकी विनय देख कहते हैं की यह पुत्र नीति-शास्त्र में प्रवीण हैं..सामर्थ्यवान हैं तब मंत्री कहते हैं राजन इतना ही नहीं उन्होंने असुरेन्द्र से त्रिशूल को भी प्राप्त किया है..ऐसा जानकार रावण पुत्री का विवाह मधु से कर देते हैं...राजा श्रेणिक गौतम स्वामी से पूछते हैं की असुरेन्द्र ने राजा मधु को त्रिशूल क्यों दिया..तब गौतम स्वामी कहते हैं की ghatki khand द्वीप के ऐरावत क्षेत्र में दो मित्र थे..एक का नाम सुमित्र था और एक का नाम प्राह..था दोनों पंडित थे धर्म में सुमित्र कर्म के योग से राजा हुए और प्रः..daridra हुए..एक baar राजा सुमित्र को dusht ashva uthakar jungle में भीलों के पास ले गया..भील के राजा ने पुत्री वनमाला से सुमित्र का विवाह करा दिया..सुमित्र waapis नगरी में आ रहे थे..तब ही उन्हें dost prahaa..milta है..रानी वनमाला को देख मोहित हो जाता है..राजा को भी मित्र की खोज होती है..जिसके कारण राजा भी प्रसन्न होता है..राजा मित्र को दुखी देख कारण पूछता है तोह वह कहता है की मैं रानी वनमाला पे कामुक हो गया हूँ..और काम की अभिलाषा जागी है..ऐसा जानकार दुखी हो..राजा सुमित्र रानी वनमाला को मित्र के nivaas sthan पे भेजता है..और चिप जाता है...मित्र के पास आकर रानी वनमाला बैठती हैं..वह पूछता है की तुम कौन हो..तब वह विवाह से लेकर सारा वृतांत कहती है..तब मित्र प्र..पछताता है की मित्री की स्त्री तोह मान सामान है..हाय यह मैंने कैसा पाप कर दिया..कलंक लगा दिया..अब इसे कैसे धोयुँ..ऐसे जानकार तलवार निकाल कर आत्मघात करने की कोशिश करता है तब ही झरोंखे में छिपा हुआ मित्र कूदता है और मित्र को रोक लेता है और कहता है की आत्म-घात नरक गति का कारण..घोर दुखों का,अल्पायु का कारण है..ऐसे जानकार मित्र भी पश्चाताप करता है शुक्रिया अदा करता है..ऐसा कहकर सुमित्र मुनि बन जाता है और वहां से आयु पूरी कर के दुसरे स्वर्ग में इन्द्र होकर..वहां से चाय कर राजा हरिवाहन के यहाँ मधु होता है..उधर दूसरा मित्र...वहां से अनेक योनियों में सम्यक्त्व के बिना जनम-मरण के दुखों को सहन करते हुए..द्रव्य लिंगी मुनि होकर असुरेन्द्र होता है..तब use us योनी में राजा सुमित्र के प्रति प्रेम उमड़ता है..और याद करता है की किस प्रकार इसने मेरी मदद करी..जिन धर्म को मानकर मुनि हुआ..स्वर्ग में गया और वहां से यहाँ राजा हुआ..इसने मुझे बचा लिया था संसार में डूबने से..ऐसा जानकार...वह वहां से madhyalok में aata है मित्र की stuti करता है..और त्रिशूल भेंट करता है...us राजा मधु के साथ रावण पुत्री कृत्चित्रा रहती है..
इस तरह इन्द्र की जीत के भाव रखते हुए aage badhte हैं और kailaash parvat tak pahunchte हैं..वहां बाली मुनि वाले वृतांत को याद कर महा निर्मल मन से vandana करते हैं...वहां par पास ही नगरी में इन्द्र ने लोकपाल नियुक्त किया था ..वह लोकपाल सन्देश भेजता है की रावण समुद्र जितनी बड़ी सेना ले कर इस राज्य पे आक्रमण करने आ रहे हैं..आप हमें निर्देश दें..us समय राजा इन्द्र पांडुक वन के  chaitalyon के darshan करने jaa रहे hote हैं..और रास्ते में उन्हें नलकुंवर(लोकपाल) के द्वारा भेजा हुआ सन्देश milta है..सो राजा इन्द्र कहते हैं की वह पंडुक शिला के जिनालयों के darshan करने jaa रहे हैं..शत्रुओं की भी चिंता नहीं है जिनको ऐसे इन्द्र पांडुकवन के जिनालयों की वंदन करते हैं..उधर नाल्कुम्वर लोकपाल विद्या के बल से पूरे राज्य के तरफ कोट डालता गया..तीन baar rajya की प्रदक्षिणा करने से कोट तीन गुना हो गया..रावण ने प्रहस्त नाम के सेनापति को भेजा तोह वह अन्दर नहीं jaa पाया..वह रावण के पास aata है..रावण प्रहस्त की बात sun ascharyamay hote हैं और मंत्रिओं के साथ विचार विमर्श करते हैं..कैसे हैं रावण-नीति-शास्त्र में प्रवीण...उधर नलकुंवर लोकपाल की रानी उपरम्भा नाम की रानी रावण पे मोहित हो जाती है..और सखिसे कहती है की मैं बचपन से रावण पे मोहित थी..मुझे रावण से कामुकता है..सो मुझे उनके साथ भोग करना है...सखी के पैर पड़ती हैं..ऐसा जानकार सखी रावण के पास आती हैं और रावण के kaan में सब वृतांत कहती हैं..रावण कहते हैं की par-स्त्री सेवन को शास्त्रों में नरक का कारण बताया..कौन विवेकी होगा jo वामन को waapis piyega..कौन joothan khaana chahega..लेकिन जब यह बात रावण मंत्रियों से कहते हैं तोह वह कहते हैं की राजन यह बात सही है लेकिन आप इस के maadhyam से us कोट को tudwa sakte हैं..jo nalkumwar ने banaya हुआ है..ऐसा जानकार वह उपरम्भा को apne पास bulate हैं..और उप्रम्भा से mahal में chalne के liye कहते हैं..रावण पूरी सेना sahit mahal में pahunch जाता है और कोट को toota dekhkar krodhit होता है..तब लोकपाल रावण के aage jhuk जाता है..रावण भी उसका सम्मान करते हैं..रावण की यह विशेषता होती है उनका सम्मान करते हैं...और इज्जत देते हैं रावण के यहाँ आयुध-शाला में सुदर्शन-चक्र उत्पन्न होता है. ..रावण उप्रम्भा koi कई प्रकार से समझाता है संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं..जिससे उपरम्भा को गलती का ehsaas हो जाए .और waapis पति के साथ ही संतुष्ट होती हैं. .और नलकुंवर   को  पूरी  घटने  के  बारे  में  पता  भी  नहीं  चलता  है ...इस  प्रकार  रावण  वाली  सेना   जो  समुद्र  के SAMAAN होती HAI VAH AUR विशालकाय  हो  जाती  है..AUR INDRA KE UPAR VIJAY PRAPT KARNE KI TAIYAARI होती HAI.. ..रावण  सेना सहित बैताड पर्वत के पास पहुँचते हैं..राजा इन्द्र को रावण  के समीप आने की पता लगती है..तब वह योद्धाओं को युद्ध के लिए तैयार करता है..इन्द्र के यहाँ योद्धाओं को देव कहते हैं..और रावण के यहाँ योद्धाओं को देव कहते हैं.
.इस प्रकार से दोनों पक्ष से सेना तैयार होती है..दोनों तरफ से हथियारों को सजाया जाता है..रथ के पलास कसे जाते हैं..दोनों तरफ से आले भाले लेकर सेना टूटी है..घोड़े से घोडा..हाथी से हाथी..सेनापतियों से सेनापति..रावण की तरफ प्रहस्त,इन्द्रजीत अदि लोग होते हैं और इन्द्र के यहाँ भी कई शक्तिशाली सेनापति होते हैं..रावण के दादा माली का भाई माल्यवान का पुत्र श्रीमाली युद्ध करने जाता है...पूरी सेना को बिगाड़ देता है..जिससे राक्षस सेना में हिम्मत आती है..उस तरफ इन्द्र का पुत्र जयंत श्रीमाली से युद्ध करने जाता है..तोह दोनों एक दुसरे को गिरा देते हैं..श्रीमाली जयंत को मूर्छित करते हैं..तब जयंत फिर से उठकर अस्त्र का प्रहार श्रीमाली की छाती पे करते हैं..जिससे श्रीमाली प्राण से रहित हो जाते हैं..ऐसा जानकार क्रोध से भरा हुआ जान इन्द्रजीत युद्ध करने जाता है..सो वह जयंत को पकड़ रहा होता है..रावण dada माली और चाचा श्रीमाली की मृत्यु को याद करते हुए युद्ध के लिए जाते हैं..बहुत सारे देव रावण के क्षत्र को देखकर ही दूर हट्टे हैं..चारो तरफ हतियारों की आवाज से चटपट-कट-कट मारो...लड़ो..तरह -तरह की आवाज गूंजती हैं..कोई किसी को ललकारता है कहाँ गई तेरी ताकत..कोई कहता है कहाँ है तेरे में दम..कोई कहता है तू कायर है..इस तरह से क्रोध दिलाते हैं..और बड़ा तगड़ा युद्ध चल रहा होता है..बहुत से अंत-समय में नमोकार मंत्र संन्यास लेते हैं तोह स्वर्ग में जन्म लेते हैं..और कोई shoorveerta दिखाते हुए प्राण त्यागते हैं...इस रावण सारथी सुमति से कहते हैं की यह इन्द्र अपने आप को स्वर्ग का इन्द्र समझता है..माता पिता के वीर्य-राज से शारीर बना है..उससे इतना घमंड करता है..योद्धाओं का नाम देव रखता है..लोकपाल चार-निकाय के देव स्थापित किये हैं..जैसे साक्षात इन्द्र हैं इसका घमंड मैं मिटाऊंगा ऐसा जानकार युद्ध में उतारते हैं..तोह इन्द्र के वाण को रास्ते में ही काटते जाते हैं..शत्रु को शक्तिशाली जान इन्द्र अग्निवाण फेंकते हैं जिससे राक्षसों में त्राहि-त्राहि मचती है..तब रावण जल वाण फेंकते हैं जिससे शान्ति मिलती है..फिर इन्द्र तामस वाण,-फिर रावण प्रकाश-वाण,फिर रावण नाग-वाण,फिर इन्द्र गरुण-वाण ...इस तरह से एक के upar  कई जवाब मिलते  हैं..फिर  दोनों के हाथी एक-दुसरे से लड़ते हैं रावण का त्रैलोक्यमंडल हाथी और इन्द्र का ऐरावत हाथी..दोनों एक दुसरे को लड़ते हैं..रावण भुजाओं की ताकत से इन्द्र को दावा-देते हैं और अंत में इन्द्र को बाँध देते हैं...रावण वापिस लंका नगरी में आते हैं..लंका नगरी पहले से ही इतनी मनोहर फिर और मनोहर हो जाती है....हर-तरफ रावण का स्वागत होता है...रावण भी सबका सम्मान करते हैं..हे भव्य जीवों इन्द्र ने विज्यार्ध पर्वत पर राज्य कितने वर्ष तक किया..जो की क्षणिक ही था..और पुण्य का फल था..जैसे ही पुण्य फल-क्षीण हुआ..सब छूट गया.और रावण के पास चला गया..isliye इन्द्रिय भोग क्षणिक है..देवों के पास भी हमेशा रहने वाले सुख नहीं हैं..तोह मनुष्यों की क्या बात..जो मनुष्य माया पे घमंड करें वह महामूर्ख हैं..इस लिए शुभ में प्रवति करनी चाहिए..
इस प्रकार यह राजा इन्द्र और रावण के बीच में युद्ध का varnanपूरा हुआ...

लिखने का आधार श्री-रविसेन स्वामी द्वारा विरचित शास्त्र श्री पदम् पुराण है

लिखने का आधार परम पुराण है.. शब्द mere हैं..isliye कोई गलती हो तोह क्षमा करें..शास्त्र में बहुत ज्यादा varnan था इस विषय पे मैंने बहुत कम शब्दों में लिखने के कोशिश कि है

कोई गलती हो तोह समझायें.



 राजा इन्द्र पिता सहस्त्रार के समक्ष युद्ध के लिए सलाह विमर्श करने जाते हैं उनके पिता उन्हें समझाते हैं कि रावण बहुत ऐश्वर्या शाली हैं..उनके आगे हार-मान लो..और पुत्री का विवाह उनसे करा दो..लेकिन इन्द्र मान-वश पिता जी से कहते हैं कि उम्र के साथ आपकी बुद्धि ख़राब हो गयी है..इससे मेरा कितना अपयश होगा..ऐसा जानकार पिता कि बात न मानकर युद्ध के लिए आगे बढ़ते हैं

Thursday, August 11, 2011

raaja maarut ke yagya ka vinaash aur raavan ki digvijay ka niroopan

राजा मरुत ke यज्ञ ka  विनाश और रावण की दिग्विजय ka    निरूपण        
रावण ने पृथ्वी के मानी राजाओं को जीता..बहुत से अपने आप सर झुकाते हुए..रावण ने जगह-जगह जिन चैत्यालयों को बनबाया,जिन मंदिर बनवाये..कई मंदिरों का जीर्णोधार कराया..श्रावक आदियों की खूब विनय करते थे..जो मिथ्यमार्ग पर चलते थे..उन्हें जिन धर्मं की शिक्षा दी..और जैन धर्म फैलाया...रावण इन्द्र को जीतने के मार्ग में ही थे...रावण ने राजपुर के राजा मरुत के बारे में भी सुन रखा था जो बहुत बलवान था..और पशु बलि चढ़ाता था..यज्ञ में..जीवों की हिंसा कराता था..तब राजा श्रेणिक ने गौतम गंधार से पुछा-हे भगवन यह यज्ञ प्रथा कैसे चालु हुई..और यह कैसी प्रथा जो इतने जीवों की हिंसा karaaye..तब गौतम गणधर  कहते हैं की इच्छवाकू वंश में अयति नाम का राजा हुआ जिसका वसु नाम का पुत्र हुआ..राजा अयति ने वसु को क्षीरकदम्ब नाम के ब्राह्मन के पास पढने भेजा..वहीँ पे उसका पुत्र पापी पर्वत भी पढता था..और वहीँ पे एक नारद नाम का एक ब्राह्मन भी पढता था...क्षीरकदम्ब सर्व शास्त्र के ज्ञाता थे..उनकी स्वस्तिमति नाम की पत्नी थी..वह उन तीनों को ज्ञान देते थे..एक बार वह चारों लोग एक जंगले में गए..तोह वहां चारण ऋद्धि धारी मुनि आये..तब मुनियों ने बोला की तुम चारों में से दो मिथ्यादृष्टी हैं..ऐसा जानकार क्षीरकदम्ब विषय भोगों से विरक्त होकर वहीँ मुनि बन गए..सब निवास स्थान पर पहुंचे..स्वस्तिमति ने कहा पर्वत से पिता जी नहीं आये..स्वस्ति मति कहती हैं की या तोह उन्हें कोई उठाकर ले गया होगा..या मुनि व्रत धारण कर लिए होंगे..तब उन्हें बता चलता है की मुनि व्रत धारण करे हैं..तब वह फूट-फूट कर रोटी हैं..हाय मेरा क्या होगा...मुझे छोड़ गए..और तरह-तरह का शोक करती हैं...तब नारद उन्हें समझाने आते हैं..की यह विषय छह अस्थिर हैं..और वह विरक्त हुए हैं तोह अच्छी बात है..ऐसा सुनकर वह शांत होती है..क्षीरकदम्ब के vairaagya के बारे में सुनकर राजा अयति भी विरक्त हो जाते हैं...और राज्य पुत्र वसु को देते हैं..राजा वसु की सत्य के कारण ख्याति रहती है..राजा वसु का sinhaasan के पाय में स्फटिक मणि के रत्ना लगे होते हैं..जिसे देखकर लोग समझते हैं की राजा वसु का sinhaasan अधर khada है....जबकि ऐसा स्फटिक मणि की वजह से होता है.


एक बार नारद और पापी पर्वत के बीच में शास्त्रार्थ चल रहा होता है..तब नारद कहते हैं की दो प्रकार के चरित्र हैं एक सकल चरित्र जिन्हें मुनि धारण करते हैं.और एकदेश चारित्र जिसे श्रावक धारण करते हैं...एक देश चरित्र में दान पूजा का महत्व है..फिर वह एक श्लोक कहते हैं (वह मुझे ध्यान नहीं है)..जिसमें एक शब्द आता है "अज"..उसके बाद नारद कहते हैं की जो चीज जिसमें अंकुरित होने की शक्ति नहीं..जिसे बोकर फिरसे उत्पन्न न हो..ऐसे द्रव्य को विवाह आदियों में होम-किया जाता है..जिसे सुनकर पापी पर्वत कहते हैं की अज यानी की बकरा..यज्ञों में पशुओं की बलि दी जानी चाहिए...तब नारद कहते हैं तुम बहुत गलत कह रहे हो..ऐसा कहने मात्र से नरक योनी मिलेगी..तुम नरक में जाकर सड़ोगे..तब पर्वत कहते हैं की राजा वसु सत्य  bolte हैं hamesha..उनकी बात सही होगी..जो गलत होगा उसकी जीभ काट दी जायेगी..तब पर्वत माँ के पास जाते हैं और पूरा वृतांत कहते हैं..तब माँ कहती हैं की तू पापी है..तू विदेश में मांस मदिरा के खाने के कारण ऐसा बोल रहा है..अगर राजा वसु ने सही अर्थ बता दिया तोह तेरी जीभ काट दी जायेगी..पति का वियोग वैसे ही हो गया.है ..फिर पुत्र से भी वियोग होकर ऐसा सोचकर स्वस्तिमति राजा वसु के महल में आती हैं..वसु उनका स्वागत करते हैं..तब वह कहती हैं की दो पुत्र होते हैं जो पैदा किया जाए..और जिसे पढ़ाया जाए..मेरे पति ने तुझे पढ़ाया है..इसलिए तू भी मेरा पुत्र हुआ..इसलिए मैं तुझसे कुछ माँगना चाहती हूँ...तब राजा राजी होते हैं..तोह स्वस्तिमति कहती हैं..की तू तब पर्वत और नारद के बीच में शास्त्रार्थ हो तोह तू jhooth बोल diyo..ऐसा कहकर वह चली जाती हैं..तब पर्वत और नारद के बीच में शास्त्रार्थ होता है..तब राजा वसु अज का मतलब बकरा बताते हैं..तब उनके स्फटिक मणि के पाए जो sinhaasan में थे..वह टूट जाते हैं..तब नारद कहते हैं की इतना हिंसा भरी बात आपने कही..अभी भी सच बोल दो..तब वह पर्वत की बात को ही सच कहते हैं जिससे पृथ्वी फट जाती है..और राजा वसु उसमें समां जाते हैं..और सातवें नरक में चले जाते हैं..पर्वत को सब धिक्कारते हैं..पर्वत दूसरी जगहों में जाकर मिथ्या धर्म चलता है..यज्ञ प्रथा चलता है..जिसमें पशुओं की हिंसा हो...ऐसा बताता है की इस पशु वाले यज्ञ से यह दोष मिट जाएगा..ऐसे वाले यज्ञ से कुशील का दोष नहीं लगेगा..इस तरह से यज्ञ प्रथा चालु होती हैं..फिर गौतम स्वामी आगे कहते हैं की राजा मारुत का एक पापी ब्राह्मन होता है...वह ही उस यज्ञ की क्रियाएं करता है..तब वहां पे आठवे नारद आकाश गामिनी विद्या के माध्यम से पहुँचते हैं..और इतनी भीड़-देखकर हैरान होते हैं

तब राजा श्रेणिक गौतम स्वामी से पूछते हैं की यह नारद कौन होते हैं तब गौतम स्वामी कहते हैं की एक ब्रह्मा स्वरुप ब्राह्मन,उसकी पत्नी क्रूर्मी होती है...वह संन्यास लेता है और जंगले में पत्नी के साथ रहता है..वहां भोग-विलास भी करता है..और कंदमूल भी खाता है..एक बार जंगल में चारण ऋद्धि धारी muniraaj आये होते हैं..वह उनके पास आता हैं,तब muniraaj कहते हैं की इस पर daya आती है..kehta है संन्यास liya..है और भोगों में कुशील में लीं है..stri के pet में garbh pal रहा है..और  khud को तपसी बताता है..यह तोह pinjre से nikalkar waapis pinjre में jaane  के samaan हुआ..कोई vaman को waapis peeta है क्या..जो saadhu bankar भी bhautik सुखों में लीं होते हैं..बिस्तर ओअर,विषय भोगों में कुशील में लीं रहते हैं वह शेर,शेरनी,श्यालिनी होते हैं..घोर दुखों को सीखते हैं..ऐसा जानकार वह तपसी विरक्त हो जाता है..और क्रूर्मी को धर्म श्रवण का लाभ होता है..तब कुछ समय बाद पुत्र का जन्म होता है तोह वह बी पुत्र को जंगल में ही छोड़कर आर्यिका बन जाती हैं.
तब पुत्र को जम्भ्रदेव संभालते हैं..उसे शास्त्र का ज्ञान देते हैं..और इस तरह से वह आकाश गामिनी ऋद्धि को प्राप्त होता है..वह उत्तम व्रत के धारी हो जाते हैं..११ प्रतिमा..सम्यक दृष्टी क्षुल्लक होते हैं..उन्हें देव ऋषि के नाम से जाना जाता है
इस प्रकार वह आठवें नारद राजा मरुत के यज्ञ के पास रुकते हैं और राजा मरुत  से कहते हैं की यह यज्ञ घोर हिंसा ..घोर दुःख का कारण है..नरक के दुःख का कारण है..तब मरुत कहते हैं की यह शास्त्र के ज्ञाता संवर्त हैं..इनसे कहिये..वह संवर्त से कहते हैं की वीतरागी भगवन ने,सर्वज्ञ भगवन ने ऐसा बोला है की किसी जीव को दुःख देने से दुःख ही मिलता है..तोह वह पापी संवर्त ब्राह्मन कहता है जो वीतरागी है,वह सर्वज्ञ नहीं..जो सर्वज्ञ है वह वीतरागी नहीं..जो अकृत्रिम हैं वह वेद हैं..वेद का कहां प्रमाण है..बलि देने से कोई पाप नहीं मिलता स्वर्ग मिलता है..इस तरह की बात सुनकर नारद कहते हैं की तू हिंसा के कारण ऐसा बोल रहा है..कैसा है तू? हिंसा मार्ग से दूषित है..तू कह रहा है अगर सर्वज्ञ वीतरागी नहीं तोह अर्थ सर्वज्ञ,शब्द सर्वज्ञ..और बुध्ही सर्वज्ञ क्यों कहे गए हैं..तू कह रहा है की बलि देने में पाप नहीं है..तोह क्या जीवों को दुःख नहीं होता है..अगर दुःख होता है तोह पाप है..अगर दुनिया इश्वर ने बनायीं है तोह किस प्रयोजन से बनायीं है..अगर क्रीडा के लिए बनायीं है..तोह उसको बालक samaan jaano..और ऐसा है तोह क्या पशुओं को दुःख देने के लिए banaya है..अगर ऐसा है तोह खुद के सामन क्यों नहीं बनता है?.....he संवर्त भगवन तोह तेरे जैसा है,हमारे जिसकहै ..वह कर्मों से रहित हैं..आठों कर्मो को swahaa karke niraakul आनंद सुख को प्राप्त हुए हैं...तुझे पुण्य के उदय से मनुष्य पर्याय मिली है तोह इसे व्यर्थ न जाने दे..तू कह रहा है अगर हिंसा स्व स्वर्ग मिलता है तोह राजा वसु नरक क्यों गए..इसलिए वीतरागी १८ दोषों से रहित भगवन की वाणी सत्य है..अगर तुझे यज्ञ करना है तोह मैं बताऊँ क्या यज्ञ कर..आत्मा को यजमान मान,शारीर को हवन कुंड..सर्व परिग्रह को होम कर..ताप रुपी अग्नि से आठों कर्मों को स्वाहः कर जिसका फल सिद्ध गति है..और अगर किसी को बांधना है तोह मन रुपी चंचल पशु को बाँध..यह धर्म यज्ञ है इसे किया कर..इस प्रकार नारद ने संवर्त को ज्ञान दिया..कैसे हैं नारद जैन धर्म के ज्ञानी,सम्यक दृष्टी,शास्त्रों के ज्ञाता..ऐसा सुनकर जो संवर्त के saath anek विप्र हैं वह नारद को maarne lagte हैं so नारद भी ladai karne lagte हैं..नारद akele और वह itne jyaada उन्हें chaaron taraf से gher lete हैं jisse वह akaash मार्ग से ud भी नहीं पाते हैं...जिसके कारण वह उन्हें मार ही रहे होते हैं..तब ही रावण का दूत मरुत के पास आता है..नारद का यह हाल देख रावण से पूरा वृतांत कहता है..ऐसा सुनकर रावण vaayu से भी tej vimaan से sidhe बहन पहुँचते हैं..नारद को छुड़ाते हैं..पशुओं को छुड़ाते हैं..सारे विप्रो को बाँध देते हैं और राजा मरुत को बांध देते हैऔर कहते हैं की मेरे राज्य में इतनी हिंसा..जो जीव दुःख देगा वह नरक जाएगा..तोह तू नरक के दुःख को भोग ऐसा कहकर जमीन पर पटकते हैं..तब वह "ओह" karke चीखते हैं..तब रावण कहते हैं जिस प्रकार तुझे दर्द हुआ है उस प्रकार पशुओं को भी तोह हुआ होगा . इस प्रकार बाँध के रखते हैं तब सम्यक दृष्टी नारद कहते हैं इन्हें क्षमा कर दो..यह हुंडावसर्पिणी काल ka दोष है...यह ऋषभ के पोते मारीच द्वारा फैलाया हुआ..है..इसलिए इन्हें रोकने कोई फायदा नहीं है..तब भगवन की वाणी से जीव मिथ्यात्व से नहीं निकले तोह हम इन्हें बाँध कर क्या यज्ञ रुकवा देंगे..ऐसा जानकार राजा मरुत को गलती ka एहसास होता है वह रावण के चरणों में नतमस्तक हो कर कहता है मैंने खोते लोगों की बातों में आकर तरह-तरह के होते कार्य किये अब मुझे सही रास्ता दिखायें..इस प्रकार राजा मरुत अपनी पुत्री कनक-प्रभा ka विवाह रावण से करता है..और रावण को अपने योद्धाओं की सेना दिखाता है...इस प्रकार रावण ka दिग्विजय ka kaaryakram chal raha होता हो.रावण भरत-क्षेत्र में प्रवेश करते हैं..वह उन्हें अति सुन्दर लगती है..रावण की समुद्र के सामान विशाल सेना के सामान भरत-क्षेत्र में आकर हर्षित होते हैं..बड़े-बड़े राजा अपने aap सर झुका ते हैं..हर jagah रावण ka सम्मान होता है..जहाँ देखो हर तरफ रावण के ही चर्चे होते हैं..स्त्रियाँ रावण पे मोहित हो जाती हैं..कोई काम कर रही है सबका ध्यान रावण की तरफ होता है...कोई कहती हैं की धन्य है वह पिता जिन्होंने इन्हें जन्मा..कोई कहता है धन्य है वह रानियाँ जो इनकी पत्नी हैं..कोई कहती हैं की धन्य है वह वंश जिसमें राजा रावण ka जन्म हुआ...इस तरह-तरह से प्रशंशाएं करती हैं..रावण जहाँ जाते हैं वहां बिना बोये फल-फूल उग-आते हैं यह पुण्य ka प्रभाव है..बड़े-बड़े राजा उनके आगे भेंट चदते हैं..यहाँ तक की किसान अदि-आम आदमी सब उनको धन्य मानते हैं जिनके कारण उनके कार्य में वृद्धि हुई...वर्षा ka काल आता है..तोह रावण वहीँ पर चातुर्मास करते हैं..वर्षा काल में किसान कृषि करते हैं तोह वह रावण की मदद से होती हैं..इस तरह-हर तरफ सुख ही सुख होता है..राजा बिना कहे अपनी पुत्रियाँ रावण को देने को तैयार हो जाते हैं..यह सब पुण्य ka प्रभाव ही होता है..और पुण्य धर्म के कारण है

रावण के पास जितना भी वैभव था यह पूर्वौपाजित कर्मों ka फल था..जो इन्हें इतना सुखकारी हुआ..पुण्य के माध्यम से मोक्ष भी मिल सकता है..जो ज्ञानी होते हैं वह पुण्य कर्मों के फल को सही दिशा में लगते हैं लेकिन अज्ञानी गलत दिशा में तोह दुःख पाते हैं..इसलिए संसार में धर्म ही सुखकारी है..सुखदायक

इस प्रकार से राजा मरुत के यज्ञ ka विनाश और रावण ka दिग्विजय ka निरूपण ka वर्णन पूरा हुआ

लिखने ka adhaar श्री रविसेन achaarya द्वारा virachit shastra श्री padam puraan है..shastra में bahut jyaada था kam shabdon में likha है..कोई bhool हो तोह क्षमा karein...और गलती हो तोह batayein..jai jinendra. 

Wednesday, August 10, 2011

SUGREEV AUR SUTARA KA VRATANT

सुग्रीव और सुतारा का वृतांत,राजा सहस्त्र-रश्मि और  राजा अरण्य की विरक्ति


ज्योति पुर नगर के राजा अग्निशिखा की पुत्री थी सुतारा कैसी हैं सुतारा अत्यंत रूपवान,..राजा चक्रांक का पुत्र साहस  गति उस पर कामुक था..और राग की आग में जलता था..सुग्रीव भी सुतार से आकर्षित था..राजा दुविधा में पड़ गया की किस्से विवाह  करवाए..महा ज्ञानी मुनिराज SE पुछा..मुनिराज ने कहा साहस गति की आयु अल्प है...राजा ने विवाह सुतार का सुग्रीव से करा दिया..उनके अंग और अंगद  नाम के दो पुत्र हुए... साहस गति  सुतारा के विवाह की बात जान अति क्रोधित हो गया..और विषम गुफा में रुप्परिवार्तनी विद्या सिद्ध करने चला गया..इधर रावण ने अपनी दिग्विजय यात्रा में द्वीप में अंतरद्वीप के   राजाओं को जीता..हर कोई आता रावण कोप्रणाम करते और रावण के साथ जुडजाते...सारे अंतरद्वीपों के राजाओं पे विजय पाकर रावण ने बहन चंद्रनखा  के यहाँ  रात्री में विश्राम किया..चंद्रनखा ने पति  खरदूषण  को जगाया ..खरदूषण  ने    रावण के पास जाकर उनकी पूजा की...और अपनी साड़ी विद्याओं को और सेना को रावण ने दिखाया...रावण अति हर्षित हुए..और खरदूषण को अपना सेनापति बना लिया..दिन पर दिन रावण की सेना दूनी होती जा रही थी..दिग्विजय की यात्रा चल ही रही थी.रावण..रावण के मन में विचार आया की रथनुपुर के राजा इन्द्र को जीतेगा इसी भाव के साथ..वह आगे इन्द्र को भी जीतने के भाव LEKAR आगे बढ़ते जा रहे थे..एक बार वह नदी किनारे पहुंचे..तोह वहां पे महिष्मति  नगर  के राजा सहस्त्र-रश्मि(नाम प्रिंट नहीं हो पा रहा है) ...अपनी रानियों के साथ क्रीडा कर रहे थे..वह रानियाँ अति रूपवान थीं..जैसे किसी ने पानी से अंजन धोया तोह नदी श्याम पद गयी..किसी ने चन्दन लगाकर नदी में स्नान किया तोह नदी का रंग स्वर्ण हो गया..और ऐसी रानियों के साथ भूमीगोचरी राजा सहस्त्र..क्रीडा कर रहे थे..किसी को स्पर्श करते ..और तरह तरह की क्रीडा करते..वाहन रावण पहुंचे तोह..नदी के किनारे ही विशुद्ध भावों से जिनेन्द्र भगवन की महा द्रव्यों से पूजा करने लगे..रावण पूजा कर रहे थे..मंत्र बोल रहे थे..राजा सहस्त्र...की क्रीडा के कारण नदी का जल पूजा की सामिग्री के पास गिर गया...जिससे पूजा में अड़चन आई..रावण क्रोधी होकर बुला..की कौन है वह मूर्ख जो मुझे पूजा नहीं करने दे रहा है..सेनापति राजा सहस्त्र..के बारे में बताते हैं और उनके पराक्रम के बारे में बताते हैं..इससे रावण उस राजा को बुलाने के लिए कहते हैं...ऐसी बात सुन राजा सहस्त्र..अपने बड़े-बड़े योद्धाओं के साथ लड़ने के लिए आ जाते हैं..तब ही वहां देव वाणी होती है की कहाँ यह शक्तिशाली विद्या के धारी विद्याधर योद्धा और कहाँ यह भूमीगोचरी सेना..इनको तोह विद्याधर हाल ही जीत लेंगे..ऐसा कहकर बहुत से विद्याधर लज्जित हुए..और पीछे हट गए..लेकिन बहुत से लड़ने लगे...भूमीगोचरी राजा की सेना के योद्धाओं ने  रावण की सेना को जीतने लगे..जिससे खबर रावण तक पहुंची रावण भी युद्ध करने आये..रावण ने हाल ही..सहस्त्र..को बाँध दिया... 
उधर सहस्त्र..के पिता शतबाहू जो विरक्त होकर मुनि दीक्षा ली थी..उन्हें जंघा-चारण ऋद्धि प्राप्त हुई..इस तरह से सहस्त्र..की खबर सुन रावण को संबोधित करने वहां पहुंचे..रावण ने बड़ा आदर किया...अति हर्षित हुआ ..अपने आपको धन्य माना और तरह-तरह से स्तुति की...मुनिराज ने शलाका पुरुष जानकार कहा की आप अत्यंत वैभव के धारी हैं आप शलाका पुरुष हैं इन राजाओं को हाल जी जीत सकते हैं..इसलिए महान राजाओं का कर्त्तव्य होता है की शत्रु को जीतकर छोड़ दे..बंधन में न रखे ...रावण ऐसा सुनकर कहते हैं हे राजा मैं रथनुपुर के राजा इन्द्र से युद्ध करने जा रहा हूँ..उनसे मेरा द्वेष है क्योंकि उन्होंने मेरे दादा जी के भाई राजा माली का बध किया था..इसलिए मेरा उनसे द्वेष..मैं रास्ते में सरोवर के किनारे कुछ रुका हुआ था..और जिनेन्द्र भगवन की पूजा कर रहा था तब इसने पूजा में अड़चन डाल दी...मुनि के कहने पे रावण सहस्त्र-रश्मि राजा को छोड़ने का आदेश देते हैं..और वह राजा पिता जो मुनिराज हैं उनके चरणों में आते हैं..रावण उनसे कहते हैं..की aajse ham teen भाई the tum चौथे भाई हो..लेकिन इतना सबकुछ होने के बाद विरक्त हो जाते हैं और धिक्कारते हैं खुद को..की मैं कितना मूर्ख हूँ..जो इन्ही में पड़ा हुआ था..यह विषय कषय क्षणभंगुर हैं और प्रकट दुःख हैं..और मुनि दीक्षा लेते हैं..मुनि दीक्षा लेने से पहले मित्र राजा अरण्य को भी दीक्षा का सन्देश भेजते हैं(दोनों राजाओं ने एक दुसरे से वादा किया था..की अगर वह मुनि दीक्षा लेंगे..तोह वह उन्हें खबर करेंगे..और अगर राजा अरण्य मुनि दीक्षा लेंगे तोह उन्हें खबर सुनकर)..मित्र की खबर सुन राजा अरण्य अनुमोदना हैं..सच्चे मित्र की मिसाल देते हैं..कहते हैं की सच्चे मित्र वह ही हैं जो संसार से तारें और उन्हें शत्रु सामान जानो..जो संसार बढ़ाने में सहाई हों..रावण राजा सहस्त्र-रश्मि के मित्र सामान nikle..क्योंकि उन्ही के कारण उन्हें वैराग्य हुआ....ऐसा जानकार राजा अरण्य भी भोगों से विरक्त हो कर मुनि हुए..और व्रतों को धारण किया.

इस प्रकार यह सुग्रीव और सुतार,राजा सहस्त्र-रश्मि और राजा अरण्य की विरक्ति का कथन हुआ..
संसार में विषय भोग-अस्थिर हैं .आग के सामान जलाते हैं...दुःख का कारण है..जो जिनेन्द्र dev के द्वारा बताये हुए मोक्ष मार्ग को स्वीकार करते हैं वह आठो  कर्मों को भस्म  करके  निराकुल  आनंद  सुख को प्राप्त होते हैं

लिखने का आधार आचार्य श्री रविसेन स्वामी द्वारा विरचित श्री पदम् पुराण हैं..शास्त्र में तोह बहुत ज्यादा इस विषय पर दे रखा है..मैंने बहुत कम शब्दों में बताने की कोशिश करीहै...इसलिए अन्य कोई गलती हो...भाषा सम्बंधित  गलती हो..या कोई  अन्य गलती हो तोह  क्षमा प्रार्थी  हूँ.

Tuesday, August 9, 2011

BAALI MUNI KA NIROOPAN

राजा सूर्यरज और यक्षराज रावण के द्वारा प्रदान किये हुए नगरों में राज्य करते हैं..वहां सूर्यरज,रानी चन्द्र माला के यहाँ पुत्र रत्न हुआ पुत्र का नाम बाली हुआ..देखते ही देखते बाली बड़े हो गए कैसे हैं बाली? सम्यक दृष्टी,धार्मिक,विनय वान..ऐसे बड़े कम मनुष्य हैं जो ढाईद्वीप के सारे जिनालयों के दर्शन करते...बाली तीनों काल जम्बुद्वीप के जिन मंदिर के दर्शन करते..कैसे हैं जिनमन्दिर...सम्यक दर्शन की प्राप्ति के कारण..इस प्रकार राजा सूर्यरज के दुसरे पुत्र हुए सुग्रीव..कैसे हैं सुग्रीव-धर्मवान,विनय वान...और तीसरी पुत्री हुई श्रीप्रभा .सूर्यरज राजा के भाई रक्षरज के भी दो पुत्र हुए नल और नील..दोनों राजाओ के पुत्र अत्यंत गुणवान..देखते ही देखते यौवनावस्था आ गयी पुत्रों की..राजा सूर्यरज इस प्रकार यौवन को देखकर और इन्द्रिय सुखों को क्षणिक जानकार भोगों से विरक्त हुए...और मुनि हुए ..कैसे हैं सूर्यरज मुनि ?तपवान-क्षमा के धारी,मोक्ष के अविलाशी,विषय कषायों से विरक्त...अब राज्य का भार बाली संभाल रहे थे..रजा बाली की कई रानियाँ हुईं..उनमें से प्रमुख ध्रुवा नाम की रानी हुईं इधर रावण की बहन चंद्रनखा को रावण की अनुपस्तिथि में खरदूषण उठा ले गया..चंद्रनखा की बात सुन कुम्भकरण वगरह लड़ने जा रहे थे लेकिन खरदूषण की शक्ति को देख रुक गए जब रावण आये तोह बहन के हरण की खबर सुन क्रोधित हुआ..और अकेली खडग लेकर लड़ने जाने लगा तब मंदोदरी ने हाथ जोड़कर विनती की खरदूषण १४००० विद्या धरों का स्वामी है..और हजारों विद्या जानता है.,पाताल लंका में चंद्रोदर विद्याधर को निकालकर राजा सूर्यरज के मुनि बनने  के बाद रह रहा है .और तोह और उसने आपकी बहन को उठाया है.. .जिससे उसका विवाह और किसे से नहीं होगा..और खरदूषण को मारने से विधवा हो जायेगी...और आपको दोष लगेगा मंदोदरी की बातें सुन रावण शांत हुए और कहा की वह वह बहन को विधवा नहीं देख सकते...इसलिए उसे क्षमा कर देते हैं.
चंद्रोदर विद्याधर  विद्याधर कर्म योग से मृत्यु को प्राप्त होता है...उसकी पत्नी और पुत्र जंगले में जीवन व्यतीत करते हैं...पत्नी अनुराधा..का पुत्र होता है उसका नाम विराधित होता है क्योंकि जब से विराधित हुआ है जब तक उन्हें कहीं भी विनय नहीं मिली,कहीं भी मान-सम्मान नहीं मिला..जहाँ जहाँ जाता अविनय को ही सहन करता..और अपमान ही सहता ..इसलिए उसका नाम विराधित रख दिया गया.
 राजा बलि बड़े सुख से राज कर रहे होते हैं..लेकिन वह रावण की आज्ञा के अनुरूप नहीं चलते हैं..जिसे जानकार रावण बलि के पास दूत भेजते हैं..और कहलवाते हैं..की यम से आपके पिता सूर्यरज और यक्षरज को हमने ही बचाया था..इसलिए आपका हमारे पास एहसान है...आपके पिताजी हमारा बड़ा आदर करते थे..इसलिए आपका हमारी बात नहीं मानना अनुरूप नहीं होगा...इसलिए आकर हमें प्रणाम करें.और बहन श्रीप्रभा का विवाह हमसे kardein...बाली को रावण की सारी बातें सही लगीं सिर्फ प्रणाम वाली..क्योंकि वाली सच्चे देव-शास्त्र गुरु के अलावा किसी को प्रणाम नहीं करते थे..फिर आगे दूत कहता है की या तोह प्रणाम करो..या धनुष उठाओ..या तोह सर झुकाओ या युद्ध के लिए तैयार हो जायो..बाली दूत से मनाह कर देते हैं...दूत सारी बात रावण को बता देता है...रावण क्रोधित होता है और युद्ध के लिए वार करने आ जाते हैं....तब बलि युद्ध पे जाने से पहले सोचते हैं की यह सारी राज्य सम्पदा क्षणिक है..मंत्री कहते हैं की इस से बढ़िया प्रणाम कर लो..रावण अत्यंत शक्तिशाली हैं..लेकिन बाली कहते हैं..की इस राज्य सम्पदा के लिए क्षणिक इन्द्रिय भोगों के लिए क्या लडूं..इन्द्रिय भोग तोह प्रकट रूप से विष हैं..इनको पुष्ट करके यह जीव नरक ही जाता है..ऐसे भोगों के लिए क्या लड़ना..और ऐसे दुखों से मुक्ति सिर्फ जिनेन्द्र भगवन के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है..इसलिए संसार से विरक्त हो कर बाली मुनि बन जाते हैं और सुग्रीव को राज्य देकर कह गए की जो करना है करो..बाली मुनि बन जाते हैं..और सुग्रीव श्रीप्रभा का विवाह रावण से करते हैं....कैसे हैं बाली मुनि महा तपस्वी...मोक्ष के अभिलाषी..इस प्रकार निरंतर तरह-तरह की विध्यायों को पाया..और निरंतर गुण-स्थान बढ़ाते रहे.
एक बार रावण नित्यपुर के राजा नित्यापुर की पुत्री से विवाह करके लौट रहे थे...पुष्पक विमान से...तभी कैलाश पर्वत के ऊपर से विमान निकल रहा था..तभी विमान रुक गया..कैसा है विमान मन की गति से भी तेज..रावण आश्चर्य चकित हुए..मंत्री मारीच से पूछते हैं....की यह विमान कैसे रुक गया..तब मारीच बताते हैं की यहाँ पे कायोत्सर्ग मुद्रा में दिगंबर मुद्रा में तप कर रहे हैं...इसलिए आप नीचे उतारकर उन्हें प्रणाम करें..रावण नीचे उतारते हैं..और कैलाश पर्वत पर जाकर देखते हैं..देखते हैं की नग्न शांत मुद्रा में मुनि-तप कर रहे हैं..मुनि बाली मुनि थे...रावण पूर्व बातों का स्मरण करके कहते हैं की मुनि व्रत के बाद भी क्षमा नहीं किया..अभी भी विमान रोक दिया...वीतराग मुद्रा को धारण करके ऐसा क्यों कर रहे हो..बाली मुनि समता भाव रखते हैं..रावण क्रोधित होकर पातळ में धस जाते हैं..और विद्या का प्रयोग करते हैं...विद्या के स्मरण मात्र से विद्याओं के देव प्रकट हो जाते हैं..और इस प्रकार पूरे कैलाश पर्वत को हिलाने की सोचते हैं..पूरा कैलाश कम्पायमान हो जाता है..पशुपक्षी घबराते हैं..देव भी आश्चर्य चकित हो जाते हैं ..बाली मुनि समता भाव रखते हैं..लेकिन इस बात का चिंतन करते हैं की रावण इस पहाड़ को हिला रहे हैं..इस पहाड़ पे कितने भारत चक्रवती के द्वारा बनाये हुए जिन मंदिर हैं..जहाँ देव और मनुष्य दोनों दर्शन करने जाते हैं...इस बात से बाली मुनि जरा सा अंगूठा हिला देते हैं...जिससे पहाड़ वापिस अपनी जगह पर आ जाता है..जिससे रावण के जंघाएँ क्षिल जाती हैं..और पसीना पसीना हो जाए हैं..देव पुष्प वर्षा करते हैं
रावण विशुद्ध भावों से बाली मुनि की स्तुति करते हैं कहते हैं की मैंने आपको गलत समझा ..धन्य हैं आप जो देव-शास्त्र-गुरु के अलावा किसी को प्रणाम नहीं करते हैं..आप पूजनीय हैं स्तुति के कारण है..मैं पापी मानी आप में दोष निकालने लगा..आप ने तोह कितनी सारी विध्यायों को मुनि मुद्रा में ऐसे ही प्राप्त कर लिया..मैंने जिन धर्म को इतना जाना लेकिन कभी यह नहीं सोचा...इस तरह से तरह तरह से बाली मुनि की स्तुति करते हैं..फिर कैलाश मंदिर स्थित जिनालयों के दर्शन करते हैं...और वहां शरीर से नस को तार बनाकर बीणा बजाते हैं और स्तुति करते हैं..तरह तरह से स्तुति करते है न्केहते हैं आप ही मोह के नाशक हैं...आप ही विषय भोगों से मुक्ति दिलाने वाले हैं..आप ही परम पूजनीय हैं..आपको सब नमस्कार करते हैं..और आप किसी को नमस्कार नहीं करते हैं..आप के जैसे गुण अन्य किसी में नहीं है.मैं ऋषभदेव अदि चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार करता हूँ..जो हो चुके हैं और आंगे होंगे..उनको नमस्कार  करता हूँ  .तरह-तरह से विनती करते हैं..आपने अष्ट कर्मों का नाश किया हुआ है..आप हर प्रकार के दुखों से रहित हैं..इस प्रकार से स्तुति करते हैं..की धरेंद्र का आसान कम्पायमान हो जाता है..और प्रकट हो जाते हैं और रावण की कहते हैं की धन्य हैं आप और आप की जिन भक्ति..मैं तुझसे प्रसन्न हूँ मांग क्या मांगेगा?..रावण कहते हैं की जिन भक्ति से ज्यादा और क्या है इस संसार में..यह ही आकुलता रहित सुख को देने वाली है..और यह ही अनंत सुख को प्रदान कराती है..और मोक्ष से ज्यादा सुखदायी इस संसार में कुछ भी नहीं है..इसलिए मुझे कुछ नहीं चाहिए..धर्नेंद्र कहते हैं वह तोह तुने सही कहा लेकिन मैं आया हूँ तोह कुछ मांग रावण कुछ नहीं मांगते हैं..लेकिन धर्नेंद्र उन्हें ऐसी विद्या देते हैं जिससे रावण सर्व शत्रुओं को जीत सकते हैं..सब पे विजयी होते हैं.
वापिस आकर वह बाली मुनि के गुण गाकर वापिस चले जाते हैं...बाली मुनि भी अपने द्वारा की गयी शल्य का प्रायश्चित करते हैं..और ध्यान में लीं हो जाते हैं..ध्यान ही ध्यान में चारो घटिया फिर चारो अघतियाँ कर्मों को नाश करके निराकुल आनंद सुख को प्राप्त होते हैं..और अनंत दर्शन-ज्ञान-चरित्र-बल को प्राप्त करते हैं..

अगर मुझसे  श्री बाली मुनि का निरूपण लिखने में कोई गलती हो...शब्द-अर्थ सम्बन्धी गलती हो..या और कोई गलती हो तोह क्षमा करें

यह लिखने का आधार शास्त्र श्री रविसेनाचार्य विरचित श्री पदम् पुराण है..शास्त्र के बात को बहुत ही कम शब्दों में मैंने लिखा है.


Sunday, August 7, 2011

RAAVAN KE KUTUMBAADI KA VARNAN

 
असुर संगीत नाम के नगर में राजा मय नाम का विद्याधर राज्य करता था..उसकी एक मंदोदरी नाम किया अत्यंत गुणवान और रूपवान पुत्री थी...माँ ने विवाह के लिए राजा से कहा ...मंत्रियों से सलाह ली तोह उन्होंने कहा की विद्याधरों के राजा इन्द्र से कराएं..लेकिन राजा मय की इच्छा थी की वह रावण से विवाह कराएं क्योंकि उन्होंने बहुत सारी विद्याएं बहुत जल्दी ही सिद्ध हो गयीं थी..मंत्रिओं ने राजा के प्रस्ताव को माना..उस... समय रावण भीमवन में खडगहास विद्या सिद्ध करने गए थे..और विद्या सिद्ध करके सुमेरु पर्वत पर चैत्यालय की वंदना करने गए THE ..उस समय राजा मय भीमवन में आते हैं..भीम वन में स्वयंप्रभ नगर जो राजा ने बसाया था वहां ऊँचा महल देखते हैं..और महल में पहुँचते हैं..महल में रावण की बहन चन्द्रनखा बैठी होती हैं..तोह वह उनसे पूछते हैं की "आप वनदेवी जैसी लगने वाली कौन हो"...तोह वह अपना परिचय देते हुए बड़ा आदर सत्कार करती हैं...तभी रावण आकाश मार्ग से महल की और आ रहे होते हैं..रावण के आते ही सब खड़े होते हैं..रावण भी बड़ा आदर सम्मान करते हैं..फिर राजा मय मंदोदरी को सामने लाते हैं..मंदोदरी को देख रावण मोहित हो जाते हैं..और पूछते हैं की यह मेरे सामने ..कौन सी देवी खड़ी हैं. तभी राजा मय रावण के हाव-भाव जानकार उनसे कहते हैं की इन्ही से आप विवाह कीजिये..इस प्रकार उसी दिन विवाह कर लेते हैं..और स्वयं प्रभ नगर में रहते हैं...रावण की हाजोरों रानियों में मंदोदरी पटरानी हुईं...वह अन्य रानियों के साथ क्रीडा करते..विध्यायों के माध्यम से छोटा-रूप बना लेते कभी छिप जाते ..इस प्रकार क्रीडा करते हैं .एक बार रावण मेघवर पर्वत पर जाते हैं तोह वहां पे ६ हजार स्त्रियाँ क्रीडा कर रही होती हैं..उन्हें देखकर रावण क्रीडा करते हैं सब रावण के रूप पर मोहित हो जाती हैं..और विवाह कि इच्छा करती हैं..रावण सब से विवाह करते हैं..लेकिन उनको जो सहेलियां और खोजा होती हैं वह राजाओं से जाकर कह देती हैं..जिससे राजा सेना बनाकर रावण से लड़ने जाते हैं..लेकिन रावण क्षण-भर में ही उन्हें हरा देते हैं..और सारे राजा हथियार डालकर राजा सुरसुन्दर के पास जाते हैं...राजा सुरसुन्दर क्रोध रुपी आग में जलकर रावण पर वार करता हैं तव सारी रानियाँ(जो उन राजाओं कि पुत्री होती हैं)..उनसे निवेदन करती हैं..कि आप किसी उचित स्थान पर छिप जाओ..लेकिन रावण कहता है कि तुम अभी मेरी शक्ति नहीं जानती हो....और इस तरह रावण सारे राजाओं को नागफास में बाँध देता है...पुत्रिओं के निवेदन पर छोड़ता hai .और सम्मान करता है और कहता है कि आप हमारे परम सम्बन्धी हैं....इस तरह रावण कि शूरवीरता देखकर उनको विवाह कि स्वीकृति दे-देते हैं.

कुम्भकरण(भानुकरण) का विवाह कुम्भ्पुर की राज्य पुत्री तडिन्नमाला से हुआ...विभिसन जिन धर्मी..धर्म में निपुण थे...विभीषण का विवाह राजीवसरसी..जो ज्योतिप्रभ नगर कि राज्य पुत्री थी...उससे हुआ.

मंदोदरी गर्भवती हुईं ..पिता के यहाँ उनके पुत्र हुए इन्द्रजीत..इन्द्रजीत का नाम बहुत प्रसिद्द हुआ...दूसरी बार गर्भवती होने पर पुत्र हुआ पुत्र का नाम मेघनाथ रखा.

वैश्रवण,जो की राजा इन्द्र के लोकपाल थे,और लंका की निगरानी करते थे,वह  जिन-जिन नगरियों में राज्य करता था..वहां से कुम्भकरण सारा माल स्वयंप्रभ नगर में ले आते थे...एक बार वैश्रवण ने एक दूत राजा सुमाली के पास भेजा और कहा की आप लोकनीति को जाने वाले ज्ञाता हो..यह बातें शोभा नहीं देती की आप के पुत्र हमारी नगरियों में से माल-चुराकर ले जाते हैं...आप राजा इन्द्र को नहीं जानते हैं..क्या आप अपने भाई माली की मौत के बारे में भूल गए...धीरे-धीरे पाताल लंका से सरक-सरक कर यहाँ पहुंचे हो..?इस तरह से तरह की अभिमानजनक बातें कहता है..राजा इन्द्र की ताकत का वर्णन करता है...जिससे रावण में क्रोध रुपी ज्वाला उत्पन्न होती हैं..और कहता है कौनसा है राजा इन्द्र जिसमें इतनी शक्ति है..कि हमारा कुछ बिगाड़ सके..यह शायद रावण कि ताकत को नहीं जानता है"...तलवार से दूत पे वार करने ही वाला होता है तभी विभीषण उन्हें समझा कर कहते हैं "कि यह नीति नहीं है..कि दूत को मारा जाए..दूत तोह राजा कि भाषा बोलता है..यह शूरवीरों को शोभा नहीं देता है..कि दूत कि हिंसा करें"..यह बात तोह राजा ने बोली है न..इस तरह से तरह-तरह कि बातें करके क्रोध-रुपी ज्वाला को शांत कर देते हैं..जब दूत सन्देश लेकर वैश्रवण राजा तक जाता है..वैश्रवण राजा क्रोधित होता है..उधर रावण अदि सब लोग क्रोधित होते हैं..और युद्ध के लिए जाते हैं..रावण के सर पर सफ़ेद छत्र होता है...महाबलशाली रावण शत्रु की सेना को परस्त कर देते हैं..तभी वैश्रवण विरक्त हो जाते हैं और पछताते हैं रावण से कहते हैं के हे भरता यह सारे भौतिक सुख,इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक हैं...दुःख के कारण हैं..नरक का कारण हैं..इसलिए हम मैत्री करे..लेकिन रावण कहते हैं की ऐसा है तोह अपनी हार स्वीकार कर लो..लेकिन वैश्रवण नहीं करते हैं..और रावण वैश्रवण को मूर्छित कर देते हैं..वैश्रवण को वापिस ले जाया जाता है.रावण जीत जाते हैं..और वैश्रवण को तब होश आता है...तोह वह मुनि दीक्षा ले लेते हैं..इधर रावण लंका को जीत जाते हैं..और पुरे परिवार कुम्भकरण,विभीषण,इन्द्रजीत,मेघन​ाथ सबके साथ लंका नगरी पर आते हैं..रावण किसी से कुछ नहीं लेते हैं सिर्फ वैश्रवण के पास जो पुष्पक विमान था..उसे छोड़ कर...इस प्रकार अब लंका नगरी वापिस आ जाती है..राक्षश वंशी रावण जिसे पाकर सुमाली बड़े हर्षित होते हैं..एक बार रावण सुमाली से पूछते हैं की इस पहाड़ के ऊपर सरोवर भी नहीं है तब भी कमल खिल रहे हैं..और कमल तोह चंचल होते हैं..यह तोह चंचल भी नहीं हैं तभी दादा सुमाली "ॐ नमः सिद्धेभ्य" ऐसा बोलकर कहते हैं की यह कमल नहीं हैं यह तोह हरीषेण चक्रवती द्वारा बंबाये हुए जिन मंदिर हैं..और वह रावण से निचे उतारकर नमस्कार करने के लिए कहते हैं..जिससे रावण ऐसा ही करते हैं..रावण फिर दादा सुमाली से हरीषेण चक्रवती की कथा सुनते हैं..और सुमाली पूरी कथा कहते हैं..और अति हर्षित होते हैं रावण ऐसे चक्रवती की कथा सुनकर..कुछ समय बाद सब लोग दरबार में बैठे होते हैं तभी अजीब सी गर्जना होती हैं.जिससे सब डर जाते हैं..सिपाही चुप जाते हैं..हाथी रस्सी खीचने लगते हैं..तब रावण सेनापति को देखने के लिए बोलते हैं..तब सेनापति रावण को देखकर बताते हैं की अति शक्तिशाली सौन्दर्यवान हाथी है..जिसे राजा इन्द्र भी नहीं पकड़ पाया..तब रावण कहते हैं की यह बहुत आसान है और हाथी को पकड़ने के लिए जाते हैं..और बड़ी आसानी से हाथी को पकड़ लेते हैं..और उस हाथी का नाम त्रैलोक्यमंडन रखते हैं..इस प्रकार रावण उस हाथी के साथ प्रवेश करते हैं..और सब अति हर्षित होते हैं..एक बार दरबार में एक दूत वानर VANSHION की और से आता है..और कहता है की यह वानर वंश आप ही की कृपा से चल रहा है..लेकिन इन्द्र का लोकपाल यम पाताल-लंका में घुस या और राजा सूर्यरज और रक्षरज से घमासान युद्ध हुआ..और सारा राज्य क्षीण लिया उस पाई ने उन दोनों को अपनी खतरनाक नरक जैसी कैद में दाल दिया है..जहाँ वैतरणी अदि भी बनायीं हैं...इसलिए आप उनकी रक्षा कीजिये..और ऐसा कहकर दूत बेहोश हो जाता है..रावण शीतोपचार से उसे ठीक करते हैं..और दूत की बातें सुन रावण उस यम पे आक्रमण करने चले जाते हैं...घमासान युद्ध करते हैं...जब यम की सेना हार रही होती है...यम डर कर राजा इन्द्र के पास भागते हैं..इन्द्र से कहते हैं की वैश्रवण तोह मुनि बन गया..अब मैं क्या करूँ..तब राजा इन्द्र क्रोधित होते हैं..और लड़ने के लिए तैयार होते हैं तभी उनके बुद्धिमान मंत्री रावण की विशेषताओं के बारे में बताते हैं..और शक्ति के बारे में बताते हैं..जिससे इन्द्र शांत होते हैं और यम को रथनुपुर में रुकने के लिए कहते हैं..

उधर रावण सूर्यरज को किह्कंध पुर देते हैं..और रक्षरज को किह्न्कुपुर देते हैं..रावण इस प्रकार जब लंका नगरी में वापिस आते हैं..उनका भव्य स्वागत होता है..फूल बरसाए जाते हैं..चारो तरफ जयजयकार होती हैं..वृद्ध जनों का सम्मान होता है..सब प्रफुल्लित होते हैं..हर्षित होते हैं..राज्य के लोग ऐसे रक्षक को पाकर धन्य होते हैं..इस प्रकार इस पुण्य के योग्य से रावण लंका में अपना अस्तित्व बनाते हैं..सब के द्वारा सम्मानीय हो जाते हैं..पुण्य के योग से क्या संभव नहीं है?

इसलिए यह विषयों की आग हमेशा जलती रहती है..हमेशा धर्म ही काम आता है..इसलिए ऐसे १८ प्रकार के दोषों से रहित भगवन के द्वारा बताये हुए धर्म को ही धारण करना चाहिए.

इस प्रकार रावण के कुटुंबअदि का वर्णन पूरा हुआ....

यह लिखने का आधार श्री रविसेन आचार्य द्वारा विरचित श्री पदमपुराण है..शास्त्र में तोह बहुत ज्यादा दे रखा है..मैंने बहुत कम शब्दों में लिखा है..अगर कोई लिखने में या अन्य कोई भूल हो तोह क्षमा करें.

Friday, August 5, 2011

RAAVAN KA JANM AUR VIDHYA-SAADHANADI KA NIRDESH

रावण का जन्म और विध्यासाधन अदि का निर्देश

राजा रावण के विषय में जानने से पहले हमें थोडा राजा इन्द्र के बारे में भी जानना होगा..क्योंकि इनका रावण से बड़ा गहरा सम्बन्ध था,,वह सम्बन्ध मित्रता का नहीं,शत्रुता का था...जो की रावण की दो तीन पीढ़ियों से चला आ रहा था..

विजयार्ध पर्वत में राथुनुपुर नाम का नगर में सहस्त्रार  नाम का राजा राज्य करता था..रानी मान सुंदरी थी एक बार रानी का शरीर बहुत कमजोर हो गया..और रानी के मन में लज्जा के भाव देख सहस्त्रार ने कारण पुछा तोह रानी ने कहा की वह गर्भवती हैं..और ऐसी इच्छा हो रही है की इन्द्र जैसी सम्पदा भोगूँ.रानी के कहते ही राजा ने महाविद्या की मदद से इन्द्र जैसी संपत्ति हर जगह स्वर्ग जैसा माहोल..हाथी घोड़े की मदद से गुंजायमान..और इस तरह से पुत्र रत्न प्राप्त हुआ..उन्होंने इसलिए उसका नाम इन्द्र रखा..बचपन से ही सारे विद्याधर इन्द्र की आगया मानते थे..आगे जाकर इन्द्र ने नगरी में स्वर्ग जैसा माहोल रखा..पटरानी का नाम सची रखा..चारो दिशाओं में चार लोकपाल नियुक्त किये..चार निकाय के देव स्थापित किये...एक गोल मूंह वाला हाथी लिया..जिसका नाम ऐरावत हाथी रखा..सेनापति का नाम हिरण्यकेश रखा..यह सब इन्द्र ने किया यह सब विद्याधरों के साथ ही किया..और सारे सेना-सेनापति,हाथी,रानी,निकाय के देव अदि सब  विद्याधर ही थे..लेकिन माहोल इस तरह का बनाया जैसे स्वर्ग ही हो..असुर नगर के विद्याधरों का नाम असुरकुमार देव रखा..किन्नर नगर के विद्याधरों का नाम किनार देव...गन्धर्व नगर के विद्याधर का नाम गन्धर्व देव..इस तरह से ही चरों दिशाओं में चार लोकपाल नियुक्त किये जिनके नाम सोम,वरुण,कुबेर  और यम थे ..इस  तरह  से राजा इन्द्र खुद को स्वर्ग का इन्द्र मानकर वहां रहता था..उस समय लंका नगरी में माली नाम का राज्य करता था..जो बहुत मानी था...उसकी आज्ञा सब विद्याधर मानते थे..एक बार विद्याधरों  ने राजा इन्द्र की वजह से उसकी आज्ञा नहीं मानी.तोह माली,सुमाली,माल्यवान आदियों ने विज्यार्ध पर्वत पर हमला बोला..पूरी विद्याधरों की सेना आई और सारे राजाओं को आज्ञा पत्र भेजे..लेकिन किसी ने नहीं मानी तोह उन्होंने बाग़-वन महल अदि उजाड़े इस बात बात से सारे विद्याधर राजा सहस्त्रार की शरण में आये..तोह सहस्त्रार ने कहा की इन्द्र की शरण में गए...इन्द्र ने विद्याधर सेना के साथ आक्रमण किया..माली-सुमाली इन्द्र से बड़ी बहादुरी से लड़े..जब माली आक्रमण करने विज्यार्ध पर्वत  पर आ रहा था तबकई अवशगुन  हुए THE ..जिससे सुमाली ने मना भी किया लेकिन मान-कषय उन्हें वहां पर LE   आया..और अंत में माली हर गया..और मारा गया..और इन्द्र जीता..भाई की मृत्यु सुन  सुमाली और माल्यवान डर कर भाग आये और पाताल  लंका में आ गए..और छिपकर रहने लगे...
कौत्कुम्बल नगर की दो राज्य पुत्री थी कौशिकी और केकसी..कौशिकी का विवाह विश्रव से हुआ..जिससे उनका पुत्र हुआ जिसका नाम वैश्रवण रखा...वैश्रवण को इन्द्र ने पांचवा लोकपाल बनाया जिसे लंका नगरी में रखा..अब वह वहां आराम से रहता था..जिसके डर से अन्य विद्याधर डरे रहते थे..पाताल लंका में सुमाली का पुत्र हुआ रत्नश्रवा..रत्नश्रवा धर्म में निपुण ज्ञानी..सबका प्यारा,धार्मिक क्रियाएं..और अच्छे अच्छे कार्य..एक बार वन में एक विध्या सिद्ध करने  गया..उस समय कौत्कुम्बल नगर के राजा ने पुत्री केकसी को उसकी सेवा के लिए भेजा..जब रत्नश्रवा  को विद्या की प्राप्ति हुई...और केकसी उस पर मोहित हो गयीं..रत्नश्रवा ने वहीँ पर राज्य वसाया (नगर का नाम पुष्पान्तक था) और वहीँ पर विवाह कर रहने LAGA

वह वहीँ पर रह रहे थे..तब केकसी को तीन स्वप्न आये..१.पहला एक सिंह हाथियों के कुम्भ स्थल को विदारते हुए..रानी के मुख में जा रहा है...२.दूसरा सूर्या देखा जो अंधकार को हरते  हुए रानी के मुख में प्रवेश कर रहा है और तीसरा चन्द्रमा का प्रकाश देखा जो तिमिर को हारते हुए रानी के मुख में प्रवेश कर रहा है..इस तरह से रानी ने प्रातः पति को सपने सुनाये..राजा ने फल कहा की इस फल यह है की तीन पुत्र HONGE1.पहला पुत्र आठवा प्रतिवासुदेव होगा २.दूसरा पुत्र धर्म को धारण करने वाला होगा और तीसरा भी धर्म में निपुण,धार्मिक,सरल-सूद परिमानी होगा..उसमें से पहला कुछ क्रूर स्वाभाव का होगा..होंगे तीनो जिन धर्म को मानने वाले..लेकिन पहला पुत्र थोडा क्रूर और हठी होगा.

ऐसा ही हुआ..जब पहला पुत्र गर्भ में था तब रानी को ऐसा लगा जैसे की शत्रु के ऊपर पैर रखूं..आईने की वजाय तलवार में मुख देखती ..मानी हो गयी,हठी हो गयी..इस प्रकार पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ..जिसका नाम उन्होंने "रावण" रखा...रावण को देखते ही बाल क्रीडा से भय उत्पन्न होता था..बचपन से शक्तिशाली पुत्र था..दुसरे पुत्र कुम्भकरण हुए तीसरी पुत्री हुई चन्द्रनखा हुई और चौथे पर विभीषण  नाम के  पुत्र हुए..तीनो का जैसा स्वाभाव बताया था ..वैसे ही थे...एक बार चारणऋद्धी धारी मुनिराज ने कहा भी था की तेरे यहाँ शलाका पुरुष उत्पन्न होंगे..एक बार वहीँ पर एक बार रावण के ऊपर से वैश्रवण (जो लोकपाल था) उसका विमान निकला..तब रावण ने माँ से पुछा की माँ यह कौन था..तब माँ कहती हैं की यह तेरे दादा जी के भाई के हत्यारे राजा इन्द्र का लोकपाल है..इसने लंका को वश में कर रखा है..इसलिए हम यहाँ रहते हैं..और रानी अपने दुःख भरे विचार पुत्रों से व्यक्त करने लगीं तभी विभीषण  ने भाई रावण के गुण कहे..कहा की रावण की भुजा में अतिबल है अदि अनके व्याखाएं दी..रावण ने कहा की मैं अकेला ही सम्पूर्ण विज्यार्ध पर्वत की दोनों श्रेणी को संभाल लूँगा...और विभीषण ने भी कहा था की माँ तू क्या क्षणिक इन्द्रिय सुख के लिए दुखी हो रही हो?...इस तरह से पूरा वर्णन दिया...
भीमवन में जा विध्यासाधन अदि का करना.
जिस  प्रकार  मुनि तप साधना करते हैं उसी प्रकार विद्याधर विद्याएं सिद्ध करते हैं..इसी प्रकार रावण,कुम्भकरण और विभीषण भीम वन नाम के वन में vidhya सिद्ध करने चले गए..तीनों ने शुद्ध श्वेत वस्त्र पहनकर अति भयानक वन..जिसमें देव भी भ्रमण नहीं करते हैं...व्यन्तरों के समूह जहाँ रहते हैं..बड़े स्थिर रूप से तीनों विद्या सिद्ध करने बैठे..उसी समय जम्बू-द्वीप का अधिपति अनावृति नाम का देव..कई देवियों के साथ उनको तप करते हुए देखा..देवियाँ सुन्दर रूप से आकर्षित होकर..तरह के तरह के धर्म से डिगाने वालें उपदेश देती रही..ऐसा कहने लगी उन तीनों से "की क्या इसमें समय बर्बाद कर रहे हो,कहाँ यह जवानी,कहाँ भोग-विलास,तुम चित्र हो गए हो..अभी भी मौका है" लेकिन तीनों बिलकुल भी चलायमान नहीं हुए...अनावृति देव ने कहा की इस जम्बू-द्वीप का अनाधिपति देव तोह मैं हूँ..तोह तुम मेरे अलावा किस को पूज रहे हो"..ऐसा देखकर उसने तरह -तरह के उपसर्ग किये..किन्नर देवों की सेना बुलाई...पहाड़ों को फेकने का दृश्य बनाया..डरावना काल जैसा माहोल बनाया..भयंकर दिखने वाले अस्त्र-शस्त्र फेकें..लेकिन तीनों भाई तस से मस अपने ध्यान में डिगे रहे..फिर देव ने माया रची रत्नश्रवा का सर काट कर ले आये..व्याकुल करने की कोशिस की..माया से भीलों की सेना उत्पन्न करी..और केकसी को ले आये..केकसी को कहलवाया की पुत्र तुम तोह कहते थे की तुम राज्य दिल्वाओगे..दोनों श्रेणी के बल को अकेले जीतोगे..तुम जैसे कायर हो,बहन चन्द्रनखा को यह भील उठाकर ले जा रहे हैं...लेकिन रावण तस से मस नहीं हुए..विभीषण और कुम्भकरण थोड़े व्याकुल हुए..जिसके कारण रावण को सहस्त्र रिद्धि मंत्र-उच्चारण से पहले ही मिल गयीं..यह सब पुण्य का प्रभाव होता है (कपिल ब्रहमचारी जी ने लिखा की यह वीरंतराय कर्म के क्षयोप्सम से होता है) ...रावण को खूब सारी ऋद्धि मिली (मद नासनी,काम-दायिनी,काम गामिनी,दुर्निवार,अनिमा,लगिमा  अदि अनेक ऋद्धिया मिलीं).कुम्भकरण को पांच ऋद्धियाँ सिद्ध हुई..और विभीषण  को चार ऋद्धियाँ सिद्ध हुईं)  .रावण ने जितना उपसर्ग सहन किया अगर उतना उपसर्ग कोई महामुनि सहन करते तोह अष्टकर्म  को स्वाहा करके भव बंधन से मुक्त होते)..रावण की तपस्या को देख अनावृति देव ने रावण की स्तुति की..और प्रसन्न हुआ और कहा की"तुम बहुत महान  हो,तुम मुझे तब बुलाओगे मैं स्मरण मात्र में ही आ जाऊंगा)..यह जिन-वंदना का प्रभाव था..इस प्रकार रावण वापिस महल में आये थे तोह सब बहुत हर्षित हुए...दादा जी सुमाली अदि हर्षित हुए....पिता ने गले लगाया..माता से गल्रे  मिला..प्रणाम किया..सारे विद्याधर खुश हुए,सेवकों का सम्मान किया...वानर वंशी बधाई देने आये...सुमाली ने कहा की कैलाश पर्वत पर चारण ऋद्धि धारियों से पुछा था की हमें लंका कब होगी  तब उन्होंने यह ही कहा था की जो पुत्र से पुत्र होगा..वह तीनखंड का राजा होगा..इस तरह से बोला था) सबको एक नयी आस बांध गयी लंका को वापिस मिलने की..सब रावण से ही आस लगा रहे थे की यह ही लंका को वापिस दिलाएगा..राजा मेघवाहन के वंश के समय की लंका नगरी अब हमें हमारे पास वापिस आ जाएगी.)..
रावण को जो कुछ भी मिला पूर्व उपाजित कर्मों की वजह से था..नया कुछ भी नहीं था...सब कुछ शुब-अशुभ फल के उदय से मिला..न ही किसी देवता ने उन्हें कुछ दिया...आयु कम हो या ज्यादा यह मायने नहीं रखती ...मनुष्य योनी,सुकुल और जिनवाणी सुनने,पढने का मौका नहीं गवाना चाहिए..क्योंकि यह मौका एक बार छूट गया तोह वापुस ठीक उसी प्रकार नहीं मिलेगा जिस प्रजार समुद्र में गिरी हुई मणि वापिस  बड़ी दुर्लभता से मिलती.इस तरह से  रावण का जन्म और विद्या साधन अदि का वर्णन हुआ.

जो कुछ भी लिखा है श्री आचार्य रविसेंविरचित पदम्-पुराण ग्रन्थ के स्वाध्याय के आधार पर लिखा है..आधार शास्त्र का है..शब्द बहुत से मैंने खुद के डाले हैं..और एक आध बातें ज्यादा लिखीं हैं.

Tuesday, August 2, 2011

vaanar vansh ki utpatti

<<<<"श्री पदम् पुराण की कथाएँ">>>>>
इस पोस्ट को पढने से पहले यह ध्यान रखें की आप शारीरक और मानसिक दोनों रूप से शुद्ध हैं या नहीं (मतलब मन में किसी प्रकार को कोई गुस्सा वगरह न हो,और हाथ-मूंह-धुले हुए हों...???.....

.अविनय न हो इस बात का ध्यान रखें..

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मंगलाचरण-अरिहंतों को नमस्कार,सिद्धों को नमस्कार,आचार्यों को नमस्कार,उपाध्यायों को नमस्कार,सारे साधू को नमस्कार
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कल हमने जाना रावण के वंश से सम्बंधित...लेकिन !!!!!!!!!!!!

अब हमें यह जानना है की जो हनुमान जी थे,सुग्रीव जी अदि थे...यह सब वानर वंश के थे...नाकि कोई वानर थे..........यह बात रावण के वंश की उत्पत्ति के बाद जानना इसलिए जरूरी है..क्योंकि राक्षश वंश का वानर वंश से एक सम्बन्ध था........इसलिए हमें यहाँ यह भी जानना होगा की यह वानर वंश इसका नाम क्यों पड़ा???...और क्यों इस वंश को वानर वंश कहते हैं...इन्ही सब बातों के लिए हमें नीचे पढना होगा.


वानर वंश की उत्पत्ति

विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में मेघपुर नाम के नगर में अतीन्द्र नाम का राजा राज्य करता था..रानी का नाम श्रीमती था..और पुत्र का नाम श्रीकंठ था..और एक पुत्री थी..उसी विद्याधर प्रदेश में रत्न पुर के राजा(पुषोत्तर) ने अतीन्द्र राजा से पुत्री की याचना की..राजा ने कहा की वह तोह लंका के राजा को ही देंगे..राजा बहुत क्रोधित हुआ..एक बार श्रीकंठ सुमेरु पर्वत पर विमान से जिनालय के दर्शन करने जा रहा था..उसको मधुरमय आवाज सुनाई दी..आवाज रतनपुर के राजा की पुत्री (पदमाभा) की थी.श्रीकंठ जैसा शास्त्रकों का ज्ञाता मोहित हो गया..और वह भी मोहित हो गयी भाग गया..रत्न पुर के राजा पहले ही क्रोध में था..अब आक्रमण श्रीकंठ पर ही कर दिया..श्रीकंठ लंका के राजा कीर्तिधवल की शरण में गया...कीर्तिधवल ने रक्षा की ..और कहा आप निश्चिंत रहे ..युद्ध शुरू होता इससे पहले..भागी हुई पुत्री ने ही पिता से कहा की यह मुझे भगा के नहीं लाये ..मैं ही आईं हूँ..और बातें बताएं..जिससे लड़ाई शांत हुई....अब कीर्तिधवल ने श्रीकंठ से कहा की आपके विजयार्ध पर्वत पर कई दुश्मन है..इसलिए आप यही रहिये..श्रीकंठ राजा ने मंत्री से कोई जगह पूछी तोह उन्होंने बताया कि इस राक्षस द्वीप से २०० योजन दूर लवण समुद्र में वानर द्वीप है..वहां कि असीम सुन्दरता के बारे में बताया...जिसे सुनकर राजा श्रीकंठ को जगह भा गयी और वह रतनपुर के राजा कि पुत्री के साथ वहां आ गया..वहां हर प्रकार के फल थे..राजा ने वहां किहिकुंद नाम के पर्वत पे किहिकुंद नगर बसाया..
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राजा ने वहां बंदरों कि क्रियाओं को देखा मंत्री से बंदरों को लेकर आने को कहा..उनको केले अदि फल खिलाये..और उन बंदरों के चित्र बनवा कर राजमहल में लगवाए ..एक बार राजा ने इन्द्र को अन्य देवों के पास नन्दीश्वर दीप कि वंदना हेतु जाते देखा तोह वह भी विमान लेकर चल पड़ा..मानुषोत्तर पर्वत से आगे न जा सका क्योंकि वहां मानुषोत्तर पर्वत के उस पार मनुष्य नहीं जा सकते हैं..इससे दुखी हुआ..और उसे एह्साह हुआ कि मैं इस पर्याय पर जितना घमंड करता था..सब व्यर्थ था..ऐसी विद्या का क्या फायदा कि चैत्यालय कि वंदना भी नहीं कर सकता..अब कुछ ऐसा करूँ कि नन्दीश्वर दीप कि वंदना करने जा सकूँ..इसलिए सारा परिग्रह राज्य त्याग कर मुनि हुए..और राज्य पुत्र व्रजकंठ को दिया..व्रजकंठ ने एक वृद्ध से पिता का पूर्व भव सुना(क्योंकि उस वृद्ध ने मुनिराज से सुना था).और उन्होंने बताया कि दो भाई थे महाजन..एक श्रावक व्रत पालता था..दूसरा कुव्यसनी था..छोटा वाला लुट गया..जब बड़े बाले ने मदद करी..और श्रावक व्रत का उपदेश दिया.जिससे बड़ा वाला इन्द्र हुआ और छोटा वाला राजा श्रीकंठ..जब इन्द्र श्रीकंठ राजा के ऊपर से निकल रहा था..तब उसे जाती स्मरण हो गया था..इस कारण विरक्त हो गया..वृद्ध कि इतनी बातें सुनकर वह भी विरक्त हो गए.और पुत्र को राज्य दिया..इसी प्रकार पुत्र भी विरक्त हुआ और पुत्र अमरप्रभ को दिया..अमरप्रभ ने विवाह किया ..और राज महल में रानी को लाया..रानी बंदरों के चित्र देखकर बेहोश हो गयी..तब अमरप्रभ राजा कोर्धित हुआ..और चित्र हटाने के लिए कहा..तब मंत्री ने रोका और श्रीकंठ राजा का यहाँ आने का और वानरों से मिलने का पूरा घटना का वर्णन किया..jisse वह शांत हुआ..और कहा अगर ऐसा बात है तोह इन वन्दरों के चित्रों को मुकुट पे लगाया जाए..और इन वानरों के चित्र झंडो पर,ध्वजोंपर लगाये जाएं..ऐसा ही हुआ..राजा अमर प्रभ विजयार्ध पर्वत जीतने निकला वह सबसे जीत गया..और हर जगह वानरों के चित्र वाले झंडे लगे..और इस तरह से जो वंश हुआ वह वानर वंश hua ........
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राजा अमरप्रभ ने भी विरक्ति को धारण किया..राजा अमरप्रभ भगवन वासुपूज्य के समय में थे..उसी वानर वंश में कई राजा हुए..एक राजा महोदधि हुए..रानी विद्युतप्रकाश...उस समय लंका के राजा विद्युत केश हुए..राजा विद्युत को वैराग्य देख राजा महोदधि भी मुनि हो गए..राजा विद्युत केश को वैराग्य ऐसे हुए की उन्ही की एक रानी प्रमद नाम नाम के बाग़ में टहल रही थीं..तभी बंदरों ने उन्हें नोंच दिया..जिससे खून बहने लगा...राजा विद्युत केश ने बन्दर को मारा और वह बन्दर चारणऋद्धि धारी मुनि के चरणों में गिर गया..मुनि ने नमोकार मंत्र सुनाया जिससे वह बन्दर भवन-वासी देवों की पर्याय में उदधिकुमार प्रजाति का देव हुआ..पूर्व का ज्ञात हो-कर राजा पर बार किया (राजे के सिपाही भी अन्य बंदरों को कष्ट दे रहे थे)...खतरनाक-खतरनाक बंदरों को महा-विकराल बंदरों को दिखाया..जिससे राजा भयभीत हो गया..और देव माया को पहचाना..उसने माफ़ी मांगी और देव ने विभूति के बारे में बताया..जिससे देव सरल हुआ..और मुनि तपोधन के पास गए..मुनि ने कहा की पास में ही गुरु हैं ..उनसे उपदेश सुनिए..गुरु के मौजूद होते हुए..मैं कैसे उपदेश दे सकता हूँ.आचारंग से भंग कहलाऊंगा..वह मुनि के पास गए..मुनि ने अहिंसा धर्म का उपदेश हुआ..मिथ्या-दर्शन,मिथ्याज्ञान और मिथ्यचरित्र का उपदेश दिया..कहा की संसार में दो ही धर्म हैं एक श्रावक धर्म और एक मुनि धर्म इसके अलावा और कोई धर्म मानने वाला जीव मोह में जलता है..नरक के दुखों के उपदेश दिए..उसके बाद दोनों ने मुनि से पूर्व भव पूछे.
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.मुनि ने कहा की एक श्रावस्ती नगरी में एक मंत्री था..वह विरक्त हो कर मुनि हुआ..और काशी नगरी में एक पारधी था..एक बार मुनि-विहार करते करते काशी नगरी पहुंचे..तोह पारधी ने उनकी बड़ी अवमाना करी..मुनि तप कर रहे थे..तब भी उन्होंने सोचा की इस पापी पारधी को एक मुक्का दे दूँ..उन्होंने ऐसा कर दिया जिससे जो वह ८वे स्वर्ग में देव होने वाले थे..अगले भव में ज्योतिष देव हुए..और वहां से चयकर विद्युत केश विद्याधर हुए..और पाई पारधी प्रमाद नाम के बाग़ में बन्दर हुआ..अपने पूर्व भव सुनकर राजा विरक्त हुए ..जिनकी कथा सुनकर महोदधि राजा विरक्त हुए...महोदधि राजा को लंका का भार भी मिल चुका था(क्योंकि अब वह राज्य विद्युत केश के बाद उन्हें ही संभालना था)...पूरे महल में रोवन-धोवन मच गयी..अश्रुं बहने लगे..सब ने रोका..रानियाँ चरण पड़ गयी..युवराज ने रूका..लेकिन वह नहीं रुके..और पुत्र प्रतिचंद्र को राज्य देकर मुनि बनकर सिद्ध्पद को प्राप्त हुए..प्रतिचंद्र पुत्र भी किहिकुंद को राज्य देकर और मुनि हुए....किहिकुंद राजा ने युवराज के साथ काफी समय राज्य किया..उसी समय विज्यर्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में अश्निवेग नाम का राजा था..पुत्र का नाम विजय सिंह था...वहां अदित्यानगर के राजा ने पुत्री के विवाह के लिए स्वयंवर रचाया..बड़े बड़े विद्याधर राजाओं के पुत्र आये..राजा ने सबके बारे में पुत्री को बताया..लेकिन पुत्री ने किहिकुंद राजा के गले में माला डाली..जिसे देखकर विजय सिंह को क्रोध आया और कहा वानरवंशी विद्याधर यहाँ पर कहाँ से आये...? यह तोह विजयार्ध पर्वत के विद्याधरों के लिए था.....और उन्हें बन्दर कहकर..पेड़ पर लटकने वाले और विचित्र आकृति के कहकर क्रोध दिलाया....जिससे उनमें युद्ध शुरू हुआ...दोनों वानर-वंशी और विजय सिंह की सेना..में युद्ध हुआ...लंका के राजा सुकेश ने भी वानर वंशी की सहायता की..बहुत ज्यादा युद्ध हुआ..उनमें से अंधक के विजय सिंह को मार दिया..पुत्र के म्रत्यु की खबर सुन पिता राजा अश्निवेग मूर्छित हो गया..फिर मूर्छा से निकला तोह क्रोध में लड़ने आया..वानर द्वीप में आक्रमण किया..काफी समय युद्ध हुआ..अन्धक की हत्या हो गयी..और किहिकुंद बेहोश हो गया..जब होश आया तोह भाई की बात सुनकर शोकमग्न हो गया..और तरह-तरह की विचार धाराएं शुरू कर दिन..तब सबने समझाया..लेकिन शोक ख़त्म नहीं हुआ..तब रानी श्रीमाला को देख कर शोक रहित हुआ..
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.राजा सुकेश ने कहा की हमारा यहाँ रहना सही नहीं है पाताल लंका सुरक्षित जगह है वहां रहेंगे...तब वह वहां सुरक्षित रहने लगे.. तब उस समय राजा अशनिवेग तोह बादलों को देखकर विरक्त हो गया ..और पुत्र सहस्त्रार को राज्य दे दिया.. विरक्ति से पहले अशनिवेग ने ने लंका में निर्बाध नियुक्त कर दिया जो लंका पे नजर रखने लगा..और इस क्षण के इन्तजार में था..की कब वह पातळ लंका से लंका में आये कब्ज़ा करने और कब हमला बोला जाए..उसके दर से अन्य राक्षस अदि भी छुपे रहते the राजा किह्कुंध पाताल लंका में ही रह रहे थे एक बार राजा किहिकुंद रानी के साथ सुमेरु पर्वत के जिनालयों के दर्शन कर लौट रहे थे..तब देवकुरुभोग्भूमी के सामान एक वन देखा..वह अच्छा लगा और उन्होंने वहां किह्कंध नगर बसाया...राजा किकुंध के यहाँ दो पुत्र हुए १.सूर्यरज २.रक्ष रज और पुत्री सूर्य कमला ..मेघपुर नगर के पुत्र मृगारिदमन उस पर मोहित हो गया..राजा ने विवाह करा दिया...लौटते समय वह भी कर्ण पर्वत पर कर्णकुंडल नगर वसा के रहने लगा..उधर राजा सुकेश के यहाँ तीन पुत्र हुए.१माली २.सुमाली ३.माल्यवान तीनो की क्रियाएं देव जैसी थीं..क्रीडा करते देख..एकबार पिता ने कहा की तुम किह्कंध नगर जाकर क्रीडा करो..लेकिन दक्षिण समुद्र की तरफ मत जाना..पुत्र ने कारण पुछा..बहुत पूछने पर पुराणी युद्ध अदि की कथा सुनाई...माली-सुमाली दुखी हुए..और वचन दिया की लंका को वापिस जीत कर लायेंगे..उन्होंने निर्बाध को हरा दिया..और पिता अदि को बुलाकर उसी लंका में रहने लगे..माली का विवाह हेमपुर नगर की राज पुत्री चन्द्रावती से हुआ..सुमाली का विवाह प्रज्ञकूटनगर की राज्य पुत्री प्रज्ञसंज्ञा से हुआ..और माल्यवान का विवाह कनकपुर नगर की राज्य पुत्री कंकावली से माल्यवान का विवाह हुआ..राजा सुकेश पुत्रों को राज्य सौंप कर महा मुनि होकर सिद्ध पद को प्राप्त हुए..और संसार के झगडे-लड़ियों से मुक्त हुए..और अविनाशी,अकल रूप को प्राप्त हुए..इसलिए इस मोह नींद से जागना चाहिए..और आत्मा स्वरुप में लीं रहना चाहिए.
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बहुत बड़े टॉपिक को कम शब्दों में लिखा है..और कोई भाषा सम्बंधित गलती हो या कुछ सवाल जवाब अदि हो तोह पूछे